नोएडा स्थित 26-वर्षीय शिवांश को अपने पिता के लिए ऑक्सीजन सिलेंडर की आवश्यकता थी। वह ट्विटर खोलता है और खोजना शुरू करता है। कुछ लोगों को टैग करता है, लोग उसकी आवश्यकता को आगे बढ़ाते हैं। कुछ समय बाद उसे ऑक्सीजन सिलेंडर की एक लीड ग़ाज़ियाबाद के इंदिरापुरम गुरुद्वारे के पास मिलती है। इसके बाद वह ऐप-बेस्ड टैक्सी उबर बुक करता है, जिसमें इंदिरापुरम गुरुद्वारे की लोकेशन डालता है। लोकेशन पर पहुँचने से पहले वह उस व्यक्ति से उसकी सटीक लोकेशन मांगता है, जो उसे ऑक्सीजन सिलेंडर उपलब्ध करा सकता है। उबर उसे गुरुद्वारे पर छोड़ती है और वह गूगल मैप्स के ज़रिए अपने लीड से मिलता है। उसे अपने पिता के लिए ऑक्सीजन मिल जाती है और वह वापस उबर बुक कर के उसे अपने घर ले आता है।
अगर इस पूरे वाक़िए से इंटरनेट और शिवांश की डिजिटल साक्षरता हटा दें, तो क्या शिवांश के पिता को समय पर ऑक्सीजन मिलने की इतनी ही संभावना थी?
महामारी में संसाधनों की उपलब्धता को प्रभावित करता है डिजिटल डिवाइड –
डिजिटल साक्षरता की कमी, जिसका मुख्य कारण डिजिटल डिवाइड है, कोविड से जुड़े संसाधनों को जुटाने में एक बड़ी बाधा है। इस महामारी की तत्काल आवश्यकताओं को पूरा करने में इस देश की निर्वाचित सरकारें लगभग असफल रही हैं। महामारी की दूसरी लहर में सही और सटीक सूचनाओं के प्रवाह को बढ़ाने में सोशल मीडिया ने प्रमुख भूमिका निभाई है। भारत की सचेत जनता ने लोगों की मदद के लिए एक पैरलेल तंत्र तैयार किया। ज़रूरतमंद लोगों के लिए अलग-अलग शहरों में कोरोना सहायता ग्रुप बनाए गए, जिसमें लोगों की गुहार को आगे बढ़ाया जाता और यथासंभव प्रयास भी किए जाते थे। इन कोरोना सहायता ग्रुपों ने अपने स्तर पर बहुत लोगों को ऑक्सीजन सिलेंडर, दवाइयाँ, खाद्य सामग्री मुहैया कराने में एक बड़ी भूमिका निभाई है। जब शासन-प्रशासन और सेलिब्रिटी, लोगों की ज़रूरतें नहीं सुन रहे थे तब आम लोगों ने अनजान लोगों के लिए गुहार लगाई। ऐसे कई ग्रुप आज भी सक्रिय हैं लेकिन इस मदद की भी अपनी सीमाएँ हैं, जिसका सीधा कारण है देश का डिजिटल डिवाइड।
भारत में ट्विटर उपभोक्ताओं की संख्या लगभग 2 करोड़ है; मतलब भारत की कुल आबादी का 1.43%। भारत में फ़ेसबुक उपभोक्ताओं की संख्या लगभग 19 करोड़ है, मगर इस में सक्रिय उपभोक्ताओं का अनुपात बहुत कम है। इस ट्विटर-फ़ेसबुक आबादी का अधिकांश हिस्सा महानगरों और शहरी केंद्रों में स्थित है।
जब 14 मई के अपने संबोधन में प्रधानमंत्री गाँव में फैलते वायरस पर डर जताते हैं, तो क्या वह नहीं समझते कि ग्रामीण भारत के लिए उपयुक्त संसाधन न मिल पाना कितना बड़ा सवाल है?
बलिया ज़िला, ग्राम भिलाई के रहने वाले आशुतोष ने हमें बताया कि पिछले महीने जब उनके पिताजी कोरोना संक्रमित हुए, तो उनके लिए सबसे बड़ी चुनौती यही थी कि किससे पूछें? कहां जाएँ? क्या करें? प्रारंभिक सूचना का अभाव पिताजी के उपचार में एक बड़ी बाधा बन रहा था। कोरोना हेल्पलाइन पर फ़ोन करने में पर भी कोई उत्तर नहीं मिल रहा था, केवल सांत्वना। पिताजी की हालत बदतर हो रही थी। अपने कुछ रिश्तेदारों से बात करने पर उनको बलिया के कोविड अस्पताल का नंबर मिला, जहां ऑक्सिजन बेड उपलब्ध थे। भिलाई गांव से बलिया कोविड अस्पताल जाना भी एक चुनौती थी। दवाइयाँ जुटाने के लिए मऊ, आज़मगढ़ या बनारस जाना पड़ता था।
बिहार के रिविलगंज में रहने वाले उत्कर्ष का भी यही कहना था कि गाँव के लोगों को यही नहीं मालूम कि वह किसको फ़ोन करें? कौन उनकी सहायता कर सकता है? उत्कर्ष दिल्ली यूनिवर्सिटी के छात्र हैं, जो पिछले साल के लॉकडाउन से ही अपने गाँव में रह रहे हैं। अपने औपचारिक शिक्षण के चलते वह अपने गाँव के कुछ लोगों की मदद करने में सफ़ल रहे। उन्होंने हमें बताया, "लोग अपने प्रतिनिधियों से उम्मीद हार चुके हैं। उन्हें यही जानने में देर हो जा रही कि वह संक्रमित हो चुके हैं और जल्द से जल्द उन्हें उपचार मिलना चाहिए। महामारी की पहली लहर में उससे जुड़े दिशानिर्देशों का ख़ूब प्रचार प्रसार हुआ। मास्क, सैनिटाइज़र और सामाजिक दूरी पर ज़ोर डाला गया। हर शहर में बैनर पोस्टर लगवाए गए। चौराहों पर लाउडस्पीकर के माध्यम से सिमटम का प्रसार हुआ। लेकिन दूसरी लहर में संसाधनों को लेकर ऐसा कोई क़दम नहीं उठाए गए। जो लोग अख़बार पढ़ सकते हैं या स्मार्टफ़ोन इस्तेमाल करते हैं, उन्हें तो फिर भी बीमारी से जुड़े मोटे-मोटे तथ्य मालूम हैं, पर उनका क्या जो अख़बार नहीं पढ़ पाते और बस मार्केट में चल रही बातें सुन रहे हैं?"
