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भारत
राजनीति
शैली स्मृति व्याख्यान: नफ़रत की राजनीति को नाकाम करने के लिए जनता के संघर्षों को आगे बढ़ाना होगा
संघर्षों की गर्माहट असली चेतना पैदा करती है, शैली स्मृति व्याख्यान में बोलीं सुभाषिनी अली। अखिल भारतीय किसान सभा के अध्यक्ष अशोक ढवले ने भी कहा कि हाल के दौर में देश की जनता जमकर लड़ी है, इन संघर्षों को आगे बढ़ाना ही होगा।
न्यूज़क्लिक रिपोर्ट
03 Aug 2021
शैली स्मृति व्याख्यान: नफ़रत की राजनीति को नाकाम करने के लिए जनता के संघर्षों को आगे बढ़ाने होगा

शैलेन्द्र शैली स्मृति व्याख्यान 2021 में बोलते हुए पूर्व सांसद तथा अखिल भारतीय जनवादी महिला समिति की उपाध्यक्षा सुभाषिनी अली ने नफ़रत फैलाने की योजनाबद्ध मुहिम के पीछे छुपी साजिश को बेनकाब करते हुए उसकी असली राजनीति को उजागर किया। उन्होंने कई अनुभव गिनाते हुए कहा कि इसका असली मकसद नकली दुश्मन खड़े करके सरकार की विनाशकारी नीतियों से उपजे आक्रोश और असंतोष को पथभ्रष्ट करना है; शोषणकारी ताकतों की हरकतों से ध्यान बंटाना है।


उन्होंने कहा कि अपने इस काम को अंजाम देने के लिए भाजपा और आरएसएस भारतीय समाज में पहले से मौजूद वर्णाश्रम और जाति के विभाजन को गहरा कर रही है इसी के साथ साम्प्रदायिकता भी भड़का रही है। सरकार में होने की स्थिति का फायदा उठाकर हिंसा उकसाने, उसे संरक्षण देने और हत्याओं तक के अपराधियों को बचाने के आपराधिक कामों में जुटी हुयी है। इसी का नतीजा है कि न सिर्फ अल्पसंख्यकों के खिलाफ हिंसा बढ़ी है बल्कि दलितों और महिलाओं के खिलाफ भी हिंसक घटनाओ में जबरदस्त तेजी आयी है। मध्यप्रदेश में भी ऐसी घटनाओं की संख्या में बढ़ोत्तरी हुयी है। हालत यहां तक है कि मजदूरी मांगने पर भी ह्त्या कर दी जाती है, शादी में घोड़े पर चढ़ने पर मार दिया जाता है, अम्बेडकर की प्रशंसा के गीत गाने पर हमले कर दिए जाते हैं। ऐसी तरह तरह की घटनाएं बढ़ी हैं। पिछले 6 साल में कुछ ज्यादा ही तेजी के साथ बढ़ी हैं।

उन्होंने कहा कि यह हिंसा न अपने आप भड़कती है ना ही स्वतःस्फूर्त है; इसे बाकायदा योजनाबद्ध प्रचार से नफ़रत पैदा करके विकसित किया जाता है। इसकी शुरुआत भले अल्पसंख्यकों से की जाती है मगर इसका असली निशाना महिला और दलित हैं। हाल के वर्षों में यह उसी दिशा में मुड़ी है। खतरनाक बात यह है कि वह फिलहाल अपना असर दिखाती भी दिख रही है। डीजल पेट्रोल कीमतों के बढ़ने और जनता के जीवन पर महंगाई, बेरोजगारी के हमलों के बीच भी आबादी का एक हिस्सा ऐसा भी है जो इन बातों से नाराज होने के बाद भी सरकार को सिर्फ इसलिए ठीक मानता है क्योंकि वह मुसलमानों को "ठीक" कर रही है और आरक्षण खत्म करके दलितों और "नीची जातियों" को उनकी हैसियत में पहुंचा रही है। इसके कुछ उदाहरण भी उन्होंने गिनाये।

