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मोदी सरकार के विरुद्ध होगी यह पांचवी आम हड़ताल
दूरदर्शी श्रम आंदोलनकर्ता व संगठक जानते हैं कि इस बार की आम हड़ताल का भावी महत्व उसके तात्कालिक प्रभाव से कहीं अधिक है।

बी. सिवरामन
11 Nov 2020
 मोदी सरकार के विरुद्ध होगी यह पांचवी आम हड़ताल

26 नवम्बर को मोदी सरकार के विरुद्ध पांचवी आम हड़ताल होगी। यह 1991 में नवउदारवादी सुधारों के बाद से देश की 20वीं आम हड़ताल है। भाजपा से संबद्ध बीएमएस को छोड़कर सभी केंद्रीय ट्रेड यूनियन इस हड़ताल में शरीक होंगे।

सुधार-युग (Reform era) के 30 वर्षों में 20 आम हड़तालें लोगों के लिए कई मतलब रखती हैं। सरकारी खेमे और मीडिया के लिए यह रूटीन गतिविधियों में आ सकता है। श्रम आंदोलन के कुछ संगठनकर्ताओं के लिए यह पूंजीपतियों के विरुद्ध और दक्षिणपंथी सर्वसत्तावादी सरकार द्वारा अभूतपूर्व हमले के खिलाफ ‘रियर-गार्ड ऐक्शन’ हो सकता है। परंतु प्रत्येक आम हड़ताल अनोखी होती है और उसका विशेष महत्व होता है। यह हड़ताल भी अपवाद नहीं है। दूरदर्शी श्रम आंदोलनकर्ता व संगठक जानते हैं कि इस बार की आम हड़ताल का भावी महत्व उसके तात्कालिक प्रभाव से कहीं अधिक है।

इसके कारण अनगिनत हैं। संपूर्ण तौर पर देखा जाए तो भारत में सुधार के तीन दशकों में हर तीन साल में 2 आम हड़तालें संगठित की गई हैं। पर दो सत्रों के 6 वर्षों में मोदी सरकार को 5वीं आम हड़ताल देखनी पड़ रही है। यह मोदी के दूसरे सत्र के दूसरे वर्ष में दूसरी आम हड़ताल भी है। भारतीय श्रमिक वर्ग के राजनीतिक प्रतिरोध की बढ़ती बारंबारता श्रमिकों के खिलाफ मोदी के चैतरफा युद्ध के बारे में महत्वपूर्ण संदेश संप्रेशित करता है।

इस महायुद्ध की वर्तमान स्थिति क्या है? इस आम हड़ताल का विशेष महत्व क्या है? पिछले 8 महीनों से लॉकडाउन के कारण ऐक्टिविज़्म पर जबरन की जो रोक लग गई थी उसके बरखिलाफ अब आर्थिक पुनरप्रगति (revival) के दौर में इस हड़ताल को लेबर आंदोलन के अखिल भारतीय ऐक्टिविज़्म की पुनर्जागृति कहा जा सकता है। यह महामारी के बाद की मंदी की जटिल चुनौती का मुकाबला करने के लिए ‘मूड-सेटर’ भी है। इस वर्ष के दूसरे चैमासे में 24 प्रतिशत नकारात्मक विकास और भारतीय अर्थव्यवस्था में पूरे वित्तीय वर्ष में अनुमानित 10.5 प्रतिशत संकुचन संकेत दे रहा है कि आगे आने वाले समय में मंदी का कैसा भयानक दौर आएगा। लॉकडाउन का असर कम समय के लिए और अस्थायी हो सकता है। पर यह स्पष्ट है कि महामारी के बाद की मंदी कई सालों तक चलेगी और इस शताब्दी में सबसे भयानक होगी। लाखों उद्योग बंद होंगे। दसियों लाख श्रमिकों को काम और आजीविका से हाथ धोना पड़ेगा। युवाओं को शिक्षा ग्रहण करने के बाद भी बेरोज़गार रहना होगा। वेतन का घटाया जाना और यहां तक कि काटा जाना आम बन जाएगा। ऐसी गंभीर चुनौतियों का मुकाबला मजदूर आंदोलन पहली बार स्वतंत्र भारत में करेगा।

