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भारत
राजनीति
बतकही: विपक्ष के पास कोई चेहरा भी तो नहीं है!
पहली बात तो यह कि ये चेहरों की पॉलिटिक्स बहुत ख़राब होती है। और दूसरा ये कि चेहरे होते नहीं, बनाए जाते हैं।
मुकुल सरल
13 Dec 2020
modi rahul yechury

हमारे पड़ोसी बहुत दुविधा में थे, बोले आप कहते हैं कि मोदी सरकार से किसान नाराज़ हैं, मज़दूर नाराज़ हैं, युवा नाराज़ हैं,फिर भी देखिए भाजपा हर चुनाव में जीत जाती है। तो बताइए कहां है नाराज़गी, कैसी नाराज़गी। फिर ख़ुद ही बोले कि विपक्ष के पास कोई चेहरा भी तो नहीं हैं। कोई किसके नाम पर वोट दे।

उनके सवाल पर मैं मुस्कुराया। ...जीत और चेहरा!

चलिए पहले बात जीत की कर लेते हैं। दिल्ली में कौन जीता है? प्रधानमंत्री और गृहमंत्री के ज़ोरदार प्रचार और ‘गोली मारो…’ अभियान के बावजूद इसी साल फरवरी में देश की राजधानी दिल्ली में हुए विधानसभा चुनाव में कौन जीता है....और यहां भाजपा केवल हारी ही नहीं बल्कि मुंह के बल गिरी है। 70 सीटों में से केवल 8 सीटें। हां आप इस बात से सब्र कर सकते हैं कि पिछली बार की अपेक्षा 5 सीटें बढ़ गईं। एक राष्ट्रीय पार्टी, अपने सबसे मजबूत प्रधानमंत्री और गृहमंत्री के नेतृत्व में दिल्ली की जनता को डबल इंजन की सरकार का भरोसा नहीं दिला पाई और सारी कोशिशों के बावजूद 3 से 8 सीट पर पहुंच पाई।

इससे पहले मध्यप्रदेश में किसकी सरकार बनी थी, जिसे उलटकर भाजपा ने जैसे-तैसे अपनी सरकार बनाई है। राजस्थान में किसकी सरकार है, जिसे आज भी तोड़ने की कोशिश की जा रही है। महाराष्ट्र, झारखंड, छत्तीसगढ़, पंजाब। ये सब बड़े राज्य हैं इनमें इन दो-तीन बरस में हुए चुनाव में किसे जीत मिली, किसकी सरकारें बनीं। हरियाणा में खट्टर साहब कैसे अपने खिलाफ लड़े दुष्यंत चौटाला को अपने साथ लाकर सरकार बचा पाए आप जानते ही होंगे।

और अभी बिहार...बिहार में कितनी मुश्किल से भाजपा अपने गठबंधन की नीतीश सरकार बचा पाई ये तो आपने देखा ही होगा। भले ही छल-छद्म और चिराग़ की बदौलत उसकी कुछ सीटें बढ़ गई हैं लेकिन अभी भी वो बिहार में दूसरे नंबर की पार्टी है। और इतना ही नहीं अभी भी 2 हज़ार वोटों तक की हार-जीत वाली सीटों पर निष्पक्ष ढंग से रि-पोल या रि-काउंटिंग करा दो तो परिणाम पलट सकते हैं।

इसी तरह आप पूर्वोत्तर और दक्षिण भारत के राज्यों के उदाहरण भी देख सकते हैं कि कहां किसकी सरकार है और बीजेपी की क्या स्थिति है। आप लोकसभा का उदाहरण देंगे लेकिन ये आप भी जानते हैं कि नोटबंदी और जीएसटी के बाद देश में कैसा जनाक्रोश था, किसान-मज़दूर और युवा भी सड़कों पर थे, अगर पुलवामा और बालाकोट न होता तो...

