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अफ़ग़ानिस्तान में 20 साल के अमेरिकी युद्ध के बाद अब आगे क्या?
अनातोल लिवेन ने अफ़ग़ानिस्तान, चेचन्या और दक्षिणी काकेशस में हुए युद्धों को कवर किया है। अफ़ग़ानिस्तान में चल रहे घटनाक्रम को लेकर अमेरिकी विरासत और तालिबान के उदय पर लिवेन के विचार यहां प्रस्तुत हैं।
जेम्स डब्ल्यू कार्डेन
10 Sep 2021
अफ़ग़ानिस्तान में 20 साल के अमेरिकी युद्ध के बाद अब आगे क्या?

सोमवार, 30 अगस्त को पूर्वी समय के हिसाब से 3:29 बजे अफ़ग़ानिस्तान के काबुल स्थित हामिद करज़ई अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे से C-17 नामक परिवहन विमान ने उड़ान भरी, जो अमेरिका के सबसे लंबे चले युद्ध के ख़ात्मे का संकेत था। यह एक ऐसा युद्ध था, जिसमें कम से कम 48,000 अफ़ग़ान नागरिक, 2,461 अमेरिकी सैन्यकर्मी, 66,000 अफ़ग़ान राष्ट्रीय सैन्य पुलिस और 1,144 नाटो से जुड़े सैन्यकर्मी की जानें गयीं।

ब्राउन यूनिवर्सिटी ने इस युद्ध परियोजना की लागत का अनुमान लगाया है और उसके मुताबिक़ संयुक्त राज्य अमेरिका की ओर से शुरू किये गये 9/11 के बाद के युद्धों के चलते तक़रीबन 10 लाख लोग मारे गये और 3 करोड़ 80 लाख से ज़्यादा लोग विस्थापित हुए, अमेरिकी सरकार इन युद्धों पर 6.4 ट्रिलियन डॉलर ख़र्च कर चुकी है और यह रक़म बढ़ती ही जा रही है।

अफ़ग़ानिस्तान में जो कुछ हो रहा है, उसे जानने के लिए मैंने डॉ. अनातोल लिवेन के साक्षात्कार का रुख़ किया। लिवेन क्विन्सी इंस्टीट्यूट फ़ॉर रिस्पॉन्सिबल स्टेटक्राफ़्ट में रूस और यूरोप के एक सीनियर रिसर्च फ़ेलो हैं। इससे पहले वह क़तर स्थित जॉर्जटाउन यूनिवर्सिटी और किंग्स कॉलेज लंदन में युद्ध अध्ययन विभाग में प्रोफ़ेसर थे। लिवेन ने 1985 से 1998 तक दक्षिण एशिया, पूर्व सोवियत संघ और पूर्वी यूरोप में बतौर ब्रिटिश पत्रकार काम किया था और अफ़ग़ानिस्तान, चेचन्या और दक्षिणी काकेशस में चल रहे युद्धों को कवर किया था।

जेम्स डब्ल्यू कार्डेन: आइये, साक्षात्कार की शुरुआत उन लोगों की बातों से करते हैं, जिन्होंने 26 अगस्त को हवाई अड्डे पर आत्मघाती हमला किया था। ख़ुरासान सूबे का इस्लामिक स्टेट या आईएसकेपी कौन हैं?

अनातोल लिवेन: वे एक समूह से आते हैं, जो मिश्रित प्रकृति का है। ग़ौर करने वाली पहली बात यह है कि वे अरब नहीं हैं। आईएसकेपी को अरबों ने स्थापित नहीं किया था और उनका नेतृत्व भी उन अरबों से नहीं बना है, जो मध्य पूर्व से अफ़ग़ानिस्तान चले आये हैं। लिहाज़ा, वे उस मायने में आईएसआईएस की शाखा नहीं हैं। इसके बजाय, वे इन स्थानीय आंदोलनों में से एक हैं, जिन्होंने महज़ आईएसआईएस का नाम उधार लिया है।

