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नज़रिया
भारत
राजनीति
विशेष : नेहरू का गुनाह और नेहरू के गुनाहगार
प्रधानमंत्री के तौर पर नेहरू की सफलताओं और विफलताओं का वस्तुनिष्ठ मूल्यांकन होना अभी शेष है। लेकिन लोकतांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष मूल्यों के सम्मान वाली नेहरू की विरासत को जिस तरह सुनियोजित तरीके से नष्ट-भ्रष्ट करने की कोशिश की जा रही है, वह अपने आप में बेहद अफसोसनाक है।
अनिल जैन
14 Nov 2019
Nehru

देश में पिछले कुछ वर्षों से सत्ता प्रतिष्ठान और उससे जुडी राजनीतिक ज़मात के स्तर पर नेहरू-निंदा का दौर चल रहा है। देश के स्वाधीनता संग्राम और आधुनिक भारत के निर्माण में नेहरू के बेशकीमती योगदान को बेहद फूहड़ तरीके से नकारा जा रहा है। लोकतांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष मूल्यों के सम्मान वाली नेहरू की विरासत को सुनियोजित तरीके से नष्ट-भ्रष्ट करने की कोशिश की जा रही है। नेहरू ने अपने प्रधानमंत्रित्व काल में जिन लोकतांत्रिक मूल्यों और लोकतांत्रिक संस्थाओं को मजबूत बनाने की संस्कृति विकसित की थी, उसे लगातार चुनौती दी जा रही है। यही नहीं, मनगढंत किस्से-कहानियों के जरिए नेहरू के व्यक्तित्व को सोशल मीडिया के माध्यम से लांछित और अपमानित भी किया जा रहा है।

यह पूरा अभियान तो अफसोसनाक है ही, लेकिन यह भी कम अफसोस की बात नहीं है कि इस पूरे नेहरू विरोधी अभियान का राजनीतिक स्तर पर जिस दृढता से प्रतिकार होना चाहिए, वह नहीं हो रहा है। वामपंथी, समाजवादी और मध्यमार्गी रुझान वाले राजनीतिक विश्लेषकों, बुद्धिजीवियों और लेखकों का एक वर्ग ज़रूर अपने स्तर पर इस नेहरू विरोधी अभियान को चुनौती देने का काम कर रहा है। लेकिन मुख्य रूप से यह जिम्मेदारी नेहरू की विरासत की झंडाबरदार होने का दावा करने वाली जिस कांग्रेस पार्टी की बनती है, वह इस जिम्मेदारी को निभाने में नाकारा साबित हो रही है।

हमारा देश अपनी आजादी के सात दशक पूरे कर आठवें दशक में सफर कर रहा है। इस दौरान सबसे लंबे समय तक देश पर प्रधानमंत्री के रूप में पंडित जवाहरलाल नेहरू ने शासन किया। इस नाते अपने सात दशक से ज्यादा के सफर में देश को हासिल कई उपलब्धियों का श्रेय अगर नेहरू के द्वारा रखी गई नीतिगत बुनियाद को जाता है तो देश आज जिन चुनौतियों से रुबरू है, उसके लिए भी कुछ तटस्थ आलोचक कहीं न कहीं नेहरू को भी जिम्मेदार ठहराते हैं। हालांकि प्रधानमंत्री के तौर पर नेहरू की सफलताओं और विफलताओं का वस्तुनिष्ठ मूल्यांकन होना अभी शेष है। लेकिन फिलहाल तो अपने संसदीय इतिहास के सबसे कमजोर और शर्मनाक दौर से उबरने की कोशिशों में जुटी कांग्रेस की नेहरू की वैचारिक और नीतिगत विरासत के प्रति उदासीनता अखरने वाली है।

इसमें कोई शक नहीं कि भाजपा (और उसकी पूर्ववर्ती जनसंघ) शुरू से ही अर्थव्यवस्था, विदेश नीति, राष्ट्रीय सुरक्षा और धर्मनिरपेक्षता संबंधी नेहरू के विचारों और कार्यों की आलोचक रही है। इसीलिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी पार्टी के दूसरे नेता भी देश के समक्ष मौजूद तमाम समस्याओं के लिए नेहरू और उनकी सोच को जिम्मेदार ठहराते रहते हैं। उनका ऐसा करना उनके लिए लाजिमी है, लिहाजा इसमें हैरानी की कोई बात नहीं। मगर सवाल उठता है कि नेहरू की अनदेखी करने या उनके रास्ते से भटक जाने के अपराध से कांग्रेस कैसे बरी हो सकती है, जिसने नेहरू के बाद भी करीब चार दशक तक देश पर शासन किया है?

