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नए कृषि कानूनों के ख़िलाफ़ पंजाब में किसान संघर्ष जन आंदोलन में तब्दील हुआ
किसानों के आंदोलन को खेत मज़दूरों, कर्मचारियों, आढ़तियों, डेयरी फार्मर्स, सांस्कृतिक कर्मियों आदि तमाम वर्गों का समर्थन हासिल होने के कारण इस आंदोलन ने एक जन आंदोलन की शक्ल अख्तियार कर ली है।
शिव इंदर सिंह
24 Oct 2020
पंजाब में किसान संघर्ष जन आंदोलन में तब्दील हुआ

संसद में 20 और 22 सितंबर को पारित तीन कृषि विधेयकों: कृषक उपज व्यापार और वाणिज्य (संवर्धन और सरलीकरण) विधेयक 2020, कृषक (सशक्तिकरण व संरक्षण) कीमत आश्वासन और कृषि सेवा पर करार विधेयक 2020 और आवश्यक वस्तु (संशोधन) विधेयक 2020 (जो अब कानून बन चुके हैं) के खिलाफ पिछले चार महीने से चल रहा किसान आंदोलन चरम पर है। जून में केंद्र सरकार इन्हें अध्यादेश के रूप में लाई थी। पंजाब के किसान जून से ही इनका विरोध कर रहे हैं।

किसानों के दवाब के कारण भाजपा की पुरानी सहयोगी पार्टी अकाली दल ने भाजपा से अपना रिश्ता तोड़ लिया है। तमाम पार्टियों के इन बिलों के विरोध में आने से बीजेपी पंजाब में अकेली रह गई है। किसानों के आंदोलन को खेत मजदूरों, कर्मचारियों, आढ़तियों, डेयरी फार्मर्स, सांस्कृतिक कर्मियों आदि तमाम वर्गों का समर्थन हासिल होने के कारण इस आंदोलन ने एक जन आंदोलन की शक्ल अख्तियार कर ली है।

अब तक पंजाब के 31 किसान संगठनों ने 25 सितम्बर को पंजाब पूरी तरह से बंद किया, ट्रेनें रोकी हुई हैं, टोल प्लाज़े घेरे हुए हैं , रिलायंस के मॉल व पेट्रोल पंप बंद कर दिए हैं व जिओ की सिम का बहिष्कार हो रहा है।  भाजपा के नेताओं के रास्ते रोके जा रहे हैं और उनके घरों के आगे प्रदर्शन जारी हैं। पंजाब सरकार ने 20 अक्टूबर को पंजाब विधानसभा में केंद्र के कानूनों के विरोध में तीन बिल सर्वसम्मति से (भाजपा के दोनों विधायक गैर-हाज़िर रहे) पास किए हैं।

किसानों के आंदोलन से घबराई केंद्र सरकार किसानों को लगातार भरोसा दिलाने में लगी है कि ये कानून किसानों के हित में हैं और किसान अपनी मर्जी से कहीं भी अपनी फसल को बेच सकते हैं एवं न्यूनतम समर्थन मूल्य के साथ कोई छेड़खानी नहीं होगी। मोदी सरकार का कहना है कि कांग्रेस व अन्य विपक्षी दल किसानों को गुमराह कर रहे हैं। दूसरी तरफ किसान व कृषि विशेषज्ञ इन कानूनों को खेती पर निजी कंपनियों के कब्जे व संघीय ढांचे पर हमले के रूप में देख रहे हैं।

संघर्ष कर रहे किसान संगठनों में भारतीय किसान यूनियन (एकता-उगराहां), भारतीय किसान यूनियन एकता (डकौंदा), क्रांतिकारी किसान यूनियन, किसान मजदूर संघर्ष कमेटी, जमहूरी किसान सभा, पंजाब किसान यूनियन, आजाद किसान संघर्ष कमेटी, कुल हिंद किसान सभा, कुल हिंद किसान सभा पंजाब, जय किसान आंदोलन मुख्य तौर पर शामिल हैं।

