NewsClick

NewsClick
  • English
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • हमारे लेख
  • हमारे वीडियो
search
menu

सदस्यता लें, समर्थन करें

image/svg+xml
  • सारे लेख
  • न्यूज़क्लिक लेख
  • सारे वीडियो
  • न्यूज़क्लिक वीडियो
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • अफ्रीका
  • लैटिन अमेरिका
  • फिलिस्तीन
  • नेपाल
  • पाकिस्तान
  • श्री लंका
  • अमेरिका
  • एशिया के बाकी
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें
सब्सक्राइब करें
हमारा अनुसरण करो Facebook - Newsclick Twitter - Newsclick RSS - Newsclick
close menu
अपराध
भारत
राजनीति
अंतरराष्ट्रीय
हमारे समाज और सिस्टम की हक़ीक़त से रूबरू कराती हैं मॉब लिंचिंग की घटनाएं!
मॉब लिंचिंग का इतिहास बताता है कि इसका शिकार या तो अल्पसंख्यक होता रहा है या समाज का कमज़ोर तबका या फिर इनसे सहानुभूति रखने वाले लोग होते रहे हैं।
उपेंद्र चौधरी 
21 Apr 2020
mob lynching
Image courtesy: Loksatta

अमेरिका अपने फ़ायदे के लिए भले ही दुनिया की आर्थिक और राजनीतिक आज़ादी को अपनी जेब में रखता हो, मगर ये भी उतना ही सही है कि अमेरिकी नागरिक को अगर सबसे ज़्यादा प्यारी है तो वह है, उसकी अपनी नागरिक आज़ादी। लेकिन, यही उसकी पहली और आख़िरी पहचान नहीं रही है। उसकी पहचान उन दो शब्दों की जुगलबंदी से बनी वह बर्बर टर्म भी रहा है, जिससे चाहकर भी वह ऐतिहासिक रूप से अपना पीछा नहीं छुड़ा सकते। यह टर्म आजकल हमारे यहां भी क़ानून-व्यवस्था के लिए चुनौती और लोकतांत्रिक सर को झुकाने वाली मानवीय शर्म बन चुका है। यह टर्म है- मॉब लिंचिंग; यानी भीड़ द्वारा की जाने वाली हत्या।

दो दिन पहले ही जिन अमेरिकी राज्यों से राष्ट्रपति ट्रम्प ने ट्विटर के ज़रिये लिब्रेट यानी आर्थिक गतिविधियों को आज़ाद करने की अपील की है, उनमें से एक राज्य वर्जीनिया भी है। इसी वर्जीनिया राज्य के बेडफ़र्ड काउंटी में रहने वाला एक शख़्स चार्ल्स लिंच था। वह अमेरिकी क्रांति के दौरान अपनी निजी अदालतें लगाया करता था। उस अदालत का मक़सद अमेरिकी क्रांति के दौरान अंग्रेज़ों के वफ़ादारों को सज़ा दिलवाना था। कहा जाता है कि चार्ल्स लिंच यह सज़ा भीड़ से दिलवाता था। चार्ल्स लिंच के नाम में लगे दूसरे शब्द, ‘लिंच’ में ‘इंग’ लगकर ही लिंचिंग टर्म को गढ़ा गया है। इस लिंचिंग का अर्थ, पीट-पीटकर या नोंच-खसोटकर की गयी हत्या है। बाद में यही चार्ल्स लिंच वर्जीनिया से सीनेटर भी बना। समझा जा सकता है कि लिंचिंग की जो ऐतिहासिक पृष्ठभूमि है, वह सियासत से भी जुड़ती है। मगर, सियासत इसका एक पहलू है, इसके अन्य पहलुओं में सामाजिक-मनोवैज्ञानिक और आर्थिक पहलू के साथ-साथ वैज्ञानिक चेतना का अभाव भी है।

चार्ल्स लिंच की यह अदालत धीरे-धीरे कुंठित, निराश-हताश और टूटे मनोबल वाली जनता से बनी भीड़ की ऐसी क्रूर अदालत में तब्दील होती गयी, जिसके पास न कोई तर्क था, न कोई दलील थी और न क़ानून व्यवस्था पर जिसका कोई भरोसा था। मॉब लिंचिंग का इतिहास बताता है कि इसका शिकार या तो अल्पसंख्यक होता रहा है या समाज का कमज़ोर तबका या फिर इनसे सहानुभूति रखने वाले लोग होते रहे हैं।