प्रतिप्रश्न करते हुए सुभाषिनी अली ने पूछा कि क्या इसका खामियाजा और नुकसान सिर्फ अल्पसंखयकों, दलितों और महिलाओं को उठाना पड़ रहा है ? इसका जवाब नहीं में देते हुए उन्होंने बताया कि किस तरह इसका ज्यादा बड़ा घाटा सारे भारतीयों को उठाना पड़ता है। इस विभाजन और ध्रुवीकरण से मजदूरों सहित मेहनतकश अवाम की एकता टूटती है - जनविरोधी नीतियों और अपने जीवन पर हमलों के विरुद्ध उसका प्रतिरोध कमजोर होता है। उसके लड़ने की क्षमता और एकता दोनों कमजोर होती हैं। उन्होंने बताया कि मुसलमानों, दलितों या महिलाओं के प्रति नफ़रत पैदा करके बाकी हिन्दू और सवर्ण मेहनतकश भी इन हमलों से नहीं बच पाता है। इस तरह वास्तव में यह सारी साजिश समूची जनता को लूटने का काम आसान बनाने और लूटने वाले के खिलाफ विरोध को भ्रमित और कमजोर करने की है।

देश की प्रमुख वामपंथी नेता और सीपीएम पोलित ब्यूरो की सदस्य सुभाषिनी अली ने कहा कि इसका एक ही निदान है; वर्गीय चेतना को आगे बढ़ाना। दिमाग से लेकर मैदान तक यह काम करना। उन्होंने कहा कि आंदोलन और संघर्षों की गर्माहट चेतना का विकास करती है। इस संबंध में उन्होंने किसान आंदोलन का उदाहरण दिया जिसने न सिर्फ साम्प्रदायिक विभाजन को तोड़ा है बल्कि जेंडर आधारित पिछड़ेपन को भी साफ़ किया। हरियाणा की महिलाओं का उदाहरण देते दिया जो पर्दा-घूंघट छोड़ ट्रेक्टर चलाती हुयी किसान आंदोलन और किसान महापंचायतों में शामिल हुयी। मेवात में साम्प्रदायिक उन्माद की साजिशों के खिलाफ जनता को एकजुट किया।


हाल के दौर में जमकर लड़ी है देश की जनता, इन संघर्षों को आगे बढ़ाना ही होगा : डॉ. अशोक ढवले

"आदरांजलि देने का काम सिर्फ शब्दों से नहीं किया जाता। सच्ची आदरांजलि उस रास्ते पर चलकर दी जाती है जिसे दिखाकर शैली हमारे बीच से गए हैं। यह रास्ता कैसे भी हालात हों उनमे संघर्ष तेज करने, उसे आगे बढ़ाने और उसके आधार पर वामपंथी विकल्प तैयार करने तथा उसके अनुरूप संगठन बनाने का है।" इन शब्दों के साथ अखिल भारतीय किसान सभा के अध्यक्ष डॉ अशोक ढवले ने शैलेन्द्र शैली स्मृति व्याख्यान 2021 के अपने व्याख्यान को पूरा किया। "हाल के दौर के जन आंदोलन और उनकी विशेषताएं" विषय पर बोलते हुए उन्होंने तीन मुख्य संघर्षो ; नागरिकता क़ानून के खिलाफ भारतीय जनता के संग्राम, मजदूरों की लड़ाई और किसानो के ऐतिहासिक आंदोलन के दायरे में अपनी बात रखी। उन्होंने कहा कि इन तीनो आंदोलन की मुख्य विशेष समानता यह है कि ये मोदी - अमित शाह की सरकार और उसकी नीतियों के खिलाफ हैं।

2019 से सीएए और एनआरसी के खिलाफ शुरू हुए आंदोलन की याद दिलाते हुए डॉ ढवले ने कहा कि भारतीय नागरिकों की नागरिकता पर सवाल उठाने वाली साजिश के खिलाफ देश भर में हुए इस आंदोलन की ख़ास बात इसमें बड़े पैमाने पर मुस्लिम जनता की भागीदारी, इसकी अगुआई मुस्लिम महिलाओं के हाथों में होने और हिन्दू, बौद्ध, दलितों सहित हर तरह के भारतीयों की हिस्सेदारी थी। शाहीन बाग़ की तरह पूरे देश में यह व्यापक रूप से फैला और अपने झण्डे पर सावित्री फुले, भगत सिंह, कैप्टेन लक्ष्मी सहगल, रानी लक्ष्मीबाई को अपना प्रतीक और इन्क़िलाब जिंदाबाद, भगत सिंह जिंदाबाद को अपना नारा बनाया, कोरोना की पहली लहर के चलते यह बीच में रुक गया - किन्तु हाल के दौर का यह एक असाधारण आंदोलन था।

