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भारत
राजनीति
बीच बहस: मोटेरा स्टेडियम नामकरण और नागपुर का मौन
मोदी के नाम पर इस क्रिकेट स्टेडियम के नामकरण पर आरएसएस नेतृत्व की चुप्पी इस भाजपा शासन के साथ तालमेल की उसकी सीमाओं को रेखांकित करती है, संघ की यह चुप्पी 'व्यक्ति पूजन' के विरुद्ध उसके विचारों से दूर होते जाने का संकेत देती है।
नीलांजन मुखोपाध्याय
01 Mar 2021
मोटेरा स्टेडियम नामकरण और नागपुर का मौन

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नाम पर अहमदाबाद में नये-नये बने और दुनिया के सबसे बड़े क्रिकेट स्टेडियम का नामकरण दरअस्ल उस राजनीतिक संस्कृति और मूल्यों से एक स्पष्ट दुराव का प्रतीक बन गया है, जिसे संघ ने कभी अपनाया था।

उस राज्य में जहां प्रधानमंत्री ने बतौर प्रशासनिक प्रमुख 13 साल बिताये थे, वहां उन्हें व्यक्तिगत इज़्ज़त बख़्शते हुए जिस तरह से उनके नाम पर एक स्टेडियम का नामाकरण किया गया है, वह 1940 के बाद से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ या आरएसएस के भीतर व्यक्ति पूजन के तीखे सैद्धांतिक विरोध के बिल्कुल उलट है। कोई भी स्वयंसेवक, जो परंपरागत तौर पर नौजवानी के दिनों में संघ में शामिल हो जाते हैं, उन्हें पहले ही दिन से यह कहा जाता है कि व्यक्ति के मुक़ाबले संगठन कहीं ज़्यादा अहम होता है।

इसी तरह, यह बुनियादी बदलाव उस राजनीतिक संस्कृति में भी दिखायी देता है, जिसकी जड़ में इस समय मोदी हैं, लेकिन इससे कहीं ज़्यादा अहम बात यह है कि इस ग़ैर-मामूली घटनाक्रम के प्रति आरएसएस के शीर्ष अधिकारियों की तरफ़ से औपचारिक प्रतिक्रिया को लेकर पूरी तरह चुप्पी  पसरी हुई है। इसकी व्याख्या दो तरह से की जा सकती है। एक व्याख्या तो यह है कि मोदी का राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर असर इतना ज़बर्दस्त हो गया है कि आरएसएस नेतृत्व किसी पचड़े में फंसना नहीं चाहता। दूसरी व्याख्या यह हो सकती है कि नागपुर (आरएसएस मुख्यालय) ने उस 'अनैतिक' रणनीति की अनिवार्यता को स्वीकार कर लिया है, जिससे संघ दशकों से व्यवस्थित रूप से असहमति जताता रहा है और वह असहमति यह रही है कि करिश्माई नेताओं के राजनीतिक समर्थन को मज़बूत नहीं किया जा सकता और इस तरह के किसी भी शख़्स को असाधारण रूप से ज़रूरत से ज़्यादा अहमियत नहीं दी जा सकती है।

जहां तक मोदी का सवाल है, तो मोदी ख़ुद ही इस पटकथा को तक़रीबन दो दशकों से अमली जामा पहनाते रहे हैं, उन्होंने इसके लिए डिज़ाइनर पोशक और सहायक साधनों के साथ अपने दृश्य प्रभाव को बढ़ाने पर काफ़ी ज़ोर देना शुरू किया था। सार्वजनिक रूप से अपने नाम का इस्तेमाल और उसका असर आम लोगों पर किस हद तक डालना है, इसका पहला सबूत जनवरी 2015 में तब मिला था, जब उन्होंने संयुक्त राज्य अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा के साथ अपने व्यक्तिगत चाय-सेशन के दौरान ख़ास तौर पर पूरे कपड़े में अपने नाम से बुने हुए सूट वाली मशहूर पोशाक पहनी थी।

शुरू में ब्रांड मोदी को बनाने को लेकर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ असहज था, लेकिन पिछले कुछ सालों में संघ ने इस मामले में समझौता कर लिया है। मोटेरा सरदार पटेल स्टेडियम के इस नये नामकरण पर संघ की चुप्पी आरएसएस के इस बात को स्वीकार कर लिये जाने का संकेत है कि व्यावहारिक राजनीति में एक शख़्स उतना ही अहम हो गया/गयी है, जितना की ख़ुद वह राजनीति, जिसका कि वह शख़्स वक़ालत करता/करती है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के पुराने सदस्य कई दशक पहले के उस दौर को याद करते हैं, जब उन्होंने महाराष्ट्र के कांग्रेस नेता वाईबी चव्हाण के ख़ुद के नाम पर नागपुर में एक स्टेडियम के नामकरण को लेकर मजाक उड़ाया था।

