NewsClick

NewsClick
  • English
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • हमारे लेख
  • हमारे वीडियो
search
menu

सदस्यता लें, समर्थन करें

image/svg+xml
  • सारे लेख
  • न्यूज़क्लिक लेख
  • सारे वीडियो
  • न्यूज़क्लिक वीडियो
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • अफ्रीका
  • लैटिन अमेरिका
  • फिलिस्तीन
  • नेपाल
  • पाकिस्तान
  • श्री लंका
  • अमेरिका
  • एशिया के बाकी
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें
सब्सक्राइब करें
हमारा अनुसरण करो Facebook - Newsclick Twitter - Newsclick RSS - Newsclick
close menu
पुस्तकें
भारत
राजनीति
नागरिक होने का अधिकार
नागरिकता को लेकर भारत के आम लोगों के बीच चार मशहूर बुद्धिजीवियों ने भारत में नागरिकता का गठन करने वाले उन प्रमुख पहलुओं का गहराई से अध्ययन किया है, जो हाल ही में सत्ता पर काबिज सरकार के विवादास्पद फ़ैसलों के चलते जनसामान्य के बीच तीग्र बहस का विषय रहा है।
रोमिला थापर
09 Aug 2021
नागरिक होने का अधिकार
फ़ोटो: साभार: एलेफ़ बुक कंपनी

नागरिकता को लेकर भारत के आम लोगों के बीच चार मशहूर बुद्धिजीवी भारत में नागरिकता का गठन करने वाले उन प्रमुख पहलुओं का गहराई से अध्ययन किया है, जो हाल ही में सत्ता पर काबिज सरकार के विवादास्पद फ़ैसलों के चलते जनसामान्य के बीच तीग्र बहस का विषय रहा है।

'द राइट टू बी ए सिटिजन' में इतिहासकार रोमिला थापर इस बात की पड़ताल करती हैं कि भारत और बाक़ी दुनिया में नागरिकता कैसे विकसित हुई। इसके अलावा, वह नागरिकों के अधिकारों की जांच करती हैं और अपने नागरिकों के प्रति राज्य के कर्तव्यों का विश्लेषण करती है।

यहां थापर के उसी निबंध से लिया गया निम्नलिखित अंश प्रस्तुत है:

हमने ख़ुद को एक अच्छा संविधान दिया, हमने ख़ुद को नागरिकता अधिनियम, 1955 दिया और तब से लेकर बहुत सारी बातों पर बहसें की हैं। लेकिन, शायद इस पिछली आधी सदी में हम जो कर पाने में नाकाम रहे हैं, वह है-नागरिकता के अर्थ पर ज़ोर देना, ऐसा दोनों ही तरह के लोगों के लिहाज़ से हुआ है-एक तो उन अभिजात्य समूहों के लिहाज़ से, जिनके लिए आज भी माना जाता है कि उनके पुराने विशेषाधिकार क़ायम हैं और दूसरी तरफ़  इससे कहीं ज़्यादा उन लोगों के लिहाज़ से जो आज भी राज्य का नागरिक नहीं,बल्कि ख़ुद को प्रजा ही मानते हैं। हाल और अतीत के बीच के फ़र्क़ पर ज़ोर देना होगा और दोनों को स्पष्ट करना होगा।

नागरिक को, चाहे विशेषाधिकार प्राप्त हो या नहीं, वह अपनी पहली प्राथमिकता, यानी अधिकारों और कर्तव्यों को लेकर मूक नहीं हो सकता है। अगर हम सामाजिक न्याय को अधिकार या स्वतंत्रता या बोलने की आज़ादी के रूप में देखते हैं, तो शासन करने वालों और शासित होने वालों, दोनों को यह समझना होगा कि इस तरह के अधिकार होने और उनका सम्मान करने का मतलब क्या है। जो लोग शासित हैं, उन्हें पिछली आधी सदी में अपने अधिकारों को लेकर सामने आने का शायद ही मौक़ा मिला हो। ऐसे कई मौक़े आये हैं जब शासन करने वालों ने नागरिकों के अधिकारों की अनदेखी की है। राजनेताओं के रूप में सांसद और अलग-अलग प्रशासनिक सेवाओं और क़ानून और व्यवस्था की निगरानी करने वाली सेवाओं और यहां तक कि मीडिया चलाने वालों के लिए भी नागरिक और प्रजा के बीच के इस अंतर को जानना और यह समझना मुफ़ीद होगा कि हम अब प्रजा नहीं, नागरिक हैं।

