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कला
भारत
नन्ही उंगलियों से होती हुई किशोर वय : रची-बसी कल्पनाशीलता
बच्चे चित्रकार बनें या न बनें, ये तो उनकी रूचि पर निर्भर करता है। लेकिन माता-पिता अगर बचपन में बच्चों को चित्रांकन करने से रोकते हैं तो वास्तव में उनकी कल्पनाशीलता को बाधित करते हैं। उनके सुन्दर सपनों को ध्वस्त करते हैं।
डॉ. मंजु प्रसाद
31 Jan 2021
चित्र : संगीता खरे, साभार, कला त्रैमासिक, बाल कला अंक 12 : 1981 , प्र. उत्तर प्रदेश ललित कला अकादमी।
चित्र : संगीता खरे, साभार, कला त्रैमासिक, बाल कला अंक 12 : 1981 , प्र. उत्तर प्रदेश ललित कला अकादमी।

एक जोड़ी नन्ही आंखें जब दुनिया को देखती होंगी तो सुन्दर और असीमित रंग उनका मन मोह लेते होंगे। उनके सामने रंगों और आकारों से भरी दुनिया होगी। नये स्वर होंगे, भाव होंगे। तभी जब थोड़े से ही बड़े होते हैं बच्चे और उनके हाथों में थोड़ा रंग, रंगीन पेंसिल और उजला कागज आता है या कागज न भी हो तो बड़ी सी विस्तृत खाली पड़ी दीवार होती है, फर्श होता है। फिर तो ढेरों अद्भुत रंग बिरंगी आकृतियाँ जबरन उपस्थित हो जाती हैं। जो अरसिक मानव को भी कलामर्मज्ञ बना देती हैं।

मैं जहां भी जाती हूँ बच्चे मालूम होते ही कि मैं चित्रकार हूँ या तो तुरंत अपने चित्र दिखाने ले आते हैं या अपनी कक्षा की चित्रांकन पुस्तिका (ड्राइंग बुक)। उनकी पूरी मंशा रहती है कि मैं उनके चित्रांकन का गृहकार्य (होम वर्क) पूरा करा दूं। मुझे मौका मिल जाता है अपना हुनर दिखाने का बच्चों के सामने। बच्चों को मैं दुनिया का सर्वश्रेष्ठ दर्शक और श्रेष्ठ कला मर्मज्ञ मानती हूँ। बच्चे मुग्ध भाव से मेरा चित्रण देखते हैं।

लेकिन इसी बीच हद तो तब हुई जब एक व्यवसायी रिश्तेदार की बच्ची मुझे अपने चित्र दिखाने ले आई और मैंने खुश होकर कहा कि बहुत अच्छी चित्रकार बनेगी, उसकी माँ ने नाराज होकर कहा, 'चित्रकार तो कभी नहीं बनेगी।'  

बच्चे चित्रकार बनें या न बनें, ये तो उनकी रूचि पर निर्भर करता है। लेकिन माता-पिता अगर बचपन में बच्चों को चित्रांकन करने से रोकते हैं तो वास्तव में उनकी कल्पनाशीलता को बाधित करते हैं। उनके सुन्दर सपनों को ध्वस्त करते हैं जो बचपन में नन्ही उंगलियां सुन्दर, अद्भुत रंगों और आकृतियों में रचती हैं। उसी तरह गीली मिट्टी से भी अनोखी आकृतियाँ बनाना उनका बेहद प्रिय काम है।

कोलाज वर्क, चित्रकार: हंसा, उम्र 8 वर्ष

प्रसिद्ध कला लेखक, चिंतक और कला मर्मज्ञ मुल्क राज आनंद के अनुसार, "संसार भर के बालकों की शिक्षा इस प्रणाली में आबद्ध हो गई जो केवल लिपिकों, तकनीकी ज्ञान वालों और ऐसे स्त्री-पुरुष को जन्म देती है जो मशीनों पर कार्य कर सकें। अतः ज्ञान के उस कार्य अथवा प्रयोजन को भुला दिया गया है कि वह ऐसे मनुष्यों का सृजन करे जिनकी विशिष्ट व्यक्तिगत पहचान हो सके, जिन्हें अपनी शक्तियों और क्षमताओं का ज्ञान हो और जो 'नैमित्तिक' कार्यों की जड़ता के विरूद्ध व्यक्तित्व को अभिरंजित कर सके।'' उत्तर प्रदेश ललित कला अकादमी द्वारा प्रकाशित, 'कला त्रैमासिक' का बाल कला अंक,(पृ॰12-1981)।