यदि कॉरपोरेट-पक्षधर श्रम सुधार भारत में इतिहास की सबसे बड़ी मंदी का मुकाबला करने के लिए पूंजीवादियों का नुस्खा है, तो इस बार की आम हड़ताल भी इसी चुनौती का सामना करने के लिए श्रमिक वर्ग का ‘वार्मिंग अप’ एक्सरसाइज़ है। श्रम आंदोलन को अभी से अपना ‘काउंटर ऑफेंसिव’ (counter-offensive) शुरू करना होगा और उसे लंबे समय तक बनाए रखना होगा। आम हड़ताल मजदूरों के लिए एक बड़ा शिक्षक भी साबित होगा, इसलिए इसको केवल तात्कालिक प्रभाव के मापदंड पर नहीं आंका जा सकता।

इत्तेफाक से, आगामी आम हड़ताल नए औद्योगिक संबंध शासन के विरुद्ध श्रमिक वर्ग के प्रतिरोध की नयी पहल है। यह वही शासन है जिसमें मोदी ने, संघर्ष के बल पर अर्जित सारे श्रम अधिकारों को छीनकर और श्रम सुधारों के माध्यम से, लेबर कानूनों को खत्म या निष्प्रभावी किया व नेहरू के दौर के औद्योगिक संबन्ध शासन पर गाज गिराई। और तो और यह उस समय लाया जा रहा है जब भारतीय मजदूर वर्ग को श्रम-पूंजी के बल-संतुलन के दौर में सबसे संकटपूर्ण समय का सामना करना पड़ रहा है, जिसकी तुलना आपातकाल से की जा सकती है। मोदी के दौर में उदार जनवाद की मृतप्राय स्थिति की वजह से पैदा हुए संकट-काल में मजदूर वर्ग एक बार फिर अपने लिए रास्ता ढूंढ रहा है।

दरअसल दक्षिणपंथी उभार के केवल यही मतलब नहीं हैं कि दुश्मन की ताकत कई गुना बढ़ गई है; बल्कि यह भी है कि श्रम आंदोलन का यह सबसे कमज़ोर क्षण है। आइये हम साधारण प्रचारात्मक व लच्छेदार बातों से ऊपर उठकर श्रम आंदोलन पर एक निरपेक्ष दृष्टि डालें।

श्रम संबंधों के एक संपूर्ण शासन को पलट दिया गया है और ‘हायर-ऐण्ड-फायर’ का नया शासन लागू है। नीति के स्तर पर निजीकरण पूरी तरह कायम है। जल्द ही सार्वजनिक क्षेत्र नाममात्र के लिए भी नहीं बचेगा। रोजगार का खात्मा होगा और अप्रत्याशित बेरोज़गारी ऐतिहासिक स्तर पर पहुंचेगी। वेतन का स्तर भी गतिरुद्ध हो रहा है। कम्पनियों के मालिक और केंद्र व राज्य सरकारों की ओर से श्रम कानूनों और संविधान के उसूलों का खुलेआम उलंघन हो रहा है। 8-घंटे काम के मूल अधिकार को तक बचाया नहीं जा सका और टाटा कन्सल्टैंसी और इन्फोसिस जैसी प्रमुख कम्पनियां वर्क-फ्रॅाम-होम के नाम पर कानून का उलंघन कर रही हैं और कर्मियों का शोषण कर लाभ बढ़ाने में लगी हैं। एक-के-बाद-एक श्रम अधिकार छीने जा रहे हैं जो वर्षों में हासिल किये गए थे।

पर श्रम आंदोलन की ओर से क्या इस हमले के बराबर का प्रतिकार देखने को मिला? अब तक नहीं! जहां तक आम हड़ताल में ‘आम’ की बात है, तो वह काफी कमज़ोर नजर आता है। केवल यूनियनों की कतारों में एक किस्म का थकान आम बनता जा रहा है। पहले की हड़तालों की भांति लड़ाकू तेवर इस बार नहीं दिख रहा। लेबर लीडरों और संगठकों को एक बात सता रही है-क्या इस बार असंगठित श्रमिकों की 100 प्रतिशत भागीदारी हो सकेगी, क्योंकि कुछ ही माह पूर्व प्रवासी मजदूरों को गंभीर संकट का सामना करना पड़ा था? यह अभी भी खुला प्रश्न है। संगठित क्षेत्र में भी कई यूनियनें अपने प्रबंधकों से बातचीत कर रही हैं कि क्या श्रमिकों को आम हड़ताल के दिन काम न करने के एवज में किसी छुट्टी के दिन नुकसान की भरपाई हेतु काम करने दिया जाएगा? कुछ यूनियनें योजना बना रही हैं कि वे एक दिन की आम हड़ताल की जगह एक घंटे का प्रदर्शन करेंगे। ऐसे चुनौतीपूर्ण माहौल में श्रम आंदोलन के जमीनी स्तर के नेता श्रमिक वर्ग को एकताबद्ध और प्रेरित करने की कोशिश कर रहे हैं, ताकि मोदी के हमलों को माकूल जवाब दे सकें।

