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भारत
राजनीति
राजद्रोह का क़ानूनः सिमटे तो दिले आशिक़ फैले तो ज़माना है
“आज देश और दुनिया की भलाई इसी में है कि लफ़्ज़े मोहब्बत का दायरा निरंतर फैले और सारे ज़माने को अपने में समेट ले। जबकि राजद्रोह का दायरा निरंतर संकुचित हो...।” वरिष्ठ पत्रकार अरुण कुमार त्रिपाठी की टिप्पणी
अरुण कुमार त्रिपाठी
27 Feb 2021
free speech
प्रतीकात्मक तस्वीर। साभार: Scroll

जिगर मुरादाबादी से माफ़ी मांगते हुए लफ़्ज़े मोहब्बत के बारे में कही गई उनकी प्रसिद्ध पंक्तियों की विरोधाभासी तुलना राजद्रोह के कानून से की जा सकती है।

जिगर साहेब कहते हैं---

इक लफ़्ज़-ए-मोहब्बत का अदना सा फ़साना है,

सिमटे तो दिल-ए-आशिक़, फैले तो ज़माना है।

ज़ाहिर है कि अगर मोहब्बत का संकुचित अर्थ लगाएंगे तो वह सिर्फ़ प्रेमी और प्रेमिका के बीच की बात रहेगी लेकिन अगर उसे फैलाते जाएंगे तो उसमें पूरी दुनिया सिमट कर आ जाएगी। कहा भी गया है कि प्रेम का ढाई आखर पढ़ने से कोई भी पंडित हो जाता है। कुछ ऐसी बात राजद्रोह के कानून के साथ है। अगर हम उसमें से हिंसा का तत्व निकाल दें तो वह सरकार की नीतियों से असहमति के अलावा कुछ खास नहीं है। वह असहमति तो पूरी दुनिया में है और जहां नहीं है वहां होनी चाहिए क्योंकि सरकार की नीतियों से असहमत होने का अधिकार ही लोकतंत्र का आधार है। बल्कि संयुक्त राष्ट्र के मानवाधिकार घोषणा पत्र के तहत वह मनुष्य का नैसर्गिक अधिकार है। सरकारें जिस विचारधारा को अराजकतावाद कहती हैं वह अपने में सरकार के बिना समाज का काम चलाने वाली सोच ही है। मार्क्स से गांधी तक सभी चिंतकों ने राज्य विहीनता की कल्पना की है।

आज़ाद भारत में भारतीय दंड संहिता की धारा 124 ए के तहत जब भी कोई मुकदमा बड़ी अदालतों तक पहुंचा है तो अदालतों ने यही कहा है कि इसे संकुचित करके परिभाषित किया जाना चाहिए न कि इसका व्यापक अर्थ लगाया जगाया जाना चाहिए। अगर इसका व्यापक अर्थ लगाएंगे तो असहमति और अभिव्यक्ति के अधिकार पर आघात होगा और अगर संकुचित करके परिभाषित करेंगे तो इसके दायरे में बहुत कम लोग आएंगे। यानी यहां मामला लफ़्ज़े मोहब्बत का उल्टा है। लफ़्ज़े मोहब्बत को जितना फैलाने की जरूरत है राजद्रोह के कानून को उतना ही संकुचित करने की आवश्यकता है।

यह बात सुप्रीम कोर्ट ने 1962 में केदार नाथ सिंह बनाम बिहार राज्य के चर्चित फैसले में कही। केदार नाथ सिंह फारवर्ड कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य थे और बरौनी की एक सभा में भाषण दे रहे थे। उन्होंने कहा, `आज बरौनी के आसपास सीआईडी के कुत्ते घूम रहे हैं। कुछ सरकारी कुत्ते इस मीटिंग में भी बैठे हैं। भारत के लोगों ने इस देश से अंग्रेजों को भगाया और कांग्रेसी गुंडों को गद्दी पर बिठाया। आज कांग्रेसी गुंडे जनता की गलती से सत्ता में बैठे हुए हैं। जब हम अंग्रेज गुंडों को सत्ता से बाहर कर सकते हैं तो इन कांग्रेसी गुंडों को भी खदेड़ देंगे।’ बस क्या था उन पर राजद्रोह की धारा लग गई और कहा गया कि वे क्रांति के माध्यम से व्यवस्था को उखाड़ फेंकने की अपील कर रहे थे। निचली अदालत ने उन्हें सजा सुना दी लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने उन्हें बरी करते हुए कहा कि इस कानून की व्यापक और उदार नहीं संकीर्ण व्याख्या होनी चाहिए और उन्हीं पर राजद्रोह का आरोप लगाया जाना चाहिए जो अपने कथन से हिंसा को भड़का रहे हों।

ऐसा ही फैसला सुप्रीम कोर्ट ने 1995 में बलवंत सिंह बनाम पंजाब सरकार के मामले में दिया। जब अक्टूबर 1984 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या हुई तो चंडीगढ़ के नीलम सिनेमा के बाहर बलवंत सिंह और उनके साथी नारे लगा रहे थे--` खालिस्तान जिंदाबाद, राज करेगा खालसा, हिंदुआ नूं पंजाब छोड़ काढ़ के छाडेंगे, हुन मौका आया है राज कायम करने दा।’ उन पर भी धारा 124 ए के तहत मुकदमा हुआ और निचली अदालत से सजा हुई। लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने इस फैसले को पलट दिया और कहा कि सिर्फ़ नारा लगाने को सरकार पलटने की हिंसक तैयारी नहीं माना जा सकता। नारे के साथ हिंसा की आशंका जुड़ी होनी चाहिए।