उदारीकरण के खिलाफ 20 राष्ट्रीय हड़तालें कर चुके मजदूरों के संग्राम को रेखांकित करते हुए उन्होंने इसकी तीन प्रकार की लड़ाइयों को याद दिलाया। पहले लॉकडाउन में करोड़ों प्रवासी मजदूरों की दुर्दशा, उनके असहाय और भूखे लौटने की स्थिति, मोदी सरकार की बेरुखी और वापसी यात्रा में मध्यप्रदेश के 16 मजदूरों की महाराष्ट्र के रेल हादसे में हुए मौतों का जिक्र करते हुए उन्होंने कहा कि इस अकथ पीड़ा की जिम्मेदारी से मोदी सरकार बच नहीं सकती। उन्होंने याद दिलाया कि इन वापस लौटते मजदूरों की मदद में लाल झंडा खड़ा हुआ , इसी के साथ जनवादी महिला समिति, एसएफआई, नौजवान सभा सहित अनेक जनवादी संगठन भी उतरे। कोरोना में गरीबों की हालत जितनी खराब हुयी कि गंगा भी शववाहिनी बन गयी। इन सब स्थितियों के खिलाफ इस दौर में भी असंगठित श्रमिक लड़े, आंगनबाड़ी आशा कर्मियों ने हड़तालें कीं। संगठित श्रमिकों पर हमले पहले लेबर कोड के नाम पर हुए उसके बाद निजीकरण की आपराधिक मुहिम चली।

निजीकरण के अपराधों का ब्यौरा देते हुए डॉ. अशोक ढवले ने बताया कि शिक्षा और स्वास्थ्य सहित ऐसा कोई क्षेत्र नहीं है जिसे अम्बानी या अडानी को बेचा न गया हो। यही वजह है की महामारी के दौरान ये दोनों एशिया के नंबर एक और दो रईस बन गए। निजीकरण की लूट का एक उदाहरण उन्होंने विशाखापट्टनम स्टील प्लांट का दिया। करीब 35 हजार मजदूरों और 3 लाख करोड़ रुपयों की संपत्ति वाले इस प्लांट को मोदी शाह सरकार सिर्फ 1300 करोड़ रुपयों में बेचने की फ़िराक में है । मगर मजदूर इसके खिलाफ लड़ रहा है और किसान उसके साथ है। उन्होंने बताया कि पिछले साल 26 नवम्बर की देशव्यापी श्रमिक हड़ताल के बाद अब कई दिनों की हड़ताल की तैयारी की जा रही है।

ऐतिहासिक किसान आंदोलन की आठ विशेषताएं गिनाने के बाद उसके नेताओं में से एक डॉ ढवले ने कहा कि सारी मुश्किलों और साजिशों को पार करने के बाद अब इस आंदोलन का राजनीतिक असर दिखने लगा है। चार राज्यों के चुनाव में भाजपा की पराजय तथा केरल में फिर शून्य पर पहुँचा देना इसका उदाहरण है। पंजाब तथा उत्तर प्रदेश के पंचायत चुनावों में भी यही हुआ - अब संयुक्त किसान मोर्चे ने मिशन उत्तरप्रदेश और उत्तराखंड का एलान कर दिया है, जिसकी शुरुआत 5 सितम्बर को मुज़फ्फरनगर में विराट किसान रैली से की जाएगी। भाजपा को आने वाले चुनावों में भी हराया जाएगा। देश चार लोगों ; अम्बानी अडानी और मोदी शाह का राज बर्दाश्त नहीं करेगा।