लेबर कानूनों और श्रम अधिकारों पर चैतरफा हमला करने के पश्चात मोदी ने घोषणा की कि भारत विकासशील देशों में सबसे अधिक इन्वेस्टर-फ्रेंडली (investor-friendly) देश है, यानी निवेशकों के लिए स्वर्ग है। पर श्रमिकों की कीमत पर उनके कॉरपोरेट-पक्षधर चारे ने वैश्विक पूंजी को जरा भी उत्साहित नहीं किया है; अब वह मंदी के दौर में दूना सतर्क हो गई है। आखिर कई वर्षों तक सबसे ऊंचे विकास दर वाली प्रमुख अर्थव्यवस्था रहने के बाद महामारी के पीक समय में 24 प्रतिशत नकारात्मक विकास के साथ हमारा देश विश्व की प्रमुख अर्थव्यवस्थाओं में सबसे अधिक संकुचन झेल रहा है।

न वोटर और न ही क्रेडिट रेटिंग एजेंसियां जुमलों से प्रभावित की जा सकती हैं। सारी दुनिया को मालूम है कि मोदी ने सिर्फ करोना महामारी का प्रबंधन ही क्या, बल्कि 6 साल तक अर्थव्यवस्था को भी सही तरीके से नहीं चलाया। मोदी सरकार वित्तीय वर्ष 2019 में 51 अरब डॉलर एफडीआई (FDI) का दावा कर सकती है, क्योंकि यह मंदी का वर्ष था। पर 2018-19 में एफडीआई 62 अरब डॉलर था और 2017-18 में 61 अरब डॉलर था, 2016-17 में 60 अरब डॉलर था और 2015-16 में 56 अरब डॉलर था; ये औद्योगिक नीति एवं संवर्द्धन विभाग ( Department for Promotion of Industry and Internal Trade)  के आंकड़े हैं। एफडीआई का मोदी शासन में तो भट्टा बैठ गया है। यह है असलियत मेक-इन-इंडिया (Make-in-India) की!

फिर, 2019 का अधिकतर एफडीआई मोदी के पहले सत्र के पहले दो वर्षों में किये ‘इन्वेस्टमेंट कमिटमेंट्स’ की वजह से थे। और उसमें भी अधिक निवेश नए नहीं थे, बल्कि भारतीय कम्पनियों को अपने हाथों में लेने के उद्देश्य से थे। उदाहरण के लिए वॉलमार्ट ने फ्लिपकार्ट को हथियाने के लिए 16 अरब डॉलर का निवेश किया। यूएनसीटीएडी (UNCTAD) की वैश्विक निवेश रिपोर्ट 2020 के अनुसार 2019 में ग्रीनफील्ड घोषणाओं ( Greenfields Announcements) में 4 प्रतिशत की गिरावट आई, और 2020 में भारत में अनुमानित एफडीआई और भी कम होगी।

निराश मोदी ने 20 वैश्विक निवेश फंड्स के साथ 5 नवंबर 2020 को ऑनलाइन मीटिंग की और भारत में निवेश करने के लिए हाथ-पैर जोड़े परंतु एक भी महत्वपूर्ण वास्तविक निवेश की प्रतिबद्धता नहीं हासिल हुई। मोदी ग्लोबल पूंजी का भव्यतम स्वागत करने के लिए सभी सिद्धान्तों को ताक पर रख रहे हैं। आम तौर पर निजीकरण के द्वारा सरकार राजस्व कमाती है। पर अब तक जैसा कभी सुना नहीं गया, मोदी सरकार निजीकरण का रास्ता साफ करने के लिए जनता का पैसा खर्च कर रही है। नीति आयोग ने भारतीय रेल द्वारा 22,500 करोड़़ रुपये का निवेश करने हेतु ब्लूप्रिंट तैयार किया है। इससे सबसे अधिक फायदे वाले, यानी अधिक राजस्व कमाने वाली लाइनों पर निजी कम्पनियों द्वारा प्राइवेट ट्रेनें चलाने हेतु हाई-स्पीड कॉरिडॉर बनाने की तैयारी है। भारतीय रेल 30,000 करोड़ रुपये प्रति वर्ष का घाटा सह रही है। फिर भी उसने पहले तेजस एक्सप्रेस चलाने के लिए लाभ कमाने वाले लखनऊ-दिल्ली रूट को एक प्राइवेट पार्टी के हाथ सौंप दिया, और पहले ही महीने में उसने 70 लाख रुपये का मुनाफा कमाया। अंतिम रेल बजट में 150 प्राइवेट ट्रेनों की घोषणा की गई, जिन्हें साल के अंत तक 100 सबसे अधिक लाभकारी मार्गों पर चलाये जाने की योजना थी, पर कुछ दिक्कतों के कारण केवल 2 और तेजस ट्रेनें चलाई जा सकीं।