वास्तव में अभी भी भारत में बाल कला, बाल चित्रकला को कमतर समझा जाता है। लोग बच्चों को चित्रांकन में प्रशिक्षित कराने के बजाय किसी निरर्थक प्रतियोगिता में उसकी सफलता पर ज्यादा जोर देते हैं। सचमुच माता-पिता की सोच में बाजार प्रेरित आधुनिक बदलाव आया है। जो बचपन से ही बच्चों के अंदर टेलीविजन पर दिखाई देने और माता पिता के अंदर रातों रात बच्चों की शोहरत के जरिये खुद को प्रसिद्धी प्राप्त करने की चाहत पैदा कर रहा है। वे बच्चों के चाहने के बावजूद उन्हें रंग, कागज आदि तक मुहैया कराना पैसे की बरबादी समझते हैं।

 रेखा चित्र, चित्रकार: हारिल, उम्र 8 वर्ष

बहरहाल बच्चों के चित्रांकन ने आधुनिक विश्व के श्रेष्ठ कलाकारों को प्रेरित किया है। हमें बच्चों की कला पर ध्यान देना चाहिए, उन्हें प्रोत्साहित करना चाहिए। हमारे बचपन में कुछ बाल पत्रिकाएं जैसे चंपक, नंदन, पराग, चंदा मामा जैसी पत्रिकाएं एवं गीता प्रेस द्वारा प्रकाशित पौराणिक चरित्रकथा की सचित्र पुस्तकें लगभग नियमित प्रकाशित होती थीं; जो बाल चित्रकला को तो बढ़ावा देती हीं थी साथ में बाल चित्रकथा के जरिये नैतिक प्रेरणादायक शिक्षा भी देतीं थीं। त्रासदी यह है कि लोकप्रिय पत्रिकाएं अब पूर्णतः बंद हो गयीं, जिनके जरिये देश भर के बाल चित्रकारों की सुन्दर कृतियां देखने को मिल जाती थीं।

बच्चों की कल्पना की एक अनोखी दुनिया होती है। वह रचते हैं जो उनके अचेतन में होता है। वे सृजन करते हैं, आकृति का। जो कि उनके उम्र के विवेकानुसार विकसित होता है। जैसे पांच वर्ष की आयु तक रंग और रेखाएं ही उनके चित्रों में अपने अनोखेपन को लिए प्रकट होती हैं। पांच से आठ साल तक उनकी समझ विकसित होती जाती है। वह मानव आकृति बनाने लगते हैं। पशु-पक्षियों को पहचानने लगते हैं।

बच्चे वनस्पतियों को पहचानने की कोशिश करते हैं और उन्हें चित्रित करने लगते हैं। आसमान का नीला रंग,   सुबह-शाम का सुनहला, पीला, नारंगी रंग उन्हें आकर्षित करते हैं। फूलों के रंग उन्हें मोहते हैं। रात में चमकता चांद, तारे सब कुछ वह कागज पर अंकित करना चाहते हैं। उनकी बालसुलभ उछलकूद, धमाचौकड़ी सब खेल-खेल में तीव्र गतिशील रेखाओं और ऊर्जा से भरपूर रंग आकारों में आश्चर्यपूर्ण ढंग से प्रकट हो जाते हैं।

नौ वर्ष की आयु के बाद उनका ध्यान सभी प्रकार के जीव-जंतुओं के विभिन्न रूप- आकारों पर जाता है। वे मानव चेहरे के भाव, संकेत जैसे हर्ष-विषाद, शारीरिक गतिशीलता पर गौर करने लगते हैं, समझने लगते हैं। जिसे अपने मानवाकृतियों में दिखाने की कोशिश करते हैं। मानव मुखाकृतियों में भाव दिखने लगता है। वे हंसते हुए-रोते हुए नजर आने लगते हैं।

