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इस देश में ग़रीब भी रहते हैं सरकार!
निश्चित ही यह इस देश के निर्धनों का सौभाग्य था कि इतने ‘शक्तिशाली प्रधानमंत्री’ ने उन पर करुणा की और उनसे क्षमा भी मांगी। प्रधानमंत्री जी अचानक निर्णय लेकर जनता को चौंकाने में सिद्धहस्त हैं। इन निर्णयों की घोषणा में वे  थिएट्रिकल इफेक्ट्स का सुंदर उपयोग करते हैं और अनायास ही हमें अल्फ्रेड हिचकॉक की निर्देशन शैली का स्मरण हो आता है।
डॉ. राजू पाण्डेय
05 Apr 2020
Lockdown

वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने कोविड-19 के प्रसार को रोकने के लिए किए गए लॉकडाउन के कारण भुखमरी और पलायन झेल रहे गरीबों को राहत पहुंचाने के उद्देश्य से 26 मार्च 2020 को 1.7 लाख करोड़ के पैकेज की घोषणा की। पैकेज का मोटे तौर पर स्वागत किया गया किन्तु हमें यह कहने में कोई संकोच नहीं होना चाहिए कि यह पैकेज नाकाफ़ी है और इसकी प्रशंसा का बस एक ही कारण हो सकता है कि इससे यह पता चलता है कि सरकार इस बात को भूली नहीं है कि इस देश की अधिकांश आबादी निर्धन है जिसके पास रोटी, कपड़ा और मकान जैसी बुनियादी सुविधाएं भी उपलब्ध नहीं हैं।

अन्यथा जिस तरह अचानक लॉकडाउन की घोषणा की गई उससे तो यह संदेह होने लगा था कि कहीं विदेशी शासकों की वापसी तो नहीं हो गई है जिनके लिए फैसलों में डर्टी इंडियंस को अनुशासित करने और उनके दुःख-तकलीफों को नजरअंदाज करने की प्रवृत्ति देखी जाती थी।

लॉकडाउन मेडिकल आवश्यकताओं के अनुसार एक सही निर्णय था किंतु प्रधानमंत्री संभवतः यह भूल गए कि इस देश में एक असंगठित क्षेत्र भी है। सरकार स्वयं मई 2016 में यह स्वीकार चुकी है कि 2011 की जनगणना के मुताबिक भूमिहीन कृषि मजदूरों की संख्या 14.43 करोड़ है।  यह 2020 है, इस संख्या में काफी इजाफा हो चुका होगा। अभी हम कंस्ट्रक्शन और अन्य उत्पादन तथा निर्माण इकाइयों में कार्य कर रहे शहरी असंगठित मजदूरों की बात नहीं कर रहे हैं। सरकार के पास असंगठित क्षेत्र में कार्य करने वाले मजदूरों के सही आंकड़े तक नहीं हैं। जुलाई 2019 में जारी 2018-19 के आर्थिक सर्वेक्षण में कहा गया कि कुल वर्क फ़ोर्स का 93 प्रतिशत इनफॉर्मल है जबकि नीति आयोग द्वारा नवंबर 2018 में कुल वर्क फ़ोर्स के 85 प्रतिशत श्रमिकों को इनफॉर्मल सेक्टर से जुड़ा बताया गया था।

यदि प्रधानमंत्री जी ने अपने मंत्रियों, अधिकारियों और राज्य सरकारों से चर्चा कर लॉकडाउन के बाद इन श्रमिकों के पलायन को रोकने की योजना बना ली होती तो लॉकडाउन का उद्देश्य भी पूरा होता और पूरे विश्व को सड़क पर भटकते भूखे प्यासे मजदूरों के समूहों के रूप में दुःखद और लज्जाजनक दृश्य भी देखने को न मिलते।

शायद प्रधानमंत्री जी को बाद में यह बोध हुआ होगा कि अपनी धार्मिक अस्मिताओं को लेकर अत्यंत संवेदनशील बना दिए गए खाते-पीते-नाचते-गाते मध्यवर्ग और मुख्यधारा के मीडिया का सामूहिक प्रशस्ति गान  भूख से मर रहे लोगों का मनोरंजन नहीं कर पाएगा और इसका खामियाजा उन्हें आने वाले चुनावों में भुगतना पड़ सकता है। यही कारण है कि पहले यह आर्थिक पैकेज आया और फिर प्रधानमंत्री ने अपनी चिर परिचित शैली में माफ़ी भी मांगी।

