NewsClick

NewsClick
  • English
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • हमारे लेख
  • हमारे वीडियो
search
menu

सदस्यता लें, समर्थन करें

image/svg+xml
  • सारे लेख
  • न्यूज़क्लिक लेख
  • सारे वीडियो
  • न्यूज़क्लिक वीडियो
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • अफ्रीका
  • लैटिन अमेरिका
  • फिलिस्तीन
  • नेपाल
  • पाकिस्तान
  • श्री लंका
  • अमेरिका
  • एशिया के बाकी
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें
सब्सक्राइब करें
हमारा अनुसरण करो Facebook - Newsclick Twitter - Newsclick RSS - Newsclick
close menu
आंदोलन
मज़दूर-किसान
भारत
राजनीति
46 साल पुराने आंदोलन की याद दिला रहा है यह किसान आंदोलन
कुल मिलाकर सरकार की ओर से इस आंदोलन को बदनाम करने की कोशिशें उसी तरह की जा रही हैं, जिस तरह करीब साढ़े चार दशक पहले गुजरात में हुए छात्रों के नवनिर्माण आंदोलन और उसके बाद बिहार तथा देश के अन्य राज्यों में लोकनायक जयप्रकाश नारायण की अगुवाई में हुए आंदोलन को दबाने और बदनाम करने के लिए तत्कालीन सरकारों ने की थी।
अनिल जैन
16 Dec 2020
46 साल पुराने आंदोलन की याद दिला रहा है यह किसान आंदोलन

पिछले छह वर्षों के दौरान यह पहला मौका है जब नरेंद्र मोदी सरकार को किसान आंदोलन के रूप में एक बडी चुनौती से रूबरू होना पड रहा है। हालांकि एक साल पहले इसी दिसंबर महीने में नागरिकता संशोधन कानून और प्रस्तावित राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (एनआरसी) के खिलाफ भी व्यापक आंदोलन खडा हो गया था, लेकिन वह कोरोना संक्रमण के चलते थम गया था। हालांकि कोरोना का संकट तो अभी कायम है लेकिन किसानों का मानना है कि नए कृषि कानूनों की तुलना में कोरोना का खतरा कुछ भी नहीं है।

सरकार को भी इस बात एहसास है कि किसान आंदोलन उसके लिए एक बडी चुनौती बन गया है। इसीलिए वह एक ओर जहां किसानों से संवाद करते दिखना भी चाह रही है, और दूसरी ओर सरकार और सत्तारूढ दल के नेता किसान आंदोलन को देश विरोधी बताने से भी बाज नहीं आ रहे हैं। आंदोलन को तरह-तरह से बदनाम करने, उसमें फूट डालने और किसानों को हिंसा के लिए उकसाने की तमाम सरकारी कोशिशें भी नाकाम हो चुकी हैं। किसानों का पूरा आंदोलन अहिंसक और अराजनीतिक है।

सरकार की ओर से पहले कहा गया कि यह तो सिर्फ पंजाब के खाए-अघाए किसानों का आंदोलन है। इसीलिए इसे खालिस्तान समर्थकों का आंदोलन भी बता गया और सोशल मीडिया पर अभी भी बताया जा रहा है। यह सही है कि इस आंदोलन की पहल पंजाब से हुई है लेकिन जब इसमें हरियाणा, उत्तर प्रदेश, राजस्थान, मध्य प्रदेश आदि राज्यों के किसान भी जुड गए तो कहा गया कि इस आंदोलन को पाकिस्तान से फंडिंग हो रही है। आंदोलन में शामिल किसानों के सोने-बैठने लिए जब दिल्ली में सिंघु बार्डर के आसपास की मस्जिदें खोल दी गई तो उस पर भी सवाल उठाया गया कि इसमें मुसलमान क्यों शामिल हैं? मानो मुसलमान इस देश के नागरिक नहीं हैं। चूंकि इस आंदोलन का समर्थन वे तमाम समूह भी कर रहे हैं, जिन्होंने एक साल पहले नागरिकता संशोधन कानून और एनआरसी के विरोध में आंदोलन किया था, इसलिए इस पर भी सवाल उठाया जा रहा है कि उनका किसानों से क्या लेना देना?