इसमें कोई दो राय नहीं कि नेहरू को अपने जीवनकाल में तो जनता से बेशुमार प्यार और सम्मान मिला लेकिन उनकी मृत्यु के बाद उनकी लगातार अनदेखी होती गई और उनकी प्रतिष्ठा में कमी आई। कहा जा सकता है कि ऐसा कांग्रेस विरोधी राजनीतिक पार्टियों की ताकत बढ़ने के कारण हुआ लेकिन हकीकत यह भी है कि खुद कांग्रेस भी उनकी मृत्यु के बाद उनसे लगातार दूर होती चली गई।

केंद्र और राज्यों की कांग्रेस सरकारों ने छोटी-बड़ी सरकारी परियोजनाओं को तो नेहरू का नाम जरूर दिया, लेकिन व्यवहार में वे उनकी वैचारिक विरासत से दूर होती चली गई, फिर वह मामला चाहे आर्थिक नीतियों का हो, धर्मनिरपेक्षता का हो या फिर लोकतांत्रिक संस्थाओं के सम्मान का। दरअसल, कांग्रेस जिन नेहरूवादी मूल्यों का पुण्य-स्मरण यदा-कदा कर लेती है, उनकी मौत का तराना तो नेहरू की बेटी इंदिरा गांधी ने ही रच दिया था जो न सिर्फ उनके शासनकाल में बल्कि बाद में उनके बेटे राजीव गांधी के प्रधानमंत्रित्वकाल में भी जोर-शोर से गुनगुनाया गया।

नेहरू असंदिग्ध रूप से लोकतंत्रवादी थे और असहमति का भी सम्मान करते थे लेकिन इसके ठीक उलट इंदिरा गांधी ने राजनीति में बहस और संवाद को हमेशा संदेह की नजरों से देखा। उनकी इस प्रवृत्ति की चरम परिणति 1975 में जेपी आंदोलन के दमन और आपातकाल लागू कर अपने तमाम विरोधियों को जेल में बंद करने के रूप में सामने आई। कुल मिलाकर उन्होंने अपने पिता की वैचारिक विरासत को आगे बढ़ाने या उसे गहराई देने के बजाय उसे सुनियोजित तरीके से नुकसान ही पहुंचाया।

नेहरू के प्रशंसक रहे एक अमेरिकी पत्रकार एएम रॉसेनथल ने आपातकाल के दौरान 1976 में भारत का दौरा करने के बाद सामाजिक असमानता और धार्मिक आधारों पर बंटे भारत में लोकतांत्रिक मूल्यों की स्थापना में नेहरू के साहसी और संघर्षशील योगदान को रेखांकित करते हुए लिखा था कि अगर इस दौर में नेहरू जिंदा होते तो उनका जेल में होना तय था, जहां से वे अपनी प्रधानमंत्री को नागरिक आजादी, लोकतंत्र और लोकतांत्रिक संस्थानों के महत्व पर पत्र लिखते।

नेहरू की राजनीतिक विरासत के क्षरण का जो सिलसिला इंदिरा गांधी के दौर में शुरू हुआ वह उनके बाद उनके बेटे राजीव गांधी के दौर में भी न सिर्फ जारी रहा बल्कि और तेज हुआ, खासकर धर्मनिपेक्षता के मोर्चे पर। उन्होंने नेहरू की धर्मनिरपेक्षता से दूर जाते हुए पहले तो बहुचर्चित शाहबानो मामले में मुस्लिम कट्टरपंथियों के आगे घुटने टेकते हुए संसद में अपने विशाल बहुमत के दम पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले को पलट दिया। उनके इस कदम से हिंदू कट्टरपंथियों के हौसलों को हवा मिली और उन्हें लगा कि इस सरकार को भीड़तंत्र के बल पर आसानी से झुकाया-दबाया जा सकता है। सो उन्होंने भी इतिहास की परतों में दबे अयोध्या के राम जन्मभूमि बनाम बाबरी मस्जिद विवाद को झाड-पोंछकर एक व्यापक अभियान छेड़ दिया।

