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भारत
राजनीति
देश के मौजूदा हालात और जेपी-लोहिया की याद
आज (11 अक्टूबर को) जेपी का जन्मदिन है और कल (12 अक्टूबर को) लोहिया का निर्वाण दिवस। सवाल है कि आज के वक्त में जेपी और लोहिया को क्यों याद करें और कैसे करें?
अनिल जैन
11 Oct 2020
JP-LOHIA
जयप्रकाश नारायण (जेपी) और राम मनोहर लोहिया। चित्र साभार: Indian Express

जयप्रकाश नारायण (जेपी) और डॉ. राममनोहर लोहिया। 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन के दो अप्रतिम नायक और आज़ादी के बाद भारतीय समाजवादी आंदोलन के महानायक। लोहिया ने अपने विशिष्ट चिंतन से समाजवादी आंदोलन के भारतीय स्वरूप को गढ़ा और हर किस्म के सामाजिक-राजनीतिक अन्याय के खिलाफ अलख जगाया, तो राजनीति से मोहभंग के शिकार होकर सर्वोदयी हो चुके जेपी ने वक्त की पुकार सुनकर राजनीति में वापसी करते हुए भ्रष्टाचार और तानाशाही के खिलाफ देशव्यापी संघर्ष को नेतृत्व प्रदान कर लोकतंत्र को बहाल कराया।

आज देश के हालात जेपी और लोहिया के समय से भी ज्यादा विकट और चुनौतीपूर्ण हैं लेकिन हमारे बीच न तो जेपी और लोहिया हैं और न ही उनके जैसा कोई प्रेरक व्यक्तित्व। हां, दोनों के नामलेवा या उनकी विरासत पर दावा करने वाले दर्जनभर राजनीतिक दल जरूर हैं, लेकिन उनमें से किसी एक का भी जेपी और लोहिया के कर्म या विचार से कोई सरोकार नहीं है। आज (11 अक्टूबर को) जेपी का जन्मदिन है और कल (12 अक्टूबर को) लोहिया का निर्वाण दिवस। सवाल है कि आज के वक्त में जेपी और लोहिया को क्यों याद करें और कैसे करें?

आज के दौर में जेपी और लोहिया के महत्व को समझते हुए उन्हें याद करने के लिए हमें थोडा फ्लैशबैक में जाना होगा! आज़ादी के बाद पहले आमचुनाव में कांग्रेस के मुकाबले समाजवादी खेमे को बुरी तरह हार का सामना करना पड़ा था। दूसरे नंबर पर कम्युनिस्ट रहे थे। समाजवादियों का नेतृत्व कर रहे जयप्रकाश को चुनाव नतीजों ने बेहद निराश किया और कुछ समय बाद वे सक्रिय राजनीति से संन्यास लेकर विनोबा के साथ सर्वोदय और भूदान आंदोलन से जुड़ गए।

इसके बाद 1957 और 1962 के आमचुनाव में भी कांग्रेस का दबदबा बरकरार रहा। राष्ट्रीय राजनीति के क्षितिज पर कांग्रेस को अजेय माना जाने लगा, लेकिन 1967 आते-आते स्थितियां बदल गईं। कांग्रेस को लोकसभा में बहुत साधारण बहुमत हासिल हुआ और विधानसभा के चुनावों में उसे कई राज्यों में करारी हार का सामना करना पडा। जनादेश के जरिये कांग्रेस इन राज्यों में सत्ता से बेदखल जरूर हो गई लेकिन कोई अन्य पार्टी भी सरकार बनाने लायक जीत हासिल नहीं कर सकीं।