इस सारे दुष्प्रचार को बेअसर होता देख अब कहा जा रहा है कि इस आंदोलन पर माओवादियों ने कब्जा कर लिया है। आंदोलन को बदनाम करने में मीडिया का भी एक बडा हिस्सा सरकार की मदद में जुटा हुआ है। टीवी चैनलों और अखबारों में आंदोलन के खिलाफ और सरकार के समर्थन में फर्जी खबरें चलाई जा रही हैं।

कुल मिलाकर सरकार की ओर से इस आंदोलन को बदनाम करने की कोशिशें उसी तरह की जा रही हैं, जिस तरह करीब साढ़े चार दशक पहले गुजरात में हुए छात्रों के नवनिर्माण आंदोलन और उसके बाद बिहार तथा देश के अन्य राज्यों में लोकनायक जयप्रकाश नारायण की अगुवाई में हुए आंदोलन को दबाने और बदनाम करने के लिए तत्कालीन सरकारों ने की थी।

गुजरात और बिहार के उन छात्र आंदोलनों ने तत्कालीन इंदिरा गांधी सरकार की चूलें हिला दी थीं। वे आंदोलन भी आज के जैसे माहौल के चलते ही शुरू हुए थे। बात पूरे 46 वर्ष पुरानी है। यही दिसंबर का महीना था। गुजरात में मोरबी के एलडी इंजीनियरिग कॉलेज के छात्रो को जैसे ही पता चला कि हॉस्टल के मैस की फीस में 20 फीसद की बढोतरी कर दी गई है, वे भड़क उठे। उन्होंने इस फीस बढ़ोतरी के खिलाफ मोर्चा खोल दिया। शुरुआती दौर में उनका विरोध कॉलेज कैंपस तक सीमित रहा लेकिन जब विश्वविद्यालय प्रशासन ने उनके विरोध को सिरे से नजरअंदाज किया तो छात्र कैंपस से बाहर सड़कों पर आ गए।

किसी एक मुद्दे को लेकर सरकार के खिलाफ किसी एक समूह के आंदोलन से कैसे दूसरे महत्वपूर्ण मुद्दे और समूह भी जुड़ते जाते हैं और वह आंदोलन व्यापक रूप ले लेता है, यह गुजरात के छात्र आंदोलन में देखा जा सकता है। गुजरात के छात्रों का आंदोलन जब कॉलेज से कैंपस से बाहर निकल कर सडकों पर आ गया तो महंगाई और भ्रष्टाचार से त्रस्त आम जनता भी उनके आंदोलन से जुड़ गई। देखते ही देखते वह आंदोलन पूरे गुजरात में फैल गया। इसलिए कहा जा सकता है कि गुजरात आंदोलन की तरह अगर मौजूदा किसान आंदोलन से भी आम लोगों के अन्य मुद्दे या अन्य आंदोलनकारी समूह जुड़ रहे हैं और आंदोलन व्यापक हो रहा है तो इसमें कुछ भी नया और आपत्तिजनक नहीं है।

गुजरात के उस छात्र आंदोलन को भी मोरारजी देसाई की कांग्रेस (संगठन), सोशलिस्ट पार्टी, भारतीय लोकदल और जनसंघ (आज की भाजपा) जैसी पार्टियों और अन्य नागरिक समूहों का समर्थन मिल गया था, जिससे उसने व्यापक रूप ले लिया था। छात्रों के आग्रह पर आंदोलन का समर्थन करने के लिए जेपी भी बिहार से गुजरात आ गए थे। विपक्ष के ज्यादातर विधायकों ने गुजरात विधानसभा से इस्तीफ़े दे दिए थे। राज्य के तमाम मजदूर संगठन भी आंदोलन मे शामिल हो गए थे। पूरे प्रदेश भर में जगह-जगह राज्य सरकार के खिलाफ प्रदर्शन होने लगे थे।

चिमनभाई पटेल राज्य के मुख्यमंत्री थे। उनकी सरकार पर और खुद उन पर भी भ्रष्टाचार के कई आरोप थे। आंदोलन की लपटें दिल्ली तक पहुंची गईं। संसद का घेराव किया गया। प्रदर्शनकारियों को गिरफ्तार कर तिहाड़ जेल भेजा गया। कुल 73 दिन तक चले आंदोलन का बलपूर्वक दमन भी हुआ। लेकिन आखिरकार तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को झुकना पडा। चिमनभाई पटेल की सरकार बर्खास्त कर गुजरात विधानसभा निलंबित कर दी गई। राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू कर दिया गया। बाद में विधानसभा के चुनाव हुए जिसमें कांग्रेस की बुरी तरह हार हुई।