पंजाब के 31 किसान संगठनों के संयोजक डॉ दर्शन पाल ने बताया, “अभी तक हजारों गांवों में लोग नरेन्द्र मोदी व केंद्र सरकार के पुतले फूंक चुके हैं। इन किसान संगठनों में किसी राजनीतिक पार्टी की किसान शाखा शामिल नहीं हैं। राजनीतिक पार्टियां तो 15 दिन पहले अपनी राजनीति चमकाने के लिए तेज हुई हैं जबकि हमारा आंदोलन तीन महीने से भी ज्यादा समय से चल रहा है।”

किसान संगठनों ने सीधे तौर पर केंद्र सरकार के विरुद्ध जंग का बिगुल बजा दिया है। पंजाब की 13000 ग्राम पंचायतों ने किसानों के संघर्ष की हिमायत करते हुए इन केन्द्रीय कृषि कानूनों के खिलाफ प्रस्ताव पारित किये हैं। लोग स्वयं अपने ट्रैक्टर-ट्रालियां लेकर जलसों में शामिल हो रहे हैं, लोगों में यह भावना काम कर रही है कि यदि हमने अब कुछ नहीं किया तो बहुत देर हो जाएगी। सितम्बर महीने में प्रकाश सिंह बादल के पैतृक गांव बादल और कैप्टेन अमरिंदर सिंह के शहर पटियाला में लगातार 8 दिन किसान मोर्चा लगा जिसमें नौजवानों और महिलाओं ने बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया।

मानसा के किसान नेता राम सिंह बताते हैं कि नजदीकी गांवों के कई लोग राजनीतिक पार्टियों से टूटकर किसान संगठनों के सदस्य बन गए हैं। बठिंडा के मौड़ हलके का गांव चैके से पहले किसान आंदोलन में बहुत कम लोग शामिल होते थे इस बार वहां बादल के खिलाफ निकले मोर्चे में शामिल होने के लिए छह बसों में भरकर लोग गए। मुक्तसर जिले में प्रकाश सिंह बादल के विधानसभा क्षेत्र लंबी के करीब दो दर्जन गांवों ने स्वयं मोर्चों में शामिल होने की पेशकश कीं। आंदोलन में भाग लेने के लिए गांवों से महिलाएं केसरी दुपट्टे लेकर पहुंच रही हैं। गांव-गांव में लंगर चल रहे हैं। जिला पटियाला के गांव गज्जू माजरा के बुजुर्ग गुरदेव सिंह का कहना है, “हम केंद्र सरकार की हठ तोड़ कर हटेंगे।” मुक्तसर के गांव दोदा के एक नौजवान किसान जगमीत सिंह बताते हैं, “खेती कानूनों ने सोए किसानों को जगा दिया है और अब तो आढ़ती भी कहने लगे हैं कि किसानों के बिना गुजारा नहीं है।”

गांव बादल के किसान भी संघर्ष में कूदे हैं। बुजुर्ग अपनी बुढ़ापा पेंशन के जमा किए गए पैसे किसान संगठनों को चंदे के रूप में देते हुए दिखे हैं। रिक्शा वाले व गरीब मजदूर अपनी मेहनत की कमाई से 10-10 रुपये चंदा देते हुए कहते हैं कि अगर देश का किसान खतरे में है तो हम भी सुरक्षित नहीं हैं। मालवा की प्रसिद्ध महिला किसान नेता हरिंदर कौर बिंदु का कहना है, “केंद्र ने खेती विरोधी कानून पास तो करवा लिए हैं पर हम लागू नहीं होने देंगे। पंजाब के किसानों ने पहले भी सरकारों द्वारा पास किए गए जनविरोधी कानून रद्द करवाए हैं।”

