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तालिबान की अगली बड़ी चुनौती चारों तरफ़ फ़ैले आतंकी संगठन हैं
अफ़ग़ानिस्तान जल्द ही इन संगठनों के चलाये जाने वाले इलाक़ों और इनके हमलों के पैमाने का विस्तार करने की महत्वाकांक्षाओं को रखने वाले विभिन्न गुटों, ख़ास तौर पर आईएसकेपी जैसे आतंकी संगठन का पनाहग़ाह बन सकता है।
अनिंदा डे
08 Sep 2021
taliban

पराजित, अपमानित और तालिबान के सामने आत्मसमर्पण करने के लिए मजबूर संयुक्त राज्य अमेरिका ने 9/11 की 20वीं बरसी से 11 दिन पहले 31 अगस्त को अफ़ग़ानिस्तान से अपमानजनक तरीक़े से बाहर हो गया है।

मुल्ला हैबतुल्ला अख़ुनज़ादा की अगुवाई में तालिबान उसी कथित महाशक्ति के बाहर किये जाने के साथ भाग्य के एक ख़तरनाक़ मोड़ पर एक तूफ़ानी जंग के बाद एक धमाके के साथ वापस आ गया है, जिसका इरादा 20 साल पहले 11 सितंबर के हमलों के गुनहगार ओसामा बिन लादेन को पनाह देने वालों को बाहर निकालने का था।

अब तालिबान के सामने अफ़ग़ानिस्तान के 34 प्रांतों में फैले अन्य आतंकवादी संगठनों, ख़ास तौर पर अपने इन प्रतिद्वंद्वियों पर शासन करने की बड़ी चुनौती है। अमेरिका के घुटने टेकने पर तालिबान की मिली क्षणिक ख़ुशी और उसकी फिर से सत्ता में वापसी पर जश्न मनाने वाले और बातचीत के मंच से बाहर रहने वाले अल-क़ायदा और अरब प्रायद्वीप में इसके सहयोगी अल-क़ायदा जैसे अन्य वैश्विक आतंकवादी संगठन जल्द ही वर्चस्व और नियंत्रण के एक ख़ूनी जंग में जा सकते हैं।

तालिबान का सामना अल-क़ायदा से जुड़े कई आतंकी संगठनों-अल-क़ायदा इन द इंडियन सबकॉंटिनेंट (AQIS), हक़्क़ानी नेटवर्क, इस्लामिक स्टेट ऑफ़ ख़ुरासान प्रोविंस (ISKP) और तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान (TTP) से है।

काबुल विस्फोट और तालिबान-हक्कानी रिश्तों में 'दरारें'

26 अगस्त को काबुल हवाई अड्डे पर हुए बम धमाके में 28 तालिबान, 13 अमेरिकी सैनिक और सैकड़ों नागरिक मारे गये थे, दरअस्ल धमाके की वह घटना आने वाले दिनों में भयानक तमाशे से पहले की एक ऐसी पूर्व घटना थी, जो तालिबान के प्रतिद्वंद्वी आतंकवादी समूहों, ख़ास तौर पर उस विस्फ़ोट को अंजाम देने वाले आईएसकेपी के अपने प्रभुत्व को लेकर एक घमासान लड़ाई लड़ते हुए सामने आने की संभावना है।

अफ़ग़ानिस्तान सुलह को लेकर अमेरिका के विशेष प्रतिनिधि ज़ल्मय ख़लीलज़ाद और तालिबान के सह-संस्थापक मुल्ला अब्दुल ग़नी बरादर के बीच दोहा समझौते पर हस्ताक्षर हुए थे, इसमें इस बात का ज़िक़्र है कि अफ़ग़ानिस्तान "अल-क़ायदा सहित अपने किसी भी सदस्य, अन्य व्यक्तियों या गुटों को अमेरिका और उसके सहयोगियों की सुरक्षा को लेकर ख़तरा पहुंचाने को लेकर अपनी ज़मीन का इस्तेमाल करने की अनुमति नहीं देगा।" तालिबान ऐसे समूहों/व्यक्तियों को भर्ती, प्रशिक्षण और धन इकट्ठा करने से रोकेगा। अफ़ग़ानिस्तान उन्हें वीजा, पासपोर्ट, यात्रा परमिट या अन्य क़ानूनी दस्तावेज़ जारी नहीं करेगा और समझौते के मुताबिक़ उनके साथ सहयोग/उनका पोषण नहीं करेगा।

