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40 साल में पहली बार घटी लोगों के खर्च करने की क्षमता: रिपोर्ट
नेशनल स्टैटिस्टिकल ऑफिस (एनएसओ) के लीक हुए सर्वे के अनुसार एक महीने में एक भारतीय द्वारा खर्च की गई औसत राशि 2011-12 में 1,501 रुपये से गिरकर 2017-18 में 1,446 रुपये रह गई।
न्यूज़क्लिक रिपोर्ट
15 Nov 2019
kirana stor
Image courtesy: Business Standard

भारतीय अर्थव्यवस्था में आमजन की हैसियत को दर्शा रहे एक और आंकड़े को सरकार ने दबा लिया था। नेशनल स्टैटिस्टिकल ऑफिस (एनएसओ) की रिपोर्ट से खुलासा हुआ है कि 40 साल में अब उपभोक्ता खर्च में गिरावट आई है। यानी वह आंकड़ें जो आम जनता की महीने में खर्च की गयी राशि को दर्शाते हैं। इस रिपोर्ट के तहत यह पता चला है कि पिछले चालीस सालों में इस समय लोग प्रति महीने सबसे कम खर्चा कर रहे हैं।

बिजनेस स्टैंडर्ड की एक रिपोर्ट के मुताबिक, ‘स्टेट इंडिकेटर्स: होम कंज्यूमर एक्सपेंडिचर इन इंडिया’ शीर्षक से लीक हुए एनएसओ के सर्वे में दिखाया गया है कि एक महीने में एक भारतीय द्वारा खर्च की गई औसत राशि 2011-12 में 1,501 रुपये से गिरकर 2017-18 में 3.7 प्रतिशत यानि 1,446 रुपये रह गई।

यानी साल 2017-18 में एक व्यक्ति तकरीबन 1,446 रुपये खर्च कर रहा है। यह साल 2011-12 के मुकाबले 3.7 फीसदी कम है। साल 2011-12 में वह 1501 रुपये खर्च करता था। यह आंकड़े साल 2010 को आधार वर्ष बनाकर दिए गए हैं। इसक साथ महंगाई दर को भी शामिल किया गया है। यानी साल 2010 के बाद महंगाई दर से होने वाले इजाफा को नहीं दिखाया गया। तकनीकी शब्दावली में इसे रीयल टर्म में दिखाए गए आंकड़े कहते हैं।  

बिजनेस स्टैंडर्ड की रिपोर्ट के मुताबिक इस सर्वे को छिपाने का कारण वही पुराना है कि खबर बाहर आने से सरकारी कामकाज पर सवाल उठेगा। सरकार की छवि धूमिल होगी। इसलिए जुलाई 2017 से 2018 के बीच किये गए सर्वे को जून 19, 2019 को नेशनल स्टैटिस्टिकल ऑफिस से प्रकाशित करने की मंजूरी मिलने के बाद भी रोक दिया गया।

इन आंकड़ों से उनकी बातों को दम मिलता है जो अर्थव्यवस्था को भांपने में लगे रहते हैं।  उनकी बातों को भी वजन मिलता है जो रोजमर्रा की जिंदगी से जूझते हुए कई महीनों से कहते आ रहे हैं कि लोगों की कमाई नहीं हो रही है। कमाई है भी तो बहुत कम है साथ में यह भी डर लग रहा है कि कहीं उनके कमाई का जरिया भी न चला जाए।
 
लोगों के खर्च में ऐसी कमी का सबसे बड़ा कारण है, ग्रामीण इलाके में मांग में कमी होना। यानी ग्रामीण इलाके के लोगों के पास पैसा नहीं है। और वह पहले के मुकाबले भी बहुत कम खर्च करने लगे हैं।