पंजाब के लेखक, बुद्धिजीवी व कलाकार किसान आंदोलनके खुलकर समर्थन में आ रहे हैं। पंजाबी के कई प्रसिद्ध गायकों ने इन दिनों में किसान आंदोलन के हक में गीत गाए हैं। गांवों की महफिलों में लोक मुद्दों पर गीत गाने वाले कलाकार किसानों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर आंदोलनों में शामिल हो रहे हैं। वे इन आंदोलनों में जोशीले गीतों के माध्यम से लोगों को संघर्ष में कूदने के लिए प्रेरित कर रहे हैं। किसान जलसों में जहां एक तरफ जोशीले नारे हैं तो दूसरी तरफ तुंबी और ढोलक भी बजता सुनाई दे रहा है। जिला संगरूर के गांव उगराहां की महिलाएं केंद्र सरकार का सियापा पा रही हैं। जिला लुधियाना के रंगकर्मी सुरेंद्र शर्मा नाटकों के माध्यम से लोगों में जोश भर रहे हैं। मालवा क्षेत्र के गांवों में लोगों को किसानों पर बनी दस्तावेजी फिल्में दिखलाई जा रही हैं। लोकगायक जगसीर जीदा किसान आंदोलनों को लगातार समर्थन देते रहे हैं। पंजाब लोक सभ्याचारिक मंच के प्रधान अमोलक सिंह का कहना है कि किसान आंदोलन दौरान ही गांवों के साधारण किसान घरों के नौजवानों ने नाटक लिखने व खेलने शुरु कर दिए हैं।

मानसा जिला में रिलायंस का पेट्रोल पंप घेरे बैठे किसान नेता हमें बताता है, “मोदी सरकार अम्बानी-अडानी की कठपुतली है, सरकार ने मौजूदा कानून भी इन पूंजीपतियों को खुश करने के लिए बनाये हैं। इसलिए हमने रिलायंस के पेट्रोल पंप और मॉल घेरे हुए हैं, जिओ की सिमें जलाई जा रही हैं। हमें पंजाब के तमाम तबके के लोगों से समर्थन मिल रहा है।” पिछले दिनों संगरूर व लुधियाना जिलों में बड़े स्तर पर रिलायंस के मॉल व पम्प घेरे गए व जिओ की सिमों को जलाया गया।

किसान आंदोलन को तीखा होते देख अब राजनीतिक पार्टियां भी अपनी सियासत चमकाने के लिए आगे आने लगी हैं। जो अकाली दल पहले इन कानूनों के हक में दलीलें देता था अब किसान आंदोलन के सामने झुककर सबसे पहले केंद्र सरकार से बाहर निकला है और इन कानूनों के खिलाफ रैलियां निकालने लगा है। कांग्रेस लगातार इन कानूनों के खिलाफ रैलियां निकाल रही है, राहुल गाँधी भी इन रैलियों में पहुंच चुके हैं। 20 अक्टूबर को पंजाब सरकार द्वारा विधानसभा में केन्द्रीय कानूनों के खिलाफ सर्वसम्मति से बिल पास किये गए। भाजपा इस मौके पर सदन से गैर-हाज़िर रही। ये बिल सीधे तौर पर केन्द्रीय कानूनों को टक्कर देने वाले हैं। इन बिलों में राज्य सरकार ने एमएसपी को शामिल किया है और उससे कम कीमत पर फसल की कीमत अदा करने पर तीन साल की सजा का प्रावधान किया गया है। इन बिलों में ही फसल की जमाखोरी व कालाबाजारी पर रोक लगाई गई है। बिल पास होने के बाद कैप्टेन अमरिंदर सिंह की अगुवाई में (भाजपा को छोड़कर) सभी पार्टियों के विधायकों ने राज्यपाल से मुलाकात की। कैप्टेन अमरिंदर सिंह ने मीडिया को बताया कि उन्होंने राज्यपाल से विधानसभा में पास बिलों पर हस्ताक्षर करने की अपील की है।

