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नज़रिया
भारत
राजनीति
रवांडा नरसंहार की तर्ज़ पर भारत में मिलते-जुलते सांप्रदायिक हिंसा के मामले
नफ़रत भरे भाषण देने वाले राजनेताओं और इसी तरह के घृणित अभियान चलाने वाले मीडिया घरानों पर क़ानून की अदालत में मुकदमा तक नहीं चलाया गया और उन्हें सज़ा से मुक्ति भी मिल गयी।
सैयद मोहम्मद वक़ार
19 Jan 2022
hate speech

सैयद मोहम्मद वक़ार लिखते हैं कि नरसंहार के ख़िलाफ़ उस क़ानून की मांग करना अनिवार्य है, जिसे भारत ने नरसंहार कन्वेंशन के समर्थन के 60 से ज़्यादा साल बीत जाने के बाद भी अभी तक अधिनियमित नहीं किया है। हालांकि, किसी क़ानून का निर्माण धरती पर मौजूद तमाम मुसीबतों का रामबाण हल तो नहीं है, मगर इससे क़ानूनी व्यवस्था में स्पष्ट ख़ामियों को दुरुस्त करने में मदद ज़रूर मिलती है।

चाहे वह नेल्ली नरसंहार हो, 1984 के सिख विरोधी दंगे हों, हाशिमपुरा नरसंहार हो, गुजरात में हुए 2002 के मुस्लिम विरोधी दंगे हों, और हाल ही में हुए 2020 के दिल्ली दंगे हों, भारत ऐसे कई नरसंहार का गवाह बना रहा है। हालांकि, कुछ विद्वान इन्हें नरसंहार होने का दावा करते हैं, लेकिन सरकार इन दावों का ज़ोरदार खंडन करती है। इस सिलसिले में उस कन्वेंशन ऑन द प्रीवेंशन एंड पनीशमेंट ऑफ़ द क्राइम ऑफ़ जीनोसाइड, यानी नरसंहार के अपराध रोकथाम और सज़ा पर सम्मेलन का उल्लेख करना ज़रूरी है, जिसे "नरसंहार को रोकने" के मक़सद से पारित किया गया था।

नरसंहार सम्मेलन (Genocide Convention)

संयुक्त राष्ट्र महासभा (UNGA) ने 1946 में अंतर्राष्ट्रीय क़ानून के तहत नरसंहार को अपराध के तौर पर मान्यता देते हुए एक प्रस्ताव पारित किया था। इसके बाद, दिसंबर 1948 में यूएनजीए ने नरसंहार सम्मेलन को सर्वसम्मति से अपना लिया था। हालांकि, भारत 1948 के इस नरसंहार सम्मेलन का एक हस्ताक्षरकर्ता रहा है और जिसकी पुष्टि भारत ने 1959 में कर दी थी, लेकिन भारत में अभी तक इसके मुताबिक़ क़ानून नहीं बनाया गया है। भारत उस द्वैतवादी व्यवस्था का अनुसरण करता है, जहां देश में इसे लागू करने योग्य क़ानून बनाने के लिए संविधान के अनुच्छेद 253 के तहत संसद में (अनुमोदित सम्मेलन के मुताबिक़) उस क़ानून का पारित किया जाना ज़रूरी है।

इस सम्मेलन या कन्वेंशन के अनुच्छेद II में नरसंहार को "(ए) समूह के सदस्यों की हत्या; (बी) समूह के सदस्यों को गंभीर शारीरिक या मानसिक नुक़सान पहुंचाने; (सी) किसी समूह पर उन स्थितियों को जानबूझकर थोपने,जिनका मक़सद उस समूह की पूरी तरह या आंशिक रूप से भौतिक तबाही हो; (डी) समूह के भीतर बच्चों के पैदा होने को रोकने के मक़सद से उपायों को लागू करने; (ई) समूह के बच्चों को जबरन दूसरे समूह में स्थानांतरित करने जैसे एक राष्ट्रीय, जातीय, नस्लीय या धार्मिक समूह को पूरी तरह या आंशिक रूप से तबाह करने के इरादे से किये गये कृत्यों के रूप में परिभाषित किया गया है। 

