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आंदोलन
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देश बचाने की लड़ाई में किसान-आंदोलन आज जनता की सबसे बड़ी आशा है
किसान-आन्दोलन ने न सिर्फ आज़ादी की लड़ाई की बलिदानी परम्परा, उसके नारों की याद ताजा कर दी है वरन आज़ादी के लड़ाई के महान मूल्यों को भी पुनर्जीवित कर दिया है।
लाल बहादुर सिंह
10 Sep 2021
देश बचाने की लड़ाई में किसान-आंदोलन आज जनता की सबसे बड़ी आशा है।
मुज़फ़्फ़रनगर के बाद: 9-10 सितंबर को लखनऊ में संयुक्त किसान मोर्चा की बैठक का दृश्य।  

मुजफ्फरनगर महापंचायत के सन्देश को लेकर किसान-आंदोलन के शीर्ष नेता डॉ. दर्शन पाल 9-10 सितंबर को लखनऊ आये। उन्होंने विश्वास व्यक्त किया कि आने वाले दिनों में आंदोलन का परचम उत्तर प्रदेश के कोने कोने में लहराएगा और भाजपा को उखाड़ फेंकने का मिशन UP कामयाब होगा।

दरअसल, मुजफ्फरनगर का संदेश उन सपनों, मूल्यों और vision का सर्वोच्च शिखर है जिन्हें इस ऐतिहासिक आंदोलन ने 9 महीने में संजोया है, अपने गर्भ में पाला है।

महापंचायत के बाद किसान आंदोलन अंततः राष्ट्रीय क्षितिज पर एक बड़े  प्लेयर के बतौर स्थापित हो चुका है और यह साफ हो गया है कि अब यह किसानों की कुछ तबकायी मांगों तक सीमित नहीं रहने वाला है, वरन मोदी सरकार के खिलाफ एक मुकम्मल नीतिगत प्रतिपक्ष बनने की ओर बढ़ रहा है। जाहिर है, भाजपा विरोधी राजनैतिक विकल्प के निर्माण में नीतियों के स्तर पर यह अहम भूमिका निभाने जा रहा है।

मुजफ्फरनगर महारैली भागेदारी की दृष्टि से तो इतिहास की सबसे बड़ी रैली बताई ही जा रही है जिसमें पूरे देश का प्रतिनिधित्व हुआ, सर्वोपरि इसका महत्व इस बात में है कि समकालीन भारत में पहली बार किसी लोकप्रिय ताकत ने संघ-भाजपा के पूरे एजेंडा को बिना लाग-लपेट स्पष्ट चुनौती दी और उसे उखाड़ फेंकने के लिए आन्दोलन और राजनीतिक पहल  का एलान किया।

संघ-भाजपा की राजनीति के जो दोनों केंद्रीय तत्व हैं, हिंदुत्व और कारपोरेट-राज, किसान-आंदोलन के नेताओं ने बेहिचक (without mincing words ) दोनों को सीधे निशाने पर लिया और उनके ideological agenda को शिकस्त देने तथा pro-corporate policy regime को पलट देने का संकल्प लिया।

इस महारैली से निकलने वाला यह संदेश सबसे महत्वपूर्ण है और आने वाले दिनों में हमारे समाज और राजनीति के लिए इसके गहरे निहितार्थ हैं।

दरअसल, नवउदारवादी अर्थनीति पर तो तमाम राजनीतिक दलों के बीच पहले ही सर्वानुमति (consensus) बन गयी थी, नवउदारवाद के संकट काल की राजनीति के दौर में, विशेषकर 2014 में मोदी के उभार के बाद एक बेहद खतरनाक प्रवृत्ति उभरी- पूरे सामाजिक-राजनीतिक विमर्श पर बहुसंख्यकवादी सोच हावी होती जा रही थी, राजनीतिक दलों में उस पर भी सर्वानुमति सी बन चली थी। तमाम विपक्षी दलों ने संघ-भाजपा के आक्रामक विचारधारात्मक अभियान के आगे आत्मसमर्पण जैसा कर दिया। 2019 के चुनाव के बाद दम्भ से मोदी ने तंज किया था कि विपक्ष अब सेक्युलरिज्म की बात करना भूल गया है, जाहिर है इसे उन्होंने अपनी राजनीति की सबसे बड़ी सफलता माना था।

किसी प्रभावी चुनौती के अभाव में यह दोनों ही चीजें-कारपोरेटपरस्त अर्थनीति और बहुसंख्यकवादी राजनीति-हमारे समाज में सर्वस्वीकृत new normal बनती जा रही थीं। अर्थनीति के बारे में कहा गया कि TINA फैक्टर है, There Is No Alternative और बहुसंख्यकवादी ( majoritarian ) सोच को जस्टिफाई किया गया पोलिटिकल pragmatism के नाम पर !

