NewsClick

NewsClick
  • English
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • हमारे लेख
  • हमारे वीडियो
search
menu

सदस्यता लें, समर्थन करें

image/svg+xml
  • सारे लेख
  • न्यूज़क्लिक लेख
  • सारे वीडियो
  • न्यूज़क्लिक वीडियो
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • अफ्रीका
  • लैटिन अमेरिका
  • फिलिस्तीन
  • नेपाल
  • पाकिस्तान
  • श्री लंका
  • अमेरिका
  • एशिया के बाकी
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें
सब्सक्राइब करें
हमारा अनुसरण करो Facebook - Newsclick Twitter - Newsclick RSS - Newsclick
close menu
कोविड-19
स्वास्थ्य
विज्ञान
भारत
मानवता को बचाने में वैज्ञानिकों की प्रयोगशालाओं के बाहर भी एक राजनीतिक भूमिका है
लोगों के हालात जैसे भी हों, क्या एक वैज्ञानिक दुनिया भर में सामाजिक लक्ष्य के अपने आविष्कारों की नियति चुनने के लिए अपनी स्वतंत्रता का इस्तेमाल कर सकता है?
जमील बरकत, अमित साधुख़ान
09 Jun 2021
Translated by महेश कुमार
वैज्ञानिकों

वैज्ञानिक खोज या आविष्कार जरूरी हैं, लेकिन पर्याप्त नहीं हैं, क्योंकि नागरिकों के व्यापक वैज्ञानिक स्वभाव को तैयार करने और खोज या आविष्कारों के सार्वभौमिक वितरण को आगे बढ़ाने के लिए पर्याप्त वित्त नहीं मिल पाता है इसलिए वांछित सामाजिक लक्ष्यों को हासिल करना नामुमकिन लगता है। उदाहरण के लिए, कोविड-19 वैक्सीन को रिकॉर्ड समय में विकसित कर लिया गया जिसने सब में महामारी को नियंत्रित करने, मृत्यु दर में कमी लाने और सामाजिक-आर्थिक स्थिरता को बहाल करने की आशा पैदा कर दी। हालांकि कोविड-19 वैक्सीन को समय पर विकसित कर निर्विवाद रूप से वैज्ञानिक प्रयास को पूरा किया है, लेकिन टीके की कमी – वह भी जनता के एक बड़े हिस्से के लिए दयनीय स्थिति को दर्शाता है – जिन देशों में बहुसंख्यक आबादी और वैक्सीन की सस्ती पहुंच होगी वहाँ इस वैज्ञानिक सफलता के सामाजिक मूल्य को हासिल करने के लिए बेहतर हालत होना जरूरी हैं। 

वैज्ञानिक आविष्कारों का दर्शन अधूरा रहेगा जब तक अज्ञानता को समाप्त करने में इसके  सामाजिक सिद्धान्त का सीतेमाल नहीं किया जाता है, ताकि रोके जा सकने वाले कष्टों को दूर किया जा सके, न्याय को बढ़ावा देना और अंतत एक ऐसे समाज के निर्माण में योगदान देना जिसमें सामाजिक मूल्यों का विस्तार हो जहां लोग ऐसा जीवन जी सके जो बिना अभावों के जीवन जीने का रास्ता हो। विज्ञान का उद्देश्य सिर्फ नए आविष्कार करना नहीं हो सकता; यह समाज के भीतर स्वतंत्रता को बढ़ावा देना भी सुनिश्चित करता है। इसलिए केवल प्रयोगशाला के भीतर सीमित वैज्ञानिक खोजों का उत्सव सामाजिक लक्ष्यों को प्राप्त करने के मामले में अपर्याप्त होगा, जिसके लिए वैज्ञानिक समुदाय को सामाजिक संवेदनशीलता और राजनीतिक जिम्मेदारी के साथ प्रयोगशाला से बाहर कदम रखना होगा। 1950 के दशक में विज्ञान और विश्व मामलों पर पगवाश सम्मेलन हुआ था, जिसका उद्देश्य मानवता को परमाणु हथियारों के खतरों से बचाना था, इतिहास का एक आदर्श उदाहरण है जहां वैज्ञानिकों ने परमाणु क्षेत्र में विशेष ज्ञान का अधिकार होने के नाते अपनी सामाजिक-राजनीतिक जिम्मेदारी का निर्वहन किया था।

