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सार्वजनिक स्वास्थ्य संकट के दौरान एक सक्रिय मीडिया की ज़रूरत
COVID-19 ने भारतीय मुख्यधारा के मीडिया के उस हिस्से को बेपर्दा कर दिया है, जो फ़र्ज़ी ख़बरें और ग़लत सूचनायें दे रहा है, लेकिन इसके साथ ही साथ मौजूदा संकट ने देश में अच्छी चिकित्सा पत्रकारिता की कमी को भी उजागर कर दिया है।
मोचिश के.एस.
13 May 2020
मीडिया
Image Courtesy: myRepublica - Nagarik Network

मौजूदा COVID-19 महामारी ने दुनिया भर की सार्वजनिक क्षेत्र में पायी जाने वाली चिकित्सा से जुड़ी जानकारियों को बड़े पैमाने पर सामने ला दिया है। हालांकि, COVID-19 के ख़िलाफ़ लड़ाई में मुख्यधारा की भारतीय मीडिया ने जिस तरह की प्रतिक्रिया दिखायी है, उससे दूसरी चिंताओं सहित झूठी ख़बरों और ग़लत सूचनाओं,  ख़बरों को परोसने के निराले अंदाज़ और चिकित्सा पत्रकारिता की हालत को लेकर गंभीर चिंतायें पैदा होती हैं। एक व्यापक सार्वजनिक स्वास्थ्य संकट के दौरान भारत में लोकप्रिय मीडिया घरानों की ओर से दिल्ली के तब्लीग़ी जमात की घटना को जिस तरह से परोसा गया है और जिस तरह उस पर चर्चा-परिचर्चा की गयी है, वह मीडिया के एक विकृत रवैये का एक उत्कृष्ट उदाहरण है। मीडिया के इस रवैये ने सामने दिख रही गंभीर चिंता से ध्यान हटाकर हालात को सांप्रदायिक रूप दे दिया है।

इसके अलावा, लोकप्रिय टेलीविज़न समाचार चैनलों ने तब्लीग़ी जमात सम्मेलन में हिस्सा लेने वालों का नाम कोरोनोवायरस 'सुपरस्प्रेडर्स' रख दिया। विश्व स्वास्थ्य संगठन के महानिदेशक ने ग़लत सूचनाओं के इस संकट के बारे में बात की और 15 फ़रवरी, 2020 को एक संवाददाता सम्मेलन में इस समस्या को लेकर चिंता भी जताई। उन्होंने कहा,“हम महज एक महामारी से ही नहीं लड़ रहे हैं; बल्कि हम एक इन्फ़ोडेमिक (ग़लत सूचनाओं की महामारी) से भी लड़ रहे हैं ”।

पश्चिमी जगत में 1918 में फ़ैले स्पेनिश फ़्लू के मीडिया कवरेज की कहानियां सार्वजनिक स्वास्थ्य संकट के दौरान मीडिया की भूमिका को लेकर एक अहम सबक देती हैं। स्पैनिश फ़्लू को लेकर आने वाली ख़बरें शायद ही कभी सुर्खियां बनीं और ज़्यादातर देशों में इससे जुड़ी ख़बरें पहले विश्व युद्ध की ख़बरों के साये में पूरी तरह दबती रहीं। ‘अमेरिकी समाचार पत्रों ने एक महामारी को किस तरह कवर किया’ नामक अपने लेख में वॉल्टर शपीरो ने बताया है, “बड़े शहर के अख़बारों ने ख़तरनाक स्तर तक ख़ुद पर सेंसर लगाते हुए चाशनी में लपेटकर इस ख़बर को पेश किया था। बीमारी की वजह से पैदा होने वाली चिंता को अधिक दर्शाता कोई भी लेख या ख़बरों की सुर्खियां युद्ध के दौरान घरेलू मोर्चे पर मनोबल को कम करने वाले हमले की तरह देखा जाता था।”

इस तरह के संकट के दौरान कम से कम कोई भी मीडिया सटीक जानकारियों और समय पर दी गयी सूचनाओं को आगे बढ़ाने के साथ-साथ महामारी से जुड़े जोखिमों और उपचारों को लेकर तथ्यात्मक रिपोर्टिंग कर सकता है। हालांकि, भारत में COVID-19 को लेकर मुख्यधारा के समाचार मीडिया के कवरेज के एक हिस्से ने भारत में चिकित्सा पत्रकारिता की स्थिति पर गंभीर चिंतायें बढ़ा दी हैं।