भारतीय दंड संहिता (IPC) में "राष्ट्रीय, जातीय, नस्लीय या धार्मिक समूह को पूरी तरह या आंशिक रूप से तबाह किये जाने के इरादे से किये गये कृत्यों" के समान किसी कृत्य का ज़िक़्र नहीं है। नरसंहार जैसे अपराध और इससे जुड़े अपराधों को उन्हीं प्रक्रियात्मक और पर्याप्त क़ानूनों से नहीं निपटा जा सकता है, जो कि नियमित अपराधों के लिए बनाये गये हैं। यह स्थिति भारत में नरसंहार के ख़िलाफ़ क़ानून की ज़रूरत की ओर इशारा करता है।

इस नरसंहार सम्मेलन का अनुच्छेद IV 'शासकों को संवैधानिक रूप से ज़िम्मेदार ' और 'सरकारी अधिकारियों' को भी किये गये अपराधों के लिए ज़िम्मेदार बनाता है। भारतीय कानून में इस अनुच्छेद को शामिल करने से मौजूदा पर्याप्त और प्रक्रियात्मक बाधाओं को कम से कम करने में काफ़ी मदद मिल सकती है, क्योंकि सरकारी अधिकारियों पर उनकी संलिप्तता या मिलीभगत से किये गये नरसंहार के अपराधों के लिए मुकदमा चला पाना बेहद मुश्किल हो जाता है।

सुप्रीम कोर्ट ने 2018 में अपने तहसीन पूनावाला फ़ैसले में लिंचिंग के सिलसिले में दिशानिर्देश तैयार करते समय इसी तरह का रुख़ अपनाया था। इन दिशानिर्देशों के मुताबिक़, जिन मामलों में पुलिस अधिकारी उल्लिखित निर्देशों का पालन करने में नाकाम रहते हैं, उनके कृत्य को जानबूझकर लापरवाही और/या कदाचार माना जायेगा, और फिर उसी के मुताबिक, उन पुलिस अधिकारियों के ख़िलाफ़ कार्रवाई की जायेगी, और यह करार्वाई सेवा नियमों के तहत विभागीय कार्रवाई तक ही सीमित नहीं है।

इस कन्वेंशन के अनुच्छेद III में नरसंहार के अलावा नरसंहार करने की साज़िश, नरसंहार करने के लिए सीधे और सार्वजनिक तौर पर उकसाने, नरसंहार करने की कोशिश और नरसंहार में मिलीभगत को दंडनीय कृत्यों के रूप में शामिल किया गया है।

आइये, हम इस बात पर ध्यान दें कि आख़िर "नरसंहार करने को लेकर सीधे और सार्वजनिक तौर पर उकसाना" क्या होता है।

रवांडा 'मीडिया मामला'

2003 के कुख्यात "मीडिया मामले" में रवांडा नरसंहार के मुकदमे के सिलसिले में स्थापित अंतर्राष्ट्रीय आपराधिक न्यायाधिकरण(International Criminal Tribunal) ने 'नरसंहार करने को लेकर सीधे और सार्वजनिक तौर पर उकसाने वाले शब्द की व्याख्या की है। कांगुरा पत्रिका के प्रधान संपादक और आरटीएलएम (RTLM) रेडियो प्रसारण चैनल के संस्थापकों पर रवांडा नरसंहार को भड़काने में उनकी कथित भूमिका के लिए मुकदमा चलाया जा रहा था। ट्रिब्यूनल ने इस बात का ज़िक़्र किया था कि कांगुरा में आरटीएलएम प्रसारण और उग्र लेखन ने अपने निरंतर प्रचार और जातीय रूढ़िवादिता के ज़रिये तुत्सियों को एक 'दुश्मन' के रूप में चित्रित किया था, और इन दुश्मनों को तबाह कर देने का आह्वान किया था। इसके बचाव में आरोपी का तर्क था कि राष्ट्रपति के विमान को गिराये जाने से तुत्सियों की हत्याओं को बढ़ावा मिला था। ट्रिब्यूनल ने माना था कि जहां यह घटना एक प्रेरित करने वाली घटना ज़रूर थी, वहीं इन मीडिया समूहों की ओर से लम्बे समय से किये जा रहे प्रसारण ने "गोलियों से भरी बंदूक " के रूप में काम किया था।