किशोरावस्था के बच्चों की कृतियों में प्राकृतिक और मानवीय परिवेश उभरकर आने लगता है। सूरज की रोशनी, प्रकाश-छाया आदि पर उनकी दृष्टि जाने लगती है। उनकी सोच और कृतियों में कुछ स्थिरता आने लगती है। रंगों का बोध हो जाता है रंग मिश्रित कर नया रंग बनाने लगते हैं। रेखाओं में भी सतर्कता आ जाती है। चित्रों के विषय क्षेत्र में विस्तार होता है। प्राकृतिक दृश्य, बाजार, उत्सव, खेल कूद, अंतरिक्ष, विज्ञान संबंधी आदि का चित्रण करने लगते हैं।

भारत के प्रसिद्ध चित्रकार और कला लेखक प्रो. रामचंद्र शुक्ल के अनुसार, ''लड़कियां अक्सर रंगों की भव्यता, आकृतियों के सौंदर्य तथा रेखाओं के सौष्ठव में रूचि लेने लगती हैं। लड़कों के चित्रण में तकनीकी कौशल बढ़ने लगता है। किंतु थोड़े से ही किशोर इस स्तर तक पहुंच पाते हैं। इसका कारण है कि अधिकांश बच्चों को आरम्भ से ऐसे त्रुटिपूर्ण रूप में शिक्षा प्रदान की जाती है कि उनका स्वाभाविक विकास नहीं हो पाता। फलस्वरूप किशोरावस्था तक पहुंचते - पहुंचते उनकी रूचि ही समाप्त हो जाती है। इस प्रकार दोषपूर्ण कला शिक्षा होने से बालकों की कला प्रगति में बहुत बाधा पड़ती है उनका विकास रुक जाता है। यदि उम्र को ध्यान में रखकर सही कला शिक्षा दी जाय तो संभवतः बहुतायत मात्रा में बालक इस दिशा में प्रगति कर सकते हैं। भाषा की भांति ही चित्रकला भी उनकी अभिव्यंजना  का एक सशक्त माध्यम है।"

ये तो थी बच्चों में उम्र के अनुसार कल्पना करने और चित्रण करने की बात। अब सवाल ये है कि बच्चे क्या चित्रण करें। हम उन्हें सिखाएं या हम उनसे सीखें। जिस तरह बच्चे मासूम होते हैं, उनकी कला भी सुन्दर और निश्छल होती है, उनमें उमंग होता है,शरारत होती है, जीवन होता है। जिस तरह प्रकृति में असुंदर कुछ भी नहीं है, सभी जीव जन्तुओं, वनस्पति में जीवन का सौंदर्य है जिसे जब एक बच्चा अपने चित्रों में उतारता है तो वह उसकी मौलिक कृति हो जाती है। जो जीवन रस से ओतप्रोत होती है। तब हम आधुनिक कलाकार क्यों कर उन्हें विरूपण या विकृतियों की ओर उन्हें उन्मुख करें। क्यों न हमीं उनसे सीखें कि दुनिया इतनी बदसूरत नहीं है जितना हम उसे समझते हैं। बस हमें उसे बचाना है बच्चों के लिए। वास्तव में सार्थक कला वही है जो हमें जीवन को सुन्दर ढंग से जीना सिखाए। और बच्चों की कला हमें जीवन का संदेश देती है।

भारत में सैंधव सभ्यता के समय से ही अनगढ़ हाथों द्वारा बनाई गई मृण मूर्तियां प्राप्त होने लगती हैं। सम्भवतः वह नन्हे हाथों द्वारा बनाई गई कलाकृतियाँ हैं।

मोहनजोदड़ो और हड़प्पा के ध्वस्त नगरों में सबसे प्राचीन मिट्टी के बहुत पुराने खिलौने मिले हैं जिनकी अत्यंत साधारण और सरल बनावट से पता चलता है कि संभवतः ये कुम्हारों के बच्चों द्वारा बनाया हुआ है। बाद के कालों में भी मिट्टी की मूर्तियां पाई गईं हैं। उदाहरण स्वरूप शुंगकाल में एक मिट्टी के फलक पर एक बच्चे को खिलौनों के साथ दिखाया गया है तो दूसरे फलक पर वह पाटी पर लिखते हुए दर्शाया गया है।