हालत यहां तक पहुंच गई कि विपक्षी नेता मुसलमानों का नाम लेने, उनके न्यायोचित हितों की कोई चर्चा तक करने में डरने लगे और हर सम्भव मौके पर अपने को सबसे बड़ा हिन्दू साबित करने की होड़ लग गयी।

उधर आर्थिक नीतियों के मोर्चे पर यह देखना सचमुच निराशाजनक था कि समाज के कमजोर तबकों के सामाजिक न्याय के नाम पर  Identity politics और भागेदारी की राजनीति करने वाले दलों ने भी  वित्तीय पूँजी और कारपोरेट वर्चस्व वाली उन आर्थिक नीतियों का कोई प्रतिरोध तो नहीं ही किया, उल्टे सत्ता में आने पर स्वयं भी उन्हीं नीतियों को उन्होंने लागू किया, जबकि इन नीतियों के सबसे बदतरीन शिकार समाज के कमजोर तबकों के लोग ही हो रहे थे, यहां तक कि उनका आरक्षण भी खत्म होता जा रहा था।

पिछले 30 साल में समाज में भयानक ढंग से बढ़ी आय की असमानता और चौड़ी होती सामाजिक खाई,  बेरोजगारी, भुखमरी, दरिद्रीकरण इसका सबूत है। ऊपर ऊपर हिंदुत्व और पहचान की राजनीति चलती रही और उसकी आड़ में श्रमिकों, समाज के हाशिये के तबकों के श्रम की निर्मम लूट चलती रही। यह अनायास नहीं है कि उत्तर प्रदेश जो हिंदुत्व और identity politics की राजनीति का सबसे बड़ा गढ़ रहा वह,  नीति आयोग की SDG इंडेक्स में देश के सबसे फिसड्डी 5 राज्यों में है। आज भी यूपी के आसन्न चुनाव के मद्देनजर जातियों के प्रबुद्ध सम्मेलनों और सोशल इंजीनियरिंग की होड़ लगी हुई है, पर अर्थनीति पर कहीं कोई चर्चा नहीं हो रही है।

इन दोनों ही प्रश्नों पर मुजफ्फरनगर महारैली ने जो stand लिया, उसकी गूंज आने वाले दिनों में दूर तक सुनाई पड़ती रहेगी, वह एक turning point है।

मुजफ्फरनगर में किसान नेताओं ने संघ-भाजपा की विभाजनकारी राजनीति को सीधे चुनौती दी।  लाखों किसानों से, जिनमें बहुसंख्य हिन्दू थे, अल्लाह हू अकबर-हर हर महादेव का नारा एक साथ लगवाकर राकेश टिकैत ने साफ कर दिया कि इस सवाल पर किसान आंदोलन विपक्ष के मौकापरस्त दलों की तरह संघ-भाजपा के विचारधारत्मक एजेंडा के सामने न समर्पण करने वाला है, न उससे डरने और मुंह चुराने वाला है बल्कि उसका मुंहतोड़ जवाब देने को तैयार है। मोदी-योगी को सीधे चुनौती देते हुए किसान-नेताओं ने उद्घोष किया कि दंगाई ताकतों को बर्दाश्त नहीं किया जाएगा और उन्हें बाहर खदेड़ दिया जायेगा।

किसान नेताओं ने मोदी सरकार द्वारा सारी राष्ट्रीय सम्पदा कारपोरेट घरानों के हाथों बेचने के सवाल को जोरशोर से उठा कर, श्रमिकों के अधिकारों और सर्वोपरि बाबा साहब अम्बेडकर के संविधान को नष्ट करने की साजिश के खिलाफ लड़ने के अपने संकल्प का एलान कर यह साफ सन्देश दे दिया कि अब यह आंदोलन तबकायी मुद्दों से आगे बढ़ कर पूरे आर्थिक नीतिगत ढांचे को बदलने और लोकतन्त्र तथा देश को बचाने की लड़ाई बनता जा रहा है और यह लड़ाई अब दूर तक जाने वाली है। 

कृषि कानूनों के माध्यम से कृषि क्षेत्र में नवउदारवादी नीतियों के क्रियान्वयन की मोदी सरकार की मुहिम को विफल कर किसान आंदोलन ने पूरे neo-liberal policy regime को चुनौती दे दी है और उसके खिलाफ श्रमिकों तथा छात्र-युवाओं के साथ एकताबद्ध होते हुए 27 सितंबर के भारत बंद के माध्यम से इसे राष्ट्रीय एजेंडा बनाने की ओर बढ़ रहा है। 

कृषि कानूनों के सूत्रधार, मोदी जी के चहेते कृषि विशेषज्ञ, अशोक गुलाटी ने 9 महीने पहले जब आंदोलन शुरू हुआ, ठीक यही चिंता जाहिर की थी कि कृषि क्षेत्र में नवउदारवादी सुधारों के विरोध के साथ अन्य sectors में भी नवउदारवादी नीतियों को पलटने की लड़ाई शुरू हो सकती है। उनकी बदतरीन आशंकाएं सही साबित होने जा रही हैं!