राजीव गांधी और उनके नौसिखिए सलाहकारों ने हिंदू कट्टरपंथियों को संतुष्ट करने और उसे मुस्लिम सांप्रदायिकता के बरअक्स संतुलित करने के लिए अयोध्या में विवादित धर्मस्थल का ताला खुलवा दिया। बाद में 6 दिसंबर, 1992 को हुआ बाबरी मस्जिद का आपराधिक ध्वंस राजीव गांधी की इसी गलती की तार्किक परिणति थी। कुल मिलाकर दोनों किस्म की सांप्रदायिकताओं के समक्ष बारी-बारी से समर्पण करने के दुष्परिणाम देश ने न सिर्फ तात्कालिक तौर पर भुगते, बल्कि उस समय सांप्रदायिक नफ़रत की जो आग लगी थी, उसकी तपिश देश आज भी शिद्दत से महसूस कर है।

वैसे धर्मनिरपेक्ष मूल्यों को कमजोर करने के लिए अकेले राजीव गांधी को ही दोषी नहीं ठहराया जा सकता। हकीकत तो यह है कि देश की आजादी के बाद आधुनिक राष्ट्रीयता के विकास के लिए धर्मनिरपेक्षता को मजबूत करने के जितने भी प्रयास किए गए, वे सबके सब नाकारा साबित हुए हैं। तमाम सत्ताधीशों ने हमेशा धर्मनिरपेक्षता को 'सर्वधर्म समभाव’ का नाम देकर रूढ़िवाद और अंधविश्वास फैलाने वाले धार्मिक नेतृत्व को पनपाने का ही काम किया। धर्मनिरपेक्षता के वास्तविक स्वरूप को लोगों के सामने रखने का कभी साहस नहीं किया।

धर्मनिरपेक्षता या कि सर्वधर्म समभाव के बहाने सभी धार्मिक समूहों के पाखंडों का राजनीतिक स्वार्थ के लिए पोषण किया गया और सुधारवादी आंदोलन निरुत्साहित किए गए। चूंकि आज़ादी के बाद देश में केंद्र और राज्यों के स्तर पर सर्वाधिक समय कांग्रेस का ही शासन रहा इसलिए उसे ही इस पाप का सबसे बड़ा भागीदार माना जाना चाहिए।

जहां तक आर्थिक नीतियों का सवाल है, इस मोर्चे पर भी नेहरू के रास्ते से हटने या उनके सोच को चुनौती देने का काम कांग्रेसी सत्ताधीशों ने ही किया। देश की लगभग सभी राजनीतिक धाराओं ने भी प्रत्यक्ष-परोक्ष रूप से इसमें सहयोग किया। वैसे नेहरू के रास्ते से विचलन की आंशिक तौर पर शुरूआत तो इंदिरा और राजीव के दौर में ही शुरू हो गई थी लेकिन 1991 में पीवी नरसिंहराव के की अगुवाई में बनी कांग्रेस सरकार ने तो एक झटके में नेहरू के समाजवादी रास्ते को छोड़कर देश की अर्थव्यवस्था को बाज़ार के हवाले कर उसे विश्व बैंक और अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष (आईएमएफ) की मुखापेक्षी बना दिया। उदारीकरण के नाम शुरू की गई इन नीतियों के रचनाकार थे डॉ. मनमोहन सिंह, जिन्हें बाद में सोनिया गांधी ने ही एक बार नहीं, दो बार प्रधानमंत्री बनाया। सिर्फ प्रधानमंत्री ही नहीं बनाया, बल्कि नेहरू के आर्थिक विचारों को शीर्षासन कराने वाली उनकी नीतियों के समर्थन में भी वे चट्टान की तरह खडी रहीं।

नेहरू की सोच के बरखिलाफ नई आर्थिक नीतियों के आगमन के सिलसिले में सबसे पहले इंदिरा गांधी ने अस्सी के दशक में दोबारा सत्ता में आने के बाद आईएमएफ से भारी-भरकम कर्ज लेकर भारतीय अर्थव्यवस्था को वैश्विक पूंजीवादी अर्थव्यवस्था से जोड़ा। उसके बाद राजीव गांधी ने भी इस सूत्र को मजबूत किया। फिर आई समाजवादी मंत्रियों से भरी विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार, जिसके योजना आयोग में गांधीवादी, समाजवादी, मार्क्सवादी बुद्धिजीवी सितारों की तरह टंके हुए थे।