ख़ैर, केंद्र में राज करने वाली सबसे बड़ी पार्टी की आज ये हालत हो गई है कि एक नगर निगम की जीत (जो नहीं हुई) को उपलब्धि की तरह बताया जाता है। चुनाव में पार्टी का शीर्ष नेतृत्व उतारा जाता है। खुद गृहमंत्री प्रचार में जाते हैं। जी हां, जिस हैदराबाद नगर निगम के चुनाव की जीत का ढिंढोरा पीटा जा रहा है वहां भी भाजपा ऐड़ी-चोटी का ज़ोर लगाकर दूसरे नंबर की पार्टी है। अभी भी टीआरएस वहां पहले नंबर की पार्टी है और औवेसी का स्ट्राइक रेट भी बहुत बेहतर है।

और यही नहीं टीवी पर आपको सिर्फ़ हैदराबाद की बहस और नतीजे दिखाए गए और एमएलसी चुनाव में भाजपा की हार को छुपा लिया गया।

महाराष्ट्र में इसी महीने विधान परिषद चुनाव में शिवसेना-राकांपा-कांग्रेस गठबंधन को बड़ी सफलता हासिल हुई। गठबंधन ने स्नातक तथा शिक्षक कोटे की विधान परिषद की पांच में से चार सीटें अपनी झोली में डाल लीं।

पिछले साल तक राज्य की सरकार में काबिज़ भाजपा को अपने गढ़ नागपुर तक में तगड़ा झटका लगा, जहां उसके उम्मीदवार को हार का सामना करना पड़ा।

चुनाव नतीजों पर प्रतिक्रिया देते हुए भाजपा नेता और पूर्व मुख्यमंत्री देवेन्द्र फड़णवीस को कहना पड़ा कि उनकी पार्टी एमवीए गठबंधन की ताकत का अंदाजा लगाने में नाकाम रही।

इसी तरह अभी राजस्थान पंचायत चुनाव के नतीजों का ढिंढोरा पीटा जा रहा है। इसमें भी आधा सच आप लोगों को बताया जा रहा है। यहां गृहमंत्री और कई राज्यों के मुख्यमंत्रियों के भी चुनाव प्रचार करने पर पिछली बार की अपेक्षा भाजपा को हार ही मिली है।

राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने खुद ट्वीट कर जानकारी दी कि 222 पंचायत समितियों में बीजेपी और कांग्रेस के बराबर 98-98 और अन्य पार्टियों के 26 प्रधान चुने गये हैं। 2015 में इन पंचायत समितियों में बीजेपी के 112 और कांग्रेस के 67 प्रधान थे। कांग्रेस के प्रधानों की संख्या पहले से 31 बढ़ी है जबकि बीजेपी के प्रधानों की संख्या 14 कम हुई है।

तो ये तो बात हुई बीजेपी की जीत की। अब बात कर लेते हैं चेहरे की।

आपके हिसाब से विपक्ष के पास चारा क्या है, चेहरा कहां हैं!

अच्छा आप नड्डा जी को कबसे जानते हैं?, मैंने पूछा

मैं तो आज भी बहुत कम पहचानता हूं। बस इतना जानता हूं कि वे भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं। कौन हैं, कहां से हैं, कैसे हैं, मुझे आज भी नहीं पता। हां, अब लग रहा है कि बड़े नेता हैं, जबसे वे बंगाल दौरे पर जा रहे हैं, मीडिया बहुत ज़ोर-शोर से उन्हें दिखा रहा है। हमने देखा कि उनके ऊपर हमला हुआ है, पड़ोसी ने कहा। 

हूं, दिल्ली में मनीष सिसोदिया के घर भी हमला हुआ है, आपको पता है?

नहीं, ये तो टीवी पर दिखाया नहीं गया!

ख़ैर, कोई बात नहीं, दोनों जगह एक ही खेल चल रहा है।

मतलब? उन्होंने पूछा।

मतलब छोड़िए, ये बताइए कि नड्डा जी पर हमले को लेकर आप सोच रहे होंगे कि बंगाल में कितनी बुरी हालत है और ममता सरकार पुलिस का दुरुपयोग कर रही है, लेकिन यही बात आप दिल्ली को लेकर नहीं सोच रहे होंगे जिसकी कानून व्यवस्था केंद्रीय गृह मंत्रालय यानी केंद्र सरकार के हाथ में है।

ख़ैर, छोड़ो, आप 2012 से पहले अन्ना हज़ारे को जानते थे?

पड़ोसी मेरा मुंह देख रहे थे। नहीं! 2012 में ही पता चला कि कोई महाराष्ट्र के समाजसेवी हैं अन्ना हजारे।

फिर देखते ही देखते वो आपके सबसे प्रिय नेता बन गए और आप भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन में कूद गए।

हां।

केजरीवाल को कब से पहचानते हो- उसी आंदोलन से

और बाबा रामदेव को। ये भी बस तब की है बात है, पहले टीवी पर उनका योग कार्यक्रम आना शुरू हुआ फिर वे अलग से भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन करने लगे। बस तभी से...और फिर वो देखते ही देखते बाबा रामदेव से लाला रामदेव बन गए। मैंने हंसकर पूछा। वो भी मुस्कुराए और कहां- हां।

अच्छा इन सबको छोड़ो- आप मोदी जी को कबसे जानते हो!