ग़ौरतलब है कि मोदी ने आरएसएस की गतिविधियों में भाग लेना तभी शुरू कर दिया था, जब वह बहुत ही छोटी उम्र के थे, हालांकि 1970 के दशक के शुरुआती दिनों में वह औपचारिक रूप से 20 साल की उम्र में इस संगठन में शामिल हो गये थे। आरएसएस में बिताये उनके शुरुआती सालों में, जब उन्हें अहम कार्य सौंपे गये थे, संयोग से वही वह दौर था जब 1925 में स्थापित इस संगठन के तीसरे प्रमुख, बालासाहेब देवरस ने सरसंघचालक को देवताओं की तरह पूजे जाने को लेकर आधार उपलब्ध कराने वाली परंपराओं पर निर्णायक रूप से रोक लगा थी।

हालांकि, आरएसएस के संस्थापक, केशव बलराम हेडगेवार भगवा बिरादरी के भीतर किसी देवता की तरह पूजे जाने वाले शख़्स आज भी बने हुए हैं, ऐसा इसलिए है, क्योंकि उन्होंने इस संगठन की स्थापना की थी, दूसरे सरसंघचालक, एमएस गोलवलकर एक श्रद्धेय नेता हैं, क्योंकि अपनी हैसियत की जाल में फंसे होने के बावजूद वह इस पद को अनासक्त वैराग्य के स्तर तक ले गये थे। गोलवलकर ने औपचारिक तौर पर तो इस संगठन के भीतर किसी भी तरह के व्यक्तित्व पूजा का विरोध किया था, लेकिन उन परंपराओं में बदलाव लाने को लेकर उन्होंने कोई क़दम नहीं उठाया था, जिसकी वजह से शीर्ष नेतृत्व का महिमामंडन होता रहा है।

गोलवलकर के प्रति सहानुभूति रखने वाले उनके जीवनीकार, सीपी बिशकर ने सरसंघचालक के बारे में लिखा है कि वे "अपने (व्यक्तिगत) नाम, प्रसिद्धि और प्रचार के इस्तेमाल" के पूरी तरह ख़िलाफ़ थे। 

लेकिन, यह देवरस ही थे,जिन्होंने एकदम साफ़-साफ़ निर्देश दिया था कि भविष्य के सरसंघचालकों, जिसमें वह ख़ुद भी शामिल थे, उनमें से किसी के भी स्मारक का निर्माण हेडगेवार और गोलवलकर के नागपुर स्थित 21 एकड़ के इस रेशिमबाग़ परिसर में नहीं किया जायेगा। उन्होंने यह निर्देश भी दिया था कि इन दोनों के अलावा किसी अन्य नेताओं की तस्वीरें आरएसएस कार्यालयों के प्रज्वलित अग्निस्थान के ऊपर बने ताक़ पर प्रदर्शित नहीं की जायेगी। इसके अलावा उनका यह भी निर्देश था कि पहले दो नेताओं को छोड़कर बाक़ी किसी के नाम के आगे परम पूज्य शब्द नहीं लगाया जायेगा।

तब से व्यक्तिगत गौरव के इन दो उदाहरणों को छोड़कर आरएसएस देवरस के निर्देश के प्रति इस तरह समर्पित रहा है कि किसी व्यक्ति के प्रति सम्मान और श्रद्धा से उनका यह संस्कार नहीं बदलता रहा है। ये वही साल हैं, जब मोदी ने अपने शुरुआती साल बिताये थे और दिलचस्प बात है कि उसी दरम्यान इन महत्वपूर्ण निर्देशों को संहिताबद्ध किया गया था। इस तरह, कभी सरदार वल्लभभाई पटेल स्टेडियम के नाम से जाने जाते रहे इस स्टेडियम का नाम मोदी के अपने नाम पर रखे जाने पर 'सहमत' होने का उनका यह फैसला उन मूल्यों और सिद्धांतों के साथ पूरी तरह से मेल नहीं खाता है, जिन मूल्यों और सिद्धांतों के साथ उन्हें राजनीति में उतारा गया था।

इसके अलावा, मोदी ने कांग्रेस पर पलटवार करते हुए केंद्र में लम्बे समय तक बने रहने वाली कांग्रेस की सरकार के दौरान और उससे पहले जवाहरलाल नेहरू, इंदिरा गांधी और राजीव गांधी जैसे नेताओं के नाम पर गलियों, कालोनियों, संस्थानों और सरकारी कार्यक्रमों के नाम रखे जाने पर बहुत ज़ोर दिया है। लेकिन, अगर मोदी का कांग्रेस पर यह आरोप है, तो मोदी भी उसी रास्ते पर चलकर उन आरोपों की दिशा को अपनी तरफ़ मोड़ दे रहे हैं कि वह भी तो आख़िर उन्हीं साधनों का इस्तेमाल कर रहे है और इस तरह कांग्रेस की आलोचना महज़ एक पाखंड है।

दो दशकों से जहां मोदी के व्यक्तित्व का प्रचारवादी आयाम किसी से तक़रीबन छिपा हुआ तो नहीं है, लेकिन मौजूदा शासन के साथ संघ के तालमेल बिठाने के बाद मोदी के नाम पर स्टेडियम के नामकरण पर आरएसएस नेतृत्व की यह चुप्पी उनकी सीमाओं को रेखांकित करती है। आरएसएस यह मानना चाहेगा कि मौजूदा व्यवस्था उसके कार्यकर्ताओं के लिए स्वीकार्य इसलिए है, क्योंकि उनका विश्वास है कि जहां भाजपा नेतृत्व सत्ता की तलाश और उसे ठोस रूप देने में नैतिक रूप से अनुचित और असामान्य व्यवहार अपना सकती है, वहीं यह राष्ट्र की कार्यपालिका की भूमिका निभाते समय उसी रणनीति का इस्तेमाल नहीं करती है।

