NewsClick

NewsClick
  • English
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • हमारे लेख
  • हमारे वीडियो
search
menu

सदस्यता लें, समर्थन करें

image/svg+xml
  • सारे लेख
  • न्यूज़क्लिक लेख
  • सारे वीडियो
  • न्यूज़क्लिक वीडियो
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • अफ्रीका
  • लैटिन अमेरिका
  • फिलिस्तीन
  • नेपाल
  • पाकिस्तान
  • श्री लंका
  • अमेरिका
  • एशिया के बाकी
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें
सब्सक्राइब करें
हमारा अनुसरण करो Facebook - Newsclick Twitter - Newsclick RSS - Newsclick
close menu
भारत
राजनीति
क्या भारतीय राजनीति में व्यापक स्तर पर उन्माद को उकसा पाना संभव है?
राजनीतिक ग्राह्यता के इस दौर में जातीय दरारों के साथ-साथ सामाजिक उन्माद को लम्बे समय तक बरकरार रख पाना संभव नहीं है। इसके साथ ही मुसलमान भी इतने प्रभावशाली नहीं है कि वे ‘स्थायी’ तौर पर भय और चिंता को बढ़ाये रखने वाले साबित हो सकें।
अजय गुदावर्ती
07 Sep 2020
क्या भारतीय राजनीति में व्यापक स्तर पर उन्माद को उकसा पाना संभव है?

ऐतिहासिक तौर पर कहें तो अधिनायकवादी और फासीवादी शासन सिर्फ उसी स्थिति में अपने पूर्ण नियंत्रण को हासिल कर पाने में सफल हो सकता है, जब उसने व्यापक जनमानस में सामूहिक उन्माद की स्थिति पैदा कर ली हो। उन्माद एक मनोवैज्ञानिक स्थिति है जो किसी व्यक्ति के अतीत में कुछ घटनाओं के घटित होने के चलते उस वास्तविकता से सामना कर पाने में अक्षमता की वजह पैदा होती है। आधुनिक मनोविज्ञान के प्रणेता सिगमंड फ्रायड ने इस उन्मादी स्थिति को स्मृति पर आघात की वजह से उपजने वाले "भावनात्मक अतिरेक" की संज्ञा दी है। आघात की स्थिति वास्तव में अतीत में मिले घाव के कारण मन की गहराइयों में घर कर चुकी अक्षमता के भाव को उपजाता है। स्टडीज ऑन हिस्टीरिया नामक अपनी क्लासिकीय रचना में फ्रायड और सह-लेखक चिकित्सक जोसेफ ब्रेउर ने इन अनसुलझे आघातों की वजह से होने वाली कई प्रकार की शारीरिक अक्षमताओं की पहचान की है, जिसमें इससे पीड़ित व्यक्ति के अवचेतन मन में इन अनसुलझे लक्षणों के चलते पक्षाघात जैसी शारीरिक अक्षमताओं तक की संभावना बनी रहती है। इसके बाद के अध्ययनों ने उनके विचारों को विस्तारित करते हुए यहाँ तक पाया कि सामूहिक तौर पर भी आघात के दौर से गुजरना संभव है। जब "किसी संस्कारित समूह के लोगों में सामान्य अवक्षेप के प्रति साझा लक्षण नजर आने लगता है, तो यह सामूहिक उन्माद या महामारी उन्माद का कारण बन सकता है।

भारत में स्थित मौजूदा शासन और इसकी सफलता का दारोमदार भी सामूहिक उन्माद उत्पन्न करा पाने की इसकी क्षमता पर निर्भर करता है। लेकिन क्या वास्तव में हमारे जैसे सांस्कृतिक और सामाजिक तौर पर विविध राष्ट्रों वाले देश में सामूहिक उन्माद को पैदा कर पाना संभव है? आज के हालात में दक्षिणपंथी कार्यकर्ताओं के कोर में मौजूद लोगों में हिस्टीरिया जैसी स्थितियाँ देखने को मिल सकती हैं, खासकर दो मामलों में यह विशेष तौर पर देखने को मिल रहा है। एक तो विभाजन के दौरान भारी पैमाने पर हिंसा को देखने के कारण विभाजन का आघात बना हुआ है। इस प्रकार के आघात को और अधिक बल तब मिलता है जब इसे इस कल्पना के साथ जोड़ा जाता है कि तादाद में तो मुसलमान कम संख्या में हैं, और सामाजिक और आर्थिक तौर पर भी कमजोर स्थिति में हैं – जिसे करीब-करीब छोटे भाई या किसी गरीब पड़ोसी की तरह कह सकते हैं। हिंसा का विचार तब और प्रतिशोधात्मक हो उठता है और ये घटनाएं दर्दनाक साबित होने लगती हैं, जब किसी "कमजोर" सहोदर द्वारा इसे अंजाम दिया गया हो, जिसके बारे में मान लिया जाता है कि उसे तो वफादार रहना था।