कुषाण काल में बड़े पैमाने पर प्रस्त्तर कार्य हुए, सुन्दर मूर्तियां निर्मित हुईं। इस काल में कई प्रकार के खिलौने जैसे घोड़ा, हाथी और खेलगाड़ी आदि प्राप्त हुए हैं।

जो संभवतः बच्चों द्वारा ही बनाई गई हैं। कहने का तात्पर्य है कि बच्चे बड़ों का अनुकरण करते हैं। कला सृजन में भी बच्चे कहीं न कहीं से प्रेरित होते हैं लेकिन उनका सृजन ज्यादा मौलिक और हमेशा नवीन ही होता है। वहां निश्छल उन्मुक्तता होती है स्वतंत्रता होती है खेल होता है।

हिन्दी साहित्य के कई और विभूतियों ने बाल कला पर थोड़ा बहुत लिखा है, जैसे श्री जगदीश गुप्त के अनुसार ' प्रागैतिहासिक चित्रकला और बाल कला दोनों का महत्व मुख्यतः बीसवीं सदी में स्थापित हुआ। मानवतावादी विचारधारा, आधुनिक कला में शास्त्रवाद के स्थान स्वच्छंदतावाद की प्रतिष्ठा तथा जनजातियों और बालकों के मनोविज्ञान के सूक्ष्म अन्वेषण से मानव मात्र की सांस्कृतिक समृध्दि की परिकल्पना आदि ने कला के क्षेत्र में जो आयाम उद्घाटित किये हैं उनमें स्थान पाकर यह कला-रूप विश्वव्यापी स्तर पर अध्ययन और अनुशीलन के केंद्र बन गये हैं। पॉल क्ली जैसे कलाकार की रचनाओं में एक ओर आदिम सहजता लक्षित की जाती है तो दूसरी ओर बाल सुलभ कल्पना । अवश्य ही कोई बिंदु ऐसा है जहां यह कला रूप परस्पर घुल मिल जाते हैं।' (कला त्रैमासिक का बाल कला अंक 12: 1981 उत्तर प्रदेश ललित कला अकादमी।)

आज़ादी के बाद पश्चिम के तर्ज पर भारत में भी बाल कला पर ध्यान देते हुए, उनके प्रोत्साहन हेतु कई बाल कला प्रतियोगिता होने लगीं। मशहूर कार्टूनिस्ट  के. शंकर पिल्ले ने 1949 में सबसे पहले 'बाल-कला ' प्रतियोगिता का आयोजन किया। बाद में 1951 में इन्हें अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर आयोजित किया जाने लगा। पहले देश में प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के जन्म दिवस पर भी बालकला प्रतियोगिता होती थी। अब तो इंटरनेट पर राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय बालकला प्रतियोगिता की बाढ़ लगी हुई है, सुकून की बात है। लेकिन आज भी ज्यादातर माता पिता की यही कोशिश है कि बच्चा आगे चलकर कलाकार न बनें। खुद कलाकारों के बच्चे भी माता-पिता के संघर्ष पूर्ण जीवन से विचलित होकर कलाकार बनने की अभिलाषा ही नहीं रखते हैं। जबकि कला बाल्यावस्था से ही बच्चों में संवेदनशीलता, कल्पनाशीलता, और अच्छी आदतों को ही परिष्कृत करती है। उनमें आत्मविश्वास आता है, वे अपने देश से प्रेम करते हैं, अपनी कला विरासत, धरोहरों के प्रति सचेत होते हैं। उनमें प्रकृति और जीव मात्र से प्रेम प्रवाह होता है।

(लेखिका डॉ. मंजु प्रसाद एक चित्रकार हैं। आप इन दिनों लखनऊ में रहकर पेंटिंग के अलावा ‘हिन्दी में कला लेखन’ क्षेत्र में सक्रिय हैं।)

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