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ओडिशा: रिपोर्ट के मुताबिक, स्कूल बंद होने से ग्रामीण क्षेत्रों में निम्न-आय वाले परिवारों के बच्चे सबसे अधिक प्रभावित
रिपोर्ट इस तथ्य का खुलासा करती है कि जब अगस्त 2021 में सर्वेक्षण किया गया था तो ग्रामीण क्षेत्रों में केवल 28% बच्चे ही नियमित तौर पर पठन-पाठन कर रहे थे, जबकि 37% बच्चों ने अध्ययन बंद कर दिया था। सारे बच्चों में से करीब आधे बच्चे मौखिक पाठन परीक्षा में कुछ शब्दों से अधिक पढ़ पाने में असमर्थ पाए गए। 
राखी घोष
30 Oct 2021
Children playing in front of the Dhepagudi UP school in their village in Muniguda
मुनिगुडा में अपने गाँव धेपागुड़ी यूपी स्कूल के सामने खेलते हुए बच्चे 

“अमर चुआर जीबन मट्टी होई गाला, (हमारे बच्चे की जिंदगी तबाह हो गई है)।” यह प्रतिक्रिया थी 12 वर्षीय बालक अर्जुन के 36 वर्षीय पिता नरी गुडुंबका की, जो ओडिशा के रायगडा जिले के मुनिगुडा ब्लॉक के धेपागुडी गाँव से फोन पर अपनी बातचीत में कह रहे थे। लॉकडाउन से ठीक पहले अर्जुन अपने गाँव के प्राथमिक विद्यालय में कक्षा 4 में पढ़ाई कर रहा था। अगर सब कुछ सामान्य चल रहा होता, तो अर्जुन को इस समय उच्च प्राथमिक विद्यालय में कक्षा 6 का विद्यार्थी होना चाहिए था।

शोधकर्ता से बात करते हुए अर्जुन और उसके पिता नरी गुडुंबका  

नरी, जो धेपागुडी उच्चतर प्राथमिक विद्यालय के एसएमसी (स्कूल प्रबंधन समिति) के अध्यक्ष भी हैं, ने कहा “से भाल पाधुथिला, सर मने कहुथिले” (इसके शिक्षकों का कहना था कि यह पढ़ाई में होशियार था)। लेकिन अब इसका अधिकांश समय दोस्तों के साथ खेलकूद में, खेतों में बकरियां को चराने में और डोंगर (पहाड़ी की चोटी पर खेती) में मेरी मदद करने में बीत जाता है।”

इसी गाँव में 8 वर्षीया कुंती भी रहती है। उसकी माँ विधवा है, और परिवार की एकमात्र कमाऊ सदस्य होने के कारण उसे प्रतिदिन मेहनत-मजूरी करने के लिए घर से बाहर निकलना पड़ता है। घर पर रहकर कुंती को घरेलू कामकाज संभालना पड़ता है, जिसमें खाना पकाने से लेकर बर्तन धोना शामिल है।

कुंती की 38 वर्षीय माँ, मातादी डिंडुका का कहना था “यदि मैं काम के लिए बाहर नहीं निकलती हूँ, तो हम क्या खायेंगे? पहले मेरे सभी बच्चे स्कूल जाया करते थे, और सुबह से लेकर देर दोपहर तक वे स्कूल में रहते थे। स्कूल में उन्हें भोजन (मध्यान्ह भोजन) मिल जाता था, इसलिए मुझे उनके भोजन की चिंता करने की जरूरत नहीं पड़ती थी। अब वे हर समय घर पर ही रहते हैं। इसलिए मेरी बेटी को घर के कामकाज को संभालना पड़ता है।”

मातादी डिंडुका और उनके तीन स्कूल जाने लायक बच्चे, अब अपना सारा समय खेलकूद या घर पर रहने और खेतों में मदद करने में व्यतीत कर रहे हैं।

कुंती से बड़े दो भाई हैं। उनमें से एक प्रतिदिन डोंगर (पहाड़ी) जाकर खाने पकाने के लिए लकड़ी लाने जाता है। वह काम करने के लिए खेतों में भी जाता है ताकि कुछ कमाई करके परिवार की आर्थिक तौर पर मदद कर सके। यह तस्वीर ओडिशा में दूर-दराज के गाँवों में रह रहे हाशिये के समुदायों के अधिकांश बच्चों पर लागू होती है, जो अब तक के सबसे लंबे अर्से से स्कूल बंद होने का खामियाजा भुगत रहे हैं।