विभाजन तब और भी पीड़ादाई साबित होने लगता है जब किसी के मन में यह बात बिठा दी जाती है कि मुसलमान तो "बाहरी" हैं, और इसलिए ऐसे लोगों की निष्ठा यहाँ के बजाय कहीं और की है। लेकिन इस सबके बावजूद जिन्होंने बहुसंख्यक हिंदुओं पर हिंसा के जरिये घाव देने का काम किया हो, और उस भूमि के टुकड़े करने में कामयाब रहे हों, जो उनसे कभी “सम्बंधित’ ही नहीं थी। ऐसी स्थिति मानसिक विक्षिप्तता के लिए आदर्श है, जोकि अनिवार्य तौर पर सामूहिक अवचेतना में दर्दनाक स्तर पर अनसुलझी रह जायें।

आघात की दूसरी वजह ऐतिहासिक जातिगत परिस्थिति बनी हुई है। रियासतों के भारत में शामिल कर लिए जाने के साथ-साथ राजनीतिक ताकत के खात्मे का अर्थ था, तबके अभिजात्य वर्ग जो जाति से उच्च हिंदू था लेकिन बिना पर्याप्त क्षतिपूर्ति के उसकी सत्ता छिन गई थी। यह बात भी भारत के सत्तारूढ़ अभिजात वर्ग की सामूहिक चेतना में गहरे से पैठी हुई है। इसके साथ ही दलितों-बहुजनों की जाति-विरोधी मुखरता ने भी आग में घी डालने का काम किया है, जिन्हें रूढ़िवादी सामाजिक अवधारणा में अभी तक हीन माना जाता रहा है। आज उन्हें राष्ट्र की "नस्लीय" श्रेष्ठता को “प्रदूषित” करने के तौर पर देखा जाता है। एक बार फिर से यह उन्माद के शक्तिशाली घटक के तौर पर काम में आता है, और यह भारत को जर्मनी के नाजी शासन के बेहद करीब ले जाता है, जहां "आर्यन" श्रेष्ठता को स्थापित करने के लिए अंततः यहूदियों को निर्मम दमन भोगना पड़ा था।

इस धार्मिक “विश्वासघात” और "अवांछित" जातियों द्वारा अपनी दावेदारी को मुखर रूप से सामने रखने वाले संयोजन ने जोकि भारतीय सामूहिक अवचेतन में अभी भी दमित है, ने व्यापक पैमाने पर उन्मादी माहौल को निर्मित करने की स्थितियों को जन्मा है। दमित अवचेतना किसी सांस्कृतिक संसाधन की तरह होती है जो विभिन्न मुद्दों पर उन्माद को भड़काने के लिए आवश्यक स्थितियाँ मुहैय्या कर सकता है, बशर्ते वे उन ऐतिहासिक जख्मों को भड़का सकें। उन्माद पैदा करने के लिए एक ज्वलनशील चिंगारी के तौर पर कार्य करने के लिए एक संगठित और उच्च-जीवाश्म दाहक स्मृति की आवश्यकता पड़ती है जो किसी ट्रिगर को प्रज्जवलित करने का काम कर सकती है।

अब अधिनायकवादी शासन को जो सवाल लगातार परेशान कर रहे हैं वे ये हैं: एक, क्या भारत जैसे अति विविध समाज में व्यापक तौर पर उन्माद को पैदा करना संभव है?  दूसरा, इसके विपरीत क्या बिना सामूहिक उन्माद को जनमानस में बिठाए भी किसी अधिनायकवादी प्रोजेक्ट के लिए वैधता प्राप्त की जा सकती है?