आत्मनिर्भर भारत कार्यक्रम की घोषणा करते समय निर्मला सीतारमण ने बड़ी घोषणा की थी कि रणनीतिक बिक्री के माध्यम से सभी सार्वजनिक क्षेत्र उपकरणों का निजीकरण किया जाएगा। अक्टूबर 2020 तक एक भी पीएसयू बेचा न जा सका क्योंकि खरीददार ही नहीं थे। अन्त में सरकार ने 4 पीएसयू-बीपीसीएल, शिपिंग कॉर्पोरेशन, कॉनकॉर और बीईएमएल को पूर्ण विक्रय (outright sale) के लिए दांव पर लगा दिया पर अबतक कोई बोली नहीं लगी। श्रमिकों के प्रतिरोध की वजह से कोल इंडिया और इंडियन एयरलाइन्स का निजीकरण या तो रुका है या फिर लंबित है। सरकार ने एयर इंडिया के लिए बोली लगाने के मापदंड हल्के कर दिये हैं पर खरीददार कौड़ी के भाव खरीदना चाहते हैं, इसलिए इस साल दिसम्बर में पुनः नए सिरे से बोली लगेगी, यानि बिडिंग होगी। पिछले वर्ष महत्वाकांक्षी विनिवेश राजस्व 84,000 करोड़ तक गिर गया, जबकि उससे पहले वाले साल में यह 1.05 लाख करोड़ था। वित्तीय विवशता मोदी सरकार को बाध्य कर सकती है कि वे ‘‘फायर सेल्स’’ (fire sales) की ओर बढ़ें। ‘कल के नवाब’ कुछ नया तो बना नहीं सकते, बस ‘परिवार की सम्पत्ति’ को स्वाहा कर सकते हैं!

आगामी आम हड़ताल का आवाहन 11 केंद्रीय ट्रेड यूनियनों में से दस ने तो किया ही, साथ में 70 क्षेत्रों के महासंघों ने भी हड़ताल में शामिल होने का फैसला किया है-बैंक, टेलिकॉम, ऑर्डिनैन्स, पोर्ट एण्ड डॉक्स आदि। लगभग सभी अपने-अपने क्षेत्र में मोदी सरकार के श्रमिक-विरोधी हमलों के विरुद्ध संघर्ष कर रहे हैं। मसलन बैंक क्षेत्र में यद्यपि 2016 से 11वां द्विपक्षीय वेतन समझौता लंबित है, और बावजूद इसके कि बैंक प्रबंधकों और युनियनों के बीच 2019 में ही समझौते की शर्तों पर सहमति बन चुकी है, और जुलाई 2020 में दोनों पक्षों ने समझौते पर हस्ताक्षर किया कि 90 दिन, यानी 23 अक्टूबर 2020 तक समझौता लागू हो जाएगा, अब तक बैंक कर्मियों के वेतन में कोई रिविज़न नहीं हुआ। बैंकों केएनपीए मोदी सरकार की नींद हराम किये हुए हैं और मंदी के दौर में ये और बढ़ेंगे, तो सरकार बैंक कर्मियों का हक मार रही है। बल्कि बैंक कर्मचारियों को बेहतर आय मिलती तो वे अधिक खर्च करते और अर्थव्यवस्था को रिवाइव करने के लिए यह उपाय अच्छा होता। जाहिर है मोदी सरकार विकल्पहीनता की स्थिति में है।

इस बार किसान संगठनों के कोऑर्डिनेशन ने आम हड़ताल को समर्थन देने का फैसला किया है। उन्होंने अपनी मांगों को लेकर 26-27 नवंबर को अखिल-भारतीय रोड-रोको कार्यक्रम भी लिया है, जो आम हड़ताल के साथ होगा और मोदी-विरोधी प्रतिरोध को और भी व्यापक बनाएगा।