आम आदमी पार्टी के भगवंत मान का कहना है कि मोदी सरकार ने इन कानूनों को गैर-लोकतांत्रिक तरीके से पास किया है. इसी तरह लोक इंसाफ पार्टी समेत पंजाब की अन्य पार्टियां भी किसानों के हक में आवाज उठा रही हैं। इस हालात में बीजेपी अलग-थलग पड़ गई है। केंद्र सरकार ने 14 अक्टूबर को पंजाब के किसान संगठनों के साथ दिल्ली में मीटिंग की जो सफल नहीं हो सकी। किसान नेता दर्शन पाल और जगमोहन सिंह ने हमें बताया कि मीटिंग में सरकार की मंशा सही नहीं थी, हमारे साथ बात करने के लिए सरकार का कोई मंत्री नहीं पहुंचा बल्कि सरकारी अधिकारी को भेज दिया गया जो हमें नादान बच्चे समझकर कानूनों के फायदे समझाने लगा जबकि दूसरी तरफ सरकार ने आठ मंत्रियों की ड्यूटी इन कानूनों को लेकर वर्चुअल मीटिंग्स करने पर लगाई हुई थी।

किसानों द्वारा लगातार भाजपा के राज्यस्तरीय नेताओं का घेराव जारी है, पिछले दिनों में भाजपा नेता अश्वनी शर्मा, मदन मोहन मित्तल व विजय सांपला विरुद्ध जबर्दस्त प्रदर्शन हुए। भाजपा नेता इसे कांग्रेस की साजिश बता रहे है। पंजाब की आढती एसोसिएशन भी किसानों के हक में खड़ी हो गई है।

पंजाब के अर्थशास्त्री भी केंद्र सरकार के तीनों कानूनों के विरोध में दलीलें दे रहे हैं। प्रसिद्ध अर्थशास्त्री रणजीत सिंह घुम्मन का कहना है, “इन कानूनों से जहां फसलों की खरीद के लिए प्राईवेट कम्पनियों के लिए राह खुलेगा वहीं राज्यों के अधिकारों पर भी चोट पहुंचेगी।” पंजाब के नामवर अर्थशास्त्री डॉ. ज्ञान सिंह इन कानूनों के बारे में बताते हैं, “असल में 90 के दशक की शुरुआत में जो नीतियां अपनाई गईं थीं हम उसी का फल भुगत रहे हैं। तीनों कानून फसलों की खरीद-बेच के लिए खुली मंडी, खेती-बाड़ी की कीमतों की गारंटी और 1955 के जरूरी वस्तुओं के कानून को बहुत अधिक कमजोर करने की राह खोलते हैं।'' उन्होंने कहा, ''1965 से लेकर अब तक राज्यों में किसानों की गेहूं व चावल की फसलों को केंद्र सरकार द्वारा तय न्यूनतम समर्थन मूल्य पर सरकारी एजेंसियां खरीदती रही हैं।

केंद्र सरकार द्वारा बेशक खेती जिंसों का न्यूनतम समर्थन मूल्य तय करने की कुछ राजनीतिक पार्टियों, किसान संगठनों और विद्वानों द्वारा आलोचना होती रही है इसके बावजूद इन कीमतों के कारण किसान खुली मंडी की लूट से कुछ राहत महसूस करते हैं। अब खुली मंडी को मंजूरी मिलने से राज्य खेती-बाड़ी मंडीकरण बोर्डों वाली मंडियों को बड़ा नुकसान होगा। इससे इन बोर्डों द्वारा किए जाने वाले ग्रामीण विकास को धक्का पहुंचेगा। इस कार्यवाही से सिर्फ किसानों का ही नहीं बल्कि मंडियों में रोजगार प्राप्त करने वाले कर्मचारियों, पल्लेदारों और आढ़तियों को भी नुकसान होगा। खुली मंडी द्वारा किसानों की आमदन बढ़ाने के बारे जो चर्चा हो रही है इस तथ्य के बारे यह समझना जरूरी है कि खुली मंडी का उद्देश्य पूंजीपति जगत का मुनाफा बढ़ाना होता है।”

पंजाब के ही अर्थशास्त्री डॉ सुखपाल सिंह का कहना है, “इन कानूनों से राज्यों को बड़ा नुकसान होगा. राज्य मंडी बोर्डों को होने वाली आमदनी घटने से लिंक सड़कें, कृषि शोध और समूचे ग्रामीण विकास पर गहरी चोट पहुंचेगी।”

