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भारत के बढ़ते भूख संकट के पीछे एक नहीं, कई कारकों का दुर्लभ संयोग 
अर्थशास्त्री और राइट टू फ़ूड कंपेन की प्रमुख प्रचारक दीपा सिन्हा अहम भूख संकेतकों पर भारत के ख़राब प्रदर्शन के कारणों और इन हालात से बाहर निकलने के रास्ते बता रही हैं।
रश्मि सहगल
12 Nov 2021
The Perfect Storm Behind India’s Growing Hunger Crisis
प्रतिकात्मक फ़ोटो।

अर्थशास्त्री दीपा सिन्हा अम्बेडकर यूनिवर्सिटी में लिबरल स्टडीज़ स्कूल में पढ़ा रही हैं और राइटू टू फ़ूड कंपेन से सक्रिय रूप से जुड़ी हुई हैं। न्यूज़क्लिक के साथ एक साक्षात्कार में वह बताती हैं कि क्यों भूख एक अलग मामला नहीं है, बल्कि उठाये गये ग़लत क़दमों का समग्र नतीजा है। भारत में खाद्य संकट इसलिए है, क्योंकि नीति निर्माण में महिलाओं और बच्चों की आवाज़ की कमी है, जिन योजनाओं को उन्हें ध्यान में रखकर बनाया जाता है, उन योजनाओं को ठीक तरह से बनाया नहीं जाता या सरकार उन योजनाओं के बजट में ख़ासकर संकट के दौरान कटौती कर देती है। ऊपर से अन्य कमज़ोर वर्ग भी उपेक्षित हो जाते हैं, जिससे उनकी आय कम हो जाती है और उनकी कल्याणकारी योजनाओं तक पहुंच का मार्ग अवरुद्ध हो जाता है। सिन्हा कहती हैं कि इसका समाधान श्रमिकों के बीच और श्रमिकों और अन्य के अधिकारों के लिए लड़ने वाले आंदोलनों के बीच एकजुटता है। यहां इस बातचीत का संपादित अंश प्रस्तुत किया जा रहा है।

भारत भर में भूख की समस्या क्यों बढ़ रही है? इस लिहाज़ से कौन से राज्य ख़राब प्रदर्शन कर रहे हैं, और इसके लिए आप क्या कारण मानती हैं ?

कई स्रोतों से देश में भूख और खाद्य असुरक्षा की इस ख़तरनाक स्थिति का संकेत मिलता है। साल 2019 के एनएफ़एचएस-5 के आंशिक परिणाम कई राज्यों में कुपोषण के बने रहने और बच्चों के उचित विकास की बदहाली को दिखाते हैं। महामारी ने बहुत सारे लोगों के लिए चीज़ों को बदतर बना दिया है। मौजूदा हालात दरअस्ल किस तरह के हैं,इसे दिखाने के लिए राष्ट्रीय स्तर पर हमारे पास दुर्भाग्य से कोई आंकड़ा तक नहीं है। हालांकि, महामारी के बाद धीमी आर्थिक वृद्धि, स्थिर ग्रामीण मज़दूरी, एकीकृत बाल विकास योजना (ICDS) और मिड डे मिल जैसी कल्याणकारी योजनाओं को दी जाने वाली कम प्राथमिकता ने संकट की यह स्थिति पैदा कर दी है।

गोदामों में अनाज ज़रूरत से ज़्यादा भरा हुआ है और गेहूं और बाक़ी फसलों का उत्पादन लगातार बढ़ रहा है, यह देखते हुए भूख और भुखमरी का यह मंज़र अजीब सा लगता है।