वे ख़ास तौर पर तीन तत्वों से बने हैं। पहला तत्व पाकिस्तानी हैं, ये ख़ास तौर पर पाकिस्तानी तालिबान से जुड़े पश्तून आतंकवादी हैं, जिन्हें हाल के सालों में पाकिस्तान में विद्रोह को कुचलने के लिए अपने आक्रामक अभियान शुरू करके पाकिस्तानी सेना ने सीमा पार वापस अफ़ग़ानिस्तान में खदेड़ दिया था।

दूसरा अहम तत्व अफ़ग़ानिस्तान में मौजूद वे अंतर्राष्ट्रीय लड़ाके हैं, जिनमें ज़्यादातर पूर्व सोवियत संघ के चेचेन, दागेस्तानी, उज्बेक और कुछ वे अरब लड़ाके हैं,जो इराक़ और सीरिया से भाग आये थे।

तीसरा तत्व अफ़ग़ान तालिबान के ऐसे दलबदलू हैं, जो किसी न किसी वजह से दल-बदल कर लिया था, इनमें से कई तो पश्चिम के साथ तालिबान की बातचीत या तालिबान के अंतर्राष्ट्रीय जिहाद का समर्थन नहीं करने के वादे से नाराज़ थे।

लेकिन, आईएसकेपी के बारे में आपको जो बड़ी बात जाननी चाहिए, वह यह है कि वे अंतर्राष्ट्रीय जिहाद को जारी रखने को लेकर प्रतिबद्ध हैं। उन्होंने हमेशा इस बात को पूरी तरह साफ़ किया है और वास्तव में उन्हें ऐसा करना भी है, क्योंकि उनकी सदस्यता ऐसे लोगों से बनी है, जो स्पष्ट कारणों से पूर्व सोवियत संघ और पाकिस्तान में आतंकी अभियानों को जारी रखने को लेकर प्रतिबद्ध हैं।

आईएसकेपी भी कट्टर रूप से सांप्रदायिक और शिया विरोधी है और हाल के सालों में अफ़ग़ानिस्तान और पाकिस्तान में भी शिया अस्पतालों, स्कूलों और बाज़ारों पर भयानक हमलों की एक श्रृंखला शुरू की है। वे पाकिस्तान में उन सांप्रदायिक आतंकवादी समूहों से निकटता से जुड़े हुए हैं, जिन्हें समर्थन देने को लेकर सऊदी अरब पर व्यापाक तौर पर आरोप लगता रहा है। इसलिए, अगर आप चाहें तो इन्हें आप अलग-अलग तरह के ऐसे कट्टर लोग कह सकते हैं, जो सही मायने में अफ़ग़ानिस्तान का इस्तेमाल अंतर्राष्ट्रीय जिहाद के लिए आधार के तौर पर करना चाहते हैं।

सत्ता को लेकर आईएसकेपी और अफ़ग़ान तालिबान के बीच बहुत भयंकर प्रतिद्वंद्विता रही है और उनके बीच बड़ी लड़ाइयां भी हुई हैं। और हक़ीक़त तो यह है कि जब मैं पिछली बार अफ़ग़ानिस्तान में था, तो मुझे बताया गया था कि आईएसआईएस के ख़िलाफ़ तालिबान, अफ़ग़ान सरकारी बलों और अमेरिकी वायु सेना के बीच सही मायने में सहयोग था।

इस तरह, वहीं से आईएसआईएस अफ़ग़ानिस्तान आता रहा है।

जेम्स डब्ल्यू कार्डेन: आपने 2011 में इस क्षेत्र पर ‘पाकिस्तान: ए हार्ड कंट्री’ नामक एक बेहद सराही गयी किताब लिखी थी, इसलिए, मुझे लगता है कि मैं अमेरिकी हार में पाकिस्तान की भूमिका, और आईएसकेपी के साथ उसके रिश्तों और अंतर्राष्ट्रीय आतंकवाद का समर्थन करने में इनकी निरंतर भूमिका के बारे में और ज़्यादा समझना चाहता हूं।