किसानी मसलों के जानकार प्रोफेसर बावा सिंह का कहना है कि न्यूनतम समर्थन मूल्य के बीजेपी के बहकावे में किसान आने वाले नहीं हैं। न्यूनतम समर्थन मूल्य का ऐलान करना अलग बात है और उस पर खरीद करना बिल्कुल अलग विषय है। उदाहरण के लिए केंद्र सरकार ने मक्के का न्यूनतम समर्थन मूल्य 1850 रुपये प्रति क्विंटल घोषित किया हुआ है जबकि इस वक्त यह फसल पंजाब में 650 रुपये से 915 रुपये प्रति क्विंटल तक बिक रही है। केंद्र सरकार 23 फसलों पर न्यूनतम समर्थन मूल्य का ऐलान करती है लेकिन पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में गेहूं व चावल को छोड़कर कहीं पर भी किसानों की फसलें उचित भाव पर नहीं बिकती। इस तरह केंद्र सरकार का दावा बिल्कुल झूठा है कि खेती मंडियों में कारपोरेट व निजी व्यापारियों के आने से फसलों के भाव बढ़ेगें और किसानों को फायदा होगा।

पंजाब में नरमे की फसल (अमेरिकी कपास) भी न्यूनतम समर्थन मूल्य पर नहीं बिकी। खेती विशेषज्ञों का कहना है कि नए कृषि कानून पंजाब के 11.25 लाख किसानों के गले की हड्डी बनेंगे। अगर कृषि कानून फसलों के सरकारी भाव में रोड़ा बनते हैं तो देश के सवा करोड़ किसानों के लिए नया संकट खड़ा हो जाएगा। देश में पंजाब मध्य प्रदेश के बाद दूसरा राज्य है जहां सबसे अधिक 10.49 लाख किसान सरकारी भाव पर गेहूं बेचते हैं। पंजाब में खेती के और भी अनेक संकट हैं जैसे कि खेती करने वाली जमीन के सिर्फ 27 फीसदी हिस्से की सिंचाई नहर के पानी से होती है जबकि बाकी हिस्सा जमीन से लिए जाने वाले पानी पर निर्भर है। पंजाब के 138 ब्लाक में से 109 ब्लॉक में भूजल का स्तर बहुत नीचे चला गया है। कृषि विशेषज्ञ पंजाब की धरती के बंजर होने की भविष्यवाणियां कर रहे हैं। पंजाब में किसानों और मज़दूरों की आत्महत्या का मुद्दा भी अहम है। राज्य में साल 2000 से 2015 तक पंजाब की तीन यूनिवर्सिटियों के साझे सर्वेक्षण से पता चलता है कि इन सालों में 16606 आत्महत्याएं हुई हैं यानी पंजाब में प्रतिदिन 2 से 3 किसान व मजदूर खुदकुशी करते हैं।

किसानों के कर्जे का मुद्दा भी काफी अहम है। कांग्रेस ने किसानों के लिए कर्ज माफी का वादा किया था। पंजाब के किसानों के सिर पर मार्च 2017 तक बैकों का 73771 करोड़ रुपये का कर्जा था जिसमें से लगभग 4700 करोड़ रुपये का कर्जा माफ किया जा चुका है। इस संबंध मजदूरों व गरीब किसानों की हालत और भी खराब है क्योंकि वे कर्जा बैकों से नहीं बल्कि साहूकारों और आढ़तियों से लेते हैं जिनकी माफी सरकारी नीतियों के अनुसार नहीं की जा सकती। इन तमाम मुसीबतों को झेल रहा पंजाब का किसान नए कृषि कानूनों को अपने ऊपर आई आफत के रूप में देख रहा है।

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

इसे भी पढ़ें : क्या कृषि कानूनों को लेकर हो रहे विरोध को सरकार नज़रअंदाज़ कर पाएगी?

इसे भी पढ़ें :यूपी: सरकार एमएसपी पर नहीं खरीद रही धान, किसान औने-पौने दाम पर बेचने को मजबूर

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