इस मुद्दे पर कि 'सीधा-सीधा' आह्वान क्या होता है, ट्रिब्यूनल ने अपने फ़ैसले के पैराग्राफ़ 1011 में लिखा है कि:

"उकसाये जाने के उस प्रत्यक्ष तत्व को इसकी सांस्कृतिक और भाषायी सामग्री की रौशनी में देखा जाना चाहिए। दरअसल, दर्शकों के आधार पर किसी भाषण विशेष को किसी देश में 'प्रत्यक्ष' माना जा सकता है, और वहीं दूसरे देश में ऐसा नहीं माना जा सकता है। चैंबर आगे याद दिलाता है कि उकसाना प्रत्यक्ष हो सकता है, और फिर भी उसमें वह निहित हो सकता है…

इसलिए, चैंबर मामले-दर-मामले के आधार पर विचार करेगा कि क्या रवांडा की संस्कृति और इस तत्काल मामले की विशिष्ट परिस्थितियों की रौशनी में मुख्य रूप से इस मुद्दे पर ध्यान केंद्रित करके उकसाने के इन कृत्यों को प्रत्यक्ष रूप में देखा जा सकता है या नहीं। जिन लोगों के लिए इस संदेश का मतलब था, उन्होंने तुरंत इसके निहितार्थ को समझ लिया था।"

यहां ट्रिब्यूनल ने बचाव पक्ष की दलील का ज़िक़्र करते हुए कहा कि 'दुश्मन' से हिफ़ाज़त का मतलब उस सशस्त्र समूह से है, जो हुतु नागरिकों पर हमला कर रहा था और रवांडा में सत्ता हासिल करना चाहता था; इसलिए वे उस मीडिया का काम कर रहे थे, जिसका काम लोकतंत्र को बचाना है। ट्रिब्यूनल का निष्कर्ष था कि इस कवरेज को लेकर ग़लत बात यह थी कि वह तुत्सियों को लगातार दुश्मन के रूप में चिह्नित कर रहा था। पाठकों और श्रोताओं को उन सशस्त्र बलों की ओर निर्देशित नहीं किया गया था; बल्कि, पूरे तुत्सी समुदाय को ही एक ख़तरे के रूप में चित्रित कर दिया गया था।

इसलिए, ट्रिब्यूनल ने साफ़ कर दिया था कि 'प्रत्यक्ष' रूप से उकसाये जाने का मतलब यह नहीं है कि नरसंहार का आह्वान स्पष्ट होना चाहिए। यह आह्वान निहित हो सकता है, और सांस्कृतिक और भाषायी सिलसिले में ही इसे समझा जाना चाहिए, साथ ही सबसे अहम बात यह है कि इसे किस रूप में ग्रहण किया जाता है, यह आह्वान किसके लिए किया जाता है,यह भी अहम है।

इसके अलावा, इस सवाल को संबोधित करते हुए ट्रिब्यूनल ने अपने अकायेसु फैसले का हवाला दिया कि जिन उकसावे के कारण नरसंहार नहीं हुआ है, क्या उसे भी दंडित किया जायेगा।

(पैरा 1013)...ट्रिब्यूनल ने इस तथ्य पर रौशनी डाली थी कि "ऐसे कृत्य अपने आप में ख़ासकर इसलिए ख़तरनाक़ हैं, क्योंकि वे समाज के लिए बेहद जोखिम भरे हैं, भले ही वे नतीजे देने में नाकाम रहे हों" और यह भी माना कि "नरसंहार क्योंकि साफ़ तौर पर अपराधों की श्रेणी में आता है, इसलिए यह इतना गंभीर है कि इस तरह के अपराध को अंजाम देने को लेकर प्रत्यक्ष और सार्वजनिक तौर पर उकसाये जाने को दंडित किया जाना चाहिए, भले ही इस तरह से उकसाया जाने से अपराधी की ओर से अपेक्षित नतीजा नहीं देने वाला रहा हो…

