NewsClick

NewsClick
  • English
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • हमारे लेख
  • हमारे वीडियो
search
menu

सदस्यता लें, समर्थन करें

image/svg+xml
  • सारे लेख
  • न्यूज़क्लिक लेख
  • सारे वीडियो
  • न्यूज़क्लिक वीडियो
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • अफ्रीका
  • लैटिन अमेरिका
  • फिलिस्तीन
  • नेपाल
  • पाकिस्तान
  • श्री लंका
  • अमेरिका
  • एशिया के बाकी
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें
सब्सक्राइब करें
हमारा अनुसरण करो Facebook - Newsclick Twitter - Newsclick RSS - Newsclick
close menu
भारत
राजनीति
चंद रुपए खाते में डालकर वोट हड़पने की रणनीति आम क्यों हो गई है?
चंद रुपए खाते में डालने और चंद राहतें पहुंचाने वाली भाजपा, आम आदमी पार्टी से लेकर समाजवादी पार्टी की रणनीति का क्या मतलब है?
अजय कुमार
13 Jan 2022
election
Image courtesy : Citizen Matters

सरकार का काम है कि उन लोगों को रोजगार दे जो लोग काम की तलाश में निकले हैं। लोगों को उनकी मेहनत का वाजिब मेहनताना दे। यह सब करने के बजाय सरकार लोगों के खाते में चंद पैसे पहुंचाने की योजना बनाती है। हल्की-फुलकी राहत देने की घोषणा करती है।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने किसानों को एमएससी की लीगल गारंटी नहीं दी। लेकिन 3 महीने में ₹2 हजार खाते में डालने की योजना थमा दी। मजदूरों को काम नहीं मिला, लेकिन उनका श्रम कार्ड बनवाया जा रहा है। मोदी सरकार सस्ती शिक्षा सस्ता इलाज सब को रोजगार देने की बजाय 5 किलो चावल, 5 किलो दाल और 5 किलो गेहूं देने की योजना बनाती है। इसी तर्ज पर अरविंद केजरीवाल का कहना है कि अगर पंजाब के लोग उन्हें सत्ता देंगे तो 18 साल से अधिक उम्र की औरतों के खाते में ₹1000 हर महीने भेजेंगे। समाजवादी पार्टी का कहना है कि अगर वह चुनाव जीतकर आएगी तो 300 यूनिट बिजली मुफ्त कर देगी।

यह सारी घोषणाएं उस दौर में की जा रही हैं जब पेट्रोल डीजल का भाव ₹100 को पार कर जा रहा है। खाने का तेल ₹200 प्रति लीटर तक पहुंच जा रहा है। घर में अगर दो बच्चे हो तो पढ़ाई-लिखाई पर महीने में कम से कम ₹10 हजार रूपए खर्च हो जाता है। दिल्ली जैसे शहर में ₹5000 प्रति महीने से कम के किराए का घर नहीं मिलता। ऐसे समय में जब गरिमा पूर्ण जीवन जीने के लिए महीने में कम से कम 30 से ₹40 हजार कमाई की जरूरत है।

ऐसे में सवाल उठता है कि आखिरकार यह प्रवृत्ति क्या है? सरकार लोगों को रोजगार देने के बजाय गरिमा पूर्ण जीवन का माहौल देने के बजाय उन्हें चंद पैसे और चंद रायहते देने वाली योजनाएं और घोषणाएं क्यों करती है?

मोदी सरकार की रहनुमाई की वकालत करने वाले लोग इसे फ्रीबीज पॉलिटिक्स (freebies politics) का नाम देकर खारिज करते हैं। जो अपने घर परिवार के अलावा दुनिया में दूसरों के बारे में नहीं सोचते हैं, वे इसे मुफ्तखोरी की राजनीति कहकर खारिज करते हैं। लेकिन यही लोग कभी यह नहीं सोचते कि आखिरकर सरकारें क्यों बनाई जाती हैं? सरकार का काम क्या होता है? यह लोग अपनी आंखें बंद करके बनी बनाई लीक पर चलते है।