बिल्कुल। महामारी के दौरान भारतीय खाद्य निगम (FCI) के गोदामों में हमारे पास रिकॉर्ड स्तर का भंडार था। कम से कम अनाज की उपलब्धता की कमी की समस्या तो नहीं है,बल्कि वितरण की समस्या है। जबकि सरकार के पास अनाजों की कोई कमी नहीं है,ऐसे में भूख की इतनी बड़ी समस्या का होना अनैतिक है। महामारी के दौरान भी सरकार ने सार्वजनिक वितरण प्रणाली का दरवाज़ा सबके लिए नहीं खोला। ऐसा करने से बिना राशन कार्ड वाले लोगों को भी सब्सिडी या मुफ़्त खाद्यान्न मिल पाता। राशन कार्ड सूचियों से कई लोगों के नाम ग़ायब हैं, और आवंटन अब भी 2011 की जनगणना के आधार पर ही किया जा रहा है। अगर 2021 की अनुमानित जनसंख्या का इस्तेमाल करें, तो हमें 75% ग्रामीण और 50% शहरी आबादी को इस  ज़द में लाने के लिए राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम (NFSA) के शासनादेश को पूरा करने के लिहाज़ से राशन कार्ड सूचियों में उन दस करोड़ लोगों को जोड़ने की ज़रूरत होगी,जो इस समय इस सूची से बाहर हैं।

आपको क्या लगता है कि सरकार इस मुद्दे पर उदासीन क्यों है?

हमारे पास पर्याप्त खाद्य पदार्थ है, भारतीय खाद्य निगम के गोदामों में 100 मिलियन टन से ज़्यादा गेहूं और चावल पड़े हैं और फिर भी लोग भूखे हैं। यह पूरी तरह सार्वजनिक नीति के कुप्रबंधन का नतीजा है। अगर सरकार अनाज को 'x' क़ीमत पर ख़रीदती है, लेकिन इसे ग़रीबों को उससे कम क़ीमत पर बेचती है, तो इसे सब्सिडी के रूप में गिना जाता है, (कुछ ऐसी चीज़,जो) राजकोषीय घाटा को बढ़ा देती है। सरकार के सामने राजकोषीय घाटे को कम करना एक लक्ष्य है, जिसे वह इसलिए पार नहीं करना चाहती है, क्योंकि इससे उसकी रेटिंग प्रभावित होगी।

सरकार ने ग्लोबल हंगर इंडेक्स 2021 की प्रणाली पर हमला किया है। इस इंडेक्स में भारत 116 देशों में 101 वें स्थान पर है। सरकार का आरोप है कि इसी प्रणाली के चलते 2020 के 94 वें स्थान से भी नीचे आ गया है। क्या आप इस आलोचना से सहमत होंगी?

ग्लोबल हंगर इंडेक्स (GHI) को लेकर सरकार की आलोचना ग़लत है। दावा यही है कि यह सूचकांक फ़ोन पर की गयी बाचतीत के आधार पर किये गये सर्वेक्षण के डेटा का इस्तेमाल करता है, जो कि मान्य नहीं है। इसके अलावे यह कहना भी ग़लत है कि भारत की रैंकिंग 94 से फ़िसलकर 101 हो गयी है, क्योंकि जीएचआई रैंकिंग की तुलना सालों के लिहाज़ से नहीं की जा ससकती है। इसलिए, हम यह नहीं कह सकते कि भारत की रैंकिंग ख़राब हो गयी है, लेकिन जीएचआई रैंकिंग यह ज़रूर दर्शाती है कि भूख संकेतकों पर भारत की रैंकिंग बहुत ख़राब है। जीएचआई संकेतक समग्र खाद्य सुरक्षा, बाल कुपोषण और बाल मृत्यु दर को दर्शाते हैं।