(पैरा 1029) कार्य-कारण के लिहाज़ से चैंबर इस बात की याद दिलाता है कि उकसाया जाना एक अपराध है, भले ही इसका वह असर हो, जो वह चाहता हो।" 

मानवता के ख़िलाफ़ (घृणा फ़ैलाने वाले भाषणों के ज़रिये) उस नूर्नबर्ग परीक्षणों के दौरान जूलियस स्ट्रेचर जैसे उत्पीड़न के अपराधों  की व्याख्या करते हुए ट्रिब्यूनल ने विभिन्न मामलों का ज़िक़्र किया था, जब उनके यहूदी-विरोधी लेख, जिनमें हिंसा का कोई आह्वान तो नहीं था और जो यहूदियों के नरसंहार से काफ़ी पहले के थे, तब भी उन्हें वह ज़हर माना गया था, जिसने जर्मनी की जनता को संक्रमित कर दिया था। इसने अभद्र भाषा को आक्रामकता का एक भेदभावपूर्ण रूप क़रार दिया गया था, जहां पीड़ित समूह की गरिमा को जो नुक़सान पहुंचा था,वह आज भी अपनी जगह क़ामय है। ट्रिब्यूनल ने कहा कि आरोपी मीडिया एजेंसियों के उग्र लेखन ने हुतियों के मन में तुत्सियों के ख़िलाफ़ नफ़रत का माहौल पैदा कर दिया था। ट्रिब्यूनल ने उत्पीड़न के अपराध को इस तरह से  परिभाषित किया:

"(पैरा 1072) इस ट्रिब्यूनल के क़ानून में वर्णित मानवता के ख़िलाफ़ अपराधों के दूसरे कृत्यों के उलट उत्पीड़न के अपराध में ख़ासकर नस्लीय, धार्मिक या राजनीतिक आधार पर भेदभाव वाले इरादे की तलाश की ज़रूरत होती है।

(पैरा 1073) इरादे के तौर पर परिभाषित किये गये उकसाये जाने के इस अपराध के विपरीत उत्पीड़न के अपराध को प्रभाव के लिहाज़ से भी परिभाषित किया गया है। नुक़सान पहुंचाना उकसाया जाना नहीं होता है। यह अपने आप में नुक़सान है। इसके मुताबिक़, उत्पीड़न पैदा करने वाले संचार में कार्रवाई को लेकर आह्वान करने की ज़रूरत नहीं होती है। इसी कारण से उत्पीड़न और हिंसा के कृत्यों के बीच कोई कड़ी नहीं होनी चाहिए….

(पैरा 1078) चैंबर इस बात पर ग़ौर करता है कि उत्पीड़न प्रत्यक्ष और सार्वजनिक रूप से उकसाये जाने के मुक़ाबले व्यापक होता है, जिसमें दूसरे रूपों में जातीय घृणा की वकालत किया जाना भी शामिल होता है..."

 भारत में इसकी भयानक समानतायें

पिछले कुछ सालों में भारत में भी ज़्यादातर मुख्यधारा के समाचार मीडिया चैनलों की ओर से ऐसे नफ़रत भरे भाषणों और उनके प्रचार प्रसार में बढ़ोत्तरी देखी गयी है, जिनसे आम जनता के मन में मुस्लिम विरोधी पूर्वाग्रह पैदा हुआ है। नागरिकता विरोधी (संशोधन) अधिनियम (CAA) के विरोध के दौरान भारत ने जो कुछ देखा, वह था-मुख्यधारा के मीडिया की ओर से प्रदर्शनकारियों (जिनमें से एक बड़ी तादाद मुसलमानों की थी) को प्रतिबंधित संगठनों और 'शत्रु' राष्ट्रों से जोड़कर लगातर उन्हें शैतान ठहराये जाने और ग़ैर क़रार दिये जाने के ज़रिये राष्ट्र के दुश्मन के रूप में चित्रित करने का घोर प्रयास। प्रदर्शनकारियों को अनपढ़, अज्ञानी, भ्रष्ट, संदेहास्पद आदि के रूप में बदनाम करने की लगातार कोशिश की गयी।