उन्होंने आव्हान किया कि अब सिर्फ एकजुटता या समर्थन की नहीं संघर्षों में वास्तविक भागीदारी की जरूरत है। इस प्रसंग में उन्होंने 9 अगस्त के भारत बचाओ आंदोलन सहित संयुक्त किसान मोर्चे, ट्रेड यूनियनों के साझे मंच और जन संगठनों के आव्हानो को सफल बनाने की अपील की।


आज़ादी आंदोलन की सभी उपलब्धियां पलटी जा रही हैं: विक्रम सिंह

"मौजूदा निज़ाम अपनी नीतियों से सिर्फ अवाम की मुश्किलें ही नहीं बढ़ा रहा है वह स्वतन्त्रता आंदोलन की ढांचागत, राजनैतिक और वैचारिक हर तरह की उपलब्धियों को भी पलट रहा है।

" शैलेन्द्र शैली स्मृति व्याख्यान 2021 में बोलते हुए एसएफआई के पूर्व महासचिव, अखिल भारतीय खेत मजदूर यूनियन के संयुक्त सचिव विक्रम सिंह ने कहा कि आजादी की लड़ाई के दौरान और जीतने के बाद यह सपना देखा गया था कि शिक्षा और स्वास्थ्य सबके लिए होना चाहिए, कि उद्योग और कृषि में ऐसी नीतियां लागू की जाएँ जिनसे रोजगार पैदा हो सके. कि आयातो पर रोक लगे, भूमि सुधार हों, लघु उद्योगों का जाल बिछाया जाए, रणनीतिक उद्योगों में पब्लिक सेक्टर को प्राथमिकता दी जाए। तकरीबन इसी तरह की नीतियां भी बनी - जिन्हे पहले 1991 में नरसिम्हाराव - मनमोहन सिंह ने उलटा और अब मोदी राज में पूरी रफ़्तार से विनाश रथ दौड़ाया जा रहा है।

उन्होंने कहा कि बेरोजगारी खतरनाक तेजी से बढ़ी - इतनी तेजी से बढ़ी कि मोदी सरकार ने आंकड़े जारी करना तक बंद कर दिए। 45 वर्षों में बेरोजगारी 6.4 % के उच्चतर स्तर तक पहुँच गयी। महामारी के बाद तो यह गति 7.17 % हो चुकी है। हर तरह का निजीकरण और सिर्फ मुनाफे को आधार बनाने को उन्होंने इसका मुख्य कारण बताया।

शिक्षा, कृषि और उद्योग में इन नीतियों और उनके विनाशकारी असर के अनेक उदाहरण देते हुए विक्रम सिंह ने बताया कि इन सबके चलते जहां ग्रामीण युवाओं के लिए संभावनाएं पूरी तरह चूक गयी हैं वहीँ सारे युवाओं का जीवन पूरी तरह अनिश्चित हो गया है। स्थिति यहां तक आ गयी है कि अब राजनीति भी बाजार तय कर - अम्बानी अडानी का मोदी शाह के माध्यम से जारी दरबारी पूंजीवाद इसका जीता जागता उदाहरण है।

विक्रम सिंह ने कहा कि इसके खिलाफ छात्र और युवा लड़ रहे हैं। जनता के संघर्ष आगे बढ़ रहे हैं। आईटी से लेकर विश्वविद्यालयों तक लड़ाईयां जारी हैं। उन्होंने इस दौर के मजदूर किसान आंदोलनों को बड़ी आस बताया। इनमे युवतर भागीदारी को रेखांकित करते हुए उन्होंने बताया कि ये लड़ाईयां नए नायक, नए गीत और नए नारे गढ़ रहे हैं - सबसे बड़ी खूबी यह है कि ये सीधे नीतियों और सरकार से लड़ रहे हैं। उन्होंने भरोसा जताया कि ये संघर्ष उदारवादी नीतियों को पीछे धकेलेगा और युवा इसमें निर्णायक भूमिका निबाहेंगे।