मोदी जी को तो काफी पहले से जानते हैं। 2002 के गुजरात दंगों से। पर अच्छी तरह 2014 के लोकसभा चुनाव से पहले जान पाए। उससे पहले बस इतना ही पता था कि गुजरात के मुख्यमंत्री हैं।

और अमित शाह को।

उन्हें भी मोदी जी के साथ ही जान पाए।

उस समय तो हमारे लिए भाजपा के बड़े नेता अटल-आडवाणी ही थे। उनके बाद मुरली मनोहर जोशी और सुषमा स्वराज, या फिर कल्याण सिंह और राजनाथ सिंह को जानते थे। चूंकि अटल जी सक्रिय नहीं थे, इसलिए हम तो सोच रहे थे कि आडवाणी जी ही प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार होंगे, लेकिन अचानक मोदी जी ने एंट्री की और पूरे देश पर छा गए।

छा गए...!, और ऐसे छा गए कि आप उस जनलोकपाल को ही भूल गए जिसके बिना उन दिनों आपको लग रहा था कि देश का काम ही नहीं चलेगा। उसके बाद आपने एक बार भी जनलोकपाल की न बात की, न मांग की।

पड़ोसी बोले हां, उसके बाद हम सब भूल गए। बस मोदी-मोदी ही याद रहा। एक से बढ़कर एक उनके कारनामे पता चले कि वे तो बहुत ही बड़े नेता हैं।

ये सब कारनामे कहां से पता चले?

अरे टीवी से अखबार से और वाट्सऐप से।

अच्छा तो आपने देखा कि आपके देखते ही देखते कितने नेता बन गए। और सत्ता पर भी काबिज़ हो गए।

तो समझिए कि चेहरे होते नहीं बनाए जाते हैं। इतनी मेहनत अगर आपके चेहरे पर भी की जाए तो आप भी चमकने लग जाएंगे। जैसे हर शादी में दूल्हा-दुल्हन चमकते हैं। या फ़िल्मों में हीरो-हीरोइन।

हा हा..हम दोनों हंसे

मैंने आगे कहा- मोदी जी का उदाहरण आपके सामने है। और अमित शाह का भी। और हां योगी जी का भी। यूपी वाले ही चुनाव से पहले नहीं जानते थे कि योगी आदित्यनाथ जी उनके मुख्यमंत्री बन जाएंगे। और देखिए जबसे बनाए गए हैं तो अब तो यह भी कहा जाने लगा है कि मोदी जी के बाद बस वही हैं, जो उनकी जगह लेंगे। यानी जिस व्यक्ति का 2017 में विधानसभा चुनाव से पहले तो क्या, चुनाव के दौरान भी कहीं पोस्टर, बैनर पर नाम नहीं था, वो एकदम से प्रदेश का नेता बन गया और उसके बाद यकायक देश का नेता और मोदी जी का उत्तराधिकारी कहा जाने लगा है।

अरविंद केजरीवाल का नाम लेकर मैं समझाऊं तो शायद भाजपाई भी मेरी बात को बेहतर ढंग से समझ पाएंगे। अन्ना आंदोलन न होता तो केजरीवाल भी न होते। और अन्ना और उनके आंदोलन को भी किसने बनाया, ये सब भी अब किसी से छुपा नहीं है। इसी तरह अगर संघ, कॉरपोरेट और मीडिया का गठजोड़ न होता तो आप मोदी को जानते भले ही, लेकिन राष्ट्रीय नेता तो न मानते।

पड़ोसी बोले- हां, शायद।

और ये शायद अब इतना यक़ीनी बना दिया गया है कि आप मोदी के अलावा किसी और को नेता ही नहीं मानते।

इसे ही दूसरी तरह समझो। अगर मीडिया और ट्रोल आर्मी राहुल को इस तरह नादान, नासमझ या भाजपाइयों की ज़बान में पप्पू की तरह न पेश करती तो आपको वो पप्पू लगते !