कुछ राजनेताओं ने अन्य समुदायों के लोगों के मन में यह डर पैदा करने का प्रयास किया कि विरोध करने वाले मुसलमान उन पर शारीरिक हमला करे देंगे। वास्तव में एक मौजूदा केंद्रीय मंत्री ने तो ‘गोली मारो’ का कुख्यात नारा लगाकर ग़द्दारों (देशद्रोहियों) को गोली मारने तक का आह्वान किया था।

जैसा कि मीडिया मामले से पता चलता है कि यहां के लोगों को 'ग़द्दार' के रूप में संबोधित किया जा रहा है, इसे उस सांस्कृतिक लिहाज़ से समझा जाना चाहिए, जिसमें इसका इस्तेमाल किया जाता है और जिन दर्शकों को ध्यान में रखकर यह सब किया जाता है,वे इसे कैसे समझेंगे। इसके तुरंत बाद जो कुछ हुआ, वह था- दिल्ली में मुस्लिम विरोधी दंगा, जिसकी शुरुआत एक ख़ास घटना से हुई थी, लेकिन ये दंगे कमोबेश मुख्यधारा के मीडिया और राजनेताओं के अभद्र भाषणों से हुए सीएए विरोधी विरोधों के वायरल कवरेज के नतीजे थे। यहां मीडिया कवरेज और अभद्र भाषा ने "गोलियों से भरी हुई बंदूक" की तरह काम किया था। घटनाओं का यह क्रम साफ़ कर देता है कि लगातार हो रहे कटु भाषणों के भयानक नतीजे होते हैं।

नफ़रत भरे भाषण देने वाले राजनेताओं और इस तरह के घृणित अभियान चलाने वाले मीडिया घरानों पर क़ानून की अदालत में मुकदमा तक नहीं चलाया गया और उन्हें दण्ड से मुक्ति मिल गयी।

हमारे देश में कोविड-19 महामारी की शुरुआत के दौरान तब्लीग़ी जमात के इस्लामिक उपदेशकों के समूह को कोविड के फ़ैलाये जाने को लेकर बलि के बकरे के रूप में इस्तेमाल किया गया था, और सरकार ने इसका दुरुपयोग किया था। समाचार मीडिया ने बहुसंख्यक भारतीयों के मन में यह बैठा देने में अहम भूमिका निभायी थी कि जमात के लोग और कुल मिलाकर मुस्लिम समुदाय इस प्रसार के लिए ज़िम्मेदार हैं, इस बात ने उन्हें राष्ट्र के दुश्मन के रूप में स्थापित कर दिया। 'थूक जिहाद' जैसे शब्द गढ़े गये। एक पत्रकार ने 'जिहाद के प्रकार' पर एक पूरा एपिसोड ही चला दिया, जिसमें संपत्ति खरीदने से लेकर बच्चों को शिक्षित करने तक,यानी कि वास्तव में ज़िंदगी को क़ायम रखते हुए एक इंसान जो कुछ भी करता है, उसे दाग़दार करता हुआ जीवन के व्यावहारिक रूप से तमाम पहलुओं को इसमें शामिल कर लिया गया था।

इसके बाद मुसलमानों के ख़िलाफ़ नफ़रत का वह अभियान भी चलाया गया, जिसमें उनका आर्थिक और सामाजिक बहिष्कार भी शामिल था। अगर ऐसे परिदृश्य में मीडिया घरानों और इसमें शामिल अन्य लोगों की जवाबदेही तय की जाती, तो शायद उन्हें नरसंहार और इसे भड़काने के अपराध के लिए दंडित किया जाता।