यह देखते हुए कि आतंकवादी समूह तालिबान के नियंत्रण से बाहर हैं, इस धमाके ने दोहा संधि को निरर्थक और अर्थहीन बना दिया है। तालिबान के प्रवक्ता जबीहुल्ला मुजाहिद का यह वादा खोखला लगता है कि किसी को भी अफ़ग़ानिस्तान की तरफ़ से दूसरे देशों पर हमले करने की इजाजत नहीं दी जायेगी।

आतंकवादी समूहों को अमेरिका और पाकिस्तान और भारत जैसे उसके सहयोगियों और पड़ोसी देशों पर हमला करने से रोकने के लिए तालिबान को सबसे पहले उन पर लगाम लगाने की ज़रूरत है, लेकिन दूसरे संगठनों के साथ इसके जुड़े होने के इतिहास और इसके लोगों की बदलती निष्ठा को देखते हुए ऐसा हो पाना मुश्किल दिख रहा है।

सबसे ख़ौफ़नाक़ घटनाक्रम तो तालिबान और उसके सबसे भरोसेमंद सहयोगी सिराजुद्दीन हक़्क़ानी की अगुवाई वाले हक्कानी नेटवर्क के बीच सत्ता के बंटवारे को लेकर पड़ने वाली कथित दरार है। इससे सरकार बनने में भी देरी हुई है। तालिबान और उस हक़्क़ानी के बीच एक मुठभेड़ में बरादर कथित तौर पर घायल हो गया है, जो सिराजुद्दीन के भाई और नेटवर्क के दूसरे नंबर के कमांडर अनीस हक़्क़ानी के नेतृत्व में काबुल की सुरक्षा को लेकर ज़िम्मेदार हैं।

5 सितंबर को तालिबान के प्रति अपनी निष्ठा को दोहराने वाले टीटीपी के एक आत्मघाती हमलावर ने पाकिस्तान की बलूचिस्तान की राजधानी क्वेटा से 25 किमी दक्षिण में क्वेटा-मस्तंग रोड पर स्थित एक चौकी पर अपने विस्फोटकों से धमाका कर दिया, जिसमें फ्रंटियर कोर के कम से कम तीन कर्मियों की मौत हो गयी और 15 घायल हो गये। इस विस्फोट से यह पता चलता है कि तालिबान की यह जीत दूसरे आतंकवादी गुटों को अफ़ग़ानिस्तान के पड़ोसियों पर हमले शुरू करने के लिए किस तरह प्रेरित करेगी।

सत्ता में शामिल पदों को लेकर तालिबानियों के बीच असंतोष के होने की वजह से इसके चरम कट्टरपंथी सदस्य अन्य आतंकी समूहों में भी शामिल हो सकते हैं। आईएसकेपी के सह-संस्थापक और पहले प्रमुख हाफ़िज़ सईद ख़ान और उनके डिप्टी मुल्ला अब्दुल रऊफ़ ख़ादिम, दोनों के दोनों 2015-16 में अफ़ग़ानिस्तान में हुए अमेरिकी सैनिक हमले में मार गिराये गये थे, और ये भी तालिबान के ही असंतुष्ट सदस्य थे। आईएसकेपी के गठन में अहम भूमिका निभाने वाले और ग्वांतानामो बे से संचालित कर रहे अब्दुल रऊफ़ अलीज़ा भी तालिबान का ही एक पूर्व सदस्य था और यह भी 2015 में अमेरिकी ड्रोन हमले में मारा गया था।

जून में संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद (UNSC) की ऐनालिटिकल सपोर्ट एंड सैंक्शन्स मॉनिटरिंग टीम की 12वीं रिपोर्ट में कहा गया था कि तालिबान से जुड़े अल-क़ायदा के कई सदस्य और विदेशी आतंकवादी कई प्रांतों में मौजूद हैं। इसके अलावा, अफ़ग़ानिस्तान के विशाल ऊबड़-खाबड़ और पहाड़ी इलाक़े, जटिल जातीयता और सरदारों के प्रभुत्व को लेकर होने वाले संघर्ष का इतिहास इन प्रतिद्वंद्वी संगठनों को नियंत्रित करने के लिहाज़ से अन्य बाधायें हैं।