वास्तव में यदि देखें तो वर्तमान सत्ता के संकट की एक वजह इसके बारम्बार उन्माद पैदा करने में मिल रही नाकामी से भी जुड़ा है। पिछली असफल कोशिश दिल्ली विधानसभा के चुनाव के दौरान देखने को मिली थी। मतदान से कुछ दिन पहले तक जो कुछ किया गया था वह सब उन्माद की स्थितियाँ पैदा करने के लिए किसी पाठ्यपुस्तक के प्रयोग जैसा था। "गोली मारो" के गूंजते नारों के जरिये "मुसलमानों द्वारा अधिग्रहण" के खतरे को भड़काने की कोशिशें की गईं थीं। शाहीन बाग़ आन्दोलन के जरिये सीएए विरोधी विरोध-प्रदर्शन बेहद प्रभावी तौर पर नजर आ रहे थे और इस दौरान सक्रिय थे और शहरों-राज्यों सहित सारे देश में यह आन्दोलन फ़ैल रहा था। इस बिंदु पर भाजपा शासित राज्यों के तमाम मुख्यमंत्रियों ने दिल्ली चुनाव अभियान में अपनी शिरकत की थी और इस दौरान “मुस्लिम खतरे” के बारे में अस्पष्ट तौर पर प्रचार अभियान भी चलाया गया था, यहाँ तक कि जब चुनाव अभियान अपने चरम पर था तो प्रधानमंत्री तक इस सबमें शामिल थे। इसके बावजूद इस सबका नतीजा कुलमिलाकर शून्य निकला।

उन्माद पैदा करने के मामले में दिल्ली चुनाव अब तक के सबसे शक्तिशाली प्रयोग के तौर पर स्मृतियों में बना रहेगा, जो असफल रहा। यह चुनाव उन्माद भड़काने में पूर्ण असफलता का प्रतिनिधित्व करता है। इसने भारत में मौजूद दक्षिणपंथी ताकतों की इस समझ को चुनौती देने का काम किया है कि आम जन भावना को किसी भी समय उन्मादी तेवरों में ढाला जा सकता है। इसके बजाए हमें जो देखने को मिला, वह उन्माद के ऊपर सहज ज्ञान की विजय देखने को मिली। इस चुनाव के दौरान हमने सीखा कि “मात्र” बुनियादी कल्याण के वादों से भी उन्माद के आकर्षण को पछाड़ा जा सकता है। इस दौरान हमें यह भी सीखने को मिला कि मुसलमान न तो सामाजिक और पर और ना ही राजनीतिक तौर पर इतने सक्षम हैं कि उनसे किसी “स्थायी” भय और चिंता के हालात निर्मित होने की बात सोची जा सकती है। "एक ऐतिहासिक आघात" की यादें अभी भी किसी को मंत्रमुग्ध रख सकती हैं, लेकिन उन्हें हमेशा के लिए बरकरार नहीं रखा जा सकता है। इसके जरिये स्थानीय स्तर पर संगठित हत्याकांडों को भड़काने का काम भले ही हो जाए, और वैधता मिल जाए लेकिन लम्बे समय तक वृहत्तर आकाशीय परिकल्पना में यह काम आने वाला नहीं है।

दिल्ली ने इस तथ्य को साबित कर दिया है कि यदि अन्य सामाजिक कल्पनाएँ हावी हो जाएँ तो ऐसी स्थिति में प्रासंगिक उन्माद को परवान नहीं चढ़ाया जा सकता है। हिस्टीरिया को उन स्थितियों में काम करने के लिए जिसमें वैकल्पिक नैरेटिव मौजूद हों, में सामाजिक परिकल्पना के सम्पूर्ण खात्मे की जरूरत आन पड़ेगी, ताकि एक बेहतर जीवन के वादे, आशा और किस भी प्रकार की सामूहिक भावना को पूरी तरह से मटियामेट कर दिया जाए। लेकिन क्या ऐसे हालात को निर्मित किया जा सकता है? इस उन्माद को पैदा करने के लिए एक प्रयोग के तौर पर जो लोग दिल्ली दंगों से संबंधित पुलिसिया हिंसा के खिलाफ खड़े हुए थे, को फाँसने के लिए क़ानूनी मामलों का सहारा लेकर एक और प्रयोग चलाया जा रहा है। इन मामलों को थोपने का मकसद उन्माद के प्रति संभावित बिखराव की स्थितियों से निपटने का है। इस बीच एक और सवाल खड़ा होता है: क्या वर्तमान जारी आर्थिक संकट में जोकि यदि और अधिक गहराने लगे और गहराई से पैबस्त हो जाता है तो क्या यह हिस्टीरिया उत्पन्न करने के लिए उन सामाजिक परिस्थितियों को मुहैया करने जा रहा है?

