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भारत
राजनीति
भारत की सैन्य तैयारी वास्तव में है क्या
एक ग़ैर-वैज्ञानिक निज़ाम ताक़तवर सेना बनाने में सक्षम नहीं हो सकता है।
गौतम नवलखा
12 Dec 2019
Translated by महेश कुमार
military India
.Image Courtesy : NDTV

क्या भारत अपनी सेना पर बहुत कम ख़र्च कर रहा है और क्या वह "प्रमुख ताक़त" बनने की अपनी महत्वाकांक्षा को ख़तरे में डाल रहा है और क्या वह अब "संतुलन" बनाने वाली ताक़त नहीं रह गया है? क्या भारत "हाइब्रिड" युद्ध के नए उभरते ख़तरे का सामना करने के लिए तैयार है?

सरकार द्वारा बजट की तैयारी के चरण में हर बार सेना को धन से वंचित करने की शिकायतें होती हैं। ग़ौरतलब है कि बजट में दिए गए धन का आकार संसाधनों की उपलब्धता और भारत के नागरिकों के लिए गरिमा का जीवन और स्वतंत्रता से जीने के हक़ के महत्व पर निर्भर करता है, बनाम "ढाई मोर्चे पर युद्ध"; के लिए हथियारों के ज़खीरे को हासिल करना जिसमें जम्मू-कश्मीर और उत्तर पूर्व में आतंकवाद विरोधी कार्रवाई करना और पाकिस्तान तथा चीन से भिड़ने के तैयारी शामिल है।

युद्ध के नए परिदृश्य के अनुसार, भारत के सेना प्रमुख ने 28 नवंबर, 2018 को आयोजित 9 वें यशवंत राव चव्हाण मेमोरियल व्याख्यान में जिसका शीर्षक "21 वीं सदी में हाइब्रिड युद्ध की चुनौतियों” था, पर बोलते हुए कहा था कि इस युद्ध में शामिल होने के लिए नियमित और अनियमित साधन उपलब्ध हैं जिसमें आतंकवाद, अपराधी, जाली मुद्रा, आर्थिक साधन, मुखर कूटनीति, निजी हैकर और अन्य से लड़ने की पूरी तैयारी है। "हाइब्रिड" युद्धों में लड़ने के लिए उपकरणों की आवश्यकताओं के साथ-साथ सशस्त्र बलों को उन्मुख करने के लिए बड़े बदलाव की आवश्यकता होती है। इसमें पैसा ख़र्च होता है।

यदि अर्थव्यवस्था मंदी के दौर से गुज़र रही है और राजस्व का पैदा होना निराशाजनक स्थिति में है, तो प्रतिरोध के लिए मिलिट्री के उच्च आवंटन को झटका लगेगा। भारत के बारे में रणनीतिक विशेषज्ञों ने कहा है कि हालात अच्छे नहीं हैं क्योंकि इस स्थिति में भारत किसी भी धमकी का मुक़ाबला नहीं कर सकता है, सवाल खड़ा होता है कि क्या फ़ंड पर शिकंजा कसने को कोई बहुत मजबूरी से भरा कारण है?

चीन के साथ संबंध दो "अनौपचारिक" शिखर सम्मेलनों और नियमित कूटनीतिक वार्ताओं के बाद भी उलट  हैं। इसके अलावा, दोनों पक्ष "मतभेदों को टकराव बनने" से रोकने के भी पक्षधर हैं। यह केवल पाकिस्तान है जिसे तत्काल चिंता का कारण माना जा रहा है, हालांकि पाकिस्तान की संकटग्रस्त अर्थव्यवस्था उसे भारत के साथ विनाशकारी हथियारों की दौड़ में शामिल होने से रोकती है।

वास्तव में, कश्मीर में पाकिस्तानी ख़तरे के मामले में भारत सरकार का बड्बोलापन वास्तविक ज़मीनी हक़ीक़त के मुक़ाबले ज़्यादा प्रचारित है। न तो उग्रवाद और न ही घुसपैठ कोई ऐसी है जो चिंता को आमंत्रित करता हो। तथ्य यह है कि पाकिस्तान मुख्य रूप से अपने अंतरराष्ट्रीय अभियान को आगे बढ़ा रहा है और उसने अपनी उग्रवादी "धरोहर" को कश्मीर में स्थानांतरित करने से रोक दिया है, यह एक स्पष्ट संकेत है कि वह तनाव को बढ़ाना नहीं चाहता है। ऐसा भी लगता है कि यह भारत ही है जो पाकिस्तान को कूटनीतिक रूप से दबाने में लगा हुआ है। और पाकिस्तान कश्मीर पर अपने राजनयिक अभियान को तेज़ कर इसका जवाब ही दे रहा है।