अजी राहुल की छोड़िए अब तो हमें नेहरू भी पप्पू लगने लगे हैं।

लो, कर लो बात...

अच्छा। आपने कभी सोचा कि आप राहुल के तो हिंदू होने पर ही शक करते हैं लेकिन वरुण गांधी के लिए ऐसा शक नहीं करते हैं।

हां, नहीं करते...ये कहते हुए वे काफी हैरत में थे।

इस राजनीति और फेक प्रोपेगंडा के चलते आप फिरोज़ गांधी के दोनों पोतों को अलग-अलग धर्म का मानने लगे हैं और आपके भीतर कभी इसे लेकर प्रश्न भी नहीं उठता।

पड़ोसी बहुत उलझ गए थे। मैंने कहा उलझो मत, यही है Perception (धारणा) बनाने का खेल।

मैंने आगे कहा- इसी तरह कनाडा के प्रधानमंत्री का हमारे किसान आंदोलन के बारे में बोलना आपको विदेशी हस्तक्षेप लगता है और आप गुस्सा करते हुए कहते हैं कि उन्हें हमारे घर के मामले में क्यों बोलना चाहिए, और पूरे आंदोलन के पीछे ही विदेशी हाथ बताने लगते हैं लेकिन यही भाव आपको अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के लिए ‘अबकी बार ट्रंप सरकार’ का नारा देने को लेकर नहीं आता। ये आपको अपने प्रधानमंत्री की दूसरे देश के चुनाव में हस्तक्षेप की बात नहीं लगती। विदेशी हाथ नहीं लगता। अतिक्रमण नहीं लगता। नासमझी या कहें कि हद दर्जे की नादानी नहीं लगती।

इसी तरह दुनियाभर में कहीं भी भारतवंशी के किसी चुनाव में जीतने या पद या पुरस्कार हासिल करने पर आपको गौरव महसूस होता है। आप हवन करने लगते हैं, मिठाइयां बांटने लगते हैं। लेकिन सोनिया गांधी को लेकर घृणा पाले रहते हैं। अमेरिका की नई उपराष्ट्रपति कमला हैरिस आपको अपनी लगती हैं, सेशेल्स में भारतीय मूल के वावेल रामकलावन के राष्ट्रपति बनने पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी हर्ष और गौरव महसूस करते हैं, लेकिन किसी के इटली मूल के होने पर आप नाक-मुंह सिकोड़ते हैं। आप चाहते हैं कि आपकी बिटिया को तो उसके ससुराल वाले अपनी बिटिया मानें लेकिन आप अपनी बहू को अपनी बिटिया मानने को तैयार नहीं! चाहे आपके घर में उसकी उम्र गुजर जाए।

अगर सोनिया गांधी की किसी जीत या उपलब्धि पर कभी इटली से बधाई आ जाती या वहां मिठाई बंट जाती तो आप तो आसमान ही सर पर उठा लेते...क्यों!, जबकि आपको अपनी ऐसी हरकत बेहद सहज और सही लगती है।

हां...सही कह रहे हैं आप...अपना अर्नब तो पागल ही हो जाता। जब वो बिना बात ही सुबह-शाम इटली-इटली करता रहता है।

पड़ोसी ने समझादारी की बात की। मैं मुस्कुराया। मैंने कहा तो आप समझे कि असल में क्या हो रहा है। ये नाम, चेहरे होते नहीं बनाए जाते हैं।

और आपको सच बताएं तो ये चेहरों की पॉलिटिक्स बहुत ख़राब है। चेहरों पर मत जाइए, चेहरों से हमेशा धोखा हो जाता है। सूरत पर नहीं सीरत पर जाइए। यानी किसी नेता या पार्टी के नाम और चेहरों पर नहीं बल्कि उसकी पॉलिसी यानी उसकी नीतियों और नीयत को परखिए।

2014 से पहले जब भी मेरी भाजपा समर्थक पत्रकारों से बहस होती थी तो मैं उनसे एक ही बात पूछता था कि भाजपा और कांग्रेस में नीति का क्या मूल अंतर है, आप बस ये बता दीजिए।

आप मोदी नहीं तो कौन? क्या राहुल? क्या केजरीवाल? क्या येचुरी...। ये नाम लेकर बहस को मत उलझाइए। ये बताइए कि भाजपा कैसे कांग्रेस से अलग है, और हमें क्यों उसे वोट देना चाहिए। आइए हम दोनों दलों की आर्थिक नीति पर बहस करते हैं। जो किसी भी देश के लिए सबसे अहम होती है। उसकी रीढ़ है। चलिए विदेश नीति पर बात कर लीजिए या फिर रक्षा नीति पर। दोनों में क्या अलग है, बताइए!