मोदी हुक़ूमत ने संघ परिवार के कई राजनीतिक मक़सदों को पूरा करके संघ परिवार को शांत कर दिया है और संकेत दे दिया है कि आने वाले सालों में करने के लिए और भी बहुत कुछ है। लंबे समय से चले आ रहे इन लक्ष्यों को हासिल करने के साथ आरएसएस नेतृत्व निश्चित रूप से अन्य मोर्चों पर आंखें मूंद लेने के लिए तैयार है और इन्हीं में स्टेडियम का नाम बदलना जैसे मामला भी शामिल है।

इससे एक अहम सवाल खड़ा होता है कि क्या आरएसएस का नेतृत्व अचानक बदले हुए इस दृष्टिकोण पर ज़ोर दे रहा है कि अगर भाजपा शासन चुनावी प्रणाली पर पूर्ण आधिपत्य स्थापित कर लेता है, तो संगठन अपनी उपयोगिता को क़ायम रख पायेगा? आरएसएस के नेता हमेशा से यह कहते रहे हैं कि “संघ की आख़िरी आकांक्षा समाज बनाने" की है, यानी आरएसएस की आकांक्षा उसकी बिरादरी का समाज में असरदार तबका बनने की रही है।

एक सदी से वकालत किये जा रहे इस मक़सद की तलाश में प्रत्येक नैतिक सिद्धांत को दिखावे के तौर पर सामने रखा जा रहा है। आरएसएस के नेतृत्व और उसकी बिरादरी से जुड़ी तमाम संस्थाओं का जुड़ाव हाल के सालों में बड़े कॉर्पोरेट साम्राज्यों के साथ रहा है और संघ परिवार-प्रबंधित विभिन्न परियोजनाओं के लिए उन्हें मदद मिलती रही है,जो बिना किसी संदेह के इसकी बिरादरी की सामाजिक मौजूदगी को बढ़ाता है।

मोदी के नाम पर स्टेडियम के इस नामकरण पर संघ का मौन यह भी दर्शाता है कि भारतीय जनता पार्टी पर अब आरएसएस का नियंत्रण वैसा नहीं रह गया है, जैसा कि कभी हुआ करता था। हाल के सालों में मोदी और उनके करीबी सहयोगी (या सहयोगियों) की हैसियत हक़ीक़त से कहीं बड़ी बना दी गयी है, जबकि इसके ठीक उलट,जनता के साथ जुड़े तक़रीबन हर दूसरे संबद्ध संगठन के नेताओं की हैसियत में लगातार गिरावट आयी है। मसलन, मोदी से छत्तीस का आकड़ा रखने वाले प्रवीण तोगड़िया को विश्व हिंदू परिषद में अलग-थलग कर दिया गया है। ऐसा कभी हुआ करता था कि नानाजी देशमुख और दत्तोपंत ठेंगडी जैसे राजनीतिक दिग्गज उस समय के बीजेपी दिग्गज नेताओं पर नज़र रखा करते थे, लेकिन मौजूदा राष्ट्रीय नेतृत्व के इशारे पर इस तरह की किसी भी परिदृश्य को ख़त्म कर दिया गया है।

1991 के लोकसभा चुनावों के बाद जब बीजेपी के नेता निजी तौर पर शानदार प्रदर्शन करने का दावा कर रहे थे, तब पीछे से राजनीतिक रणनीति तय करने वाले केएन गोविंदाचार्य ने इस लेखक सहित कुछ पत्रकारों को बताया था कि बीजेपी आख़िरकार कांग्रेस की जगह ले लेगी।

उन्होंने अपना जाना-पहचाना ज़ोरदार ठहाका लगाते हुए कहा था, "हम कांग्रेस की जगह नहीं लेंगे, बल्कि हम दूसरी कांग्रेस हो जायेंगे।"

देश के लिए डंक के रूप में गूंजी वह हंसी शायद ही कभी वापस आयी हो। इस सबके बीच यह साफ़-साफ़ दिखने लगा है कि बीजेपी अब वह पार्टी नहीं रही, जिसका कभी 'एक अलग मिज़ाज वाली पार्टी' (party with a difference) होने का दावा था। मोदी ने यह भी साबित कर दिया है कि परिवार भी अब अलग मिज़ाज वाला संगठन नहीं रहा।

(नीलांजन मुखोपाध्याय एनसीआर स्थित एक लेखक और पत्रकार हैं। उन्होंने ‘द आरएसएस: आइकन्स ऑफ़ द इंडियन राइट और नरेंद्र मोदी: द मैन,द टाइम्स’ किताबें लिखी हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करे

Renaming Motera Stadium: The Silence of Nagpur

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