जवाब के लिए अपने भीतर झांकना 

इसलिए सेना के लिए आवंटन बढ़ाने के बजाय, यह आर्थिक रूप से विवेकपूर्ण होगा कि सरकार सेना के विशाल आकार को देखे और सेना कर्मियों और केंद्रीय अर्ध-सैन्य बलों (CPFFs) के ख़र्च को देखे जिसका इस्तेमाल वे आंतरिक युद्ध के कारण सशस्त्र बलों पर ख़र्च करना पड़ता है जोकि बड़ी संख्या में तैनात हैं।

किसी भी वक़्त भारत की आंतरिक सुरक्षा या युद्ध में भारतीय सेना का एक-तिहाई हिस्सा तैनात रहता है। जबकि लगभग 85-90 प्रतिशत पैरा-मिलिट्री भी समान रूप से तैनात रहती है। सेना का राजस्व और पेंशन बजट का बड़ा हिस्सा सेना का निश्चित ख़र्च है और यह ख़र्च सरकार द्वारा हमारे अपने लोगों के ख़िलाफ़ लड़े जा रहे युद्ध पर ख़र्च होता है। ये हालत तब तक नहीं बदलेगी जब तक कि सैन्य दमन की नीति नहीं बदल जाती है ऐसा होने पर सेना का साइज़ कम हो जाएगा। अगले पांच वर्षों में 100,000 कर्मियों को कम करने के बजाय सरकार घर में लड़े जा रहे युद्धों को रोक कर छोटी अवधि में इसके आकार को कम कर सकती है।

ध्यान देने की बात यह है कि 2017-18 और 2018-19 में, सरकार ने 70,000 कर अधिकारियों, 45,000 नागरिक रक्षा कर्मचारियों और 61,000 केंद्रीय अर्ध-सैन्य कर्मियों की भर्ती करके सरकारी कर्मचारियों की छंटनी के रास्ते को बदलकर उसने अपने कर्मचारियों की ताक़त के आकार में वृद्धि की है। इस प्रकार, यदि सेना 100,000 पदों को कम करती भी है, लेकिन फिर रक्षा सिविल स्टाफ़ और CPMF में 106,000 की वृद्धि हो जाती है, तो यह एक ख़राब मिसाल बन जाती है।

दूसरे शब्दों में कहें तो प्रधानमंत्री ने दिसंबर 2015 में सशस्त्र बलों की "संख्या" को कम करने के लिए कहा था, तो फिर कैसे उसी सरकार को नागरिक सुरक्षा और सीपीएमएफ़ के आकार को बढ़ाने में कोई संकोच नहीं हुआ? निश्चित तौर पर, पैसा सैन्य कर्मियों के ख़र्च को पूरा करने के लिए ख़र्च किया गया जबकि इसे बेहतर रक्षा पूंजी आवश्यकता पर ख़र्च पर किया जा सकता था? निश्चित रूप से कर्मियों में कमी कोई खोखला अभ्यास नहीं हो सकता है।

सशस्त्र पुलिस बलों की प्राथमिकता, जिनकी संख्या काफ़ी बढ़ती जा रही है, उसका अर्थ यह भी है कि क़ानून और व्यवस्था के लिए आवश्यक नागरिक पुलिस की उपेक्षा की जा रही है। परिणामस्वरूप, सिविल पुलिस की स्वीकृत संख्या 24,84,170 है, जबकि उनकी वास्तविक ताक़त 19,41,473 यानी कुल 5,42,697 पुलिस कर्मियों की कमी है। इसका सीधा संबंध राज्यों के अधिकार क्षेत्र से है क्योंकि "आंतरिक सुरक्षा" के बैनर को उठाकर केंद्र सरकार राज्यों के अधिकार क्षेत्र में अतिक्रमण कर रही है, जिसके लिए अर्ध-सैन्य बलों की आवश्यकता होती है और इससे हर रोज़ क़ानून और व्यवस्था को नुक़सान होता है। इस वजह से देश भर में बलात्कार, हत्या, डकैती बढ़ रही है लेकिन आतंकवाद के प्रति उनका जुनून (वो अलग बात है कि वे लिंचिंग या काऊ विजिलाण्टे द्वारा हत्या को आतंकवाद में आसानी से शामिल नहीं करते है) ऐसे अपराधों में वृद्धि के लिए ज़िम्मेदार है।