अनातोल लिवेन: अच्छा, तो मैं बताऊं कि इसमें पाकिस्तान की भूमिका बेहद ही जटिल रही है। लोग मुझसे पूछते रहते हैं कि पाकिस्तान ने अफ़ग़ानिस्तान को लेकर दोहरा खेल क्यों खेला? और मेरा जवाब यही है कि उन्होंने दोहरा खेल नहीं खेला। उन्होंने तो एक ही खेल खेला, जो कि एक पाकिस्तानी खेल था। उन्होंने पाकिस्तान के राष्ट्रीय हितों का ही ख़्याल रखा, जिसकी टकराहट दुर्भाग्य से हमारे अपने या जो हमने सोचा था कि अफ़ग़ानिस्तान में हमारा अपना था उसके साथ हुआ।

इन तमाम सालों में पाकिस्तान ने जो कुछ भी किया है वह अफ़ग़ान तालिबान को पनाह देने के लिए ही किया है। अफ़ग़ान तालिबान उन अफ़ग़ानों से बना है, जो ख़ास तौर पर पश्तून है, पाकिस्तान के उन पश्तूनों से इनका घनिष्ठ रिश्ता रहा है, जो कि पाकिस्तान की आबादी का तक़रीबन पांचवां हिस्सा हैं और जो सीमावर्ती इलाक़ों में रहते हैं।

पाकिस्तान की ओर से उन्हें लगातार पनाह दी जाती रही है। असल में इसकी दो वजह है। पहली वजह तो यह है कि पाकिस्तान अफ़ग़ानिस्तान में एक ऐसी हूक़ूमत चाहता है, जो पाकिस्तान के हितों और इच्छाओं के प्रति ज़िम्मेदार हो और सबसे बढ़कर वह हूक़ूमत पाकिस्तान के ख़िलाफ़ भारत का साथ देने वाली तो बिल्कुल नहीं हो जैसा कि पिछले अफ़ग़ान हुक़ूमत में था। यह बात उस विश्लेषण पर भी आधारित थी, जिसके बारे में मेरा मानना है कि सटीक निकला है और वह बात यह थी कि हम अफ़ग़ानिस्तान में नाकाम होंगे, यानी कि पश्चिम कार्यप्रणाली वहां नहीं चलेगी और हम जल्दी या बाद में अफ़ग़ानिस्तान छोड़ देंगे।

यह तो पहली वजह है। दूसरी वजह ऐसी है, जिसे ज़्यादतर पश्चिमी मीडिया ने पूरी तरह छुपाये रखा है। वहां (पाकिस्तान) के लोग मुझसे कहते रहे हैं, "देखिए, 1980 के दशक में एक बाहरी पश्चिमी साम्राज्यवादी ताक़त, यानी सोवियत संघ ने अफ़ग़ानिस्तान पर कब्ज़ा कर लिया था। और हमारी अपनी सरकार से लेकर अमेरिका, सऊदी अरब, हर जगह, सभी ने हमें यही बताया कि इस्लाम के नाम पर इसके ख़िलाफ़ अफ़ग़ान प्रतिरोध का समर्थन करना हमारा फ़र्ज़ है। इसलिए, हमने उनका समर्थन किया।

अब हमारे सामने एक और बाहरी, श्वेत साम्राज्यवादी ताक़त है, जो अफ़ग़ानिस्तान पर कब्जा किया हुआ है। और ऐसे में आप ही हमें बतायें कि अफ़ग़ान प्रतिरोध के ख़िलाफ़ लड़ना और काबुल में कठपुतली सरकार का समर्थन करना हमारा फ़र्ज़ बनता है? ख़ैर, सच कहें, तो यह सब भाड़ में जाये, हम तो वही करेंगे, जो हमने हमेशा से किया है। हम अपने अफ़ग़ान भाइयों को उनके देश पर एक विदेशी, साम्राज्यवादी कब्ज़े के ख़िलाफ़ लड़ने में समर्थन देंगे।”