सवाल पैदा होता है कि गहरी असमानता में घिरे इस समाज में नागरिकता का आख़िर मतलब क्या है? चूंकि हमारे समाज के कामकाज पर इस समय बारीक़ चर्चा हो रही है,इसलिए यह सवाल बार-बार पूछा जा रहा है। उम्मीद की जानी चाहिए कि वंचितों के हालात को बदलने को लेकर वैकल्पिक नीतियों पर गंभीरता से चर्चा की जाये। ऐसी कुछ न्यूनतम मांगें हैं, जिन्हें नागरिकों को अब नागरिक और राज्य के बीच एक सामंजस्यपूर्ण रिश्ते के हिस्से के रूप में बनाना होगा। राज्य को यह समझना होगा कि यह सद्भाव अहम है। इनमें ऐसी मांगें हों, जो गरिमापूर्ण जीवन को सुनिश्चित करे और ऐसी मांगें भी हों, जो विचारशील व्यक्ति को खारिज किये जाने पर रोक लगाये, जैसा कि हमारे समाज में अक्सर होता है। जब समाज के कुलीन तबकों से आने वाले नागरिकों के अधिकारों को इतनी आसानी से खारिज किया जा सकता है, तो उन वंचित लोगों के साथ क्या हो सकता है, इसे सोचकर ही बहुत डर लगता है।

इसके लिए भोजन, पानी और आश्रय के अधिकारों और स्वास्थ्य और शिक्षा के अधिकार पर हमेशा और बार-बार ज़ोर देने की ज़रूरत है, भले ही नागरिक सरकारी क्षेत्र में काम करते हों या फिर किसी निजी एजेंसी में काम करते हो। राज्य को ज़िम्मेदार होना चाहिए और इन अधिकारों को सुनिश्चित करने को लेकर निजी एजेंसी के साथ जो भी व्यवस्था हो सकती है,उसे सुनिश्चित करना चाहिए। इस बात की गारंटी होनी चाहिए कि बहुत ही कम समय की सूचना पर नौकरियों को ख़त्म नहीं किया जा सकता है और एक निर्धारित अवधि के लिए वेतन दिया जाये और राज्य निजी रोज़गार के मामले में भी इसे लागू करे। किसी भी समाज की सेहत तभी दुरुस्त रह सकती है, जबकि सभी के लिए एक अच्छी स्वास्थ्य सेवा उपलब्ध हो। हम अपनी सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा,जो भले ही निम्न स्तर की सेवा हो,उसे निजी स्वास्थ्य सेवा की ऊंची फीस की मांगों के साथ रौंदने और तबाह करने की अनुमति नहीं दे सकते। अगर हम छात्रों को दिये जाने वाले प्रशिक्षण की गुणवत्ता में सुधार लाना चाहते हैं,तो नि:शुल्क प्राथमिक शिक्षा ज़रूरी है, ताकि यह काम ठीक से हो सके और सबके पास विचार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार हो।

यह हर एक नागरिक के लिए पूरी तरह न्यूनतम अधिकार है। इन्हें संरक्षक के रूप में देखे जाने वाले राज्य के कृपालु हृदय से निकली उदारता के तौर पर नहीं देखा जाना चाहिए। राज्य अब संरक्षक नहीं रहा क्योंकि नागरिक ने ही तो राज्य की स्थापना की है। ये वे अधिकार हैं, जिन्हें राज्य की तरफ़ से नागरिकों को मुहैया कराया जाना ज़रूरी है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और सामाजिक न्याय का अधिकार इन सभी अधिकारों के लिए भी अहम हैं क्योंकि इससे अधिकारों की धारणा की अहमितत रेखांकित होगी। नागरिकता में ये तमाम अधिकार शामिल हैं, इस बात को उन लोगों को समझाना होगा, जिन्होंने ख़ुद को महज़ प्रजा के रूप में देखा है। हालांकि उन्हें यह विश्वास दिलाया जाना भी ज़रूरी है कि वे इन अधिकारों के हक़दार हैं क्योंकि उन्हें तो यह पता ही नहीं कि उनके पास ये ज़रूरी अधिकार भी हैं।