वैज्ञानिक समुदाय खोजों और आविष्कारों पर वैज्ञानिक जानकारी की आधिकारिक शक्ति रखता है। मुद्दा यह है कि क्या वैज्ञानिक अपनी प्रयोगशाला से परे ज्ञान के अपने अधिकार का लाभ उठा सकते हैं? लोगों के हालात जैसे भी हों, क्या एक वैज्ञानिक को दुनिया भर में सामाजिक लक्ष्य के लिए अपने नवाचारों/आविष्कारों की नियति चुनने के लिए अपनी स्वतंत्रता का इस्तेमाल कर सकता है? सबसे मौलिक बात ये है कि, क्या वैज्ञानिक समुदाय बाजार की ताकतों के हुक्म पर सार्वभौमिक सिद्धांतों की बली दे सकता है? दुर्भाग्यपूर्ण सच्चाई यह है कि वैज्ञानिक समुदायों को खुद के अनुसंधान क्षेत्र का चुनाव करने, अपने बौद्धिक श्रम पर नियंत्रण करने और आर्थिक और राजनीतिक निर्णय लेने का  लाभ उठाने की अधिक स्वतंत्रता नहीं है।

यह पहली बार नहीं है कि हम महत्वपूर्ण जीवनरक्षक वैज्ञानिक आविष्कारों के बारे में ऐसी दुविधा देख रहे हैं जो उनके मानवीय, सामाजिक और सार्वभौमिक लक्ष्यों तक नहीं पहुंचती हैं। पेटेंटेड जीवनरक्षक दवाएं और प्रौद्योगिकियां हैं जो गरीब, जरूरतमंद लोगों के लिए उपलब्ध नहीं हैं। इंसुलिन के आविष्कार के मामले पर भी विचार करें; इसके खोजकर्ताओं (बैंटिंग और बेस्ट) द्वारा पेटेंट नहीं किए जाने के बावजूद, यह अत्यधिक महंगी बिकती है, और इस प्रकार, मधुमेह रोग गरीब परिवारों के लिए विनाशकारी है। इसलिए, कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि कोविड-19 वैक्सीन के समय पर आविष्कार के बाद भी, इस तरह का मूल्यवान वैज्ञानिक योगदान समाज के एक महत्वपूर्ण तबके, विशेषकर गरीब घरों और अविकसित देशों के लोगों की खरीद की ताक़त से बाहर हो सकता हैं।

विज्ञान के बाजारीकरण ने सामाजिक लक्ष्यों और सार्वभौमिक मूल्यों को वैज्ञानिक प्रयासों से व्यवस्थित रूप से अलग कर दिया है। नवउदारवादी राजनीतिक अर्थव्यवस्था ने मानवीय मूल्यों में उनके योगदान पर वाणिज्यिक पेटेंट के आंकड़ों के माध्यम से अनुक्रमित वैज्ञानिक खोज के लक्ष्य को विकृत कर दिया है। कॉर्पोरेट मुनाफे को बनाए रखना और पेटेंट के माध्यम से एकाधिकार शक्ति का निर्माण प्रमुख और अपरिहार्य प्राथमिकताएं हैं जिनके लिए वैज्ञानिकों को वैज्ञानिक छात्रवृत्ति और सामाजिक निर्णयों पर अधिक विकल्प न होने की बिना पर एक तरह से अधीन कर लिया गया है। कोई गलती न हो, इसमें पीड़ितों को दोष देना नहीं है, बल्कि हमारे समय की दुर्भाग्यपूर्ण वास्तविकता को स्वीकार करना है। इसके बावजूद, एक अराजनीतिक और  कभी-कभी राजनीति-विरोधी वैज्ञानिक समुदाय लोकतंत्र के प्रति छल है और इस तरह वे अपनी प्राथमिकताओं और सामाजिक मूल्यों के प्रति हानिकारक बन जाते है।

