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पर्यावरण
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जलवायु परिवर्तन का संकट बहुत वास्तविक है
भविष्य में आने वाली अधिक आपदाओं का मुक़ाबला करने के लिए आपदा जोखिम को कमतर करने वाले सिद्धांतों को मज़बूत करने की ज़रूरत है।
टिकेंदर सिंह पंवार
29 Oct 2021
Translated by महेश कुमार
climate
'प्रतीकात्मक फ़ोटो'

2021 में मैड्रिड में रिकॉर्ड तोड़ बर्फबारी (1.4 अरब यूरो का नुकसान), ब्रिटेन में क्रिस्टोफ तूफान, फिजी में चक्रवात एना, टेक्सास में सर्दी का तूफान, चीन में धूल भरी आंधी, न्यू साउथ वेल्स में बाढ़, इंडोनेशिया में चक्रवात सेरोजा, मॉस्को में रिकॉर्ड तोड़ तापमान, अमेरिका में गर्म हवाएं, और ओरेगन के जंगलों में भयंकर आग जैसी असहनीय मौसम की 10 घटनाएं दर्ज़ की गई हैं। 

1970-2019 के बीच विकासशील देशों में जलवायु परिवर्तन/मौसम संबंधी आपदाओं के कारण 91 प्रतिशत से अधिक मौतें हुई हैं। आपदा जोखिम को कम करने के लिए संयुक्त राष्ट्र अंतर्राष्ट्रीय दिवस (डीआरआर) को तारीख 13 अक्टूबर को 2021 के संस्करण के रूप में मनाया गया है, जो 'विकासशील देशों के लिए उनके आपदा जोखिम और आपदा नुकसान को कम करने के लिए अंतर्राष्ट्रीय सहयोग' पर केंद्रित है’।

भारत, मौसम संबंधी घटनाओं के कारण आपदाओं के प्रति अत्यंत संवेदनशील है। 2020 में बाढ़ के कारण लगभग 2,067 लोगों की जान चली गई थी। 15 सबसे विनाशकारी घटनाओं को जोड़ने वाले आंकड़ों में, लगभग 150 अरब डॉलर का नुकसान बताया गया है। पश्चिम बंगाल में चक्रवात अम्फान, महाराष्ट्र में निसर्ग, तमिलनाडु में निनार और बुरेनी के साथ-साथ भारी बारिश, बाढ़, भूस्खलन, तूफान, बिजली गिरने, गर्म और शीत लहरों ने भारत में अब तक सैकड़ों लोगों की जान ले ली है।

फिर, उत्तराखंड में एक ग्लेशियर का पिघलना, चक्रवात तौक्ताई और यास, और लगातार बढ़ती गर्मी और गर्म हवाएं एक सामान्य घटना बन चुकी है। इस बात का अनुमान लगाया गया है कि 20वीं सदी की शुरुआत से 2018 तक औसत तापमान में 0.7 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि हुई है और 2100 तक 2.7 डिग्री सेल्सियस बढ़ने का अनुमान है। जब तक की शमन और अनुकूलन रणनीतियों को ठीक से लागू नहीं किया जाता है, तो तबाही तय है।

ऊर्जा, पर्यावरण और जल परिषद की एक रिपोर्ट में, लगभग 75 प्रतिशत जिलों, जहां 638 मिलियन से अधिक लोग रहते हैं, को भारत में मौसम संबंधी घटनाओं के सबसे बड़े हॉटस्पॉट के रूप में माना जाता है।

इसमें कोई आश्चर्य नहीं है कि जलवायु परिवर्तन का संकट वास्तविक है और दुनिया में अनगिनत लोगों की जान ले रहा है। जापान का सेंडाई फ्रेमवर्क इन कमजोरियों के मानचित्रण और आपदाओं को मापने और ऐसी कमजोरियों का एटलस बनाने पर केंद्रित है। सवाल उठता है कि क्या यह पर्याप्त है? जवाब है कि यह पर्याप्त नहीं है, क्योंकि चरम जलवायु घटनाएं काफी गंभीर हैं और बार-बार हो रही हैं। शमन रणनीतियों को सुनिश्चित करना होगा। लेकिन समान रूप से अनुकूली रणनीतियों को अपनाना भी महत्वपूर्ण हैं।