मार्च 2020 से ही जागरूकता के लिए सब की कॉलर ट्यून पर एक प्री-रिकॉर्डेड संदेश सुनाई देता था जो कोरोना से जुड़े हेल्पलाइन नंबर और आवश्यक दिशा-निर्देशों की सूचना देता था। क्या इस दूसरी लहर में संसाधनों के लिए कोई और हेल्पलाइन नंबर या टीम का गठन हुआ? क्या भारत में ‘एज ऑफ़ इन्फ़ॉर्मेशन’ को लेकर चेतना विकसित करने वाला कोई नीति-स्तरीय निष्पादन है?
वैक्सीनेशन ड्राइव और डिजिटल डिवाइड
पहली लहर के बाद ही स्वास्थ ढाँचा चरमरा गया था। जब सरकार को यह पता था कि वैक्सीन ही एकमात्र दीर्घकालीन उपाय है, तो ऑनलाइन पंजीकरण का निर्णय कितना सार्थक होगा? 18-44 आयु वर्ग के लिए सरकार द्वारा अनिवार्य ऑनलाइन पंजीकरण प्रक्रिया ने भारत भर में डिजिटल डिवाइड को उजागर कर दिया है।
सर्वेक्षण संस्थान लोकल सर्किल के अनुसार, जब सरकार ने 1 मार्च को कोविड-19 टीकाकरण अभियान का विस्तार कर, वरिष्ठ नागरिकों के साथ 45 वर्ष से अधिक उम्र के लोगों को शामिल किया तो कोविन-ऐप से पंजीकरण करने वालों में से 92% को कठिनाइयाँ हुईं। इसी तरह की तकनीकी गड़बड़ियों का सामना तब भी करना पड़ा जब 1 मई से शुरू, टीकाकरण के तीसरे चरण में 18-44 आयु वर्ग को शामिल किया गया।
दीन दयाल उपाध्याय अस्पताल के सीनियर रेसिडेंट डॉक्टर प्रभात ने हमें बताया, “टीकाकरण एक निर्धारित रफ़्तार से ही हो सकता है। यह बस सप्लाई-डिमांड का मामला नहीं है। यह एक मेडिकल आपदा है और इसकी अपनी जटिलताएँ हैं। एक छोटी चूक की भी गुंजाइश नहीं है। हाँ, लोगों के बीच अविश्वास नहीं होना चाहिए। गाँवों में अविश्वास बहुत तेज़ी से फैलता है। इसके लिए सरकार को प्रचार तंत्र मज़बूत करना चाहिए। हर माध्यम में वैक्सीनेशन के सुप्रचार के लिए निवेश करना चाहिए।”
तीसरे चरण के शुरू हुए 2 हफ़्ते हो गए हैं और टीकाकरण की उपलब्धता डिजिटल शॉपिंग फ़्लैश सेल की तरह हो गई है। 1 मिनट की चूक और “नो स्लॉट्स अवेलेबल” की शाश्वत नोटिस। यह देश की राजधानी दिल्ली और उसके आसपास के इलाक़ों की हालत है। इंटरनेट की समझ रखने वाली शहरी आबादी तो दूसरे चरण में पंजीकृत हो पा रही है लेकिन ग़रीब, कम-जागरूक ग्रामीण जनता पीछे छूट गई है।
विशेषज्ञों और विद्वानों का कहना है, “भारत का कोई भी हिस्सा तब तक नहीं जीत सकता जब तक कि पूरा भारत न जीत जाए।” चूँकि समस्या क्षेत्रवार फैल रही है इसलिए समाधान भी उसी रास्ते से होगा। संचार विधियों में विविधता लाने से ही ज़्यादा लाभार्थियों तक पहुँचा जा सकता है। मल्टी-चैनल संचार विभिन्न माध्यमों में फैला हुआ होना चाहिए, जिसमें एसएमएस सेवा प्रमुख हो। जिस तरह से एलपीजी सिलेंडर बुकिंग एसएमएस सेवा से होती है, पंजीकरण डिजिटल न होकर टेलीकॉम आधारित होना चाहिए। भारत में क़रीब 80 करोड़ जनसंख्या के पास मोबाइल फ़ोन है। मल्टी-चैनल संचार के माध्यम से डाटा को जुटाने सुविधाजनक होगा। यह निर्धारित करने में भी आसान होगी कि कौन से भौगोलिक क्षेत्र वायरस से कितने प्रभावित हैं।
संचार का विकेंद्रीकरण वैक्सीनेशन ड्राइव की कार्यक्षमता को तेज़ी से बढ़ा सकता है।
(लेखक भारतीय जनसंचार संस्थान के हिंदी पत्रकारिता विभाग में अध्ययनरत हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)