शुरुआत में मॉब लिंचिग के शिकार वे अमेरिकी नागरिक हुए, जो वहां के मूल निवासी यानी अश्वेत थे। मगर जबसे इस लिंचिंग ने घृणा और मनोरोग की शक्ल अख़्तियार कर ली, तबसे इसकी चपेट में श्वेत नागरिक भी आने लगे। इन श्वेतों में उन लोगों की तादाद ज़्यादा थी, जो वहां के अश्वेतों पर हो रहे अत्याचारों के ख़िलाफ़ आवाज़ बुलंद किया करते थे, या अश्वेतों की बदहाली से जिन श्वेतों की सहानुभूति हुआ करती थी।

ऐसा नहीं था कि मॉब लिंचिंग के शिकार होने वाले इन श्वेतों में सिर्फ़ आम लोग ही थे, बल्कि कुछ ख़ास श्वेत भी थे। मिसाल के तौर पर 1837 में एलीज़ा लवज्वॉय की मॉब लिंचिंग यानी भीड़ द्वारा हत्या कर दी गयी थी। लवज्वॉय एक समाचार पत्र के प्रकाशक-संपादक थे। वे असल में अश्वेतों पर हो रहे ज़ुल्म के ख़िलाफ़ लिखते-बोलते थे। 1870 में इसी तरह की मॉब लिंचिंग के शिकार स्टीफेंस भी हुए थे, जो नॉर्थ कैरोलिना के स्टेट सीनेटर हुआ करते थे। कहते हैं कि इस मॉब लिंचिंग के पीछे अश्वेतों के ख़िलाफ़ काम करने वाले और अमेरिकी श्वेत नस्लवाद का प्रतीक कू क्लक्स क्लान नामक संगठन का हाथ था। मगर, दोनों के शिकार होने के पीछे का कारण एक ही था और वह था अश्वेतों को लेकर होने वाले अत्याचार की मुख़ालफ़त यानी विरोध।

ऐसा भी नहीं था कि ये मॉब लिंचिग स्वत:स्फूर्त थे। कई बार सियासी वजहों से मॉब लिंचिंग को लेकर भीड़ को उकासाया भी जाता था। मिसाल के तौर पर 1891 में लूज़ियाना के न्यू ऑर्लियंस में ग्यारह इतालवी मूल के अमेरिकियों को भीड़ ने पीट-पीटकर मार डाला था। उस भीड को जिन दो नेताओं ने भड़काया था, बाद में उन दोनों नेताओं को सियासी फ़ायदे भी मिले और दोनों बाद में जाकर मेयर और गवर्नर बने।

अमेरिका को मॉब लिंचिंग से छुटकारा पाने में सैकड़ों साल लगे। इस समय, अमेरिका को वहां के समाज और सियासत में लम्बे समय तक चली बहस और आंदोलन के ज़रिये मॉब लीचिंग से क़रीब-क़रीब मुक्ति मिल चुकी है। लेकिन, भारत कई दशकों से इस तरह की मॉब लिंचिंग का गवाह बनता रहा है।

राष्ट्रीय अपराध ब्यूरो की रिपोर्ट बताती है कि भारत में साल 2001 से 2014 तक 2,290 महिलाओं को भीड़ द्वारा पीट-पीटकर कर मार डाला गया। इनमें से कुछ महिलाओं की हत्या के पीछे की वजह उनके डायन क़रार दिये जाने का अंधविश्वास भी था। हैरानी की बात है कि ये हत्यायें किसी अनजानी भीड़ द्वारा नहीं की गयी थी, बल्कि हत्या की शिकार होने वाली ये महिलायें उन्हीं समाज का हिस्सा थीं, जिन्होंने उनकी हत्यायें की थीं। इनमें ज़्यादातर आदिवासी या दलित समाज से आने वाली महिलायें थीं और उनकी हत्यायें भी भीड़ में तब्दील हुए उन्हीं आदिवासी या दलित समाज द्वारा की गयी थी। इन हत्याओं में सबसे ज़्यादा हत्या झारखंड में हुई है।

इस तरह के अंधविश्वास के शिकार सिर्फ़ महिलाएं ही नहीं, बल्कि पुरुष भी हुए हैं। आंकड़े बताते हैं कि 2001-2017 के दौरान अकेले असम में 114 महिलाओं को डायन और 79 पुरुषों को ओझा बताकर उन्हें मार डाला गया था।