इस रैंकिंग की एक और आलोचना यह कहकर की जाती है कि यह भूख को नहीं दर्शाती है। हालांकि, अब हम व्यापक रूप से पुरानी भूख को इस बात के प्रतिबिंब के रूप में समझते हैं कि क्या किसी व्यक्ति को पर्याप्त और पौष्टिक भोजन मिल रहा है या नहीं, जो शरीर को स्वस्थ रहने के लिए ज़रूरी है।अब यह रैंकिंग महज़ इस बात का संकेतक नहीं रह गयी है कि कोई व्यक्ति भूख को महसूस कर रहा है या नहीं। जीएचआई संकेतक इस समझ के लिए उपयुक्त हैं। सभी वैश्विक सूचकांकों में इस्तेमाल किये जाने रहे संकेतकों को लेकर किये जाने वाले सवाल, उनका मूल्यभार और डेटा की गुणवत्ता देशों और समय की तुलना के हिसाब से जुड़े मुद्दे हैं। यही जीएचआई भी करता है। वे जो सीमित भूमिका निभाते हैं, वह है-इस मामले में भूख जैसी विशिष्ट और उपेक्षित महत्वपूर्ण मुद्दों को उजागर करना। वे किसी देश की वैश्विक स्थिति की एक व्यापक तस्वीर भी देते हैं।

आपने कहा है कि यह जीएचआई भूख को ज़्यादा आंकने के बजाय कम करके आंकता है, क्योंकि एक ज़्यादा मज़बूत प्रणाली महामारी के दौरान भारत के सिलसिले में इन नतीजों को और भी कमतर कर देती। आपके इस कहने का आधार क्या है?

जीएचआई ने जिन चार संकेतकों का इस्तेमाल किया है,उनमें से एफ़एओ के कुपोषित आबादी का अनुपात अपने आप में एक सूचकांक है। खपत, उपलब्धता, वितरण के स्वरूप आदि पर मॉडलिंग डेटा के आधार पर यह उन लोगों के अनुपात का अनुमान लगाता है, जो स्वस्थ जीवन के लिए ज़रूरी न्यूनतम सीमा की कैलोरी से कम उपभोग करते हैं। कई लोगों ने इस सीमा को बहुत कम बताया है। इस अनुमान में इस्तेमाल होने वाले डेटा से जुड़ी डेटा गुणवत्ता और उसकी तुलनीयता की अपनी समस्यायें भी हैं। दूसरा, जीएचआई में सभी डेटा कोविड काल के पहले के हैं। हम कई ज़मीनी रिपोर्टों से जानते हैं कि कोविड के बाद की स्थिति बदतर है, इसलिए सटीक तस्वीर शायद इस रिपोर्ट से भी बदतर हो।

यानी कि जीएचआई को अपर्याप्त कैलोरी लेने वाली भारतीय आबादी के अनुपात को निर्धारित करने के लिए एफएओ डेटा का इस्तेमाल नहीं करना चाहिए था। फिर, सवाल है कि यह किन दूसरे स्रोतों का इस्तेमाल कर सकता था?

जीएचआई आधिकारिक स्रोतों से उपलब्ध आंकड़ों का इस्तेमाल करता है। भारत में 2011-12 के बाद से ऐसा एक भी उपभोग व्यय सर्वेक्षण नहीं हुआ है, जो ग़रीबी और खाद्य पदार्थों की खपत पर जानकारी इकट्ठी करता हो। 2017-18 में एक सर्वेक्षण हुआ था, लेकिन सरकार ने डेटा की गुणवत्ता से जुड़ी समस्या का हवाला देते हुए उस रिपोर्ट को खारिज कर दिया था। वह रिपोर्ट मीडिया में लीक हो गयी थी और पता चला था कि 2017-18 में ग्रामीण क्षेत्रों में खपत व्यय 2011-12 की तुलना में कम हो गया था। लेकिन, आधिकारिक उद्देश्यों के लिए भारत अब भी 2011-12 की रिपोर्ट का ही इस्तेमाल करता है। एनएफ़एचएस की एंथ्रोपोमेट्री यानी मानवमिति(मानव शरीर के अनुपात और माप का वैज्ञानिक अध्ययन) डेटा भी 2015-16 का ही है। इस अवधि के बाद भारत ने कल्याणकारी योजनाओं के लिए बजट में कटौती कर दी थी और आर्थिक मंदी आ गयी थी। इनका असर एनएफ़एचएस-5 के जारी होने के बाद ही पता चल पायेगा। इस सर्वेक्षण का आधा हिस्सा महामारी से ठीक पहले किया गया था, और दूसरा आधा सर्वेक्षण कोविड-19 की पहली और दूसरी लहरों के बीच किया गया था।