कई मामलों में जब मीडिया घरानों को बुलाया जाता है, तो वे इस सचाई का बचाव करते हैं, यानी कि वे जो कुछ भी प्रकाशित कर रहे हैं या कह रहे हैं वह तथ्यात्मक रूप से सही है। इस तरह के ज़्यादातर मामलों में कुछ छिट-पुट घटनाओं को बहुत ही सामान्य तरीक़े से पेश कर दिया जाता है। ज़ाहिर है, जहां तथ्यों की रिपोर्टिंग करने में कुछ भी ग़लत नहीं है, वहीं जिन शब्दों का चुनाव उन तथ्यों को बताने के लिए इस्तेमाल किया जाता है,उनसे भेदभाव पैदा होता है। इसकी एक मिसाल उन लोगों के लिए इस्तेमाल की जाने वाली उन शब्दावलियों से दी जा सकती है, जो कि 2020 में महामारी की शुरुआत के बाद राष्ट्रीय स्तर पर लगाये जाने वाले लॉकडाउन के दौरान फंस गये लोगों के लिए की गयी थीं। जहां मंदिरों और गुरुद्वारों से लौटने वाले हिंदुओं और सिखों के लिए 'फंसे हुए लोगों' का इस्तेमाल किया गया था,वहीं मस्जिदों और मदरसों में फंसे रहने वाले मुसलमानों के लिए  'छुपे हुए लोगों'  शब्द का इस्तेमाल किया गया था। यह और कुछ नहीं, बल्कि मुस्लिम समुदाय की नुक़सानदेह तरीक़े से रूढ़िवादी क़रार देना था।

इसे भी पढ़ें: विशेष : रवांडा नरसंहार की हत्यारी मीडिया और भारत के टीवी चैनल

आजकल टीवी ख़बरिया चैनल नियमित रूप से छिट-पुट घटनाओं और यहां-वहां से कुछ लोगों का साक्षात्कार लेकर पूरे समुदाय को बुरे रूप में दिखाना पसंद करते हैं, जो कि इस समुदाय को अक्सर नुक़सानदेह तरीक़े से रूढ़िवादी क़रार देता है। इस तरह के मीडिया मामले में ट्रिब्यूनल ने पाया था कि "जातीय सामान्यीकरण के किसी बयान से उस जातीयता के लोगों के ख़िलाफ़ आक्रोश भड़काने वाले किसी नरसंहार के माहौल के लिहाज़ से एक बड़ा असर होता है। इससे हिंसा की संभावना कहीं ज़्यादा हो जाती है। साथ ही वह माहौल इस बात का एक संकेत होता है कि हिंसा को उकसाना ही उस बयान के पीछे का इरादा था।" (पैरा 1022)

महिलाओं पर हमला

रवांडा नरसंहार (अकायेसु) के मुकदमे में न्यायाधिकरण ने कहा था कि तुत्सी महिलाओं के साथ होने वाला व्यवस्थित बलात्कार महज़ एक यौन अपराध नहीं था। यह पूरे तुत्सी समुदाय को ख़त्म करने के लिहाज़ से आतंकित करने वाला एक कृत्य था। इसलिए, यहां बलात्कार को नरसंहार किये जाने के कृत्य के रूप में चिह्नित किया गया थी। मीडिया मामले में भी ट्रिब्यूनल ने कहा था कि तुत्सी महिलाओं को मोहक एजेंटों और दुश्मनों के रूप में चित्रित करने से एक ऐसा माहौल तैयार हुआ था,जिसमें तुत्सी महिलाओं पर होने वाले यौन हमले उनके लिए ज़िम्मेदार भूमिका का एक प्रत्याशित नतीजा था।

सोशल मीडिया हैंडल और ऐप्स के ज़रिये मुस्लिम महिलाओं की "नीलामी" के हालिया मामले यौन हिंसा को  नरसंहार के एक साधन के रूप में इस्तेमाल करने की ओर इशारा करते हैं। यहां ग़ौर करने वाली एक अहम बात यह है कि सिर्फ़ एक समुदाय विशेष की मुखर महिलाओं को ही निशाना बनाया जाता है। यह इस बात को स्थापित करता है कि ये कृत्य उन्हें और उनके समुदाय को पूरी तरह से आतंकित करने के इरादे से किये गये हैं। इन घटनाओं को अलग-अलग करके इसलिए नहीं देखा जाना चाहिए, क्योंकि ये सभी घटनायें एक बड़े मक़सद की ओर इशारा करती हैं। पिछले साल एक हिंदू महापंचायत में अन्य घृणित आक्षेपों के बीच मुस्लिम महिलाओं के उठा ले जाने का आह्वान तक किया गया था।