ओडिशा में प्राथमिक एवं उच्च प्राथमिक पाठशालाओं को बंद हुए करीब 17 महीने या लगभग 500 दिन बीत चुके हैं। बच्चे आखिरी बार मार्च 2020 में स्कूल गये थे।

‘लॉक आउट’ रिपोर्ट के निष्कर्ष 

ओडिशा सहित 15 राज्यों एवं केंद्र शासित प्रदेशों में प्राथमिक और उच्च प्राथमिक विद्यालय जाने वाले बच्चों पर आयोजित स्कूली शिक्षा पर ‘लॉक आउट’ की आपातकालीन रिपोर्ट ने ग्रामीण क्षेत्रों में रह रहे बच्चों की बेहद निराशाजनक तस्वीर को उद्घाटित करने का काम किया है।

जब इस बारे में अगस्त 2021 में सर्वेक्षण किया गया था, तो इसमें देखने को मिला कि ग्रामीण क्षेत्रों में सिर्फ 28% बच्चे ही नियमित तौर पर अध्ययन कर रहे थे। सर्वेक्षण से इस बात का भी खुलासा हुआ कि उनमें से 37% बच्चे कुछ भी अध्ययन नहीं कर रहे थे। एक सामान्य मौखिक पाठन परीक्षा के परिणाम बेहद चौंकाने वाले थे। इस नमूना सर्वेक्षण में शामिल सभी बच्चों में से तकरीबन आधे बच्चे कुछ शब्दों से अधिक पढ़ पाने में असमर्थ थे। 

अधिकांश माता-पिता को लगता है कि तालाबंदी के दौरान उनके बच्चों की पढ़ने-लिखने की क्षमता कम हो गई है। वे बेहद बेसब्री के साथ स्कूलों के एक बार फिर से खुलने का इंतजार कर रहे हैं।

एक शोधकर्ता, रमेश साहू जिन्होंने इस सर्वेक्षण के एक हिस्से के बतौर रायगडा जिले के मुनिगुडा ब्लॉक में बच्चों और उनके माता-पिताओं का साक्षात्कार किया था, का कहना है कि, “सर्वेक्षण के दौरान, हमने पाया कि बच्चे जब कोई काम नहीं कर रहे होते थे तो वे गाँव के आसपास घुमघुमकर धमाचौकड़ी मचाने और खेल-कूद में अपना सारा समय बिता रहे थे। स्कूल की तरफ से उन्हें किताबें मिल गई थीं लेकिन वे उन्हें पढ़ पाने में असमर्थ थे क्योंकि अधिकांश परिवारों में वे पहली पीढ़ी के शिक्षार्थी हैं।”

साहू ने आगे बताया “जब हमने कुछ अभिभावकों से स्कूलों को फिर से खोले जाने के बारे में पूछा तो उनका कहना था कि यिता काना पचरिबा कथा की (क्या आपको इस बात को पूछने की भी जरूरत है?)”

नरी ने कहा “शुरू-शुरू में अर्जुन ने इसमें दिलचस्पी दिखाई थी, क्योंकि उसे नई किताबें मिली थीं, लेकिन कुछ दिनों के बाद उसने किताबों को एक तरफ रख दिया। अब यदि मैं उसे किताबें खोलने के लिए कहता हूँ तो वह इससे बचने का प्रयास करता है। अगर मैं एक स्मार्टफोन खरीद पाता, तो संभव है वह अपनी पढ़ाई जारी रखता।” उन्होंने आगे कहा “यदि स्कूल फिर से खुलता है तो मुझे इस बारे में संदेह है कि वह कक्षा में उसी दिलचस्पी के साथ अध्ययन कर सकेगा।”

धेपागुडी गाँव में बच्चे आपस में घुलमिल रहे हैं, उनका अधिकांश समय खेलकूद और शारीरिक श्रम में बीतता है 

आईआईटी दिल्ली में (अर्थशास्त्र) की एसोसिएट प्रोफेसर डॉ. रीतिका खेड़ा जो लॉक आउट सर्वेक्षण के निष्कर्षों को साझा करने के लिए भुवनेश्वर में मौजूद थीं, का कहना था कि, “प्राथमिक स्तर के बच्चों को ऊँची कक्षाओं में पढने वाले बच्चों की तुलना में अपने शिक्षकों से व्यक्तिगत समर्थन की जरूरत कहीं अधिक पड़ती है। लेकिन जब सरकार द्वारा स्कूलों को खोलने की शुरुआत की जा रही है, तो वह पहले-पहल प्राथमिक स्तर की कक्षाओं को खोलने के बजाय उच्चतर कक्षाओं को खोल रही है।”