अल-क़ायदा

अयमान अल-जवाहिरी की अगुवाई वाला अल-क़ायदा कम से कम 12-15 प्रांतों में मौजूद है, इन प्रांतों में ग़ज़नी, हेलमंद, ख़ोस्त, कुनार, कुंदुज़ और निमरूज़ शामिल हैं। यूएनएससी के मुताबिक़, तालिबान जहां सार्वजनिक तौर पर "इसके सदस्यों को" फ़रवरी में "विदेशी लड़ाकों को पनाह देने से रोक दिया" था, वहीं अल-ज़वाहिरी सहित अल-क़ायदा के ज़्यादातर सीनियर कमांडरों को निजी तौर पर पनाह भी दिया जा रहा है।

यूएनएससी की रिपोर्ट के मुताबिक़, अफ़ग़ानिस्तान में लगभग 500 सदस्यों के साथ मौजूद अल-क़ायदा का तालिबान के साथ अपने रिश्तों को तोड़ने का कोई इरादा नहीं है। ये रिश्ते अब "शादी के निजी रिश्तों और संघर्ष में साझेदारी की वजह से और भी गहरा हो गया है, दूसरी पीढ़ी के बीच बने रिश्तों के ज़रिये दोनों के बीच का रिश्ता और मज़बूत हुआ है।”

इस गहरे रिश्ते का हालिया सुबूत डॉ अमीन अल-हक़ की वापसी है, जिसने उस ब्लैक गार्ड की अगुवाई की थी, जो बिन लादेन की सुरक्षा के लिए ज़िम्मेदार कुलीन इकाई थी और जिसने 2011 में तोरा बोरा की लड़ाई के दौरान लादेन को पाकिस्तान भागने में मदद की थी।

टीटीपी के साथ भी घनिष्ठ रिश्ता रखने वाला अल-क़ायदा ने पिछले 20 सालों में कई बार अख़ुनज़ादा के प्रति अपनी निष्ठा जतायी है और 2019-20 में तालिबान के साथ कई बैठकें की हैं। 2019 में तालिबान के दिवंगत सह-संस्थापक और इसके पहले प्रमुख, मुल्ला मोहम्मद उमर के पूर्व सलाहकार गुल आग़ा इशाकज़ई और अन्य वरिष्ठ नेताओं ने बिन लादेन के दिवंगत बेटे हमज़ा से मुलाक़ात की थी और उसे एक चिरस्थायी रिश्ते का भरोसा दिया था।

मुजाहिद का पहले का वह बयान कि "(दोहा) समझौते में कहीं भी यह ज़िक़्र नहीं किया गया है कि हमारे किसी के साथ रिश्ते हैं या नहीं" और "जिस बात पर सहमति हुई है, वह यह है कि अफ़ग़ानिस्तान की धरती से अमेरिका और उसके सहयोगी लिए कोई खतरा नहीं होना चाहिए", यह बयान अल-क़ायदा के साथ रिश्ते को जारी रखने को लेकर तालिबान की बेचैनी को दिखाता है।

सच्चाई यह है कि अमेरिकी सुरक्षा तंत्र स्वीकार करता है कि अफ़ग़ानिस्तान में अल-क़ायदा की उपस्थिति है और यह तभी स्पष्ट हो गया था, जब पेंटागन के प्रेस सचिव जॉन किर्बी ने अप्रत्यक्ष रूप से अगस्त में राष्ट्रपति जो बाइडेन के उस झूठे दावे का खंडन किया था कि ये आतंकवादी गुट मीडिया को बताकर अफ़ग़ानिस्तान से "चले गये" हैं। उन्होंने कहा था, “हमें पता है कि अल-क़ायदा के साथ-साथ अफ़ग़ानिस्तान में आईएसआईएस की भी मौजूदगी है।”

अमेरिका के ज्वाइंट चीफ़्स ऑफ़ स्टाफ़ के अध्यक्ष जनरल मार्क मिले की वह अशुभ भविष्यवाणी कि अल-क़ायदा दो साल से कम समय में अफ़ग़ानिस्तान में फिर से संगठित हो सकता है, अफ़ग़ान प्रांत के पासे के खेल की तरह ढहते ही तालिबान की ओर से अपने सैकड़ों गुर्गों को मुक्त कराने के साथ वह भविष्यवाणी सही साबित होती दिख रही है।

भारतीय उपमहाद्वीप में अल क़ायदा

ओसामा महमूद की अगुवाई में 400-600 सदस्यों वाला पाकिस्तान स्थित एक्यूआईएस मुख्य रूप से निमरूज, हेलमंद और कंधार में संचालित होता है। जवाहिरी ने सितंबर 2014 में मुख्य रूप से स्थानीय आतंकी समूहों के साथ रिश्तों को मज़बूत करके इस क्षेत्र में मूल आतंकी संगठन की मौजूदगी को मज़बूत करने के लिए इस गुट को बनाया था।