लेकिन, ऐसा भी नहीं है कि भीड़ द्वारा की गयी हत्याओं के पीछे का इकलौता कारण अंधविश्वास ही रहा है। इस तरह की हत्याओं के पीछे कई तरह की अफ़वाहें या राजनीतिक विद्वेष भी काम करते रहे हैं। जिस तरह से अभी 16-17 अप्रैल की दरमियानी रात महाराष्ट्र के पालघर में दो साधुओं और उनके ड्राइवर की हत्या बच्चा चोरी की अफ़वाह या आशंका में की गयी है, उसी तरह 2018 में हुई कर्नाटक के बीदर की उस घटना को याद किया जा सकता है, जिसमें बच्चों को चॉकलेट बांट रहे एक सॉफ़्टवेयर इंजीनियर की भीड़ ने बच्चा चोरी की आशंका में पीट-पीटकर मार डाला था। इसी तरह मई 2017 को झारखंड में बच्चा चोरी के आरोप में भीड़ ने 7 लोगों की हत्या कर दी थी।

किसी ज़माने में मॉब लिंचिंग का राजनीतिक फ़ायदे जिस तरह अमेरिका में उठाये गये थे, उसी तरह पिछले कुछ सालों में भारत में भी मॉब लिंचिंग के सियासी इस्तेमाल की कोशिश होती देखी गयी है। आख़िर लोकसभा में दूसरी बार पहुंचने वाले पूर्व मंत्री जयंत सिन्हा को कैसे भुलाया जा सकता है, जिन्होंने अपने पहले कार्यकाल में झारखंड में हुई मॉब लिंचिंग का नेतृत्व करने वाले आरोपियों का माला पहनाकर खुलेआम स्वागत किया था।

हाल के कुछ सियासी मुद्दों की वजह से समाज की जो भीड़वादी मानसिकता बनी है, उसने भी मॉब लिंचिंग की घटनाओं के होने में प्रत्यक्ष या परोक्ष भूमिका निभायी है। यहां उस भूमिका को कुछ मिसाल के ज़रिये फिर से याद किया जा सकता है। 28 सितंबर 2015 को उत्तर प्रदेश के दादरी में मोहम्मद अख़लाक़ को बीफ़ रखने के शक में भीड़ ने मार डाला था। फ़रवरी 2016 में महाराष्ट्र के लातूर में एक विशेष समुदाय के पुलिसकर्मी सिर्फ़ इसलिए भीड़ के हत्थे चढ़ गया था, क्योंकि उसने ‘जय भवानी’ का नारा नहीं लगाया था। 2017 के अपैल की पहली तारीख़ को राजस्थान के अलवर में पहलू ख़ान नाम के 55 साल के पशु व्यापारी को पीट-पीटकर इसलिए अधमरा कर दिया गया था,क्योंकि कथित गोरक्षकों को पहलू ख़ान पर गो तस्कर होने का शक था। आख़िरकार,पहलू ख़ान ने अस्पताल में दम तोड़ दिया था। उसी साल अप्रैल की आख़िरी तारीख़ को असम के नगांव में गाय चुराने के शक में भीड़ ने दो लोगों की हत्या कर दी थी। साल 2017 के जून की सातवीं तारीख़ को झारखंड के धनबाद में इफ़्तार पार्टी के लिए बीफ़ ले जाने के आरोप में एक व्यक्ति की हत्या कर दी गयी थी।

मॉब लिचिंग में हुई हत्याओं के ये चंद उदारण इसलिए सामने आये, क्योंकि ये हत्यायें समय-समय पर अख़बारों-चैनलों या वेबसाइटों की ज़ोरदार सुर्खियां बनीं। मगर, हाल के वर्षों में लिंचिंग से हुई हत्या के कुल आंकड़े हमारे पास नहीं हैं। इसका कारण बताते हुए दो साल पहले तत्कालीन केन्द्रीय गृह राज्यमंत्री ने राज्यसभा में बयान दिया था कि चौदह से ज़्यादा राज्यों ने नेशनल क्राइम ब्यूरो से इस तरह की घटनाओं के डेटा की साझेदारी नहीं की है। इस डेटा की साझेदारी को लेकर जिस तरह की उदासीनता दिखती है, उसी तरह बार-बार मॉब लिंचिंग होने के बावजूद इसे लेकर सरकार और प्रशासन दोनों की गंभीरता भी नज़र नहीं आती। मगर,महाराष्ट्र के पालघर में हुई दो साधुओं और उनके ड्राइवर की हुई मॉब लिंचिंग ने फिर से सरकार और पुलिस प्रशासन के साथ-साथ उस भारतीय समाज और परंपरा पर भी उंगली उठा दी है, जिसे बात-बात पर इसे लेकर फ़ख़्र होता है कि उसकी सभ्यता पांच हज़ार साल पुरानी है, और उस सभ्यता में मनुष्य ही नहीं, बल्कि ज़र्रे-ज़र्रे को लेकर संवेदना है!