लेकिन इन लोगों ने भी थोड़ी-बहुत वैचारिक बेचैनी दिखाने के बाद विश्व बैंक के अर्थशास्त्रियों द्वारा तैयार उस ढांचागत सुधार कार्यक्रम के आगे अपने हथियार डाल दिए, जिसे हम नई आर्थिक नीति के रूप में जानते हैं। उस दौर में एक समय समाजवादी रहे चंद्रशेखर इसलिए विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार के आलोचक बने हुए थे कि वह औद्योगिक क्षेत्र में विदेशी पूंजी और बहुराष्ट्रीय कंपनियों के लिए दरवाजे खोल रही है। लेकिन जैसे ही कांग्रेस के समर्थन से वे खुद प्रधानमंत्री बने, उन्होंने अपना पहला कार्यक्रम आईएमएफ के प्रबंध निदेशक से मुलाकात का बनाया। वैश्विक पूंजीवादी अर्थव्यवस्था के प्रति अनुराग दिखाने में भाजपा भी पीछे नहीं रही।

1991 में पीवी नरसिंहराव की सरकार ने जब आईएमएफ के निर्देश पर व्यापक स्तर पर सुधार कार्यक्रम लागू करते हुए वैश्विक पूंजी निवेश के लिए भारतीय अर्थव्यवस्था के दरवाजे पूरी तरह खोल दिए और कोटा-परमिट प्रणाली खत्म कर दी तो तत्कालीन भाजपा अध्यक्ष लालकृष्ण आडवाणी की प्रतिक्रिया थी कि कांग्रेस ने हमारे जनसंघ के समय के आर्थिक दर्शन को चुरा लिया है। इतना ही नहीं, 1998 में जब अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) की सरकार बनी तो 'स्वदेशी' के लिए कुलबुलाते राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और और उसके आनुषांगिक संगठन स्वदेशी जागरण मंच को वाजपेयी और आडवाणी ने साफ कह दिया कि 'स्वदेशी' सुनने में तो अच्छा लगता है लेकिन मौजूदा दौर में यह व्यावहारिक नहीं है।

वाजपेयी ने तो एक मौके पर स्वदेशी के पैरोकार संघ नेतृत्व से सवाल भी किया था- 'और सब तो ठीक है लेकिन हिंदू इकोनॉमिक्स में पूंजी की व्यवस्था कैसे होगी?' यही नहीं, संघ के बढ़ते 'स्वदेशी दबाव’ को उतार फेंकने के लिए उन्होंने प्रधानमंत्री पद से इस्तीफा देने की धमकी भी दे डाली थी। कुल मिलाकर आर्थिक नीतियों के मामले में नेहरू के रास्ते को अलविदा कहने में देश की लगभग सभी राजनीतिक जमातों में आम सहमति रही और कांग्रेस ने इस पापकर्म की अगुवाई की।

दरअसल, नेहरू के साथ उनके मरणोपरांत वही हुआ जो नेहरू और उनकी कांग्रेस ने महात्मा गांधी के साथ किया था। जिस तरह आज़ादी के बाद सत्ता की बागडोर संभालते ही नेहरू ने गांधी की स्वावलंबन और हिंद स्वराज संबंधी सारी सीखों को दकियानूसी करार देते हुए खारिज कर दिया था, उसी तरह नेहरू की मृत्यु की बाद उनके वारिसों ने भी नेहरू के मिश्रित अर्थव्यवस्था के रास्ते को छोड़ दिया।

नेहरू को अपने पूरे जीवनकाल में कांग्रेस के बाहर तो नहीं लेकिन कांग्रेस के भीतर भरपूर सम्मान मिला लेकिन आज हालत यह है कि सिर्फ चाटुकारिता और वंश विशेष की पूजा में ही अपना कॅरिअर तलाशते लोगों को छोड़कर शायद ही कोई उनके समर्थन में खड़ा मिलेगा। अलबत्ता समाजवादी और उदारवादी विचारों के लोग जरुर नेहरू पर संघी हमलों के खिलाफ तार्किक रूप से खडे होकर मुकाबला करते रहते हैं। अन्यथा तो उनके विचारों को समझने की इच्छा रखने वालों की तादाद भी नगण्य ही होगी।