ऐसे में तात्कालिक रणनीति के तौर पर लोहिया ने गैर कांग्रेसवाद का नारा दिया। इस नारे ने खूब रंग दिखाया। कम्युनिस्ट, सोशलिस्ट, जनसंघ, स्वतंत्र पार्टी आदि ने अपनी-अपनी विचारधारा से ज्यादा व्यावहारिकता को अहमियत दी। परिणामस्वरूप नौ राज्यों में संयुक्त विधायक दलों की सरकारें बनीं। कांग्रेस के अजेय होने का मिथक टूट गया। इसी दौरान लोहिया की असामयिक मौत से समाजवादी आंदोलन के साथ ही गैर कांग्रेसवाद की रणनीति को भी गहरा झटका लगा।

अगला लोकसभा चुनाव आते-आते विपक्षी एकता छिन्न-भिन्न हो गई। इंदिरा गांधी कुछ समाजवादी कार्यक्रमों के जरिये अपनी 'गरीब नवाज’ की छवि बनाने में कामयाब रहीं और निर्धारित समय से एक साल पहले यानी 1971 में हुआ आम चुनाव उन्होंने भारी-भरकम बहुमत से जीता। इस जीत ने उन्हें थोड़े ही समय में निरंकुश बना दिया। वे चापलूसों से घिर गईं। लोकतांत्रिक संस्थाओं को प्रयासपूर्वक अप्रासंगिक और निष्प्रभावी बनाया जाने लगा। असहमति और विरोध की आवाज को निर्ममतापूर्वक दमन शुरू हो गया।

ऐसे ही माहौल ने जयप्रकाश नारायण को एक फिर सक्रिय राजनीति में लौटने और अहम भूमिका निभाने के लिए बाध्य किया। उनकी अगुवाई में बिहार से ऐतिहासिक छात्र आंदोलन की शुरूआत हुई, जिसने देखते ही देखते राष्ट्रव्यापी शक्ल ले ली। इस आंदोलन को दबाने के लिए इंदिरा गांधी ने आपातकाल लागू कर दिया।

1975 से 1977 के बीच 19 महीने का वह आपातकालीन दौर आज़ाद भारत का सर्वाधिक भयावह दौर था। लेकिन यह दौर भी खत्म हुआ। चुनाव का मौका आया तो जेपी के आह्वान पर सभी गैर कांग्रेसी विपक्षी दलों की एकता और भारतीय जन की लोकतांत्रिक चेतना से तानाशाही हुकूमत पराजित हुई। पहली बार केंद्र की सत्ता से कांग्रेस को बेदखल होना पडा। इस प्रकार जो काम लोहिया से अधूरा छूट गया था, उसे जयप्रकाश ने पूरा किया।

आपातकाल को जनता के मौलिक अधिकारों और अखबारों की आज़ादी के अपहरण, विपक्षी दलों क्रूरतापूर्वक दमन के साथ ही संसद, न्यायपालिका, कार्यपालिका समेत तमाम संवैधानिक संस्थाओं के मानमर्दन के लिए ही नहीं, बल्कि घनघोर व्यक्ति-पूजा और चापलूसी के लिए भी याद किया जाता है। लेकिन आपातकाल को याद रखना ही काफी नहीं है। इससे भी ज्यादा ज़रूरी यह है कि इस बात के प्रति सतर्क रहा जाए कि कोई भी हुकूमत आपातकाल को किसी भी रूप में दोहराने का दुस्साहन न कर पाए। सवाल है कि क्या आपातकाल को दोहराने का खतरा अभी भी बना हुआ है और भारतीय जनमानस उस खतरे के प्रति सचेत है?

कोई पांच साल पहले आपातकाल के चार दशक पूरे होने के मौके पर उस पूरे कालखंड को शिद्दत से याद करते हुए भाजपा के वरिष्ठ नेता और देश के पूर्व उप प्रधानमंत्री लालकृष्ण आडवाणी ने देश में फिर से आपातकाल जैसे हालात पैदा होने का अंदेशा जताया था। हालांकि आडवाणी इससे पहले भी कई मौकों पर आपातकाल को लेकर अपने विचार व्यक्त करते रहे थे, मगर यह पहला मौका था जब उनके विचारों से आपातकाल की अपराधी कांग्रेस नहीं, बल्कि उनकी अपनी पार्टी भाजपा अपने को हैरान-परेशान महसूस करते हुए बगले झांक रही थी। वह भाजपा जो कि आपातकाल को याद करने और उसकी याद दिलाने में हमेशा आगे रहती है।