भारत में दूसरे दमित भावनात्मक आघात के तौर पर जाति के प्रश्न पर दावेदारी के सवाल को "हिंदू समाज को विभाजित करने" के लक्षण के तौर पर फ़िल्टर करने की स्पष्ट कोशिशें चल रही हैं। अर्थात् इस दावेदारी के चलते इसे हिंदुओं को आपस में बाँटने वाली एक तथाकथित साजिश के तौर पर लगी चोट के तौर पर एक निश्चित "रूपांतरण" भी मौजूद है। दूसरे शब्दों में कहें तो आज अप्रचलित जातीय दंभ भी उन्माद के एक शक्तिशाली स्रोत के तौर पर मौजूद है। "तुच्छ" लोगों द्वारा “स्वाभाविक तौर पर” उन लोगों को चुनौती देने का काम, जो विधिवत तौर पर दैवीय रूप से बेहतर स्थिति में रहे हैं, एक असहनीय पीड़ा का कारण बना हुआ है। लेकिन यहां चुनौती चुनावी मजबूरियों के चलते है, और सारा खेल संख्या पर टिका हुआ है। क्या गैर-अभिजात्य जातियों को प्रतीकत्मक तौर पर भी समायोजित करने की वजह से उन्माद उत्पन्न करने वाली आवश्यक परिस्थितियाँ काफी हद तक खत्म होने लगती हैं? या विभिन्न सामाजिक समूहों को समायोजित करने की मजबूरी के चलते पहुँचने वाली चोट को ही उन्माद के लिए एक आवश्यक घटक के तौर पर परिवर्तित किया जा सकता है? यहीं पर आकर भारत जैसे देश में पिछड़े वर्गों/जाति के जुटान का कार्य अपरिहार्य बन जाता है। पिछड़ी जाति समुदायों में अप्रचलित मर्दाना अहंकार को हवा देने का का कार्य आवश्यक अनिवार्यता में तब्दील होने लगता है।

हालांकि इसे आंशिक तौर पर प्रमुख जातियों के भीतर चल रहे अंतर-जातीय संघर्षों द्वारा चुनौती दी जा रही है, जैसा कि हाल ही में इसे उत्तर प्रदेश में देखा गया है जहां ब्राह्मण बनाम राजपूत वाले पुराने कथानक को पुनर्जीवित करने की कोशिशें चल रही हैं। "चोट पर नमक छिड़कने” के तौर पर दलितों और प्रभुत्वशाली पिछड़ी जातियों की ओर से ब्राह्मणों के लिए ईश्वर सरीखे परशुराम की प्रतिमा स्थापित करने की पेशकश करके इस संघर्ष को उल्टा हथियाने की कोशिशें हुई हैं।

इस प्रकार की जातीय दावेदारी के प्रश्न को हिंदू एकता के बारे में बयानबाजी के जरिये कमजोर किया जा सकता है, क्योंकि इसे आरक्षण के प्रावधानों को तिरोहित करने के जरिये या आरक्षण को न लागू करके या यहाँ तक कि दलितों और ओबीसी वर्ग के घटकों को उप-विभाजित कर छोटी जातीय इकाइयों में विभाजित करने के जरिये किया जा रहा है। लेकिन क्या इस सबसे पूर्ण वर्चस्व की स्थितियों को पैदा किया जा सकता है? क्या ऐसा करना कुलीन वर्ग के लिए संभव है कि वह संदर्भ की शर्तों को निर्धारित करने के साथ-साथ अतीत में मिली चोट की एकल साझा स्मृति को व्यापक पैमाने पर उन्माद पैदा करने के लिए इस्तेमाल में ला सके? यह भी एक चमत्कार ही होगा यदि राजनीतिक समन्यव और सामाजिक उन्माद के काम को साथ-साथ जारी रखने को संभव बनाया जा सके। यदि वे ऐसा करने में सफल नहीं होते हैं तो भारत में बड़े पैमाने पर उन्माद पैदा करने और बनाए रखने का और कोई दूसरा उपाय भी मौजूद नहीं है।

लेखक सीपीएस, जेएनयू में एसोसिएट प्रोफेसर के तौर पर कार्यरत हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें-

Is it Possible to Foment Mass Hysteria in Indian Politics?