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

mob lynching
mob voilence
USA
Donand Trump
Palghar mob lynching
maharastra Police
blind faith
The rumors

Related Stories

मध्यप्रदेश: गौकशी के नाम पर आदिवासियों की हत्या का विरोध, पूरी तरह बंद रहा सिवनी

भारत में हर दिन क्यों बढ़ रही हैं ‘मॉब लिंचिंग’ की घटनाएं, इसके पीछे क्या है कारण?

पलवल : मुस्लिम लड़के की पीट-पीट कर हत्या, परिवार ने लगाया हेट क्राइम का आरोप

महाराष्ट्र: 6 महीने में 400 लोगों ने किया नाबालिग का कथित दुष्कर्म, प्रशासन पर उठे सवाल!

महाराष्ट्र: महिला सुरक्षा को लेकर कितनी चिंतित है सरकार?

शामली: मॉब लिंचिंग का शिकार बना 17 साल का समीर!, 8 युवकों पर मुकदमा, एक गिरफ़्तार

क्या है तालिबान, क्या वास्तव में उसकी छवि बदली है?

बिहार: समस्तीपुर माॅब लिंचिंग पीड़ितों ने बिहार के गृह सचिव से न्याय की लगाई गुहार

त्रिपुरा: भीड़ ने की तीन लोगों की पीट-पीटकर हत्या, आख़िर कौन है बढ़ती लिंचिंग का ज़िम्मेदार?

राजस्थान : फिर एक मॉब लिंचिंग और इंसाफ़ का लंबा इंतज़ार


बाकी खबरें

  • डॉ. द्रोण कुमार शर्मा
    'राम का नाम बदनाम ना करो'
    17 Apr 2022
    यह आराधना करने का नया तरीका है जो भक्तों ने, राम भक्तों ने नहीं, सरकार जी के भक्तों ने, योगी जी के भक्तों ने, बीजेपी के भक्तों ने ईजाद किया है।
  • फ़ाइल फ़ोटो- PTI
    अनिल जैन
    ख़बरों के आगे-पीछे: क्या अब दोबारा आ गया है LIC बेचने का वक्त?
    17 Apr 2022
    हर हफ़्ते की कुछ ज़रूरी ख़बरों को लेकर फिर हाज़िर हैं लेखक अनिल जैन..
  • hate
    न्यूज़क्लिक टीम
    नफ़रत देश, संविधान सब ख़त्म कर देगी- बोला नागरिक समाज
    16 Apr 2022
    देश भर में राम नवमी के मौक़े पर हुई सांप्रदायिक हिंसा के बाद जगह जगह प्रदर्शन हुए. इसी कड़ी में दिल्ली में जंतर मंतर पर नागरिक समाज के कई लोग इकट्ठा हुए. प्रदर्शनकारियों की माँग थी कि सरकार हिंसा और…
  • hafte ki baaat
    न्यूज़क्लिक टीम
    अखिलेश भाजपा से क्यों नहीं लड़ सकते और उप-चुनाव के नतीजे
    16 Apr 2022
    भाजपा उत्तर प्रदेश को लेकर क्यों इस कदर आश्वस्त है? क्या अखिलेश यादव भी मायावती जी की तरह अब भाजपा से निकट भविष्य में कभी लड़ नहींं सकते? किस बात से वह भाजपा से खुलकर भिडना नहीं चाहते?
  • EVM
    रवि शंकर दुबे
    लोकसभा और विधानसभा उपचुनावों में औंधे मुंह गिरी भाजपा
    16 Apr 2022
    देश में एक लोकसभा और चार विधानसभा चुनावों के नतीजे नए संकेत दे रहे हैं। चार अलग-अलग राज्यों में हुए उपचुनावों में भाजपा एक भी सीट जीतने में सफल नहीं हुई है।
  • Load More
सब्सक्राइब करें
हमसे जुडे
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें

CC BY-NC-ND This work is licensed under a Creative Commons Attribution-NonCommercial-NoDerivatives 4.0 International License