 नरसंहार का इरादा

पिछले महीने हरिद्वार में आयोजित 'धर्म संसद' के दौरान नरसंहार के किये गये आह्वान सही मायने में कई मीडिया घरानों और राजनेताओं की ओर से मुसलमानों को नियमित रूप से विकृत रूप से रूढ़िवादी क़रार दिये जाने के आम नतीजे थे। इस सार्वजनिक कार्यक्रम में सशस्त्र बलों और आम हिंदुओं से अपील की गयी थी कि वे देश और ख़ास तौर पर हिंदू समुदाय को बचाने की ख़ातिर मुसलमानों के ख़िलाफ़ हथियार उठायें। यह आयोजन कोई आम आयोजन नहीं था या फिर कोई ऐसा-वैसा कोई कार्य नहीं था, बल्कि उस धर्म संसद को उन लोगों ने आयोजित किया था, जिनका सत्तारूढ़ राज्य सरकार के साथ घनिष्ठ रिश्ते हैं। पुलिस का बहुत ही ढुलमुल रवैया था और पुलिस ने सामान्य आईपीसी की धाराओं के तहत प्राथमिकी दर्ज की थी (ग़ैर-क़ानूनी (गतिविधि) रोकथाम अधिनियम जैसे ज़्यादा सख़्त क़ानून के तहत नहीं) और प्राथमिकी तब दर्ज की गयी,जब मुस्लिम समुदाय और नागरिक समाज की ओर से आक्रोश पैदा हुआ। इस घटना से पहले भी कई दूसरी बड़ी-छोटी घटनायें मुसलमानों को निशाना बनाते उसी तरह के इरादे से आयोजित किये गये थे। ये अंतर्राष्ट्रीय़ाकानून के तहत नरसंहार के स्पष्ट मामले हैं।

नरसंहार के आह्वान और कृत्य अब इस देश के लिए आम सिलसिले होते जा रहे हैं, और इस अपराध के अपराधी खुलेआम घूम रहे हैं। जो कुछ भी हो रहा है, उससे हम अपनी आंखें तो बंद नहीं रख सकते, क्योंकि वह बहुत ही भयानक है। एक पूरे समुदाय के रूप में हम न्यायप्रिय भारतीयों को इसे ख़त्म करने के लिए युद्ध स्तर पर काम करने की ज़रूरत है।

इस परिदृश्य में नरसंहार के ख़िलाफ़ उस क़ानून की मांग करना अनिवार्य है, जिसे भारत ने नरसंहार कन्वेंशन के समर्थन के 60 से ज़्यादा साल बीत जाने के बाद भी अभी तक अधिनियमित नहीं किया है। हालांकि, किसी क़ानून का निर्माण धरती पर मौजूद तमाम मुसीबतों का रामबाण हल तो नहीं है, मगर इससे क़ानूनी व्यवस्था में स्पष्ट ख़ामियों को दुरुस्त करने में मदद ज़रूर मिलती है। आख़िरकार, राजनीतिक इच्छाशक्ति और जागरूक नागरिकों की आवाजें इन घृणास्पद और नरसंहारवादी ताक़तों के ख़िलाफ़ लड़ाई में सबसे अहम हथियार बनी हुई हैं।

नरसंहार का यह माहौल मुझे दक्षिण एशियाई शायर और दार्शनिक अल्लामा सर मुहम्मद इक़बाल की एक मशहूर नज़्म के इस टुकड़े की याद दिलाता है:

"वतन की फ़िक्र कर नादान मुसीबत आने वाली है"

तेरी बर्बादियों के मशवरे हैं आसमान में"

(सैयद मोहम्मद वक़ार कोलकाता स्थित डब्ल्यूबी नेशनल यूनिवर्सिटी ऑफ़ ज्यूरिडिकल साइंस के स्नातक छात्र हैं। इनके व्यक्त विचार निजी हैं।)

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

https://www.newsclick.in/The-Rwandan-Genocide-Case-Eerie-Parallels-Today-India

साभार: द लीफ़लेट

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