इसलिए, यही समझा जाना चाहिए कि पाकिस्तान सरकार में कुछ ऐसे लोग और सेना के कुछ ऐसे हिस्से शामिल हैं, जो कम से कम उत्तरी पाकिस्तान की उस आबादी की नुमाइंदगी कर रहे हों, जो अफ़ग़ान तालिबान का ज़बरदस्त समर्थन करती रही है। और जब तत्कालीन सैन्य तानाशाह (परवेज़) मुशर्रफ़ ने 2003-2004 में अमेरिकी दबाव में अफ़ग़ान तालिबान पर नहीं, बल्कि पाकिस्तान के सीमाई इलाक़ों में तालिबान से जुड़े अरब, चेचेन और इसी तरह के दूसरे अंतर्राष्ट्रीय लड़ाकों पर नकेल कसने की एक बहुत ही सीमित कोशिश की,तो इसने एक विद्रोह को जन्म दिया, जो अगले 15 सालों तक चला।

और यह आज भी अफ़ग़ानिस्तान में आईएसआईएस के रूप में चल रहा है, और इसमें 60,000 से ज़्यादा पाकिस्तानी नागरिक मारे गये हैं, 5,000 सैन्यकर्मी मारे गये हैं, हज़ारों पुलिस, पांच जनरल, आदि मारे गये हैं। पाकिस्तान की दो बार प्रधानमंत्री रह चुकीं बेनज़ीर भुट्टो की 2007 में हत्या कर दी गयी थी। यह अफ़ग़ान तालिबान के लिए समर्थन के उस स्तर को दिखाता है, जो यहां के समाज के विभिन्न तबकों में मौजूद है। लेकिन यह और भी जटिल तब हो गया,जब आख़िरकार बहुत ही हिचकिचाहट के बाद पाकिस्तानी सेना ने उन पाकिस्तानी विद्रोहियों पर कड़ी कार्रवाई की, जो अफ़ग़ान तालिबान को पनाह देते हुए खुद को पाकिस्तान तालिबान कहते हैं।

अफ़ग़ानिस्तान में आईएसआईएस और अफ़ग़ान तालिबान के बीच अब यह कड़वा विभाजन होने की एक वजह यह भी है कि अफ़ग़ान तालिबान ने पाकिस्तानी तालिबान के ख़िलाफ़ पाकिस्तान का पक्ष लिया था। जहां उन्होंने उनसे ठीक से लड़ाई नहीं की, वहीं उन्होंने पाकिस्तान के कुछ इलाक़ों को शांत रखने और उन्हें इस्लामी विद्रोह में शामिल होने से रोकने के लिए बहुत कुछ किया।

यही वजह है कि पाकिस्तान असल में बहुत ख़ुश है कि तालिबान अफ़ग़ानिस्तान में जीत गया है, लेकिन उम्मीद है कि वे आईएसआईएस के ख़िलाफ़ कड़ी लड़ाई जारी रखेंगे, क्योंकि आईएसआईएस मौजूदा पाकिस्तानी हुक़ूमत के जानी दुश्मन हैं। और मैं तो सिर्फ़ इतना ही कह सकता हूं कि अगर यह सब जटिल लगता है, तो यह वाक़ई जटिल ही है।

मुझे लगता है कि दुनिया के उस हिस्से में अमेरिकी और ब्रिटिश नीति के साथ जो सही मायने में समस्या है,उसका एक हिस्सा तो यह है कि अगर आप इसे समझने के लिए तैयार नहीं हैं और बेहद जटिलता से निपटने और निष्ठा के लगातार बदलते रहने का सामना करने के लिए भी अगर आप तैयार नहीं हैं,तो ठीक है,फिर आपको अफ़ग़ानिस्तान में काम नहीं करना चाहिए, क्योंकि यह एक ऐसी ही जटिल जगह है।

जेम्स डब्ल्यू कार्डेन: क्या 2001 के तालिबान और 2021 के तालिबान में कोई फ़र्क़ है ?