तालिबान के साथ जुड़े एक्यूआईएस का गठन मुख्य रूप से अफ़ग़ानिस्तान में अमेरिका और नाटो सैनिकों पर हमला करने, दक्षिण एशिया में शरिया क़ानून स्थापित करने, भारतीय उपमहाद्वीप में ख़िलाफ़त को पुनर्जीवित करने और अफ़ग़ानिस्तान, पाकिस्तान, भारत, म्यांमार और बांग्लादेश के सैन्य ठिकानों पर हमला करने के लिए किया गया था।

यूएनएससी की जून की रिपोर्ट में एक्यूआईएस को "उग्रवाद का एक जैविक, या ज़रूरी ऐसा हिस्सा बताया गया है, जिसे अपने तालिबान सहयोगियों से अलग कर पाना असंभव नहीं, तो मुश्किल तो होगा ही।"

सितंबर 2019 में तालिबान और एक्यूआईएस के बीच रणनीतिक और निजी रिश्तों का उस समय खुलासा हुआ था, जब हेलमंद में एक संयुक्त यूएस-अफ़ग़ान छापे में तत्कालीन एक्यूआईएस प्रमुख असीम उमर मारा गया था, वह एक भारतीय था और जिसे तालिबान ने आश्रय दिया था। अमेरिकी विदेश विभाग के मुताबिक़, सुरक्षा और प्रशिक्षण की मांग करते हुए एक्यूआईएस ने तालिबान से रिश्ता बनाये रखा है।

खुरासान प्रांत का इस्लामिक स्टेट

उत्तर-पूर्वी अफ़ग़ानिस्तान, ख़ासकर नूरिस्तान और कुनार में फैले आईएसकेपी के शाहब अल-मुजाहिर के नेतृत्व में लगभग 2,200 सदस्य हैं। यह अफ़गानिस्तान में अपने मूल संगठन इस्लामिक स्टेट (IS) की तरह सबसे क्रूर आतंकवादी गुट है और तालिबान का कट्टर दुश्मन भी है।

आईएसकेपी का मक़सद दक्षिण और मध्य एशिया में ख़िलाफ़त स्थापित करना है और इसे कई प्रांतों में कट्टरपंथी सलाफ़ियों और कुछ स्थानीय जातीय ताजिकों और उज़बेकों का समर्थन हासिल है, इसका गठन 2015 में असंतुष्ट तालिबान सदस्यों और टीटीपी से टूटे हुए उन सदस्यों को लेकर किया गया था जिन्होंने मारे गये आईएस प्रमुख अबू बक़्र अल-बग़दादी के प्रति निष्ठा की शपथ ली थी।

काबुल हवाई अड्डे के धमाके ने इसकी क्रूरता और आईएसकेपी के उन पिछले हमलों को भी पीछे छोड़ दिया है, जिसमें आत्मघाती हमलावरों ने मई में काबुल में एक हाई स्कूल के बाहर 85 लोगों की हत्या कर दी थी, नवंबर 2020 में काबुल विश्वविद्यालय में तक़रीबन 22  लोगों और जुलाई, 2018 में पाकिस्तान के मस्तुंग की एक चुनावी रैली में 128 लोगों को मार डाले थे।

2016 और 19 के बीच यूएस-अफ़ग़ान संयुक्त अभियानों और तालिबान के छापे से इस समूह की ताक़त काफ़ी कम हो गयी थी। नतीजतन, इसे अपने गढ़ नंगरहार से बाहर कर दिया गया था। इसके बाद, आईएसकेपी ने काबुल और कुछ अन्य प्रांतों में स्लीपर सेल की स्थापना की थी। हालांकि, आईएसकेपी की ताक़त को उन हज़ारों क़ैदियों से मज़बूती मिल सकती है, जो हाल ही में बड़ी संख्या में बगराम सहित दूसरे जेलों से भाग गये थे।