हमें उपभोग व्यय सर्वेक्षण करने के लिए राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण कार्यालय (NSSO) की ज़रूरत है और एक सटीक तस्वीर के लिए शायद एनएफ़एचएस के एक और चरण की ज़रूरत है।

इसमें कहां शक है कि भारत का खाद्य संकट बढ़ रहा है। हंगर वॉच ने अक्टूबर 2020 में (कोविड-19 की पहली लहर के लॉकडाउन के बाद) ग्यारह राज्यों में 4,000 ग्रामीण और शहरी परिवारों का एक व्यक्तिगत सर्वेक्षण किया था। ये सर्वेक्षण अनौपचारिक क्षेत्र के लोगों के थे। हमने पाया कि साक्षात्कार में शामिल लोगों में से 77 फ़ीसदी ने कहा कि वे पहले के मुक़ाबले कम खाना खा रहे हैं। इसके अलावा, 53% लोगों ने स्वीकार किया कि उनकी दाल और सब्ज़ियों की खपत में कमी आयी है।

2020 के आख़िर में किये गये ज़्यादातर क्षेत्र सर्वेक्षणों में तक़रीबन 60% लोगों का कहना था कि उनकी खाने को लेकर मिलने वाली सुरक्षा की स्थिति महामारी से पहले के मुक़ाबले ख़राब है। इसके अलावा,लोगों ने जो अपनी-अपनी कहानियां बतायी हैं,उनसे हमें पता चलता है कि दूसरी लहर ने ग़रीबों और कमज़ोंरों को कहीं ज़्यादा प्रभावित किया।

सवाल है कि हमारे पड़ोसियों-श्रीलंका, पाकिस्तान, बांग्लादेश और नेपाल ने बेहतर प्रदर्शन क्यों किया है, जबकि उनकी अर्थव्यवस्थायें भारत के मुक़ाबले बहुत छोटी हैं?

कुपोषण के कई निर्धारक होते हैं। इन देशों के बेहतर प्रदर्शन करने के कई कारण हो सकते हैं, जिनमें महिलाओं और बच्चों (इनके लिए बनायी गयी नीतियों और योजनाओं) में ज़्यादा निवेश, स्वास्थ्य सुविधायें, बेहतर स्वच्छता आदि शामिल हैं। बांग्लादेश ने भारत के मुक़ाबले पिछले दो दशकों में इन सभी में तेजी से सुधार किया है।

राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण-5 (2019-20) के पहले चरण के आंकड़ों से पता चलता है कि भारतीय राज्यों में बच्चों में कुपोषण, अल्पविकास और लगातार कमज़ोर करने वाले रोग की स्थिति बेहद ख़तरनाक़ है। सवाल है कि जब केंद्र सरकार बाल पोषण कार्यक्रम के बजट में कटौती कर रही है, तो राज्य आक्रामक रूप से इसका विरोध क्यों नहीं करते हैं?

2015 में जब पहली बार बजट में कटौती की गयी थी, तो कुछ विरोध हुए थे, और फिर कुछ बजटों को फिर से शामिल भी किया गया था। मगर,यह भी सच है कि इन योजनाओं की लक्षित आबादी,यानी महिलायें और बच्चों के पास ज़्यादा आवाज़ नहीं है और दुर्भाग्य से सरकारों के लिए इनकी कोई प्राथमिकता भी नहीं है।

भूख का सीधा सम्बन्ध बेरोज़गारी और महंगाई से है, दोनों में लगातार इज़ाफ़ा हो रहा है। क्या आप पाठकों के लिए यह बता सकती हैं कि उन ग़रीबों के लिए इसके मायने क्या हैं, जिन्हें जीवन-यापन करने में कठिनाई हो रही है।