डॉ रीतिका खेड़ा भुबनेश्वर में लॉक आउट रिपोर्ट के निष्कर्षों को साझा करते हुए 

खेड़ा ने आगे कहा “इन 20 वर्षों में हमने स्कूलों में नामांकन की दर को 95% तक हासिल कर लिया है। लेकिन अब स्कूलों के लगातार बंद होने से ऐसा लगता है हाशिये के बच्चों की शिक्षा का स्तर एक बार फिर से 20 साल पीछे चला गया है। जब स्कूल दोबारा से खुलेंगे तो ऐसी आशंका है कि इन बच्चों के बीच में स्कूलों को छोड़ने की दर काफी अधिक हो सकती है, क्योंकि लॉकडाउन से पहले एक बच्चा जो कक्षा 2 में था और मुश्किल से कुछ शब्दों को पढ़ पाने में समर्थ है, स्कूल फिर से खुलने पर जल्द ही वह कक्षा 4 में होगा।”

मध्याह्न भोजन से वंचित 

स्कूलों के बंद हो जाने से सिर्फ बच्चों की पढ़ाई-लिखाई पर ही असर नहीं पड़ा है। कई गरीब और हाशिये के बच्चों को मध्यान्ह भोजन योजना के तहत पौष्टिक आहार मिला करता था, जो कोविड-19 महामारी के चलते स्कूलों के बंद होने के बाद से बंद है। भले ही ओडिशा सरकार की ओर से सरकारी स्कूलों के बच्चों को मध्यान्ह भोजन योजना का सूखा राशन उपलब्ध कराया जा रहा था, किंतु सर्वेक्षण में सूखे राशन के वितरण में पारदर्शिता के मुद्दों का पता चला है। अधिकांश अभिभावकों की शिकायत थी कि जितने राशन के वे हकदार थे, उससे कम मिला था।

खाना पकाने के मकसद से जलावन लकड़ी को इकट्ठा करने में अपने माता-पिता की मदद करने वाले स्कूल जाने योग्य बच्चों की तस्वीर  

साहू ने कहा “जैसे-जैसे आय कम होती गई, निम्न-आय वर्ग वाले परिवारों में बच्चों के भोजन के सेवन में भी गिरावट दर्ज हुई है, और प्रतिदिन के हिसाब से एक बार हो गई है। पहले वे एक दिन में दो बार खाना खा रहे थे। कुछ बच्चों ने बताया कि वे एक बार ही भोजन कर रहे हैं, या तो दोपहर के भोजन के वक्त या अपराह्न के समय। इसके अलावा बच्चों ने काफी लंबे अर्से से अंडे नहीं खाए हैं, जो कि मध्यान्ह भोजन योजना के प्रमुख आकर्षणों में से एक था।” उन्होंने कहा कि सरकार को इस बात को सुनिश्चित करना चाहिए कि बच्चों को उनका एमडीएम राशन हर हाल में हासिल हो।

दो स्कूल जाने वाले बच्चों की 34 वर्षीया माँ, नबा गुडुंबिका ने बताया, “स्कूल ने उनके हक के हिस्से के तौर पर चावल और कुछ धनराशि मुहैय्या कराई थी, लेकिन जब लॉकडाउन के दौरान हमारे पास कोई आय नहीं है तो हम बच्चों के लिए सब्जियां और अंडे भला कैसे खरीद सकते हैं? सूखे राशन और पैसे से बच्चों को नियमित रूप से भोजन करा पाना अपर्याप्त है।”

शाहू ने बताया “एमडीएम के जरिये मिलने वाले सूखे राशन को परिवार के सभी सदस्यों द्वारा ग्रहण किया जा रहा है। यदि कोई दूर-दराज के गाँवों में रहने वाले बच्चों पर नजर डाले तो उनके चेहरों को देखकर ही अंदाजा लगाया जा सकता है कि उन्हें भरपेट भोजन नहीं मिल पा रहा है।”