आईएसकेपी तालिबान से नफ़रत करता है और विचारधारा और मक़सदों को लेकर भी उससे अलग है, यह ताबिलबान के लिए सबसे बड़ी चुनौती है। तालिबान-अमेरिका सहयोग का पुरज़ोर विरोध करते हुए यह समूह इस इलाक़े में किसी राजनीतिक शासन को नहीं, बल्कि "ईश्वर शासित" ख़िलाफ़त को स्थापित करना चाहता है। इसके मक़सद बहुत बड़े हैं और अफ़ग़ानिस्तान और पाकिस्तान से भी आगे के हैं। 2015 में वीडियो की एक श्रृंखला में आईएसकेपी ने कहा था: "जान लें कि यह इस्लामी ख़िलाफ़त किसी ख़ास देश तक सीमित नहीं है। ये नौजवान अल्लाह में यक़ीन नहीं करने वाले एक-एक शख़्स के ख़िलाफ़ लड़ेंगे,चाहे वह पश्चिम, पूर्व, दक्षिण या उत्तर का ही क्यों न हो।”

यह समूह एक चरम सांप्रदायिक और हिंसक विचारधारा वाला समूह है। यह ख़ासकर शियाओं और सिखों के ख़िलाफ़ क्रूरता के साथ अपने हमलों को अंजाम देता है। आर्म्ड कन्फ़्लिक्ट लोकेशन और इवेंट डेटा प्रोजेक्ट के मुताबिक़ 2017 और 2018 के बीच आईएसकेपी और तालिबान के बीच 207 बार संघर्ष हुए हैं, जिनमें से ज़्यादातर नंगरहार जोवजान और कुनार में हुए थे।

तालिबान 2.0 को एक और ख़तरा अधिक कट्टरपंथी सदस्यों की ओर से है।तालिबान इस समय आईएसकेपी के साथ-साथ अमीरों को छोड़कर महिलाओं की स्वतंत्रता और अफ़ग़ानों को माफ़ी का वादा करके दुनिया के सामने एक उदार और मेल-मिलाप वाला चेहरा पेश करने की कोशिश कर रहा है और अमेरिका के साथ सहयोग किया है और सरकार में अल्पसंख्यक समुदायों के प्रतिनिधित्व का भरोसा दे रहा है।

हक़्क़ानी नेटवर्क

पाकिस्तान की इंटर-सर्विसेज इंटेलिजेंस (ISI), अल-क़ायदा, टीटीपी और लश्कर-ए-तैयबा के साथ मज़बूत रिश्तों वाले हक़्क़ानी नेटवर्क की स्थापना मुजाहिदीन के मारे जा चुके लड़ाके जलालुद्दीन हक़्क़ानी ने 1980 के दशक में की थी।

सोवियत कब्ज़े का मुक़ाबला करने के लिए सेंट्रल इंटेलीजेंस एजेंसी और आईएसआई से पोषित इस समूह का नेतृत्व अब हक़्क़ानी के बेटे सिराजुद्दीन कर रहा है। पक्तिया, पक्तिका, ख़ोस्त और लोगर सूबों में मौजूद इस समूह के 3,000 से अधिक लड़ाके वैचारिक रूप से तालिबान के साथ जुड़े हुए हैं और इसे तालिबान का सबसे भरोसेमंद सहयोगी माना जाता है।

तालिबान इन हक़्क़ानियों पर बहुत ज़्यादा निर्भर है, जिन्होंने काबुल पर कब्ज़ा करने में एक अहम भूमिका निभायी थी और यह अफ़ग़ानिस्तान में अंतर्राष्ट्रीय सुरक्षा सहायता बल और नाटो के नेतृत्व वाले रिज़ोल्युट सपोर्ट मिशन पर हुए कुछ सबसे ख़ूनी हमलों के लिए भी कुख्यात रहा है।

हालांकि, आ रही रिपोर्टों के मुताबिक़, अल्पसंख्यक समुदायों के प्रतिनिधियों के साथ सत्ता साझा करने के तालिबान के आग्रह पर सरकार के गठन के साथ ही इनके दशकों पुराने रिश्तों में दरारें पहले से ही दिखायी दे रही हैं, ऐसा इसलिए है क्योंकि हक़्क़ानी नेटवर्क एक ख़ास तरह की सरकार की मांग करता है। आईएसआई प्रमुख लेफ़्टिनेंट जनरल फ़ैज़ हमीद कथित तौर पर इन दरारों को पाटने के लिए काबुल पहुंच गये हैं।