महंगाई तो हर क्षेत्र में बढ़ रही है, लेकिन ख़ास तौर पर खाना पकाने वाले खाद्य तेलों की क़ीमतें तो कई गुना बढ़ गयी हैं। भारत में बेरोज़गारी का स्तर ऊंचा है, और ऊपर से जिन लोगों के पास काम है भी,उनकी आय कम हो रही है, क्योंकि मज़दूरी दर भी कम है। साथ ही लोगों को पहले की तरह कई दिनों तक काम भी नहीं मिल पा रहा है। यह सब उस आहार की गुणवत्ता को प्रभावित करता है, जिसका लोग उपभोग कर सकते हैं। महामारी से पहले के अध्ययनों से भी पता चला है कि भारतीय आहार बेहद नाकाफ़ी हैं, लोग अनाज का इस्तेमाल ज़्यादा करते हैं, और पशु से मिलने वाले प्रोटीन,दाल, सब्ज़ियां और फलों जैसे पौष्टिक आहार का इस्तमाल अपर्याप्त मात्रा में होता है।

सरकार का कहना है कि उसने महामारी से पैदा होने वाले हालात से निपटने के सिलसिले में सबसे ग़रीब तबकों के लिए प्रधान मंत्री गरीब कल्याण अन्न योजना (PMGKAY) और आत्म निर्भर भारत योजना (ANBS) जैसे सब्सिडी युक्त खाद्य पदार्थ मुहैया कराने वाली योजनायें शुरू की हैं। सरकार का दावा है कि 2020 में तक़रीबन 32.2 मिलियन टन खाद्यान्न, और 2021 में 32.8 मिलियन टन, 80 करोड़ लोगों को मुफ्त में आवंटित किया गया था। भूख की घटनाओं पर क़ाबू  पाने के लिए ये योजनायें कितना कारगर रही हैं?

इन योजनाओं से उन लोगों को मदद ज़रूर मिली है, जो इन योजनाओं तक पहुंच पाने में सक्षम थे। लेकिन,बड़ी संख्या में लोग इन कल्याणकारी योजनाओं के दायरे से बाहर हैं और उन्हें इसका फ़ायदा नहीं मिला है। सामुदायिक रसोई और अस्थायी कार्ड या कूपन के ज़रिये उन लोगों को शामिल करने के प्रयास बहुत सीमित थे,जिनके पास राशन कार्ड नहीं हैं और कुछ राज्यों तक ही सीमित थे और यह सिलसिला बहुत कम दिनों तक ही चला था। खाद्यान्न के ज़बरदस्त भंडार को देखते हुए सरकार और भी बहुत कुछ कर सकती है। इसके अलावा, स्कूल में खाना और एकीकृत बाल विकास योजना (ICDS) जैसी अन्य योजनायें महामारी के दौरान बंद थीं, इससे बच्चे पोषण के एक अहम स्रोत से दूर हो रहे थे।

परिवार और छोटे बच्चों ने इन परिस्थितियों का सामना कैसे किया?