यहां यह जानना दिलचस्प है कि इस कानून के तहत लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक को भी सजा हुई थी और महात्मा गांधी को भी। तिलक ने बंग भंग के विरोध में मुजफ्फरपुर में चीफ प्रेसीडेंसी मजिस्ट्रेट किंगफोर्ड की गाड़ी पर बम फेंकने वाले प्रफुल्ल चाकी और खुदीराम बोस की गतिविधि का समर्थन अपने अखबार में किया था। जूरी ने उनकी पत्रकारिता की कड़ी आलोचना की और उन पर 1000 रुपए का जुर्माना लगाने के साथ उन्हें छह साल की सजा दी। इस सजा को तिलक ने मांडले जेल में काटा। यहां यह बात ध्यान देने की है तिलक ने अपने को निर्दोष बताया था और कहा था कि इस अदालत से ऊपर भी एक अदालत है जिसकी वे इस सजा के बाद बेहतर सेवा कर सकेंगे।

इसके ठीक उलट महात्मा गांधी को यंग इंडिया और नवजीवन में लिखे अपने तीन लेखों के लिए 1922 में राजद्रोह के अपराध में छह साल की सजा हुई। रोचक तथ्य यह है कि तिलक ने बम फेंके जाने यानी हिंसा किए जाने का समर्थन किया था जबकि गांधी ने चौरी चौरा की हिंसा का विरोध करते हुए अपना असहयोग आंदोलन ही वापस ले लिया था। जिसके कारण स्वाधीनता सेनानियों ने उनकी कड़ी आलोचना की और बहुत सारे लोग कांग्रेस छोड़कर बाहर हो गए। लेकिन गांधी ने अदालत में अपराध को स्वीकार करते हुए स्पष्ट कहा था कि वे इस अपराध के दोषी हैं क्योंकि यह सरकार अन्यायी है और इसका वे बार बार विरोध करेंगे।

पर गांधी ने अदालत में अपने बयान में एक बात जरूर कही थी कि अभिव्यक्ति पर अंकुश लगाने वाले जितने भी कानून हैं उनमें सबसे खतरनाक राजद्रोह का कानून है। आज भी यह बात उतनी ही सही है। अभिव्यक्ति के अधिकार के बिना लोकतंत्र एकदम बेकार है। क्योंकि अभिव्यक्ति के भय रहित वातावरण के बिना न तो स्वस्थ जनमत निर्मित हो सकता है और न ही सच्चाई का पता लगाया जा सकता है। इसलिए सच्चे लोकतंत्र के लिए जरूरी है कि न सिर्फ़ असहमति का अधिकार हो बल्कि उसकी अभिव्यक्ति का अधिकार भी हो। यही वजह कि इंग्लैंड में 2009 में राजद्रोह का कानून वापस ले लिया गया। भले बाद में ब्रेग्जिट के कारण ग्रेट ब्रिटेन टूट गया। यहां यह अंतर भी देखना होगा कि अंग्रेजों ने अपने नागरिकों के लिए राजद्रोह के कानून को संकुचित तरीके से लागू किया जबकि भारतीयों के लिए उसका दायरा फैला दिया। यह बात रेक्स बनाम अल्फ्रेड के 1909 के मुकदमे से साफ है। विडंबना है कि आज भारत में आश्चर्यजनक रूप से अपनी ही चुनी हुई सरकार इस कानून को अपने नागरिकों पर कड़ाई से लागू कर रही है।

चूंकि भारतीय लोकतंत्र निरंतर सिमट रहा है इसलिए यहां की राजसत्ता राजद्रोह के कानून को विस्तार दे रही है। एक ओर वह अपने पक्ष में अभद्र और हिंसक शब्दावली से भरी बहसों को प्रोत्साहित करती है तो दूसरी ओर विपक्ष की शालीन और गंभीर टिप्पणियों को भी राजद्रोह की श्रेणी में रखने से नहीं चूकती। रोचक बात यह है कि अगर चुनी हुई सरकारों को गिराना राजद्रोह है तो यह काम पहले बड़े पैमाने पर कांग्रेस पार्टी करती थी और अब भारतीय जनता पार्टी सबसे जोर शोर से कर रही है। कर्नाटक, गोवा, मध्य प्रदेश और पुडुचेरी सभी जगहों पर भाजपा ने वही काम किया है। या यूं भी कह सकते हैं कि लोकतंत्र में विपक्ष सदैव सत्तापक्ष को हटाकर खुद सत्ता में आने की तैयारी में रहता है। तो क्या उसे राजद्रोह कहा जा सकता है। नहीं। क्योंकि वे वैसा वैधानिक तरीकों से करते हैं। वे तरीके भले एक हद तक अवैधानिक हों और उसमें रिश्वत या दबाव शामिल हो लेकिन प्रत्यक्ष रूप से हिंसा तो बिल्कुल नहीं होती। ऐसे में विपरीत विचारों की अभिव्यक्ति कैसे राजद्रोह की श्रेणी में आ जाता है समझ से परे है।  

इसलिए आज देश और दुनिया की भलाई इसी में है कि लफ़्ज़े मोहब्बत का दायरा निरंतर फैले और सारे ज़माने को अपने में समेट ले। जबकि राजद्रोह का दायरा निरंतर संकुचित हो और वह सिर्फ़ हिंसा करने वालों के लिए रहे और वह असहमति रखने वाले और उसकी अभिव्यक्ति करने वालों के पास भी न फटके।    

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

इन्हें भी पढ़ें :

राजद्रोह, असहमति और अभियुक्त के अधिकार 

मंथन: जब सरकारें ख़ुद क़ानून के रास्ते पर चलती नहीं दिखतीं…

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