पिछली 19 आम हड़तालें शायद ही किसी प्रमुख मांग को हासिल कर पाईं या किसी प्रमुख मजदूर-विरोधी नीति को वापस करवा पाईं। पर प्रमुख लेबर लीडर और तमिलनाडु में सीपीएम के आइड्यिलॉग इलंगोवन रामलिंगम का कहना है कि मोदी के शासन के विरुद्ध चार हड़तालों का कुछ अप्रत्यक्ष प्रभाव जरूर रहाः ‘‘कोड ऑन इंडसिट्रयल रिलेशन्स में ट्रेड यूनियन नेतृत्व में बाहरी व्यक्तियों को प्रतिबंधित करने के प्रावधान को सरकार वापस लेने पर मजबूर हुई। उसे एक्राय्ड फॉर्मूला भी अपनाना पड़ा। साथ में कोड ऑन वेजेज़ के तहत बनाए गए नियमों के अनुसार न्यूनतम वेतन तय करने के बारे में राप्ताकोस ब्रेट (Raptacos Brett) केस फैसले में सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों को भी मानना पड़ा। नई पेंशन स्कीम के तहत कर्मचारियों को ग्रैचुइटी का अधिकार भी प्राप्त हुआ। परंतु श्रमिकों पर हमले जारी हैं। पहले 100 से अधिक श्रमिक वाले उद्योगों को लेऑफ और बंदी के लिए सरकार से अनुमति लेनी पड़ती थी। अब यह सीमा बढ़ाकर 300 श्रमिक कर दिया गया है। तो मोदी सरकार ने 74 प्रतिशत उद्योगों को ‘हायर एण्ड फायर’ की छूट दे दी है। इसी तरह 90 प्रतिशत उद्योगों को इंडस्ट्रियल एम्प्लायमेंट (स्टैंडिंग ऑर्डर्स) ऐक्ट (Industrial Employment (Standing Orders) Act, 1946 से मुक्त करके मोदी ने विधिहीन औद्योगिक संबंध शासन को खड़ा कर दिया है। इससे तो अनियंत्रित विस्फोट ही होंगे।’’ एस कुमारस्वामी, राज्य के एक और प्रमुख वामपंथी नेता ने कहा, ‘‘श्रम मंत्रालय को, जैसा कि उसके द्वारा वायदा किया गया था नए औद्योगिक संबंध संहिता के तहत बने नियमों में ट्रेड यूनियन मान्यता के मापदंड भी घोषित करना चाहिये था। पर उसने 30 अक्टूबर को ऐसा नहीं किया। यह सरकार नियम-कानून के हिसाब से चलने वाली सरकार नहीं है।’’

उभरती हुई अर्थव्यवस्थाओं ने तय कर लिया है कि वे वैश्विक आर्थिक शक्तियों के रूप में उभरने के लिए सर्वसत्तावाद की राह पकड़ेंगे। उदाहरण के लिए ब्राज़ील में धुर-दक्षिणपंथी नेता बोल्सोनारो ने इकनॉमिक फ्रीडम ऐक्ट (Economic Freedom Act) के तहत आर्थिक सुधार का रास्ता अपनाया है; इससे वह लेबर कानूनों को सुदृढ़ करना चाहते हैं और पहले भी उन्होंने श्रमिक-विरोधी पेंशन सुधार किये थे। 2017 में और फिर 14 जून 2019 को 4.5 करोड़ ब्राज़ीली श्रमिक इन श्रम सुधारों के खिलाफ आम हड़ताल पर गए थे। तुर्की में भी एरडोगन, जो मोदी का क्लोन ही माना जा सकता है, ने पहले 2003 में लेबर कानून लागू किया; यह श्रमिक-विरोधी सुधारों का एक समग्र पैकेज है। उसके बाद पुनः श्रमिक विरोधी कदमों की एक झड़ी सी लगा दी। इनके विरुद्ध तुर्की के यूनियन 2013 में आम हड़ताल पर गए और उन्होंने जून 2021 को पुनः आम हड़ताल पर जाने की धमकी दी है; इस बार विच्छेद वेतन में कटौती का मुद्दा प्रमुख होगा। भारत चीन के बाद ब्रिक्स (BRICS) देशों में आर्थिक विकास के मामले में नंबर 2 पर था, पर आज वह श्रम-विरोधी नीतियों के खिलाफ आम हड़तालों के मामले में नंबर 1 पर है। पर एक सकारात्मक पहलू यह भी है कि इन देशों में व्यापक मजदूर प्रतिरोध के साथ-साथ क्रान्तिकारी विक्षोभ भी बढ़ रहा है और वाम तथा वाम-पंथीय (left-of-centre) पार्टियों को बढ़ावा मिल रहा है। उभरती अर्थव्यवस्थाएं बन रही हैं उग्र वर्गीय कार्यवाहियों के रंगमंच, जिसमें भारत का लीड रोल होगा।

 (लेखक श्रम और आर्थिक मामलों के जानकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

 

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