आंगनबाडी केन्द्रों के बंद हो जाने से बच्चों के विकास की निगरानी और गंभीर रूप से कुपोषित बच्चों को चिह्नित किये जाने और उन्हें रेफ़र किये जाने जैसी नियमित गतिविधियां भी बाधित हुई थीं। इस व्यवधान का बच्चों के पोषण पर गंभीर दीर्घकालिक प्रभाव हो सकते हैं। काग़ज़ों पर घर में दिये जा रहे रूखे-सूखे राशन के रूप में पूरक पोषण तो जारी तो रहा, लेकिन उनकी आपूर्ति अनियमित रही और परिवारों में भूख की उस सीमा की भरपाई कर पाने में अपर्याप्त रही है। आंगनबाडी केंद्रों को उनकी सभी सेवाओं के साथ फिर से खोला जाना प्राथमिक काम  होना चाहिए। इसके अलावा, पहले जैसी स्थिति में लौट पाना तो मुश्किल है। आंगनबाड़ियों में भोजन की गुणवत्ता में सुधार लाने और अंडा, फल आदि जैसी वस्तुओं को जोड़ने सहित अतिरिक्त प्रयासों की ज़रूरत है। कुछ समुदायों में भूख की स्थिति भयानक है। तत्काल राहत दिये जाने, सार्वजनिक सेवाओं (स्वास्थ्य, पोषण, शिक्षा) को मज़बूती देने और इन्हें सभी के लिए उपलब्ध कराने के लिए ज़रूरी है कि सरकारों की ओर से ठोस कार्रवाई हो, और सभी के लिए बेहतर पारिश्रमिक और काम करने की स्थिति के साथ-साथ रोज़गार पैदा करने वाले  विकास को सुनिश्चित करना ज़रूरी है।

उत्तर प्रदेश में आंगनबाडी कार्यकर्ताओं को आठ माह से मानदेय का भुगतान नहीं किया गया है। क्या सभी राज्यों में यही स्थिति है, और हम इस स्थिति को सुधारने के लिए सरकारों पर आख़िर किस तरह दबाव बना पाते हैं?

आंगनवाड़ी कार्यकर्ताओं को कर्मचारियों के रूप में नहीं,बल्कि उन्हें मानद कार्यकर्ता के रूप में मान्यता दी जाती है। उनका वेतन बहुत ही कम है और जिन कार्यों को वे अंजाम दे रही हैं,उसके अनुरूप तो उनका वेतन नहीं है। कई राज्यों में आंगनबाडी कार्यकर्ताओं का अनियमित वेतन का भुगतान एक समस्या है। महामारी ने इसे और भी बदहाल कर दिया है। अगर हम बच्चों और महिलाओं के लिए अच्छी गुणवत्ता वाली सेवायें चाहते हैं, तो इन कार्यकर्ताओं को बेहतर वेतन दिये जाने की ज़रूरत है। कार्यकर्ताओं के रूप में यह उनका अधिकार भी है कि उन्हें उचित वेतन मिले। लेकिन,इसके बजाय उनके कार्यों को घरों में काम करने वाली उन महिलाओं की अवैतनिक देखभाल के काम के विस्तार के रूप में ही देखा जाता है, जिन्हें अक्सर कम करके आंका जाता है।

कई राज्यों में आंगनवाड़ी कार्यकर्ता यूनियन अपनी आवाज़ें उठा रहे हैं और कुछ यूनियन ने तो काम की बेहतर शर्तों पर बातचीत करने में कामयाबी भी हासिल की है। हम आशा करते हैं कि एकीकृत बाल विकास योजना (ICDS) की ज़रूरत वाली महिलाओं और बच्चों के अधिकारों के लिए काम करने वाली इन कार्यकर्ताओं की ओर से की जा रही सामूहिक कार्रवाई और इनकी एकजुटता और दबाव सरकार को उनके काम की मान्यता और पर्याप्त पारिश्रमिक,दोनों ही दिलायेंगे। आशा कार्यकर्ताओं की स्थिति भी ऐसी ही है और वे भी महिला कार्यकर्ता ही होती हैं। अर्थशास्त्री ज्यां द्रेज का अनुमान है कि 2015 और 2020 के बीच एकीकृत बाल विकास योजना (ICDS) और मिड-डे मील योजना में की गयी बजटीय कटौती सही मायने में  25% की सीमा तक की गयी कटौती है। इस तरह की कटौती से बच्चों के पोषण पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ना तय है। आशा और आंगनबाडी कार्यकर्ताओं की स्थिति के साथ-साथ इसे भी दुरुस्त किये जाने की ज़रूरत है।

(रश्मि सहगल एक स्वतंत्र पत्रकार हैं।)

इस लेख को मूल अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें।

The Perfect Storm Behind India’s Growing Hunger Crisis

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