जब मीडिया वाले उनके भीतर नफरत भरते हैं तो फर्जी सवाल पूछ बैठते हैं कि जनता का पैसा जेएनयू की फ़्री पढ़ाई देने पर खर्च किया जा रहा है। जिस रोड को किसानों ने अपने आंदोलन के लिए इस्तेमाल किया है, वह जनता के पैसे से बना है। यह सारी बातें मीडिया की नफरत की वजह से पैदा होती है।

मीडिया का उदाहरण देखिए। जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी किसानों के खाते में ₹6000 पहुंचाने की योजना बनाते हैं तो मीडिया वाले इसे मास्टर स्ट्रोक कहते हैं। लेकिन ऐसा ही कोई काम जब दूसरे विपक्षी दल चुनाव से ठीक पहले करते हैं तो मीडिया वाले इसे मुफ्त खोरी की राजनीति कहकर बदनाम करने में लग जाते हैं। केवल मीडिया वाले ही नहीं बल्कि वे सभी जो कारोबार राजनीति प्रशासन के गठबंधन में मलाई काटते हैं वे सवाल उठने लगते हैं कि सरकार इतना पैसा लाएगी कहां से?

वरिष्ठ आर्थिक पत्रकार अनिंदो चक्रवर्ती कहते हैं कि यह सारी प्रवृत्ति पिछले तीन दशक से बाजार के हावी होने की वजह से पैदा हुई है। पूंजीवादी  तर्कों और विमर्शों की आपसी चर्चाओं में मजबूत होने की वजह से पैदा हुई है।

समाज के सबसे अधिक मुखर लोगों में अधिकतर कहीं ना कहीं पैसे के गठबंधन से जुड़े हुए होते हैं। एक उदाहरण से समझिए। कारपोरेट पॉलिटिक्स को चलाती है। कारपोरेट मीडिया को चलाते हैं। कॉरपोरेट मीडिया और पॉलिटिक्स से छोटे छोटे व्यापारी से लेकर बड़े बड़े कारोबारी सब जुड़े होते हैं। इन सब की सेवाओं के लिए शासन प्रशासन नेता वकील पत्रकार लगे रहते हैं। इन सब का कामकाज और जीवन का मुनाफा आपसी गठबंधन और नेटवर्क पर टिका होता है। अगर कोई इनके नेटवर्क पर हमला करता है तो यह सब मिलकर उसे बाहर कर देते हैं।

यह सब मिलकर के समाज के रोजाना के ओपिनियन का निर्माण करते हैं। इस ओपिनियन में यह सब उस तर्क को काटने की कोशिश करते हैं जिससे इनके पूंजीवादी नेटवर्क में सेंध लगती दिखाई दे। ये लोग फ्री सिलेंडर लैपटॉप साइकिल देने को मुफ्त खोरी की राजनीति कह कर जितनी तीव्रता से खारिज करते हैं उतनी ही गहरी चुप्पी कारपोरेट को सस्ते ब्याज दर पर दी जाने वाली कर्ज पर बनाए रखते हैं। कॉरपोरेट को टैक्स के जरिए दी जाने वाली माफी पर बनाए रखते है। इनकी काल्पनिक सोच को लगता है कि कॉरपोरेट को प्रोत्साहन देने पर नौकरियों का निर्माण होगा। लोगों को रोजगार मिलेगा  उनका घर चलेगा। यहीं पर यह सब फेल है।

रोजगार का निर्माण वहीं पर होता है, जहां पर लोगों की जेब में पैसा होता है। जहां पर लोग मांग करने की हैसियत में रहते हैं। मांग बढ़ेगी तो बिक्री बढ़ेगी, बिक्री बढ़ेगी तो उद्योग लगेंगे, उद्योग धंधे लगेंगे तो रोजगार का विकास होगा।

सरकार चुनाव लड़ने के लिए कॉरपोरेट से तो पैसा ले लेती है। कारपोरेट सरकार से सस्ते ब्याज दर पर कर्ज ले लेता है। सस्ती दर पर जमीन पर हासिल कर लेता है। और भी कई तरह की सहूलियत हासिल कर लेता है। लेकिन कॉरपोरेट नौकरी नहीं पैदा कर पाता। यहां पर कॉर्पोरेट का समर्थन करने वाले फेल हो जाते हैं।