निश्चित ही यह इस देश के निर्धनों का सौभाग्य था कि इतने ‘शक्तिशाली प्रधानमंत्री’ ने उन पर करुणा की और उनसे क्षमा भी मांगी। प्रधानमंत्री जी अचानक निर्णय लेकर जनता को चौंकाने में सिद्धहस्त हैं। इन निर्णयों की घोषणा में वे  थिएट्रिकल इफेक्ट्स का सुंदर उपयोग करते हैं और अनायास ही हमें अल्फ्रेड हिचकॉक की निर्देशन शैली का स्मरण हो आता है।

इस राहत पैकेज को सरकार के हृदय परिवर्तन का पहला संकेत माना जा सकता था यदि इसमें आंकड़ों की वही धूर्त बाजीगरी नहीं होती जो पूंजीवादी अर्थशास्त्रियों की गरीब कल्याण योजनाओं की सिग्नेचर ट्यून होती है। सर्वप्रथम 1.70 लाख करोड़ रुपये लॉकडाउन से प्रभावित गरीबों को राहत पहुंचाने के लिए खर्च करने की बात पूरी तरह सही नहीं है। इस 1.70 लाख करोड़ रुपये में प्रधानमंत्री किसान सम्मान निधि (जो एक पूर्व घोषित योजना है) के 16000 करोड़ रुपये को भी शामिल कर लिया गया है।

मनरेगा मजदूरों की मजदूरी में बढ़ोतरी के लिए ग्रामीण विकास मंत्रालय द्वारा 23 मार्च 2020 को ही  अधिसूचना जारी कर दी गई थी। जबकि राहत पैकेज की घोषणा 26 मार्च को की गई। चूंकि मजदूरी को 182 रुपये से बढ़ाकर 202 रुपये करने का निर्णय 1 अप्रैल 2020 से लागू होना था इसलिए सरकार ने सोचा कि इसे भी पैकेज में शामिल कर वाह वाही लूटी जाए। मजदूरी में यह बढ़ोतरी एक रूटीन एक्सरसाइज थी और इसका कोविड-19 पैनडेमिक और लॉकडाउन से कुछ लेना देना नहीं था। इस मद के लिए रखे गए 5600 करोड़ रुपये भी राहत पैकेज का एक हिस्सा है।

इसी प्रकार एक्सेस फ़ूड ग्रेन स्टॉक से जो अनाज दिया जाएगा उसके मूल्य की गणना इकोनॉमिक कॉस्ट के आधार पर की गई है जबकि इसकी ऑपर्चुनिटी कॉस्ट बहुत कम है। वहीं कंस्ट्रक्शन वेलफेयर फण्ड से जो राशि लेने की बात कही गई है वह केंद्र सरकार की रकम नहीं है।

ज्यां द्रेज के अनुसार इस राहत पैकेज में यदि विशुद्ध केंद्र सरकार के योगदान की गणना करें तो यह 1.70 लाख करोड़ नहीं बल्कि 1 लाख करोड़ के आसपास होगा। 

देश के अनेक जाने माने अर्थशास्त्रियों ने इस राहत पैकेज की सीमाओं और कमियों को उजागर किया है यथा-

इमरजेंसी कैश ट्रांसफर के लिए महिलाओं के प्रधानमंत्री जन धन योजना खातों का चयन किया गया है। यह खाते बहुत जल्दबाजी में खोले गए थे। इनमें से अनेक गलत आधार नंबर से संबद्ध हैं। अनेक खातों के बारे में स्वयं खाता धारक को ही पता नहीं है। अनेक खातों में काला धन डाला गया है। अनेक पीएमजेडीवाई खाते सस्पेंडेड भी हैं। अनेक मध्यवर्गीय लोग भी पीएमजेडीवाई खाता धारक हैं जबकि अनेक गरीब लोगों के नाम ये खाते नहीं खोले गए हैं।