इसके अलावा, फ़ंड की कमी एक और अन्य कारण से होती है। भारत अपने सशस्त्र बलों को हथियारों से लैस करने के लिए अपने शस्त्रागार का 70 प्रतिशत आयात करता है। आयात पर निर्भरता का मतलब है कि भारत को अधिक कीमत वाले हथियारों को ख़रीदना होगा और भुगतान भी सुनिश्चित करना होगा, चाहे देश आर्थिक संकट में हो या न हो, इसका भुगतान करना ही होगा। इसमें आगे और भी झटका तब लग जाता है क्योंकि सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों द्वारा बनाए जा रहे 30 प्रतिशत सैन्य सामानों को भी तैयार करने मैं बड़ी रुकावट है क्योंकि सरकार अपने राजस्व घाटे को पूरा करने के लिए उनके बचे धन का इस्तेमाल कर रही है।

रक्षा से जुड़ी सार्वजनिक क्षेत्र की इकाइयों (डीपीएसयू) को बजटीय समर्थन से इनकार करके उन्हें  सरकार ने पूंजी बाज़ार से पैसा जुटाने के लिए मजबूर किया है, जो उनके ख़र्च को बढ़ा देता है। सबसे ख़राब बात है यह कि 3.5 लाख करोड़ रुपये की बड़ी परियोजनाओं के ख़र्च में वृद्धि तो हो रही है साथ ही समय भी आगे बढ़ रहा है। 

स्वदेशीकरण का मिथक

अब, जब भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व वाली सरकार आयातित हथियारों पर निर्भरता को कम करने का तर्क देती है, तो यह सैन्य क्षेत्र के निजीकरण के माध्यम से स्वदेशीकरण पर ज़ोर देती है। नतीजतन, यहां तक कि जो डीपीएसयू अच्छी तरह से काम कर रहे थे, वे भी अब ख़ुद को ख़स्ता हालत में पा रहे हैं, बाजार और इसके साथ आने वाले उतार-चढ़ाव से परेशान हैं और मजबूर हैं। इससे भी बदतर इसका मतलब यह है कि दशकों के काम एवं परिश्रम के बाद, और अपने कौशल और क्षमता को हासिल करने के बाद, ये कंपनियाँ बेकार हो जाएंगी और इनकी कोई क़ीमत नहीं रह जाएगी।

सार्वजनिक रूप से स्वामित्व वाले सैन्य क्षेत्र के संगठनों की स्थिति ख़राब हो रही है और निजीकरण को बढ़ावा दिया जा रहा जिसके कारण मोदी सरकार का "मेक इन इंडिया" धूल चाट रहा है। कारण निजी क्षेत्र को प्रोत्साहन दिया जा रहा है कि भारतीय कंपनियों के उपक्रमों में वे जूनियर भागीदार बन रहे हैं जहां उनके नियंत्रण में मूल उपकरण निर्माता (ओईएम) रहेगा और मालिकाना तकनीक और स्रोत कोड उन्हे पता होंगे।

दूसरे शब्दों में, विदेशी उपकरण निर्माताओं पर भारत की निर्भरता बनी रहेगी; और सिर्फ़ इतना ही नहीं, अब ये ओईएम भारत से संचालित होने वाली तकनीक को नियंत्रित करेंगे और उसके मालिक बन जाएंगे।

ये तब और भी ख़राब लगता है जब पता चलता है कि देश में अनुसंधान पर भारत सरकार और भारत के निजी क्षेत्र का निवेश दोनों ही कम है। बिज़नेस स्टैंडर्ड में एक हालिया कॉलम में संयुक्त राज्य अमेरिका, यानी पूंजीवाद के गढ़ के बारे में "सबसे बेहतरीन खुले रहस्य" पर ध्यान आकर्षित किया गया है। स्तंभकार, अजीत बालाकृष्णन बताते हैं कि अमेरिका में नवाचार "राज्य संचालित" है और राज्य द्वारा अनुसंधान में उच्च जोखिम वाला निवेश, विशेष रूप से रक्षा क्षेत्र में अनुसंधान, दूसरों को अपनी ओर खींचता है और अमेरिका के स्वदेशी उत्पादन में महत्वपूर्ण योगदान देता है।

इसलिए यह आने वाले वर्षों में भारत की सैन्य तैयारी को भी प्रभावित करने वाला है, चूंकि सरकार का अनुसंधान में निवेश दयनीय तो है ही, और ऊपर से भारतीयों को बेवकूफ़ बनाने के लिए भाजपा के नेतृत्व वाली सरकार गतिशील शिक्षा को नष्ट करने का दृढ़ संकल्प ले चुकी है।