कार्यकाल या रोज़गार की असुरक्षा, वैज्ञानिक के काम के प्रकाशित होने या उसके नष्ट होने का दबाव, लंबे समय तक काम करना,  अपेक्षाकृत कम वेतन मिलना, कार्य-जीवन में संतुलन और असंतुलन और कार्यस्थल में भेदभाव के कारण वैज्ञानिक शोधकर्ताओं के मानसिक स्वास्थ्य के मामलों में रिकॉर्ड वृद्धि हुई है – इसलिए कि उनसे जुड़े सारे निर्णय प्रयोगशाला के बाहर लिए जाते हैं जबकि उन्हे वैज्ञानिक संस्कृति के मानदंडों के रूप में स्वीकार कर लिया जाता है। यह इस महान पेशे के इर्द-गिर्द वैज्ञानिक खोज और उसके प्रति जुनून के उद्देश्य को परिभाषित करने में वैज्ञानिक समुदाय की भारी विफलता को प्रतिबिंबित करता है। ऐसी समस्याओं का सावधानीपूर्वक विश्लेषण हमें उसकी जड़ तक ले जाएगा जो और कुछ ओर नहीं बल्कि लोगों से लाभ कमाने का स्पष्ट लक्ष्य है और जो बाजार संचालित राजनीतिक व्यवस्था की ताक़त कहलाती है।

विज्ञान सामाजिक और राजनीतिक परिवर्तनों से अछूता नहीं रह सकता है, न ही वह बाजार की सनक और हुक्म के तहत अपने सार्वभौमिक मूल्यों का त्याग कर सकता है। वैज्ञानिक अनुसंधान में बजटीय कटौती, नव-उदारवादी राजनीतिक व्यवस्था के आश्चर्यजनक परिणाम हैं, जिसके तहत सरकारें वित्तीय मितव्ययिता की आड़ में उनका बचाव करती हैं। कितनी सरकारों ने वैज्ञानिक समुदायों के साथ परामर्श किया, कि विज्ञान मानवता के लिए है या लाभ के लिए? भेदभावपूर्ण आप्रवासन कानूनों के साथ बढ़ता संरक्षणवाद आज का राजनीतिक खासियत हैं, और इसलिए वे वैज्ञानिक अनुसंधान और इसके सार्वभौमिक प्रसार को प्रभावित कर रहे हैं।

इस प्रकार, क्या वैज्ञानिक समुदाय अपनी खोजों से लोगों को वंचित होने के अपराध से मुक्त कर सकता है, यह देखते हुए कि "वैज्ञानिक विचार और इसकी रचना मानव जाति की सामान्य और साझा विरासत है?" और यदि वैज्ञानिक समुदाय अपनी आवाज़ बुलंद करता है और बाजार के नेतृत्व वाली चिकित्सा, तकनीक और सामाजिक अभावों के खिलाफ खड़े होते हैं तो क्या यह विज्ञान को नुकसान पहुंचाएगा? इसके अलावा, क्या वैज्ञानिक अपनी स्वतंत्रता के मामले में राजनीतिक न होने का जोखिम उठा सकते हैं? ऐसे सवालों का सबसे अच्छा जवाब कुछ और नहीं बल्कि अल्बर्ट आइंस्टीन हो सकते हैं। आइंस्टीन ने "समाजवाद क्यों" पर एक निबंध लिखा था और बाद में रसेल के साथ मिलकर एक घोषणापत्र लिखा था? आइंस्टीन ने उन मामलों पर एक स्टैंड क्यों लिया जो प्रकृति में अत्यधिक राजनीतिक थे? और यह भी कि एंथोनी फौकी क्यों अमेरिका के सर्वोच्च राजनीतिक दफ्तर के खिलाफ खड़े हुए जो विज्ञान विरोधी प्रचार कर रहा था। एंथोनी फौकी का खड़ा होना निश्चित रूप से वैज्ञानिक द्वारा किए जा सकने वाले उल्लेखनीय और प्रभावी हस्तक्षेप का एक बेहतर उदाहरण है। यदि राजनीतिक व्यवस्था विज्ञान के उद्देश्य को निर्धारित कर रही है, तो वैज्ञानिक समुदाय को राजनीतिक व्यवस्था के उद्देश्य को परिभाषित करना चाहिए।