नबा गुडुंबिका अपनी बेटी भूमि और बेटे के साथ।

चकनाचूर होते सपने 

लंबे अर्से तक स्कूल की बंदी ने 14 से 16 आयु वर्ग की लड़कियों के जीव्वं को बुरी तरह से प्रभावित किया है और उनके सपने चकनाचूर हो चुके हैं। दूर-दराज के आदिवासी गाँवों में माता-पिता अपने बच्चों को, विशेषकर लड़कियों को कई वजहों से आवासीय छात्रावासों में दाखिला दिलवाते हैं। जब महामारी के दौरान सभी स्कूल बंद कर दिए गये थे, तो उन्हें भी अपने-अपने गांवों को वापस लौटना पड़ा था, और अपने जीवन को जबरन बाल विवाह, घरेलू हिंसा, और यौन एवं शारीरिक दुर्व्यवहार के खतरों में डालने के लिए मजबूर होना पड़ा।

सार्वजनिक शिक्षा एवं बाल अधिकार, एक्शन ऐड की राष्ट्रीय प्रमुख, सुदत्ता खुंटिया के अनुसार “हमने पाया है कि बाल विवाह के मामले अचानक से बढ़ गए हैं और आदिवासी बहुल गाँवों से कई बाल विवाह के मामले प्राप्त हुए हैं।”

खुंटिया ने आगे बताया “मैंने महामारी के कारण छात्रावासों से वापस आने वाली कुछ छात्राओं से संपर्क किया था। उन्होंने खुलासा किया था कि वे ऑनलाइन शिक्षा को जारी रख पाने में असमर्थ हैं और अपने भविष्य को लेकर अनिश्चय की स्थिति में हैं। चूँकि छात्रावास एक सीमित स्थान होता है, ऐसे में सरकार उन्हें इसके भीतर रख सकती थी और उनके लिए एक सुरक्षित स्थान को प्रदान कर सकती थी।”

उनका कहना था कि जब आवासीय स्कूलों और छात्रावासों को फिर से खोला जायेगा तब तक इन लड़कियों के स्कूल लौटने की शायद ही कोई गुंजाइश बचे।

स्कूलों को फिर से खोले जाने की मुहिम  

जैसे ही स्कूलों को फिर से खोले जाने की बहस ने जोर पकड़ना शुरू किया किया है, ओडिशा राज्य बाल अधिकार संरक्षण आयोग (ओएससीपीसीआर) ने राज्य में उच्च प्राथमिक विद्यालयों को फिर से खोले जाने की सिफारिश की है। इसने सुझाव दिया है कि स्कूलों को फिर से खोलने से पहले एसएमसी से परामर्श किया जाना चाहिए। जोखिम आकलन और प्रबंधन योजना को तैयार करने के लिए एसएमसी और शिक्षकों को कोविड में स्कूली विकास योजना पर एक बार फिर से काम करने की जरूरत है। 

शिक्षा का अधिकार (आरटीई) फोरम, ओडिशा के संयोजक अनिल प्रधान ने कहा “हमने कई बार राज्य सरकार से ग्रीन जोन क्षेत्रों में स्कूलों को खोले जाने के संबंध में संपर्क किया था, लेकिन इसका कोई फायदा नहीं हुआ। जब ग्रामीण क्षेत्रों में बच्चे खेल सकते हैं, आपस में एक-दूसरे से घुलमिल सकते हैं और अपने माता-पिता के साथ काम में हाथ बंटा सकते हैं तो फिर स्कूलों को फिर से खोलने में आखिर हर्ज ही क्या है?

प्रधान का सुझाव था “स्थानीय पंचायतों को स्कूलों को फिर से खोले जाने पर फैसला करने की शक्ति दी जानी चाहिए।”

जब स्कूल के बंद होने और उनके बच्चों के भविष्य को लेकर मुनिगुडा में स्कूल जाने योग्य बच्चों की 38 वर्षीया माँ, अधेमानी कुमरुका से प्रश्न किया गया तो उनका कहना था “हम हमेशा से चाहते थे कि हमारे बच्चे पढ़ लिख सकें और हमारी तरह गरीबी और भूख से जूझते रहने के बजाय एक बेहतर जीवन जी पाने के काबिल बन सकें। लेकिन अब, हम उससे आगे कुछ भी देख पाने में असमर्थ हैं। टंका भबिश्यत नस्ता होई गाला (उनका भविष्य नष्ट हो चुका है)।”

फोटो साभार: रमेश साहू

इस लेख को मूल अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें।

Odisha: Children From Low-Income Families in Rural Areas Most Affected by School Closures, Says Report

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