आडवाणी ने एक अंग्रेजी अखबार को दिए साक्षात्कार में देश को आगाह किया था कि लोकतंत्र को कुचलने में सक्षम ताकतें आज पहले से अधिक ताकतवर हैं और मैं इस बात की संभावना से इनकार नहीं करता कि भविष्य में भी इसी तरह से आपातकालीन परिस्थितियां पैदा कर नागरिक अधिकारों का हनन किया जा सकता है।' 

आधुनिक भारत के राजनीतिक विकास के सफर में लंबी और सक्रिय भूमिका निभा चुके एक तजुर्बेकार राजनेता के तौर पर आडवाणी की इस आशंका को अगर हम अपनी राजनीतिक और संवैधानिक संस्थाओं के मौजूदा स्वरूप और संचालन संबंधी व्यापक परिप्रेक्ष्य में देखें तो हम पाते हैं कि आज देश आपातकाल से भी कहीं ज्यादा बुरे दौर से गुजर रहा है।

इंदिरा गांधी ने तो संवैधानिक प्रावधानों का सहारा लेकर देश पर आपातकाल थोपा था, लेकिन आज तो औपचारिक तौर आपातकाल लागू किए बगैर ही वह सब कुछ बल्कि उससे भी कहीं ज्यादा हो रहा है जो आपातकाल के दौरान हुआ था। फर्क सिर्फ इतना है कि आपातकाल के दौरान सब कुछ अनुशासन के नाम पर हुआ था और आज जो कुछ हो रहा है वह विकास और राष्ट्रवाद के नाम पर।

केंद्र सहित देश के आधे से ज्यादा राज्यों में सत्तारूढ भाजपा के भीतर भी हाल के वर्षों मे ऐसी प्रवृत्तियां मजबूत हुई हैं, जिनका लोकतांत्रिक मूल्यों से कोई सरोकार नहीं है। सरकार और पार्टी में सारी शक्तियां एक समूह के भी नहीं बल्कि एक ही व्यक्ति के इर्द गिर्द सिमटी हुई हैं।

आपातकाल के दौर में उस समय के कांग्रेस अध्यक्ष देवकांत बरुआ ने चाटुकारिता और राजनीतिक बेहयाई की सारी सीमाएं लांघते हुए 'इंदिरा इज इंडिया-इंडिया इज इंदिरा’ का नारा पेश किया था। आज भाजपा में तो अमित शाह, जेपी नड्डा, रविशंकर प्रसाद, शिवराज सिंह चौहान, देवेंद्र फडनवीस आदि से लेकर नीचे के स्तर तक ऐसे कई नेता हैं जो नरेंद्र मोदी को जब-तब दैवीय शक्ति का अवतार बताने में कोई संकोच नहीं करते। वैसे इस सिलसिले की शुरुआत बतौर केंद्रीय मंत्री वैंकेया नायडू ने की थी, जो अब उपराष्ट्रपति बनाए जा चुके हैं। मोदी देश-विदेश में जहां भी जाते हैं, उनके प्रायोजित समर्थकों का उत्साही समूह मोदी-मोदी का शोर मचाता है और मोदी किसी रॉक स्टार की तरह इस पर मुदित नजर आते हैं।