ज्यां द्रेज का सुझाव है कि मनरेगा जॉब कार्ड्स की सूची एक बेहतर विकल्प हो सकती थी। यह व्यापक है, पारदर्शी है, सुपरीक्षित है और गरीबोन्मुख भी है। यह सामाजिक सुरक्षा पेंशनर्स की पूरक सूची भी है क्योंकि ये हमारे वर्क फ़ोर्स का हिस्सा नहीं होते। इसकी केवल एक ही सीमा है कि यह ग्रामीण इलाकों के लिए ही प्रयुक्त की जा सकती थी। शहरी इलाकों के लिए पीएमजेडीवाई या किसी अन्य सूची का प्रयोग किया जा सकता था। 

सामाजिक सुरक्षा पेंशन्स में भारत सरकार का योगदान सन 2006 से 200 रुपये मात्र पर अटका हुआ है जो निहायत ही अपर्याप्त है। बहुत से अर्थशास्त्री यह मानते हैं कि इसे तत्काल स्थायी तौर पर बढ़ाकर एक हजार रुपये प्रति माह किया जाना चाहिए। वर्तमान में दिव्यांग जनों वृद्धों और विधवाओं को मात्र 1000 रुपये की राहत दो किस्तों में दिया जाना प्रस्तावित है। इन्हें तीन या चार माह की अग्रिम पेंशन दी जा सकती है।

रीतिका खेड़ा का यह कहना है कि प्रायः इस तरह के अशक्त लोग परिवार जनों की दया पर निर्भर करते हैं लॉकडाउन के बाद यदि कमाने वाले परिवार जनों की आय का स्रोत ही खत्म हो जाएगा तो स्वाभाविक है ये अपने पर निर्भर इन निर्बल लोगों की उपेक्षा करेंगे। ऐसी दशा में सामाजिक सुरक्षा पेंशन का लंबी अवधि का अग्रिम भुगतान उनके काम आ सकता है। 

बहुत से अर्थशास्त्रियों का यह भी मानना है कि दी जाने वाली नकद सहायता बहुत थोड़ी है। पीएमजेडीवाई के माध्यम से 20 करोड़ प्राप्तकर्ताओं को पांच सौ रुपये की मासिक सहायता दी जा रही है। यह सहायता प्रारंभिक तौर पर तीन महीने के लिए दी जा रही है। पीएमजीकेपी के लिए 31000 हजार करोड़ का फण्ड रखा गया है। ज्यां द्रेज के अनुसार एक औसत सदस्य संख्या वाले परिवार के लिए 500 रुपये प्रति माह में घर चलाना बहुत मुश्किल है। 

कुछ सुझाव मनरेगा को लेकर भी हैं। रीतिका खेड़ा और ज्यां द्रेज आदि अर्थशास्त्रियों ने सुझाव दिया है कि मनरेगा मजदूरों को 2019-20 की बकाया मजदूरी का तत्काल भुगतान कर दिया जाना चाहिए। जॉब कार्ड धारी मनरेगा मजदूरों को आंगनबाड़ी केंद्रों या पंचायत भवनों में अलग अलग समूहों में बुलाकर बिना काम लिए 10 दिन की मजदूरी का भुगतान कर दिया जाना चाहिए इस तरह कम्युनिटी ट्रांसमिशन के खतरे को दूर रखते हुए उनकी आर्थिक मदद हो सकेगी। सभी जॉब कार्ड धारियों के लिए यह राशि 2000 रुपये प्रति माह प्रति हाउसहोल्ड होगी।

वर्तमान में एक करोड़ चालीस लाख जॉब कार्डधारी हैं। रीतिका खेड़ा के अनुसार इस पर तीन माह में 1 अरब रुपये का खर्च आएगा। बाद के महीनों में कम्युनिटी ट्रांसमिशन का खतरा कम होने के बाद जो जॉब कार्ड धारी कार्य करने के इच्छुक हैं उन्हें महीने में 20 दिन का कार्य अवश्य उपलब्ध कराया जाना चाहिए। वैसे भी मनरेगा के अंतर्गत जॉब कार्ड धारी द्वारा मांगे जाने पर उसे 100 दिनों का काम उपलब्ध कराना सरकार की कानूनी जिम्मेदारी है। 

अर्थशास्त्रियों का एक बड़ा वर्ग सभी प्रकार के भुगतान(पेंशन्स, मनरेगा मजदूरी,प्रधानमंत्री कौशल विकास योजना आदि सभी योजनाओं के भुगतान) के लिए आधार पेमेंट ब्रिज सिस्टम के प्रयोग से बचने की सलाह दे रहा है क्योंकि यह रिजेक्टेड और फेल्ड पेमेंट्स की बड़ी संख्या के कारण बहुत कठिनाइयां उत्पन्न कर रहा है।