द हिंदू के पॉलिटिकल एडिटर विग्नेश के जॉर्ज लिखते हैं कि एक ठीक-ठाक लोकतांत्रिक स्थिति में राजनेता की इच्छा होती है कि वह ऐसा माहौल पैदा करे, जिससे नौकरियां पैदा हो। लोगों का जीवन आसान बने। सबको अपना हक मिल पाए। लेकिन यहीं पर निवेश करने वाला केवल अपने मुनाफे के बारे में सोचता है।

यही दिक्कत खड़ी हो गई है। सब कुछ लचर हो गया है। निवेश निवेश करने वाले चाह रहे हैं उनका मुनाफा बढ़ते रहे। सस्ते से सस्ता लेबर मिले। लेबर फ़ोर्स ना बढ़ें। ऐसी जगह पर निवेश किया जाए जहां से मुनाफा बन जाए भले जनकल्याण हो या ना हो। इसीलिए नौकरियां नहीं पैदा हो रही है।

पिछले 5 साल के रोजगार के आंकड़े भी यही कहते हैं भारत का लेबर फोर्स पार्टिसिपेशन रेट दुनिया के दूसरे मुल्कों  से बहुत कम है। जहां दुनिया के दूसरे मुल्कों में 60 से 70% कामकाज आबादी लेबर कोर्ट की भागीदार है वहीं पर भारत में केवल 40% आबादी लेबर फोर्स हिस्सा है। यह बताता है कि भारत में बाजार के जरिए विकास की परियोजना पूरी तरह से फेल साबित हुई है।

1982 से अब तक के आंकड़े बताते हैं कि सबसे निचले पायदान पर मौजूद 30% आबादी की वास्तविक आय वृद्धि दर घटती जा रही है। यानी रोजाना इस्तेमाल होने वाली सामानों और सेवाओं की कीमतें 1982 के बाद जिस दर से बढ़ी हैं उस दर से सबसे नीचे मौजूद 30% आबादी की आमदनी नहीं बढ़ी है। शिक्षा और सेहत का खर्चा जितना बढ़ा है उतनी कमाई नहीं बढ़ी है।

वर्ल्ड इनिक्वालिटी डेटाबेस के आंकड़े बताते हैं कि भारत की केवल 10% आबादी है ऐसी है जो टीवी लैपटॉप मोबाइल रेफ्रिजरेटर वाशिंग मशीन खरीदने जाती है तो कीमत की चिंता नहीं करती। गुणवत्ता के हिसाब से जो  ठीक लगता है उसे खरीद सकने की क्षमता रखती है। इस 10% के बाद आमदनी के हिसाब से जो 30% जनता आती है, वह कीमत का हिसाब - किताब लगाकर सामान और सेवाएं खरीदनी है। इस 30% के बाद आने वाली जनता हमेशा सस्ते से सस्ता सामान और सेवा चाहते हैं। बाकी सबसे निचले पायदान पर मौजूद 30% जनता हमेशा गरीबी में जीती है। उसके लिए सबसे बड़ी चिंता दो वक्त की रोटी है।

चुनाव में वोट तो सबका होता है। जितनी कीमत अंबानी की वोट की है, उतनी ही कीमत किसी ऐसे व्यक्ति के भी है जो लोकतंत्र के आदर्शों के साथ जिंदगी जीता है और इतनी ही कीमत किसी ऐसे व्यक्ति की भी है जिसे हर दिन की चिंताओं के सिवाय दुनिया की दूसरी चिंताओं से कोई लेना देना नहीं। भारत में 35 से 40% वोट पाकर पार्टियां सत्ता हासिल कर लेती है। वहां पर अगर 30% जनता भीषण गरीबी में जी रही हो तो नमक चावल गेहूं दाल सहित चंद पैसे खाते में पहुंचना राहत की बात भी है और वोट हासिल करने के हिसाब से ठीक-ठाक रणनीति भी है।

चंद पैसे देकर वोट हासिल करने वाले रणनीति तभी टूटेगी जब गरीबी आर्थिक असमानता और बर्बाद हो चुका भारत का आर्थिक मॉडल लोगों के बीच चर्चा का केंद्र बनेगा। नहीं तो नेता लोग चंद् रुपया बांटकर सारा माल हड़पने वाले नीति पर चलते रहेंगे।

Assembly elections
Money in indian election
Money and Elections
unemployment
poverty
BJP
AAP
SP
INDIAN POLITICS

Related Stories

बिहार: पांच लोगों की हत्या या आत्महत्या? क़र्ज़ में डूबा था परिवार

भाजपा के इस्लामोफ़ोबिया ने भारत को कहां पहुंचा दिया?