मुख्यधारा के कई भारतीय मीडिया नेटवर्क ने वायरस के इस प्रकोप की उत्पत्ति से जुड़े सनसनीख़ेज दावों को ज़्यादा फैलाया है। मीडिया ने जो झूठे दावे किये हैं, उनमें से कुछ इस तरह गिनाये जा सकते हैं, वे हैं-जनता के बीच इस महामारी के फ़ैलने को लेकर नफ़रत फैलाने की साज़िश, नकली स्थानीय उपचारों की जानकारी, इसके प्रसार को रोकने के स्वदेशी तरीक़े, और टीका अनुसंधान को लेकर अपुष्ट रिपोर्टें। मिसाल के तौर पर 18 अप्रैल को Tv9 भारतवर्ष ने निज़ामुद्दीन में तब्लीग़ी जमात के नेता, मौलाना साद की खोज ली गयी रहस्यमय भूमिगत सुरंग के बारे में एक समाचार प्रसारित किया था। बाद में दूसरे संगठनों की तरह ऑल्टन्यूज़ ने उस कार्यक्रम में कथित सुरंग दिखाने में इस्तेमाल हुए वीडियो गेम ग्राफ़िक्स के उपयोग की सच्चाई को सामने लाने में किया।

भारत में महामारी के शुरुआती समय के दौरान मीडिया के कुछ वर्गों ने किसी प्रकार के वैज्ञानिक अनुसंधान की पुष्टि किये बिना अपने उपरोक्त दावों पर ध्यान केंद्रित किये रखा। क़रीब-क़रीब हर रोज़, मुख्यधारा के मीडिया में वैक्सीन की संभावित खोज को लेकर ऐसी कोई न कोई ख़बर ज़रूर दिखायी जाती रही है, जिसके ज़रिये किसी उपयोगी भरोसे के बजाय जनता के बीच भ्रम ही पैदा हुआ। मिसाल के तौर पर तथ्य की जांच-परख करने वाली ऑल्टन्यूज़ जैसे वेबसाइटों ने इंडिया टुडे के राहुल कंवल के उस संदिग्ध दावे वाली रिपोर्ट की पोल खोलकर रख दी,जिसमें इस बात को लेकर रिपोर्टिंग की गयी थी कि अमेरिका से COVID-19 वैक्सीन खेप जल्द ही भारत पहुंचेगी, जो पूरी तरह मनगढ़ंत और झूठी जानकारी थी।

इसी तरह, देश के अलग-अलग हिस्सों में पूर्वोत्तर राज्यों के लोगों के ख़िलाफ़ उस नस्लीय हमलों के मामलों में भी तेज़ी आयी, जो COVID-19 के आसपास गढ़ी गयी साज़िश पर आधारित थे। पूर्वोत्तर के किशोरों के एक समूह को नस्लीय और जातीय आधार पर बेंगलुरु के एक सुपर मार्केट में किराने के सामान देने से मना कर दिया गया था। इस सूचना को सोशल मीडिया पर सतर्क नागरिक समूहों और अन्य संगठनों के ज़रिये प्रसारित किया गया था। हालांकि, मुख्यधारा के ज़्यादातर नेटवर्क ने अपने प्राइम टाइम चर्चाओं में इस तरह की घटनाओं को नज़रअंदाज़ किया। द कारवां और इसी तरह के अन्य वैकल्पिक मीडिया स्रोतों ने इन चिंताओं पर चर्चायें ज़रूर कीं। इसने हमें किसी संकट के दौरान लोगों पर केंद्रित और समावेशी मीडिया के दृष्टिकोण की अहमियत की याद दिला दी।

एक और अहम पहलू, जो महामारी के दौरान ग़ौरतलब है, वह है- सोशल मीडिया पर प्रमुख शख़्सियतों, राजनेताओं और धार्मिक संगठनों से जुड़ी झूठी ख़बरों का बनाया जाना। रॉयटर्स इंस्टीट्यूट फ़ॉर द स्टडी ऑफ़ जर्नलिज़्म और ऑक्सफ़ोर्ड इंटरनेट इंस्टीट्यूट द्वारा “क्लेम्स एंड सॉर्सेज़ ऑफ़ COVID-19 इन्फ़ॉर्मेशन” शीर्षक से किये गये एक अध्ययन में कहा गया है,“सोशल मीडिया पर राजनेताओं, मशहूर हस्तियों और दूसरे अहम शख़्सियतों की तरफ़ से फ़ैलायी गई झूठी जानकारी, सोशल मीडिया पर कुल जानकारियों का 69% है।”

इस समय हम जिस तरह के संकट का सामना कर रहे हैं, उसमें लोगों तक सही जानकारी पहुंचाये जाने की सख़्त ज़रूरत है। इन जानकारियों के अभाव में स्थानीय अधिकारियों द्वारा किये जा रहे उपायों पर व्यक्तिगत या सामुदायिक बर्ताव का उल्टा असर पड़ सकता है। इसके अलावा, यह वायरस के प्रसार में एक निर्णायक भूमिका निभा सकता है।

इसी तरह के नतीजे वाला मामला उस समय देखा गया, जब हाल की घटना में मुंबई के बांद्रा स्टेशन की तरफ़ जाने वाली सड़कों पर प्रवासी कामगारों की एक बड़ी भीड़ उमड़ आयी, जब उन्हें घर ले जाने के लिए परिवहन की उपलब्धता के बारे में फ़र्ज़ी ख़बर दी गयी। यह हमें इस बात की याद दिलाता है कि शायद सार्वजनिक स्वास्थ्य संकट की रिपोर्टिंग में चिकित्सा से जुड़ी जानकारियों को आगे बढ़ाने को लेकर विशेष तरह के प्रशिक्षण की ज़रूरत होती है, जिसे विश्लेषित और बेहद सावधानी के साथ रिपोर्टिंग किये जाने की ज़रूरत होती है।