जानकारों का इन आंकड़ों पर कहना है कि अगर लोगों के खर्च के आंकड़े ऐसे हैं तो इसका मतलब है कि भारत में गरीबी और अधिक फैल रही है। लोगों की आमदनी कम हो रही है। और इन आंकड़ों से यह साफ़ नजर आ रहा है कि अर्थव्यवस्था में मांग की कमी क्यों हैं? ग्रामीण इलाके के लोगों के खर्च में साल 2011-12 के मुकाबले 8.8 फीसदी की कमी आयी है। और भारत के छह बड़े शहरों में लोगों के खर्चें में पिछले छह सालों में तकरीबन 2.2 फीसदी का इजाफा हुआ है।  

बिजनेस स्टैंडर्ड से बातचीत में जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय के प्रोफेसर हिमांशु सिंह कहते हैं कि इन पांच दशकों में ऐसा कभी भी नहीं हुआ कि लोगों की खर्च करने की मंहगाई दर को समायोजित करने के बाद भी कमी आयी हो। यानी महंगाई दर को हटाकर देखने के बाद कमी आयी हो। ऐसा पहली बार हो रहा है कि लोग साल 2011-12 में प्रति महीना जितना खर्च करते थे, उससे कम साल 2017-18 में कर रहे हैं। इन आंकड़ों से यह भी पता चलता है कि गरीबी के आंकड़ों में भारी इजाफा हुआ है। हो सकता है कि कुल आबादी में गरीबी की संख्या में 10 पॉइंट का इजाफा हुआ हो। इससे पहले आम आदमी के खर्चों में इतनी भारी गिरावट साल 1972-73 में वैश्विक स्तर पर तेल संकट के दौरान उभरी थी।

इस रिपोर्ट पर जानकारों का कहना है कि इस रिपोर्ट में सबसे चौंकाने वाली बात यह निकल रही है कि लोगों ने खाद्य पदार्थों पर खर्च करना कम किया है। ऐसा दस सालों में पहली बार दिख रहा है। लोगों के खर्च में ऐसे लक्षण समाज में अल्पपोषण की तरफ ले जाते हैं। आंकड़ों से साफ़ है कि साल 2017-18 में  ग्रामीण इलाके में 643 रुपये प्रति महीने खर्च किये जाते थे अब यह खर्च केवल 580 रुपये प्रति महीने हो चुका है।  

इस रिपोर्ट से पता चलता है कि ग्रामीण इलाके में लोगों ने दूध और दूध से बने चीजों के अलावा सभी खाद्य पदार्थों की कम खरीददारी की। पूरे भारत में लोगों ने खाने वाले तेल, चीनी, नमक मसालों जैसे खाद्य पदार्थों की खपत में भी कमी आयी है।

बिजनेस स्टैंडर्ड से बातचीत में अभिजीत सेन कहते हैं कि चूंकि यह आंकड़े साल 2011-12 के बाद साल 2017-18 के लिए आ रहे है। इसलिए यह बताना बहुत मुश्किल है कि खर्च में कब से कमी आनी शुरू हुई। यह कृषि क्षेत्र की बदहाली की तरफ भी इशारा करता है।

इस रिपोर्ट को उन सभी रिपोर्टों के साथ देखने की जरूरत है, जो पिछले कई महीने से सामने  आ रही है और भारतीय अर्थव्यवस्था के खस्ताहाली को दिखा रही है। जैसे जीडीपी के आंकड़े,  पिछले 45 साल में सबसे अधिक बेरोजगारी दर के आंकड़े।  इन आंकड़ों के सामने आने से यह बात साफ़ हो रही है कि भारत ने उदारीकरण के बाद कुछ लोगों का विकास कर जो कमाया था, उसे गंवाने वाली नौबत में पहुँच गया है।

अर्थव्यवस्था बुरे चक्र में फंस चुकी है। लोगों की आमदनी बहुत कम है, खर्च कम है, मांग नहीं है। इसलिए अर्थव्यवस्था को बचाने के चाहें जो तरीकों हो लेकिन यह तरीका तो कत्तई कारगर नहीं कि कॉर्पोरेट टैक्स में कमी कर दी जाए और अर्थव्यवस्था को बचा लिया जाए।

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Nirmala Sitharaman
National Statistical Office
Unemployment under Modi govt in India

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