इन अर्थों में यह आन्दोलन मौजूदा चरण में भले भाजपा के खिलाफ केंद्रित है, लेकिन long term में विपक्षी दलों के मौजूदा नीतिगत दायरे में भी सिमटने वाला नहीं है, वरन वैकल्पिक नीतियों के साथ राष्ट्रनिर्माण के अपने प्रोजेक्ट के साथ आगे बढ़ने वाला है।

इसकी यह रैडिकल अन्तर्वस्तु और मौलिकता ही गारण्टी है, आंदोलन की सांगठनिक स्वायत्तता और उसकी स्वतन्त्र राजनैतिक दिशा की। यह इसे किसी दल का पिछलग्गू बनाने की कोशिश को कामयाब नहीं होने देगी।

इसका natural culmination एक वैकल्पिक राजनीति के अभ्युदय में ही हो सकता है, किसी एक दल का विकल्प नहीं, neo-liberal policy regime पर खड़े समूचे पोलिटिकल स्पेक्ट्रम का विकल्प। 

किसान नेताओं ने इस लम्बी लड़ाई के औजार के बतौर अब अपने आंदोलन को सुव्यवस्थित सांगठनिक ढांचे का स्वरूप देना शुरू कर दिया है, राष्ट्रीय स्तर से लेकर नीचे राज्यस्तर और ग्रासरूट तक। इस सिलसिले में सबसे महत्वपूर्ण शुरुआत उत्तर प्रदेश से हुई है, जहाँ 9-10 सितम्बर को डॉ. दर्शनपाल की उपस्थिति में उत्तर प्रदेश के किसान नेताओं की बैठक में संयुक्त किसान मोर्चे की State Body  का गठन हो रहा है तथा मिशन UP को लेकर अहम फैसले लिए जा रहे हैं। रिपोर्ट लिखे जाने तक यह बैठक जारी है। 

संघ-भाजपा तंत्र अब किसान आंदोलन से निपटने की रणनीति को लेकर पूरी तरह किंकर्तव्यविमूढ़ है। मुजफ्फरनगर महारैली की अपार सफलता के बाद गोदी मीडिया की मदद से उन्होंने राकेश टिकैत के नारे को आधा अधूरा, सन्दर्भ-प्रसंग से काटकर साम्प्रदायिक रंग देने की कोशिश की, पर यह दांव उल्टा पड़ गया क्योंकि वह नारा तो चौधरी महेंद्र सिंह टिकैत के समय से और उसके भी पहले 1857 से गांधी जी के समय तक,उस पूरी पट्टी में जालिम सत्ता के खिलाफ किसानों की बगावत का सबसे बड़ा युद्ध-घोष रहा है। जाहिर है उन्हें याद करते हुए जब राकेश टिकैत ने वह नारा लगवाया तो लोगों के मन में अपनी उस गौरवशाली परम्परा की याद ताजा हो उठी और भाईचारे तथा एकता का स्वर उस महारैली का मुख्य सन्देश बन गया, जिसमें 2013 के दंगों में अपनी भूमिका की  आत्मालोचन और उसका निषेध भी निहित था। बेशक, आंदोलन को अपनी अग्रगति में नए, आधुनिक मूल्यबोध से प्रेरित नारे गढ़ते जाने होंगे।

दरअसल आंदोलन जिस तरह राष्ट्रीय जनान्दोलन की शक्ल अख्तियार करता जा रहा है, उसमें अब सरकार और उसके समूचे प्रचारतंत्र की ओर से इस तरह की चालबाजियों और किसान-विरोधी false narratives से कोई लाभ तो नहीं होगा, बल्कि उल्टा असर पड़ेगा और वह लोगों के आक्रोश को और भड़काने का काम करेगा, स्वयं गोदी मीडिया भी जिसका शिकार हो सकता है, जैसा मुजफ्फरनगर में हुआ।

इसका एहसास वरुण गांधी जैसे आंदोलन के  प्रभाव वाले इलाकों से आने वाले सांसदों को हो गया है, इसीलिए खुलकर वे किसानों के पक्ष में बोलने को मजबूर हुए हैं।

किसान आंदोलन जुझारू प्रतिरोध, संगठन और राजनीतिक पहल तीनों ही मोर्चों पर  मज़बूत कदम से आगे बढ़ रहा है। मुजफ्फरनगर, करनाल, लखनऊ-किसान आंदोलन के बढ़ते कारवाँ ने क्रांतिकारी कवि पाश की उन अमर पंक्तियों को जीवंत कर दिया है, " मैं घास हूँ, आपके हर किये धरे पर उग आऊंगा "

लखनऊ में 4 सितंबर को किला चौराहे पर हुई किसान पंचायत।

किसान-आन्दोलन ने न सिर्फ आज़ादी की लड़ाई की बलिदानी परम्परा, उसके नारों की याद ताजा कर दी है वरन आज़ादी के लड़ाई के महान मूल्यों को भी पुनर्जीवित कर दिया है। आज वह राष्ट्रीय एकता, गंगा-जमनी तहज़ीब, धर्मनिरपेक्ष लोकतन्त्र तथा समता के उन गौरवशाली मूल्यों की रक्षा एवं वित्तीय पूँजी-कारपोरेट फासीवाद के खिलाफ संघर्ष में भारतीय जनता की सबसे बड़ी आशा है।

(लेखक इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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