यह एलेफ़ बुक कंपनी से प्रकाशित ऑन सिटिजनशिप (2021) में रोमिला थापर के निबंध का एक अंश है। प्रकाशक की अनुमति से इसे यहां पुनर्प्रकाशित किया गया है।

रोमिला थापर नई दिल्ली स्थित जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में इतिहास की अवकाश प्राप्त प्रोफ़ेसर(Professor Emerita) हैं। इन्हें 1983 में भारतीय इतिहास कांग्रेस की जनरल प्रेसिडेंट और 1999 में ब्रिटिश एकेडमी का फ़ेलो चुना गया था। 2008 में इन्हें यूएस लाइब्रेरी ऑफ़ कांग्रेस के प्रतिष्ठित उस क्लूज़ पुरस्कार से सम्मानित किया गया था, जिसे नोबल पुरस्कार के अंतर्गत नहीं आने वाले विषयों में आजीवन उपलब्धि के सम्मान में दिया जाने वाला एक पूरक नोबेल पुरस्कार के रूप में देखा जाता है।

साभार: इंडियन कल्चरल फ़ोरम

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

The Right to be a Citizen

On Citizenship
Citizenship in India
The Right to be a Citizen
Romila thapar
Citizenship Act

Related Stories

नागरिकता और संविधान


बाकी खबरें

  • संदीपन तालुकदार
    वैज्ञानिकों ने कहा- धरती के 44% हिस्से को बायोडायवर्सिटी और इकोसिस्टम के की सुरक्षा के लिए संरक्षण की आवश्यकता है
    04 Jun 2022
    यह अध्ययन अत्यंत महत्वपूर्ण है क्योंकि दुनिया भर की सरकारें जैव विविधता संरक्षण के लिए अपने  लक्ष्य निर्धारित करना शुरू कर चुकी हैं, जो विशेषज्ञों को लगता है कि अगले दशक के लिए एजेंडा बनाएगा।
  • सोनिया यादव
    हैदराबाद : मर्सिडीज़ गैंगरेप को क्या राजनीतिक कारणों से दबाया जा रहा है?
    04 Jun 2022
    17 साल की नाबालिग़ से कथित गैंगरेप का मामला हाई-प्रोफ़ाइल होने की वजह से प्रदेश में एक राजनीतिक विवाद का कारण बन गया है।
  • न्यूज़क्लिक रिपोर्ट
    छत्तीसगढ़ : दो सूत्रीय मांगों को लेकर बड़ी संख्या में मनरेगा कर्मियों ने इस्तीफ़ा दिया
    04 Jun 2022
    राज्य में बड़ी संख्या में मनरेगा कर्मियों ने इस्तीफ़ा दे दिया है। दो दिन पहले इन कर्मियों के महासंघ की ओर से मांग न मानने पर सामूहिक इस्तीफ़े का ऐलान किया गया था।
  • bulldozer politics
    न्यूज़क्लिक टीम
    वे डरते हैं...तमाम गोला-बारूद पुलिस-फ़ौज और बुलडोज़र के बावजूद!
    04 Jun 2022
    बुलडोज़र क्या है? सत्ता का यंत्र… ताक़त का नशा, जो कुचल देता है ग़रीबों के आशियाने... और यह कोई यह ऐरा-गैरा बुलडोज़र नहीं यह हिंदुत्व फ़ासीवादी बुलडोज़र है, इस्लामोफ़ोबिया के मंत्र से यह चलता है……
  • आज का कार्टून
    कार्टून क्लिक: उनकी ‘शाखा’, उनके ‘पौधे’
    04 Jun 2022
    यूं तो आरएसएस पौधे नहीं ‘शाखा’ लगाता है, लेकिन उसके छात्र संगठन अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (एबीवीपी) ने एक करोड़ पौधे लगाने का ऐलान किया है।
  • Load More
सब्सक्राइब करें
हमसे जुडे
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें

CC BY-NC-ND This work is licensed under a Creative Commons Attribution-NonCommercial-NoDerivatives 4.0 International License