स्वास्थ्य मंत्रालय ने स्वयं माना है कि आधार पेमेंट ब्रिज सिस्टम के कारण डायरेक्ट बेनिफिट ट्रांसफर के 10 प्रतिशत प्रकरण नाकामयाब रहे। इन विशेषज्ञों का मानना है कि नेशनल इलेक्ट्रॉनिक फण्ड ट्रांसफर अधिक विश्वसनीय है। 

ग्रामीण इलाकों में बैंक अभी भी कम संख्या में हैं। इस प्रकार के डायरेक्ट बेनिफिट ट्रांसफर के बाद बैंकों में उमड़ने वाली भीड़ से लॉकडाउन का उद्देश्य विफल हो सकता है, इसलिए राज्य सरकारों को नकद भुगतान के वैकल्पिक तरीकों पर विचार करना होगा। पंचायत भवनों, आंगनबाड़ी केंद्रों तथा स्वयं सहायता समूहों का प्रयोग सामाजिक सुरक्षा पेंशन और अन्य नकद भुगतान हेतु किया जा सकता है जिससे भीड़ का एकत्रीकरण न हो।

लॉकडाउन के दौरान भुखमरी की स्थिति को रोकने के लिए पैकेज में राशन देने संबंधी प्रावधान किए गए हैं। यह कार्य पीडीएस के माध्यम से किया जाना है। राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून का लाभ लगभग 75 प्रतिशत ग्रामीण परिवारों और 50 प्रतिशत शहरी परिवारों को मिलता है। कुल मिलाकर देश के लगभग दो तिहाई परिवार पीडीएस द्वारा लाभ पाते हैं। भारत के पास खाद्यान्न के विशाल भंडार हैं। अनेक अर्थशास्त्री यह मानते हैं कि सरकार चाहे तो बड़ी आसानी से आपात उपाय के रूप में पीडीएस राशन को छह महीने के लिए दोगुना कर सकती है।

वर्तमान में सरकार 3 माह के लिए 5 किलोग्राम अतिरिक्त गेहूं या चावल दे रही है। अब पीडीएस के जरिये दालें भी दी जाएंगी जो स्वागत योग्य हैं। ज्यां द्रेज ने इस तथ्य की ओर ध्यान दिलाया है कि अभी भी बहुत से निर्धन परिवार पीडीएस से नहीं जुड़े हैं। भारत सरकार नेशनल फ़ूड सिक्योरिटी एक्ट के तहत राज्यवार पीडीएस कवरेज की गणना करने के लिए 2011 की जनगणना के आंकड़ों का इस्तेमाल कर रही है। यदि इसके स्थान पर 2020 की संभावित जनसंख्या के आंकड़ों का प्रयोग किया जाता है तो राज्य सरकारों को अच्छी खासी तादाद में नए राशन कार्ड जारी करने में आसानी होती।

रीतिका खेड़ा ने कुछ अन्य सुझाव दिए हैं यथा एपीएल परिवारों को दिए जाने वाले राशन में इजाफा भले ही इसका मूल्य कुछ अधिक हो, गरीबों के लिए मुफ़्त राशन का वितरण, साबुन और खाद्य तेल आदि आवश्यक वस्तुओं का पीडीएस द्वारा वितरण आदि। आवश्यकतानुसार इस पीडीएस के नेटवर्क को मास्क और सैनिटाइजर आदि की मुफ़्त सप्लाई के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है।

बहुत सारे अर्थशास्त्री इस बात की मांग कर रहे हैं कि कोरोना के ट्रांसमिशन को रोकने के लिए राशन वितरण के दौरान आधार बेस्ड बायोमेट्रिक ऑथेंटिकेशन को तत्काल बन्द कर देना चाहिए। इनका मानना है कि अध्ययन यह प्रमाणित कर चुके हैं इससे भ्रष्टाचार तो कम नहीं होता बल्कि राशन वितरण में जटिलताएं और बढ़ती हैं। छत्तीसगढ़, झारखंड, ओडिशा और केरल इसके प्रयोग पर पहले ही रोक लगा चुके हैं।