दुर्भाग्य से, जापान के सेंडाई में दशकों के विचार-विमर्श के बाद भी, अधिकांश काम आधिकारिक कागजों पर ही रहा है और जमीन पर शायद ही कुछ ठोस हो पाया है। तो, इस फ्रेमवर्क को लागू करने में क्या समस्याएं हैं?

पहला, शहरी केंद्रों में बढ़ते जोखिम की शायद ही कोई मैपिंग की गई है। जोखिम और खतरे का मूल्यांकन, जो कि आवास और अन्य सामाजिक और भौतिक बुनियादी ढांचे सहित मौजूदा बुनियादी ढांचे का किया जाना, वह अत्यंत महत्वपूर्ण है। हालांकि, अधिकांश शहरों में ऐसी मैपिंग नहीं की गई है।

दूसरा, यदि मैपिंग की भी जाती है, तो इसे उन सलाहकारों की मदद से किया जाता है जो शायद ही लोगों तक पहुंच पाते हैं और उन्हें इस तरह के अभ्यास में शामिल कर पाते हैं। जिसे मात्रात्मक और गुणात्मक विश्लेषण कहा जाता है, इसमें उसका शायद ही पालन किया जाता है। विशेषज्ञ केवल मात्रात्मक डेटा पर भरोसा करते हैं, जो निश्चित रूप से महत्वपूर्ण है लेकिन गुणात्मक भाग को याद रखना भी जरूरी है जो समान रूप से महत्वपूर्ण है। हमने केरल में लगातार दो बाढ़ों के दौरान लोगों की भागीदारी देखी है, जिन बाढ़ों ने राज्य को बुरी तरह से प्रभावित किया था।

तीसरा, जिन शहरों में ये आकलन किए जाते हैं, वहां मैपिंग की अलग-अलग परतें होती हैं और अलग-अलग एजेंसियां इस तरह की मैपिंग को अंजाम देती हैं। ऐसी रिपोर्ट तैयार करते समय एक प्रसिद्ध कहावत है और वह यह है कि: "बायां हाथ दाएं से बात नहीं करता"। विभिन्न विभाग मैपिंग करते हैं पर शायद ही उनमें कोई आपसी तालमेल होता है।

चौथा, संमिलन या आपसी तालमेल एक कुंजी है और इसलिए डेटा का साझाकरण अत्यंत महत्वपूर्ण है। उदाहरण के लिए, शिमला जैसे शहर में जहां एक मौजूदा बर्फबारी का एक मैनुअल मौजूद है और जैसे-जैसे सर्दी आ रही है, वहां अलग-अलग विभाग हैं जिन्हें एक साथ लाइन में खड़ा होना चाहिए। पूर्व-चेतावनी प्रणाली को मजबूत करने के लिए मौसम विभाग की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण है।

इसी तरह, नगर निगम का सड़कों का ध्यान रखना जरूरी है और यह सुनिश्चित करना जरूरी है कि पत्थर की धूल कमजोर स्थानों पर रखी जाए ताकि अस्पतालों की ओर जाने वाली सड़कों का रखरखाव कम से कम सुनिश्चित किया जा सके। बिजली विभाग को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि केबल यानि तारें सही हैं और श्रमिकों (विशेषकर कश्मीरी श्रमिकों) की एक आरक्षित फ़ौज को इसे सुनिश्चित करने के लिए काम पर रखा जाना चाहिए ताकि भारी बर्फ और केबलों पर पेड़ गिरने की स्थिति में गिरे हुए पेड़ों को हटाकर जोखिम को किया जा सके। सम्मिलन या तालमेल के बिना, यह काम नहीं करेगा। लेकिन शहरों में सम्मिलन का यह रूप शायद ही देखा जाता है।