लोकतंत्र को लाठीतंत्र में बदला जा रहा है : संजय पराते

"कार्पोरेटी हिंदुत्व लोकतान्त्रिक भारत की ह्त्या कर रहा है। संवैधानिक मूल्यों को ध्वस्त किया जा रहा है। असहमति रखने वाले व्यक्तियों, संगठनो को फासीवादी औजारों से खामोश किया जा रहा है; समाज के लोकतांत्रिक माहौल - डेमोक्रेटिक स्पेस - को ख़त्म किया जा रहा है।" यह बात संजय पराते ने शैलेन्द्र शैली स्मृति व्याख्यान में कहीं। उन्होंने कहा कि जो भी जायज बात रखता या उठाता है उसे नक्सल या पाकिस्तानी करार देकर निशाने पर ले लिया जाता है। बस्तर का उदाहरण देते हुए उन्होंने कहा कि वहां के नौजवान संविधान में लिखी बातों को पोस्टर की तरह हाथ में लेकर जलूस निकालते हैं या किसी प्रशासनिक अधिकारी को संविधान की पुस्तक भेंट करते है तो उन्हें भी जेल में डाल सिया जाता है। समूचे छत्तीसगढ़ में आदिवासियों ने संविधान की मुख्य बातों को पत्थर पर उकेर कर शिलालेख बनाये थे जिसे 15 वर्षों के भाजपा राज में तोड़ दिया गया।

"बस्तर से सरगुजा तक ; स्थगित संविधान, निलबित लोकतंत्र" पर बोलते हुए सीपीआई (एम) छत्तीसगढ़ राज्य सचिव संजय पराते ने कहा कि छत्तीसगढ़ की दो तिहाई से आबादी गरीबी रेखा के नीचे बसर करती है। खाद्य सुरक्षा और न जाने किन किन मामलों में देश भर में अव्वल प्रदेशों में होने का दावा करने वाले छग में भूख से मौतों की घटनाएं इन दावों की सचाई बयान करती हैं। आदिवासी आवाज उठाता है तो सिलगेर जैसे काण्ड करके उन्हें गोलियों से भून दिया जाता है। स्वास्थ्य व्यवस्था की बुरी हालत के चलते एक और जहां कोरोना में सरकारी दावे से कई गुनी मौतें हुयी वहीं दूसरी ओर निजी अस्पतालों ने जमकर लूट मचाई और एक एक मरीज से लाखों वसूले। खुद सरकार द्वारा तय की गयी दरें भी अनाप शनाप थीं।

संजय पराते ने कहा कि सरकारें चाहें भाजपा की हों या कांग्रेस की कारपोरेट की लूट के रास्ते आसान करने और उसके लिए लोकतंत्र को लाठीतन्त्र में बदलने के लिए दोनों ही तत्पर हैं। असली सवालों की बजाय एक राम वनपथगमन का रास्ता ढूंढने पर करोड़ो रूपये फूंक देता है तो दूसरा गाँव गाँव में रामायण बंटवाकर और जबरिया उसका पाठ करवाकर आदिवासियों की संस्कृति नष्ट कर उन्हें हिन्दू बनाने पर तुला है। गाय के बहाने दलितों और धर्मांतरण के बहाने ईसाइयों पर हमले बढे हैं। बुनियादी समस्या या मांगों को उठाने पर सुधा भारद्वाज की तरह जेल में डाले रखना या स्टेन स्वामी की तरह सांस्थानिक ह्त्या का शिकार बनाना आम रवैया है। जंगलों के विनाश पर सहज आक्रोश व्यक्त करने पर आदिवासी दमन का शिकार बनाये जा रहे हैं। असली लड़ाई इस शुद्ध तानाशाही से है।

बोधघाट परियोजना का उदाहरण देते हुए संजय ने कहा कि असली इरादा किसी भी तरह कारपोरेट के मुनाफे बढ़ाने का है।

संजय पराते ने आदिवासियों को सभ्य बनाने के दावे को धूर्तता बताते हुए कहा कि सभ्यता का कोई एक पैमाना नहीं हो सकता - संस्कृतियों को नष्ट कर एक तरह की संस्कृति थोपकर तथाकथित एकरूपी सभ्यता नहीं गढ़ी जा सकती।

Shelly Memorial Lecture
Hate politics
Hate Speech
democracy
BJP
RSS
Hindutva
subhashini ali
Dr. Ashok Dhawale
Vikram Singh
Sanjay Parate

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