अनातोल लिवेन: मुझे लगता है कि उनके अंतर्राष्ट्रीय बर्ताव के लिहाज़ से उनकी गारंटी को लेकर हम दो वजह से उन पर भरोसा कर सकते हैं। पहली वजह तो यह है कि वे अक़्ल के दुश्मन नहीं हैं। उन्होंने मुझसे ख़ुद कहा है,ज़ाहिर है शीर्ष नेतृत्व नहीं, बल्कि निचले स्तर के तालिबान ने मुझसे कहा है, "हम बेवकूफ़ नहीं हैं; हम जानते हैं कि 9/11 के नतीजे के तौर पर हमारे साथ क्या हुआ था। हम अफ़ग़ानिस्तान की हुक़ूमत चला रहे थे, हमने देश के ज़्यादातर हिस्सों पर फ़तह हासिल कर ली थी, हमने अपनी हुक़ूमत बना ली थी और फिर 9/11 ने हमारा सब कुछ तबाह कर दिया। हम फिर से ऐसा नहीं करने जा रहे हैं, चिंता बिल्कुल न करें।”

दूसरी,जो और भी ज़्यादा अहम बात है,वह यह है कि उन्होंने इस बात का वादा न सिर्फ़ अमेरिका और पश्चिम देशों से किया है,बल्कि इस बात को रूस, चीन, पाकिस्तान, ईरान तक भी पहुंचा दिया है। और इन सभी देशों की अंतर्राष्ट्रीय आतंकवाद का विरोध करने में गहरी हिस्सेदारी है।

अंतर्राष्ट्रीय सुन्नी इस्लामी आतंकवाद से इन सभी देशों को अलग-अलग तरीक़ों से ख़तरा है। तालिबान अपने सभी पड़ोसियों से अलग-थलग होने का जोखिम नहीं उठा सकता। अगर वे ऐसा करते हैं, तो उनकी हूक़ूमत सिर्फ़ आर्थिक रूप से ही नहीं,बल्कि पूरी तरह से अलग-थलग पड़ जायेगी और सही बात तो यह है कि ये हुक़ूमत चल ही नहीं पायेगी। लेकिन साथ ही आपकी 1990 के उस दशक में वापसी होगी, जिसमें रूस और ईरान पाकिस्तान के भीतर और अफ़ग़ानिस्तान के भीतर भी उनके ख़िलाफ़ विरोधी आंदोलनों का समर्थन करेंगे। इसलिए, मुझे लगता है कि आप उन पर भरोसा कर सकते हैं।

आप हेरोइन के कारोबार पर नकेल कसने को लेकर भी उन पर भरोसा कर सकते हैं, जिसका उन्होंने वादा भी किया है, क्योंकि उन्होंने ऐसा पहले भी किया है,उन्होंने 2000 और 2001 में अंतर्राष्ट्रीय मान्यता हासिल करने की उम्मीद में ऐसा किया था।

इसी तरह, दूसरे मामलों पर भी आप उन पर भरोसा कर सकते हैं। हालांकि, घरेलू तौर पर यह एक कहीं ज़्यादा खुला सवाल है, क्योंकि वहां आपके पास वास्तव में ऐसे कट्टरपंथी विचारक हैं, जो 11 सितंबर से पहले मौजूद इस्लामी हुक़ूमत को फिर से लाये जाने को लेकर अड़े हुए हैं।

जेम्स डब्ल्यू कार्डेन: आइये, अब इस हार में अमेरिकी सरकार की भूमिका की ओर मुड़ें। क्विंसी इंस्टीट्यूट फ़ॉर रिस्पॉन्सिबल स्टेटक्राफ़्ट के लिए हाल ही में लिखे एक लेख में आपने लिखा है कि एच.आर. मैकमास्टर जैसे अमेरिकी जनरलों, जिन्होंने राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प के पहले राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार के रूप में कार्य किया था,उन्होंने "कई प्रशासनों, कांग्रेस और अमेरिकी लोगों को अपनी तरफ़ से बनायी गयी अफ़ग़ान सेना की वास्तविक स्थिति को लेकर व्यवस्थित रूप से ग़लत जानकारी दी थी…काबुल के पतन के बाद अमेरिकियों को उस सवाल को उठाने की ज़रूरत है,जो सबसे अहम है...और यह सवाल उस अमेरिकी व्यवस्था को लेकर है, जिसने इन झूठों को बहुत कम चुनौती के साथ आगे बढ़ाने की इजाज़त दे दी थी।”

मुझे इस पर आपके अपने विचार चाहिए। आपको क्या लगता है कि वे दो दशकों तक व्यवस्थित रूप से झूठ बोलकर भी कैसे बचते रहे ?