असल में ख़ुद को एक स्वतंत्र समाचार घराना बताने वाले पंजशीर ऑब्जर्वर के अपुष्ट ट्विटर हैंडल ने पोस्ट किया कि तालिबान और हक़्क़ानी के बीच अफ़ग़ानिस्तान के उस नॉर्दर्न रजिस्टेंट फ़्रंट को हराने को लेकर अपनायी जाने वाली रणनीति पर गोलीबारी हुई है, जिसका नेतृत्व इस सयम पंजशीर के मुजाहिदीन सेनानी दिवंगत अहमद शाह मसूद के बेटे अहमद मसूद कर रहे हैं।

हक़्कानी और अल-क़ायदा के बीच के मज़बूत रिश्तों को ये हालात और ज़्यादा मुश्किल और ख़तरनाक़ बना देते हैं। यूएनएससी के मुताबिक़ , हक़्क़ानी, तालिबान और अल-क़ायदा के बीच की "प्राथमिक कड़ी" हैं। “अल-कायदा और हक़्क़ानी नेटवर्क के बीच के रिश्ते ख़ास तौर पर गहरे हैं। वे लंबे समय से चले आ रहे निजी रिश्ते,आपस में हो रही शादियों, संघर्ष का साझा इतिहास और सहानुभूतिपूर्ण विचारधाराओं को साझा करते हैं।"

तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान

टीटीपी सदस्यों ने आधिकारिक तौर पर 2007 में बैतुल्लाह महसूद की अगुवाई में पाकिस्तानी सरकार को उखाड़ फेंकने के लिए इस समूह के गठन का ऐलान किया था।

ख़ुद महसूद और उसके दो उत्तराधिकारी, हकीमुल्ला महसूद और मौलाना फज़लुल्लाह क्रमशः 2009, 2013 और 2018 में अमेरिकी ड्रोन हमलों में मारे गये थे, जिसके बाद नूर वली महसूद ने इस गुट की कमान संभाल ली थी। टीटीपी अपने 2,500-6,000 लड़ाकों के साथ इस समय नंगरहार में मौजूद हैऔर मतभेदों के बावजूद इसने अफ़ग़ानिस्तान में अमेरिका और नाटो से लड़ने में तालिबान की सहायता की थी। तालिबान की ओर से रिहा किये गये हज़ारों क़ैदियों में टीटीपी के पूर्व डिप्टी चीफ़ मौलवी फ़क़ीर मोहम्मद भी शामिल था।

काबुल के पतन से तीन हफ़्ते पहले अमेरिका में पाकिस्तान के पूर्व राजदूत हुसैन हक़्क़ानी ने चेतावनी दी थी कि "तालिबान की जीत का पाकिस्तान की घरेलू शांति और सुरक्षा पर समान रूप से विनाशकारी असर पड़ेगा।" फॉरेन अफेयर्स पत्रिका में उन्होंने 22 जुलाई को एक कॉलम में लिखा था, “अफ़ग़ान इस्लामवादियों के उदय से पास स्थित देश के घरेलू मामलों में कट्टरपंथियों को ही प्रोत्साहन मिलेगा। तालिबान के हाथों को मज़बूर करने की कोशिशों का नतीजा यह भी हो सकता है कि पाकिस्तानी तालिबान, पाकिस्तान के भीतर अपने लक्ष्य पर हमला करके पाकिस्तान को हिंसक झटका दे सकता है।”

अफ़ग़ानिस्तान जल्द ही एक आतंकी हॉटस्पॉट ठीक उसी तरह फिर से बन सकता है, जिस तरह मुजाहिदीन ने अमेरिका और पाकिस्तान की सहायता से सोवियत संघ को हरा दिया था और ख़ुद विभिन्न समूहों के संचालन के उनके क्षेत्रों और उनके हमलों के पैमाने का विस्तार करने की महत्वाकांक्षाओं को आश्रय देने वाला पनाहग़ार बन गया था।

टीटीपी ने तालिबान के प्रति अपनी निष्ठा की शपथ ली है और आईएसकेपी पुनर्गठन कर सकता है और घातक हमले शुरू कर सकता है। आईएसकेपी ने इस साल की शुरुआत में अपनी पत्रिका का नाम नवाई अफ़ग़ान जिहाद से बदलकर नवाई ग़ज़वत-उल-हिंद कर दिया था, जिससे यह साफ़ हो गया था कि उसका अगला निशाना भारत है।

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

https://www.newsclick.in/taliban-next-big-challenge-hydra-headed-monster

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CC BY-NC-ND This work is licensed under a Creative Commons Attribution-NonCommercial-NoDerivatives 4.0 International License