जमील बरकत स्वीडन के गोथेनबर्ग विश्वविद्यालय के बायोमेडिसिन संस्थान में पोस्टडॉक्टरल फ़ेलो हैं। अमित साधुख़ान टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ़ सोशल साइंसेज़, हैदराबाद, भारत में अर्थशास्त्र के सहायक प्रोफ़ेसर हैं। व्यक्त विचार निजी हैं।

Scientists
COVID19 Vaccine
Vaccine Patent
Politics of Science
Scientific Innovation
capitalism

Related Stories

क्या कोविड के पुराने वेरिएंट से बने टीके अब भी कारगर हैं?

निष्प्रभावित कर देने वाली एंटीबॉडीज़ कोविड-19 टीके की प्रभावकारिता के लिए मार्कर हो सकती हैं 

कोविड टीकों को लेकर मची अफवाह यूपी की ग्रामीण आबादी को टीकाकरण से रोक रही

तीसरे चरण के परीक्षण के साथ क्यूबा ने भी अपनी स्वदेशी वैक्सीन बनाने की उम्मीद जगाई 

आईएमएफ का असली चेहरा : महामारी के दौर में भी दोहरा रवैया!

क्या विश्व सामाजिक मंच की पुनर्कल्पना संभव है?


बाकी खबरें

  • सोनिया यादव
    समलैंगिक साथ रहने के लिए 'आज़ाद’, केरल हाई कोर्ट का फैसला एक मिसाल
    02 Jun 2022
    साल 2018 में सुप्रीम कोर्ट के ऐतिहासिक फैसले के बाद भी एलजीबीटी कम्युनिटी के लोग देश में भेदभाव का सामना करते हैं, उन्हें एॉब्नार्मल माना जाता है। ऐसे में एक लेस्बियन कपल को एक साथ रहने की अनुमति…
  • समृद्धि साकुनिया
    कैसे चक्रवात 'असानी' ने बरपाया कहर और सालाना बाढ़ ने क्यों तबाह किया असम को
    02 Jun 2022
    'असानी' चक्रवात आने की संभावना आगामी मानसून में बतायी जा रही थी। लेकिन चक्रवात की वजह से खतरनाक किस्म की बाढ़ मानसून से पहले ही आ गयी। तकरीबन पांच लाख इस बाढ़ के शिकार बने। इनमें हरेक पांचवां पीड़ित एक…
  • बिजयानी मिश्रा
    2019 में हुआ हैदराबाद का एनकाउंटर और पुलिसिया ताक़त की मनमानी
    02 Jun 2022
    पुलिस एनकाउंटरों को रोकने के लिए हमें पुलिस द्वारा किए जाने वाले व्यवहार में बदलाव लाना होगा। इस तरह की हत्याएं न्याय और समता के अधिकार को ख़त्म कर सकती हैं और इनसे आपात ढंग से निपटने की ज़रूरत है।
  • रवि शंकर दुबे
    गुजरात: भाजपा के हुए हार्दिक पटेल… पाटीदार किसके होंगे?
    02 Jun 2022
    गुजरात में पाटीदार समाज के बड़े नेता हार्दिक पटेल ने भाजपा का दामन थाम लिया है। अब देखना दिलचस्प होगा कि आने वाले चुनावों में पाटीदार किसका साथ देते हैं।
  • सरोजिनी बिष्ट
    उत्तर प्रदेश: "सरकार हमें नियुक्ति दे या मुक्ति दे"  इच्छामृत्यु की माँग करते हजारों बेरोजगार युवा
    02 Jun 2022
    "अब हमें नियुक्ति दो या मुक्ति दो " ऐसा कहने वाले ये आरक्षित वर्ग के वे 6800 अभ्यर्थी हैं जिनका नाम शिक्षक चयन सूची में आ चुका है, बस अब जरूरी है तो इतना कि इन्हे जिला अवंटित कर इनकी नियुक्ति कर दी…
  • Load More
सब्सक्राइब करें
हमसे जुडे
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें

CC BY-NC-ND This work is licensed under a Creative Commons Attribution-NonCommercial-NoDerivatives 4.0 International License