लेकिन बात नरेंद्र मोदी या उनकी सरकार की ही नहीं है, बल्कि आज़ादी के बाद भारतीय राजनीति की ही यह बुनियादी समस्या रही है कि वह हमेशा से व्यक्ति केंद्रित रही है। हमारे यहां संस्थाओं, उनकी निष्ठा और स्वायत्तता को उतना महत्व नहीं दिया जाता, जितना महत्व करिश्माई नेताओं को दिया जाता है। इससे न सिर्फ राज्यतंत्र के विभिन्न उपकरणों, दलीय प्रणालियों, संसद, प्रशासन, पुलिस, और न्यायिक संस्थाओं की प्रभावशीलता का तेजी से पतन हुआ है, बल्कि राजनीतिक स्वेच्छाचारिता और गैरजरूरी दखलंदाजी में भी बढ़ोतरी हुई है।

यह स्थिति सिर्फ राजनीतिक दलों की ही नहीं है। आज देश में लोकतंत्र का पहरूए कहे जा सकने वाले ऐसे संस्थान भी नजर नहीं आते, जिनकी लोकतांत्रिक मूल्यों को लेकर प्रतिबद्धता संदेह से परे हो। आपातकाल के दौरान जिस तरह प्रतिबद्ध न्यायपालिका की वकालत की जा रही थी, आज वैसी ही आवाजें सत्तारूढ दल से नहीं बल्कि न्यायपालिका की ओर से भी सुनाई दे रही है। यही नहीं, कई महत्वपूर्ण मामलों में तो अदालतों के फैसले भी सरकार की मंशा के मुताबिक ही रहे हैं। न्यायपालिका का इससे ज्यादा और क्या पतन हो सकता है कि सुप्रीम कोर्ट के जज सार्वजनिक मंचों से प्रधानमंत्री को बहुमुखी प्रतिभा का धनी और दूरदर्शी बताते हैं।

भारतीय रिजर्व बैंक जैसे सर्वोच्च और विश्वसनीय वित्तीय संस्थान की नोटबंदी के बाद से जो दुर्गति हो रही है, वह जगजाहिर है। सूचना के अधिकार को निष्प्रभावी बना दिया गया है। हाल ही में कुछ विधानसभाओं और स्थानीय निकाय चुनावों के दौरान इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन में गडबडियों की गंभीर शिकायतें जिस तरह सामने आई हैं उससे हमारे चुनाव आयोग और चुनाव प्रणाली की साख पर सवालिया निशान लगे हैं, जो कि हमारे लोकतंत्र के भविष्य के लिए अशुभ संकेत है। नौकरशाही की जनता और संविधान के प्रति कोई जवाबदेही नहीं रह गई है। कुछ अपवादों को छोड दें तो समूची नौकरशाही सत्ताधारी दल की मशीनरी की तरह काम करती दिखाई पडती है। चुनाव में मिले जनादेश को दलबदल और राज्यपालों की मदद से कैसे तोडा-मरोड़ा जा रहा है, उसकी मिसाल पिछले छह वर्षों के दौरान हम गोवा, मणिपुर, कर्नाटक, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, कर्नाटक आदि राज्यों में देख चुके हैं।

यही नहीं, संसद और विधानमंडलों की सर्वोच्चता और प्रासंगिकता को भी खत्म करने के प्रयास सरकारों की ओर से जारी है। लोकसभा अध्यक्ष और राज्यसभा के सभापति सिर्फ संसद के बाहर ही नहीं, बल्कि संसद की कार्यवाही के संचालन के दौरान भी सत्तारुढ़ दल के नेता की तरह व्यवहार करते दिखाई देते हैं। राज्यपाल जैसे संवैधानिक पदों पर बैठे लोगों का व्यवहार तो और भी ज्यादा अजीबो-गरीब हैं। वे न सिर्फ सांप्रदायिक रूप से भड़काऊ बयानबाजी करते हैं बल्कि कई मौकों पर अनावश्यक रूप से प्रधानमंत्री का प्रशस्ति गान करने में भी संकोच नहीं करते।