तब मेरे पत्रकार दोस्त मुस्कुरा कर चुप हो जाते थे।

मैं उनसे कहता था हां बस एक फ़र्क़ है सॉफ्ट हिन्दुत्व बनाम हार्ड हिन्दुत्व का। यानी एक अयोध्या में ताला खुलवाता है, शिलान्यास कराता है, दूसरा मस्जिद ढहा देता है। बस इतना फ़र्क़ है।

हां, आज 2020 में भले ही कांग्रेस हमें भाजपा की अपेक्षा बेहतर नज़र आने लगी है। राहुल अपने तईं कुछ कोशिशें कर रहे हैं, लेकिन उनसे पार्टी संभल नहीं रही। चुनाव में घबराकर वे जनेऊ तक दिखाने लगते हैं। सोनिया अब सक्रिय नहीं रह पा रही हैं, प्रियंका बहुत दुविधा के बाद बहुत देर से राजनीति में आईं हैं और पार्टी के अन्य वरिष्ठ नेताओं का वही पुराना रवैया है। अड़ियल, अहंकारी, जैसे वे आज भी सरकार में हों। उनसे ज़्यादा मेहनत तो चुनावों को लेकर सरकार के मंत्री और खुद गृहमंत्री और प्रधानमंत्री करते दिखते हैं। वैसे ये लोग तो एक तरह से चुनाव मशीन में ही बदल चुके हैं।

बात वाम की करें तो और इस पूंजीवादी युग में वाम नीतियों पर कोई बात नहीं करना चाहता। क्योंकि उद्योगपति से लेकर मिडिल क्लास को लगता है कि ये तो मज़दूर-किसान, की बात करते हैं। हमसे हमारे सुख-सुविधाएं और विशेषाधिकार छिन जाएंगे।

हम व्हाइट कॉलर कर्मचारी भी जब अपने दफ़्तरों में, अपने मालिकों से अपने लिए सुविधा और अधिकार मांगते हैं तो दरअसल हम कम्युनिस्ट मेनोफेस्टो ही लागू करने की मांग करते हैं। आज भी जो हम आठ घंटे की ड्यूटी कर रहे हैं (जिसे बढ़ाकर बहुत जगह 12 घंटे करने की कोशिशें की जा रही हैं...) ये काम के आठ घंटे भी इसी धारा, इसी विचार के संघर्ष और कुर्बानी का ही नतीजा है।

इतना ही नहीं जब हमारे दफ़्तर-विभाग में हमारे यानी मिडिल क्लास के अधिकार छीने जा रहे होते हैं, हमारा दमन-शोषण हो रहा होता है तो हम चाहते हैं कि सब दल, सब यूनियन, सब संगठन आकर हमारा समर्थन करें, हमारे हक में आवाज़ उठाएं पत्रकारों तक ने अपने लिए ये चाहा, लेकिन जब यही दूसरे के लिए करने की बारी आती है तो हम पीछे हट जाते हैं और जो आगे आते हैं, उनका समर्थन करते हैं उन्हें हम बिचौलिया या राजनीतिक रोटियां सेंकने वाला कहते हैं। आप बताइए क्या किसानों की लड़ाई सिर्फ़ किसानों को लड़नी चाहिए, क्या हम सब उसका उपजाया हुआ अनाज नहीं खाते, तो हमें उनके हक में क्यों नहीं आगे आना चाहिए। क्यों नहीं उनके साथ खड़ा होना चाहिए।

ख़ैर, सौ बातों की एक बात कि टीवी के बनाए हुए चेहरों और मुद्दों के पीछे मत भागिए, नीतियों पर बात कीजिए, नीयत पर बात कीजिए, नाम पर नहीं काम पर बात कीजिए। क्योंकि आज आपने सुना ही होगी कि जब किसान मुद्दे पर मोदी सरकार फंस गई है तो कह रही है कि दरअसल कांग्रेस भी यही करना चाहती थी जो हम कर रहे हैं। वरना अब तक तो उसका यही दावा था कि हम तो 70 सालों में कांग्रेस द्वारा की गई गलतियों को सुधारने आए हैं।

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