केरल और छत्तीसगढ़ जैसे अनेक राज्य स्कूलों और आंगनवाड़ी केंद्रों के जरिये बालक-बालिकाओं के लिए सूखे राशन के पैकेट्स के वितरण का कार्य प्रारंभ कर चुके हैं। रीतिका खेड़ा ने इनमें अंडे और खजूर दिए जाने का सुझाव दिया है क्योंकि ये अधिक समय तक सुरक्षित रह सकते हैं और बहुत अधिक पौष्टिक भी होते हैं।

एक बहुत बड़ी समस्या शहरों में काम करने वाले प्रवासी मजदूरों की है। इनका काम बंद हो गया है। इन्हें रहने की भी दिक्कत है और खाने की भी। इन्हें मनरेगा और पीडीएस का भी फायदा नहीं मिल पाएगा। स्टेडियम और कम्युनिटी हॉल, स्कूल आदि को इनके लिए शेल्टर का रूप दिया जा रहा है। हमें इनकी स्वच्छता का ध्यान रखना होगा। और इन लोगों को साबुन और हैंड सैनिटाइजर भी उपलब्ध कराने होंगे। इनमें इतना स्थान होना चाहिए कि सोशल डिस्टेन्सिंग के नॉर्म्स का पालन किया जा सके।

तामिलनाडु की अन्ना कैंटीन,  कर्नाटक की इंदिरा कैंटीन और छत्तीसगढ़, ओडिशा और झारखंड के दाल भात केंद्र के मॉडल का अनुकरण इन्हें खाना उपलब्ध कराने के लिए किया जा सकता है। केंद्र सरकार इन्हें एफसीआई के जरिये चावल, गेहूं और दालें उपलब्ध करा सकती है। ये प्रवासी श्रमिक स्वयं इस सामुदायिक रसोई का संचालन कर सकते हैं। इससे इन्हें कुछ आय भी होगी।

इन सामुदायिक रसोइयों में भीड़ के एकत्रीकरण को रोकने के लिए अलग अलग समय पर लोगों भोजन के लिए बुलाना या लंच पैकेट तैयार करना जैसे उपाय अपनाए जा सकते हैं। यदि इन शारीरिक रूप से कमजोर और कुपोषित श्रमिकों को कोरोना संक्रमण ने घेर लिया तो स्थिति भयानक हो जाएगी। 

ज्यां द्रेज के अनुसार सुरक्षा घेरे के निर्माण में पब्लिक डिस्ट्रीब्यूशन सिस्टम, सोशल सिक्योरिटी पेंशन्स तथा अन्य कैश ट्रांसफर्स तीन प्रमुख स्तंभ हैं। किंतु फिर भी बहुत सारे लोग ऐसे होंगे जो इस सुरक्षा घेरे के कमियों के कारण बाहर रह जाएंगे। इसलिए हमें चौथे स्तंभ की जरूरत होगी-  हमें इमरजेंसी लाइन्स चालू करनी होंगी। इन इमरजेंसी लाइन्स का उपयोग भूख का शिकार बन रहा कोई भी व्यक्ति कहीं से भी कर सकता है। ज्यां ड्रीज के अनुसार केबीके डिस्ट्रिक्स (कालाहांडी, बलांगीर,कोरापुट) में अति निर्धन लोगों के लिए 2015 तक फीडिंग सेंटर्स चलाए जा रहे थे किंतु उन्हें बन्द कर दिया गया।

झारखंड में ग्राम पंचायतों के पास 10000 रुपये का इमरजेंसी फण्ड रहता है जिसका प्रयोग किसी ऐसे व्यक्ति की सहायता हेतु किया जाता है जो भूख का शिकार हो रहा है।

राजस्थान में ग्राम पंचायतों के पास दो बोरी अनाज हमेशा उपलब्ध होता है जिसे भुखमरी से पीड़ित लोगों को दिया जा सकता है। अनेक राज्य सामुदायिक रसोई की व्यवस्था रखते हैं जहाँ जरूरतमंदों को साफ सुथरा सस्ता और पौष्टिक भोजन उपलब्ध हो जाता है। यह इमरजेंसी उपाय अत्यावश्यक हैं और बहुत से लोगों की प्राण रक्षा कर सकते हैं।

राहत पैकेज में किसानों के लिए कुछ नहीं है। लॉकडाउन से कृषि क्षेत्र बुरी तरह प्रभावित हुआ है। और सरकार को आने वाले समय में किसानों की समस्याओं पर काम करना होगा।

(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

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