1991 में राजीव गांधी की मौत के बाद माना जाने लगा था कि अब देश की राजनीति में नेहरू-गांधी परिवार का प्रभाव खत्म हो जाएगा और भारत के पहले प्रधानमंत्री के विचारों का बेहतर आकलन हो सकेगा। इसमें कोई संदेह नहीं कि उस समय तक आर्थिक नीतियों संबंधी नेहरू के विचार अपनी प्रासंगिकता खो चुके थे लेकिन उनकी विरासत के कई दूसरे प्रासंगिक हिस्सों को मजबूत किया जा सकता था। मसलन, विधायिका और संसदीय प्रक्रियाओं को लेकर उनकी प्रतिबद्धता, सार्वजनिक संस्थानों को राजनीतिक हस्तक्षेप से बचाने की उनकी कोशिशें, धर्मनिरपेक्षता, धार्मिक बहुलता और लैंगिक समानता जैसे विचारों को लेकर उनकी चिंता तथा वैज्ञानिक शिक्षा और अनुसंधान को प्रोत्साहन देने वाले केंद्रों की स्थापना पर जोर। लेकिन ऐसा कुछ नहीं हो सका। वस्तुत: नेहरू कभी उस बोझ से मुक्त नहीं हो पाए जो उनके अपने ही वंशजों की देन थी।

सोनिया गांधी ने 1998 में तमाम कांग्रेसियों के अनुनय-विनय पर कांग्रेस की बागडोर संभाली थी। वे पूरे दो दशक तक पार्टी की अध्यक्ष रहीं और इस समय भी अंतरिम अध्यक्ष वे ही हैं। 2018 में उनके अध्यक्ष पद छोडने से पहले ही उनके बेटे राहुल गांधी को उपाध्यक्ष मनोनीत कर उनका उत्तराधिकारी बनाया जा चुका था। कांग्रेस ने सोलहवां आम चुनाव एक तरह से राहुल की अगुवाई में ही लडा, जिसमें उसे करारी पराजय मिली। सत्रहवां आम चुनाव तो औपचारिक तौर राहुल के ही नेतृत्व में लड़ा गया जिसमें शर्मनाक पराजय का सिलसिला जारी रहा।

हालांकि दो आम चुनावों और कई राज्यों में उनके नेतृत्व में कांग्रेस को मिली करारी हार के बाद उनकी नेतृत्व क्षमता पर भी दबे स्वरों में सवाल उठे और अभी भी उठ रहे हैं। लेकिन ऐसे सवाल उठाने वाले अभी भी नेहरू-गांधी परिवार के बाहर झांकने को तैयार नहीं हैं। अध्यक्ष पद से उनके इस्तीफे के बाद नया अध्यक्ष चुनने का सवाल आया तो सबने मिल कर फिर सोनिया को अंतरिम अध्यक्ष चुना। ऐसे तमाम नेता अभी भी राहुल के विकल्प के तौर पर प्रियंका की ओर भी देख रहे हैं।

मशहूर समाजशास्त्री आंद्रे बेते के शब्दों में 'मरणोपरांत नेहरू की स्थिति बाइबिल की उस मशहूर उक्ति के ठीक विपरीत दिशा में जाती दिखी, जिसके मुताबिक पिता के पापों की सजा उसकी आगामी सात पीढ़ियों को भुगतनी होती है।’ दरअसल, नेहरू के मामले में उनकी बेटी, नवासों, नवासों की पत्नियों और पर-नवासों के कर्मों ने उनके कंधों का बोझ ही बढ़ाया है। संभवत: नेहरू को अपने जीवनकाल में मिली अतिशय चापलूसी का ही नतीजा है कि मरणोपरांत उन्हें पूरी तरह खारिज किया जाने लगा। दुर्भाग्य से यह प्रवृत्ति सार्वजनिक जीवन, राजनीतिक विमर्श और खासकर साइबर संसार में तेजी से फैली है। लगता नहीं कि जब तक सोनिया, राहुल और प्रियंका गांधी सार्वजनिक जीवन में सक्रिय रहेंगे, तब तक नेहरू के जीवन और उनकी राजनीतिक विरासत को लेकर कोई वस्तुनिष्ठ, न्यायपूर्ण और विश्वसनीय धारणा बनाई जा सकेगी।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। लेख में व्यक्त विचार निजी हैं।)

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