डरावना आर्थिक संकट: न तो ख़रीदने की ताक़त, न कोई नौकरी, और उस पर बढ़ती कीमतें

कश्मीर में हिंसा का दौर: कुछ ज़रूरी सवाल

सम्राट पृथ्वीराज: संघ द्वारा इतिहास के साथ खिलवाड़ की एक और कोशिश

हैदराबाद : मर्सिडीज़ गैंगरेप को क्या राजनीतिक कारणों से दबाया जा रहा है?

ग्राउंड रिपोर्टः पीएम मोदी का ‘क्योटो’, जहां कब्रिस्तान में सिसक रहीं कई फटेहाल ज़िंदगियां

धारा 370 को हटाना : केंद्र की रणनीति हर बार उल्टी पड़ती रहती है

मोहन भागवत का बयान, कश्मीर में जारी हमले और आर्यन खान को क्लीनचिट

मंडल राजनीति का तीसरा अवतार जाति आधारित गणना, कमंडल की राजनीति पर लग सकती है लगाम 


बाकी खबरें

  • संदीपन तालुकदार
    वैज्ञानिकों ने कहा- धरती के 44% हिस्से को बायोडायवर्सिटी और इकोसिस्टम के की सुरक्षा के लिए संरक्षण की आवश्यकता है
    04 Jun 2022
    यह अध्ययन अत्यंत महत्वपूर्ण है क्योंकि दुनिया भर की सरकारें जैव विविधता संरक्षण के लिए अपने  लक्ष्य निर्धारित करना शुरू कर चुकी हैं, जो विशेषज्ञों को लगता है कि अगले दशक के लिए एजेंडा बनाएगा।
  • सोनिया यादव
    हैदराबाद : मर्सिडीज़ गैंगरेप को क्या राजनीतिक कारणों से दबाया जा रहा है?
    04 Jun 2022
    17 साल की नाबालिग़ से कथित गैंगरेप का मामला हाई-प्रोफ़ाइल होने की वजह से प्रदेश में एक राजनीतिक विवाद का कारण बन गया है।
  • न्यूज़क्लिक रिपोर्ट
    छत्तीसगढ़ : दो सूत्रीय मांगों को लेकर बड़ी संख्या में मनरेगा कर्मियों ने इस्तीफ़ा दिया
    04 Jun 2022
    राज्य में बड़ी संख्या में मनरेगा कर्मियों ने इस्तीफ़ा दे दिया है। दो दिन पहले इन कर्मियों के महासंघ की ओर से मांग न मानने पर सामूहिक इस्तीफ़े का ऐलान किया गया था।
  • bulldozer politics
    न्यूज़क्लिक टीम
    वे डरते हैं...तमाम गोला-बारूद पुलिस-फ़ौज और बुलडोज़र के बावजूद!
    04 Jun 2022
    बुलडोज़र क्या है? सत्ता का यंत्र… ताक़त का नशा, जो कुचल देता है ग़रीबों के आशियाने... और यह कोई यह ऐरा-गैरा बुलडोज़र नहीं यह हिंदुत्व फ़ासीवादी बुलडोज़र है, इस्लामोफ़ोबिया के मंत्र से यह चलता है……
  • आज का कार्टून
    कार्टून क्लिक: उनकी ‘शाखा’, उनके ‘पौधे’
    04 Jun 2022
    यूं तो आरएसएस पौधे नहीं ‘शाखा’ लगाता है, लेकिन उसके छात्र संगठन अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (एबीवीपी) ने एक करोड़ पौधे लगाने का ऐलान किया है।
  • Load More
सब्सक्राइब करें
हमसे जुडे
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें

CC BY-NC-ND This work is licensed under a Creative Commons Attribution-NonCommercial-NoDerivatives 4.0 International License