मौजूदा संकट ने भारतीय मीडिया में प्रशिक्षित मेडिकल पत्रकारों की कमी को उजागर कर दिया है। इससे देश में COVID-19 के कवरेज पर बहुत ही ख़राब असर पड़ा है। इस महामारी को कवर करने वाले अधिकांश पत्रकारों में बुनियादी चिकित्सा जानकारियों की कमी है और उनमें मेडिकल से जुड़ी समाचार रिपोर्टिंग को लेकर नीतियों की समझ का अभाव भी दिखायी देता है। यह ख़बरें बनाने वाली टीम में उस पूर्णकालिक मेडिकल पत्रकारों की ज़रूरत की अहमियत की ओर भी इशारा करता है, जिनकी इस तरह की स्थिति पर बेहतर पकड़ हो।

सार्वजनिक स्वास्थ्य संकट पर किसी राजनीतिक रिपोर्टर का कवरेज उन बातों से ध्यान हटा सकता है, जो इस तरह के संकट के प्रकोप से जुड़े इलाज और सावधानियों को लेकर ज़रूरी मानी जाती हैं। पिछले दो हफ़्तों में COVID-19 को लेकर मलयालम मीडिया का कवरेज इस बर्ताव का एक सटीक उदाहरण है। वे इस संकट के प्रकोप के बजाय केरल के राजनीतिक परिदृश्य से जुड़े विवादों पर अपना ध्यान ज़्यादा केंद्रित करते रहे हैं।

भारत में चिकित्सा पत्रकारों का नहीं होना एक व्यवस्थागत मुद्दा है। देश के किसी भी पत्रकारिता कार्यक्रम में शायद ही इसे पढ़ाया जाता हो। देश में इस समय पत्रकारिता का जो पाठ्यक्रम है, उसमें चिकित्सा सहित कई क्षेत्रों में विशेष प्रशिक्षण की ज़रूरत है, मगर इस पर पर्याप्त रूप से ध्यान नहीं दिया जा रहा है। नतीजतन, पत्रकार या तो ख़ुद को विषय की जानकारियों से लैस करते हैं या फिर उसे लेकर कर रहे रिपोर्टिंग के अपने अनुभव पर निर्भर करते हैं।

हालांकि, कोई भी संकट एक ख़ास स्थिति की ओर इशारा करता है और इसकी रिपोर्टिंग विशेष कौशल की मांग करती है। COVID-19 संकट ने भारतीय विश्वविद्यालयों में समावेशी पत्रकारिता के प्रशिक्षण को लेकर चलने वाली बहस को तेज़ कर दिया है। इसके अलावा, इससे भारतीय न्यूज़ रूम की विविधता को बढ़ाने में भी अहम मदद मिल सकती है।

COVID-19 महामारी ने दुनिया भर के देशों में एक मज़बूत सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा प्रणाली की अहमियत को लेकर होने वाली चर्चाओं का एक और महत्वपूर्ण क्षेत्र खोल दिया है। सबूतों के शुरुआती स्रोतों से यह साबित होता है कि केरल जैसे राज्य, जहां एक बेहतर सार्वजनिक स्वास्थ्य देखभाल प्रणाली है, वहां दूसरे राज्यों की तुलना में प्रकोप पर तेज़ी से क़ाबू पाया जा सकता है। विदेशी मीडिया के कई हल्कों में केरल को एक मॉडल राज्य के रूप में तारीफ़ की गयी है।

हमारी मौजूदा स्थिति भारतीय मीडिया के इस हिस्से के लिए समाज के साथ अपने जुड़ाव को फिर से परिभाषित करने की ज़रूरत है और हमारी बहुसंख्यक आबादी की बुनियादी ज़रूरतों को सही ढंग से पोषित करने का एक उत्कृष्ट मौक़ा भी है। मीडिया उन मेडिकल पत्रकारों से बने एक विशेष टास्क फ़ोर्स को लेकर सोच पाने के एक अवसर के तौर पर भी इसे देख सकता है, जो भविष्य में इसी तरह के हालात से निपटने के लिए अच्छे ढंग से प्रशिक्षित हों। इसके अलावे,यह समय पहले से कहीं ज़्यादा एक ऐसी विविध और समावेशी मीडिया प्रणाली में निवेश करने का भी सही वक्त है, जो कि सार्वजनिक स्वास्थ्य संकट से निपट सके।

लेखक पुणे स्थित फ़्लेम (FLAME) यूनिवर्सिटी में मीडिया स्टडीज़ पढ़ाते हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।

अंग्रेज़ी में लिखा मूल आलेख आप नीचे लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं।

The Need for a Proactive Media During a Public Health Crisis

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