पांचवां, आपदा प्रबंधन योजनाओं में जिम्मेदारी का दस्तावेजीकरण किया जाना चाहिए और ज़िम्मेदारी को निष्पादित किया जाना चाहिए। यहां विभिन्न योजनाएँ हैं: राष्ट्रीय, राज्य, जिला और यहाँ तक कि शहर की आपदा प्रबंधन योजनाएँ भी हैं। दुर्भाग्य से, शहर की योजना, या तो तैयार नहीं है या जहां भी इस तरह की कवायद को शहर आपदा प्रबंधन प्राधिकरण (सीडीएमए) के तहत किया जाता है, उसकी पुष्टि नहीं की जाती है; इसलिए, इसकी कोई प्रासंगिकता नहीं है। सीडीएमए को सशक्त बनाया जाना चाहिए और उन्हें इस जिम्मेदारी को निभाने के लिए उसमें दम-खम होना चाहिए।

इस खतरे से भरे जोखिम का मूल्यांकन करते समय शहरों को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि एक उचित एटलस बनाई जिसे एक लोकतांत्रिक भागीदारी माध्यम से किया जाना चाहिए। कमजोर तबकों या इन घटनाओं का शिकार होने वाले समूहों पर पर्याप्त ध्यान देने के साथ ये योजनाएं समावेशी होनी चाहिए; आर्थिक और भौतिक दोनों तरफ से। अनौपचारिक श्रमिकों, विशेषकर महिलाओं और विकलांगों पर विशेष जोर दिया जाना चाहिए, जिन पर अत्यधिक ध्यान देने की आवश्यकता है। लोगों को इस अभ्यास का हिस्सा बनाना चाहिए और उसके बाद उन्हे  आपदा प्रबंधन दस्तावेज मुहैया कराए जाने चाहिए। अन्यथा, इन दस्तावेजों को फैंसी सम्मेलनों में प्रस्तुत किया जाता है, जिन पर कभी ध्यान नहीं दिया जाता है कि आपदा आती कहाँ से है।

शिमला ने 2015-17 में (बिल्डिंग अर्बन एडेप्टेशन एंड रेजिलिएशन इन इमर्जेंसी- BUARE) के साथ मिलकर घटनाओं के बढ़ते खतरे को मापने के लिए एक विस्तृत एटलस बनाया था। स्थानीय बोली में बिल्डिंग अर्बन एडेप्टेशन एंड रेजिलिएशन इन इमर्जेंसी का अर्थ है गांवों में बुवाई, कटाई और कई अन्य कार्यों में सामुदायिक भागीदारी। इसे एनपीडीआरआर (राष्ट्रीय आपदा जोखिम न्यूनीकरण मंच) में प्रस्तुत किया गया था। इस अभ्यास को लोगों की बड़ी भागीदारी के साथ किया गया था। हालाँकि, जब वास्तविक जिम्मेदारी को एक बार फिर से साझा किया जाना होता है तो यह जिला आपदा प्रबंधन प्राधिकरण है जो सीडीएमए को रास्ते से हटा देता है और इस तरह के अभ्यास आवश्यक फल नहीं दे पाते हैं।

इसलिए, यह सुनिश्चित करना कि डीआरआर सिद्धांतों को वास्तव में लागू किया जा रहा है, इसके लिए मानचित्र, मैपिंग, जोखिम को कमतर करने के सिद्धांतों के तहत उसे लागू किया जाना चाहिए।

लेखक शिमला, हिमाचल प्रदेश के पूर्व डिप्टी मेयर हैं। व्यक्त विचार व्यक्तिगत हैं।

अंग्रेजी में मूल रूप से प्रकाशित लेख को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें

The Crisis of Climate Change is Very Real

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global warming
Natural Disasters
Disaster Risk Reduction
disaster management

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