Political psychology
Uttar Pradesh Brahmins
politics
Mass hysteria

Related Stories

जम्मू-कश्मीर के भीतर आरक्षित सीटों का एक संक्षिप्त इतिहास

मानवाधिकार के असल मुद्दों से क्यों बच रहे हैं अमित शाह?

बिहार विधानसभा में महिला सदस्यों ने आरक्षण देने की मांग की

व्यंग्य हमेशा रहा है और रहेगा

चुनाव आते ही बीजेपी वालों को लोगों के खाने से क्या दिक्कत हो जाती है?

पूंजीवाद की अश्लील-अमीरी : एक आलोचना

ईश्वर और इंसान: एक नाना और नाती की बातचीत

Hate watch: बीजेपी नेता ने डॉ. उदित राज के बारे में जातिवादी, दलित विरोधी पोस्ट किए

बंगाल में प्रस्तावित वित्तीय केंद्र को राजनीति ने ख़त्म कर दिया

भारत में लोकतांत्रिक प्रक्रिया का पतन 


बाकी खबरें

  • न्यूज़क्लिक रिपोर्ट
    दिल्ली उच्च न्यायालय ने क़ुतुब मीनार परिसर के पास मस्जिद में नमाज़ रोकने के ख़िलाफ़ याचिका को तत्काल सूचीबद्ध करने से इनकार किया
    06 Jun 2022
    वक्फ की ओर से प्रस्तुत अधिवक्ता ने कोर्ट को बताया कि यह एक जीवंत मस्जिद है, जो कि एक राजपत्रित वक्फ संपत्ति भी है, जहां लोग नियमित रूप से नमाज अदा कर रहे थे। हालांकि, अचानक 15 मई को भारतीय पुरातत्व…
  • भाषा
    उत्तरकाशी हादसा: मध्य प्रदेश के 26 श्रद्धालुओं की मौत,  वायुसेना के विमान से पहुंचाए जाएंगे मृतकों के शव
    06 Jun 2022
    घटनास्थल का निरीक्षण करने के बाद शिवराज ने कहा कि मृतकों के शव जल्दी उनके घर पहुंचाने के लिए उन्होंने रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह से वायुसेना का विमान उपलब्ध कराने का अनुरोध किया था, जो स्वीकार कर लिया…
  • न्यूज़क्लिक रिपोर्ट
    आजमगढ़ उप-चुनाव: भाजपा के निरहुआ के सामने होंगे धर्मेंद्र यादव
    06 Jun 2022
    23 जून को उपचुनाव होने हैं, ऐसे में तमाम नामों की अटकलों के बाद समाजवादी पार्टी ने धर्मेंद्र यादव पर फाइनल मुहर लगा दी है। वहीं धर्मेंद्र के सामने भोजपुरी सुपरस्टार भाजपा के टिकट पर मैदान में हैं।
  • भाषा
    ब्रिटेन के प्रधानमंत्री जॉनसन ‘पार्टीगेट’ मामले को लेकर अविश्वास प्रस्ताव का करेंगे सामना
    06 Jun 2022
    समिति द्वारा प्राप्त अविश्वास संबंधी पत्रों के प्रभारी सर ग्राहम ब्रैडी ने बताया कि ‘टोरी’ संसदीय दल के 54 सांसद (15 प्रतिशत) इसकी मांग कर रहे हैं और सोमवार शाम ‘हाउस ऑफ कॉमन्स’ में इसे रखा जाएगा।
  • न्यूज़क्लिक रिपोर्ट
    कोरोना अपडेट: देश में कोरोना ने फिर पकड़ी रफ़्तार, 24 घंटों में 4,518 दर्ज़ किए गए 
    06 Jun 2022
    देश में कोरोना के मामलों में आज क़रीब 6 फ़ीसदी की बढ़ोतरी हुई है और क़रीब ढाई महीने बाद एक्टिव मामलों की संख्या बढ़कर 25 हज़ार से ज़्यादा 25,782 हो गयी है।
  • Load More
सब्सक्राइब करें
हमसे जुडे
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें

CC BY-NC-ND This work is licensed under a Creative Commons Attribution-NonCommercial-NoDerivatives 4.0 International License