अनातोल लिवेन: बहरहाल, ऐसा नहीं है कि यह महज़ मेरा विचार है। हक़ीक़त तो यह है कि इस बात का ज़िक़्र अफ़ग़ानिस्तान के पुनर्निर्माण को लेकर विशेष महानिरीक्षक की रिपोर्टों और वाशिंगटन पोस्ट में छपे अफ़ग़ानिस्तान पेपर्स में आयी रिपोर्टों में पूरी तरह दर्ज है। यानी कि यह सब बातें अब रिकॉर्ड का मामला है। मुझे लगता है कि यह वास्तव में दो चीज़ें हैं। सबसे पहली बात तो मुझे यह लगता है कि हमें सेना के साथ कुछ सहानुभूति हो सकती है, क्योंकि सेनाओं को हारना पसंद नहीं होता और जरूरी नहीं कि वे पहले युद्ध में ही जाना चाहें। और मुझे लगता है कि उनके प्रति उदार होते हुए कहा जा सकता है कि मुमकिन है, वे ख़ुद के साथ-साथ हम में से बाक़ी लोगों से भी झूठ बोल रहे थे।

मुझे लगता है कि सैन्य पदोन्नति के ढांचों को भी समझना अहम है। यह उन लोगों की ओर से एक गहन, तक़रीबन मुश्किल तरीक़े से चलाया गया अभियान था, जिनका पूरा का पूरा रुझान सैन्य पदोन्नति की सीढ़ी के एक और पायदान को चढ़ते हुए वाशिंगटन वापस लौट जाने का था और ऐसा करने के लिए आपको चीन या रूस को ख़्याल में रखते हुए उस विशाल हथियार कार्यक्रमों पर काम करना होगा, जो इराक़ या अफ़ग़ानिस्तान के लिए पूरी तरह अप्रासंगिक हैं, लेकिन अमेरिकी सैन्य-औद्योगिक क्षेत्र और कांग्रेस के लिए यह सही मायने में बहुत प्रासंगिक हैं।

अफ़ग़ानिस्तान के साथ अपने ही हितों और पेशेवर तौर-तरीक़े की भारी कमी वाला बर्ताव किया गया।

अमेरिकी और ब्रिटिश जनता, मीडिया और कांग्रेस को किसी भी तरह से माफ़ नहीं किया जाना चाहिए, क्योंकि जैसा कि मेरे एक सहयोगी ने बताया था कि अगर आप अहम अमेरिकी न्यूज़ चैनलों को देखें, तो पूरे 2020 में उन चैनलों पर उन्होंने अफ़ग़ानिस्तान का ही ज़िक़्र किया। उस साल उनके प्रमुख न्यूज़ प्रोग्रामों पर औसतन पांच गुना ज़्यादा समय दिया गया। इसलिए, जो कुछ हो रहा है अगर जनता और मीडिया और कांग्रेस उसे गंभीरता से नहीं लेने जा रहे हैं, तो जनरल जो कुछ सोचते हैं उन बातों को लोगों को बताने से बच निकलेंगे, जिनसे कि उनकी आलोचना होनी है।

जेम्स डब्ल्यू कार्डेन ग्लोबट्रॉटर में राइटिंग फ़ेलो और यू.एस. स्टेट डिपार्टमेंट के पूर्व सलाहकार हैं। इससे पहले वह नेशन में विदेशी मामलों पर लिखते थे और उनके लेखन क्विंसी इंस्टीट्यूट के रिस्पॉन्सिबल स्टेटक्राफ़्ट, अमेरिकन कंजर्वेटिव, एशिया टाइम्, और भी बहुत सारे प्रकाशन में भी छपते रहे हैं।

यह लेख ग्लोबट्रॉटर की ओर से यू.एस.-रूस समझौते को लेकर अमेरिकी समिति के साथ साझेदारी में तैयार किया गया था। इस साक्षात्कार को स्पष्टता और लंबाई के लिहाज़ से संपादित किया गया है।

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

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