जिस मीडिया को हमारे यहां लोकतंत्र के चौथे स्तंभ की मान्यता दी गई है, उसकी स्थिति भी बेहद चिंताजनक है। आज की पत्रकारिता आपातकाल के बाद जैसी नहीं रह गई है। इसकी अहम वजहें हैं- बडे कॉरपोरेट घरानों का मीडिया क्षेत्र में प्रवेश और मीडिया समूहों में ज्यादा से ज्यादा मुनाफा कमाने की होड। इस मुनाफाखोरी की प्रवृत्ति ने ही मीडिया संस्थानों को लगभग जनविरोधी और सरकार का पिछलग्गू बना दिया है। व्यावसायिक वजहों से से तो मीडिया की आक्रामकता और निष्पक्षता बाधित हुई ही है, पेशागत नैतिक और लोकतांत्रिक मूल्यों और नागरिक अधिकारों के प्रति उसकी प्रतिबद्धता का भी कमोबेश लोप हो चुका है।

पिछले छह वर्षों के दौरान जो एक नई और खतरनाक प्रवृत्ति विकसित हुई वह है सरकार और सत्तारूढ़ दल और मीडिया द्वारा सेना का अत्यधिक महिमामंडन। यह सही है कि हमारे सैन्यबलों को अक्सर तरह-तरह की चुनौतियों से जूझना पडता है, इस नाते उनका सम्मान होना चाहिए लेकिन उनको किसी भी तरह के सवालों से परे मान लेना तो एक तरह से सैन्यवादी राष्ट्रवाद की दिशा में कदम बढ़ाने जैसा है।

आपातकाल कोई आकस्मिक घटना नहीं बल्कि सत्ता के अतिकेंद्रीकरण, निरंकुशता, व्यक्ति-पूजा और चाटुकारिता की निरंतर बढ़ती गई प्रवृत्ति का ही परिणाम थी। आज फिर वैसा ही नजारा दिख रहा है। सारे अहम फैसले संसदीय दल तो क्या, केंद्रीय मंत्रिपरिषद की भी आम राय से नहीं किए जाते; सिर्फ और सिर्फ प्रधानमंत्री कार्यालय और प्रधानमंत्री की चलती है।

आपातकाल के दौरान संजय गांधी और उनकी चौकड़ी की भूमिका सत्ता-संचालन में गैर-संवैधानिक हस्तक्षेप की मिसाल थी, तो आज वही भूमिका राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ निभा रहा है। असहमति की आवाजों को चुप करा देने या शोर में डुबो देने की कोशिशें साफ नजर आ रही हैं। आपातकाल के दौरान और उससे पहले सरकार के विरोध में बोलने वाले को अमेरिका या सीआईए का एजेंट करार दे दिया जाता था तो अब स्थिति यह है कि सरकार से असहमत हर व्यक्ति को पाकिस्तान परस्त या देशविरोधी करार दे दिया जाता है। आपातकाल में इंदिरा गांधी के बीस सूत्रीय और संजय गांधी के पांच सूत्रीय कार्यक्रमों का शोर था तो आज विकास और सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के आवरण में हिंदुत्ववादी एजेंडा पर अमल किया जा रहा है। इस एजेंडा के तहत दलितों, आदिवासियों और अल्पसंख्यकों का तरह-तरह से उत्पीड़न हो रहा है।

कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि आपातकाल के बाद से अब तक लोकतांत्रिक व्यवस्था तो चली आ रही है, लेकिन लोकतांत्रिक संस्थाओं, रवायतों और मान्यताओं का क्षरण तेजी से जारी है। लोकतांत्रिक मूल्यों और नागरिक अधिकारों का अपहरण हर बार बाकायदा घोषित करके ही किया जाए, यह जरूरी नहीं। वह लोकतांत्रिक आवरण और कायदे-कानूनों की आड़ में भी हो सकता है। मौजूदा शासक वर्ग इसी दिशा में तेजी से आगे बढ़ता दिख रहा है। ऐसे में नहीं दिख रहा है तो वह है जेपी और लोहिया जैसा कोई नेता/नायक, जो सत्ता के एकाधिकारवाद या निरंकुशता को विश्वसनीय चुनौती दे सके।

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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