रक्षा और सुरक्षा विशेषज्ञ अजय साहनी ने हाल ही में रक्षा अनुसंधान पर ज़ोर देते हुए सैन्य-औद्योगिक क्षेत्र में निवेश के पक्ष में हिंदुस्तान टाइम्स में तर्क दिया था। यद्यपि “निवेश- अर्थव्यवस्था की कुंजी है, सैन्य-औद्योगिक क्षेत्र की धुरी अनुसंधान है; और अनुसंधान शैक्षिक बुनियादी ढांचे की गुणवत्ता और आउटरीच पर आधारित होता है। बदले में, ये सभी हलक़े अपने तय लक्ष्यों को सुरक्षित करने के लिए नीति और राज्य की क्षमता पर निर्भर करते हैं।"

भारत में, निजी क्षेत्र के नेतृत्व वाले सैन्य क्षेत्र पर अंधविश्वास और सार्वजनिक क्षेत्र का तिरस्कार, और उसकी विविधता को दुतकारने से उच्च जोखिम वाले शोध से हम पीछे हटे हैं। इस डाटा पर विचार करें:

ब्रुकिंग्स इंडिया के एक अध्ययन ने हाल ही में दावा किया है कि चीन के 1,200 प्रति मिलियन शोधकर्ता की तुलना में भारत में 216.2 शोधकर्ता हैं; अमरिका में यह 4,300 और दक्षिण कोरिया में यह संख्या 7,100 शोधकर्ता प्रति मिलियन है। भारत दक्षिण कोरिया में 4.23 प्रतिशत और चीन में 2.11 प्रतिशत खर्च करने के विपरीत अपने सकल घरेलू उत्पाद का कुल 1 प्रतिशत से भी कम खर्च करता है। ग़ौरतलब है कि 1996 में, भारत और चीन दोनों अपने सकल घरेलू उत्पाद का केवल 0.6 प्रतिशत अनुसंधान पर ख़र्च करते थे।

भारत चीन की तुलना में कम शोधपत्र तैयार करता है: भारत चीन के 483,595 शोधपत्र के मुक़ाबले 114,832 पर है और भारत की शोध की गुणवत्ता भी कम है। चीन के 1.24 मिलियन की तुलना में 2017 में भारत के पेटेंट आवेदन मात्र 14,961 ही रहे हैं।

अनुसंधान पर कम निवेश, अनुसंधान की गुणवत्ता कम होना और बौद्धिकता का सामान्य तिरस्कार और भाजपा के पिछड़े हुए वैचारिक पूर्वाग्रह से ग्रस्त शिक्षा की मदद नहीं कर रही हैं।

भाजपा जैसी वैचारिक पार्टियों में हठधर्मीता वैज्ञानिक जांच की भावना को नष्ट करती है, वह उभरते सवालों के जवाब और सच्चाई को खोजने से रोकती और उसमें जिज्ञासा को हतोत्साहित करने की प्रवृत्ति है। भारत का विकास निश्चित रूप से आसमान और खोखला हो जाएगा यदि शिक्षा जांच की भावना को नष्ट करती है, तर्कसंगत तर्क और कठिन सवालों को हल करने की क्षमता को नष्ट करती है। समाज में लड़ाई को विचारों की लड़ाई के माध्यम से लड़ा जाना चाहिए, न कि असंतुष्टों और विचारों को शासकों द्वारा दमन करके, ऐसे समाज प्रगति नहीं करता है, न सुधार करता है और न ही नवाचार करता है। इसके विपरीत, बढ़ता हुआ पागलपन और बौद्धिकतावाद और प्रगति को बाधित करता है।

यदि भारत सैन्य रूप से लड़खड़ाता है, तो यह सेना को आवंटित किए गए बजट केक के आकार के कारण कम होगा (जो कि सकल घरेलू उत्पाद का 2.15 प्रतिशत है, काफ़ी स्वस्थ है) बल्कि इस पर निर्भर करेगा कि इस धन का इस्तेमाल कैसे होता है। जब तक हम गहराई से नहीं देखते हैं और सैन्य क्षेत्र को प्रभावित करने वाले विभिन्न पहलुओं के बीच संबंध को नहीं देखते हैं, तो कोई रास्ता नहीं है जिससे भारत अपनी सुरक्षा बढ़ा सकता है। केवल एक व्यापक दृष्टिकोण ही काम करेगा न कि तदर्थ दृष्टिकोण जिससे हमारे शासकों को बहुत प्यार है।

व्यक्त विचार व्यक्तिगत हैं।

अंग्रेजी में लिखा मूल आलेख आप नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं।

What Really Ails India’s Military Preparedness

India military spending
Defence expenditure
India versus China
Research and science
Budget for armed forces
Internal War
Spirit of Inquiry

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