अभी गुजरात आंदोलन की आग ठंडी भी नही पड़ी थी कि बिहार में तत्कालीन सरकार के भ्रष्टाचार और हॉस्टल की फीस बढाने के विरोध में छात्रों का आंदोलन शुरू हो गया। पटना से शुरू हुआ आंदोलन देखते-देखते ही पूरे बिहार में फैल गया। छात्रों ने जयप्रकाश नारायण से आंदोलन की अगुवाई करने का अनुरोध किया। जेपी इस शर्त पर तैयार हुए कि आंदोलन के दौरान छात्र किसी भी तरह की हिंसक कार्रवाई नहीं करेंगे। जैसे कि इस किसान आंदोलन के नेताओं ने भी शुरू में ही कह दिया है कि पुलिस हम पर पानी की बौछार डाले या लाठी-गोली चलाए, हमारी ओर से कोई हिंसक प्रतिक्रिया नहीं की जाएगी।

'हमला चाहे जैसा होगा, हाथ हमारा नहीं उठेगा’, 'लाठी गोली सेंट्रल जेल, जालिमों का अंतिम खेल’, 'दम है कितना दमन में तेरे, देखा है और देखंगे-कितनी ऊंची जेल तुम्हारी, देखी है और देखेंगे’....जेपी आंदोलन के मुख्य नारे थे। जेपी के नेतृत्व संभालते ही आंदोलन बिहार के बाहर देश के दूसरे हिस्सों में भी शुरू हो गया।

जिस तरह आज मोदी सरकार के मंत्री और भाजपा शासित राज्यों के मुख्यमंत्री किसान आंदोलन को खालिस्तान, पाकिस्तान और माओवादियों से जोड़ कर उसे देश विरोधी बता रहे हैं, जिस तरह आंदोलन का समर्थन कर रहे विपक्षी दलों को देशद्रोही करार दिया जा रहा है, इसी तरह उस समय इंदिरा गांधी और उनकी सरकार के मंत्री भी उस आंदोलन को देश विरोधी साजिश और जेपी समेत तमाम विपक्षी नेताओं पर सीआईए के हाथों खेलने का आरोप लगाया करते थे। मौजूदा प्रधानमंत्री मोदी तो कई मौकों विपक्षी दलों और नेताओं को देशद्रोही करार दे चुके हैं। याद कीजिए, तीन साल पहले गुजरात विधानसभा चुनाव के दौरान तो उन्होंने पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और कांग्रेस के कुछ अन्य नेताओं पर तो यह आरोप भी लगा दिया था कि वे पाकिस्तानी नेताओं के साथ बैठक करके भाजपा को हराने की साजिश रच रहे हैं।

जिस तरह इस समय फर्जी और भाजपा समर्थक कागजी किसान संगठनों से कृषि कानूनों के समर्थन में बयान दिलवाए जा रहे हैं। जिस तरह प्रधानमंत्री मोदी देशभर में घूम-घूम कर अपने समर्थक वर्गों के बीच किसानों-असंतोष के प्रति उपेक्षा और हिकारत भरे भाषण दे रहे हैं। जिस तरह वे विपक्षी दलों पर किसानों को गुमराह करने का हास्यास्पद आरोप लगा रहे हैं। यह सब भी 46 साल पुराने आंदोलन की याद दिला रहा है। उस समय भी छात्रों और नौजवानों के आंदोलन को लेकर तत्कालीन कांग्रेस सरकार का यही रवैया था। उस समय भी अलग-अलग वर्गों के प्रायोजित समूहों को प्रधानमंत्री निवास पर बुलाया जाता था, यह बताने के लिए कि देश का जनमत सरकार के साथ है।

आखिरकार जेपी के नेतृत्व में चले उस आंदोलन से निबटने के लिए तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को आपातकाल का सहारा लेना पडा। आपातकाल के पूरे 21 महीने बाद उस आंदोलन की परिणति इंदिरा गांधी और कांग्रेस की हुकूमत के पतन के रूप में हुई थी।

आपातकाल कोई आकस्मिक परिघटना नहीं थी, बल्कि सत्ता के अतिकेंद्रीयकरण, निरंकुशता, व्यक्ति-पूजा और चाटुकारिता की निरंतर बढती गई प्रवृत्ति का ही परिणाम थी। आज फिर वैसा ही नजारा दिख रहा है। संसद, चुनाव आयोग और बहुत हद तक न्यायपलिका जैसी संस्थाएं भी सरकार को ही अपना सरपरस्त मान बैठी हैं। केंद्रीय मंत्रिपरिषद और संसद की समितियों का कोई मतलब नहीं रह गया है। सारे फैसले सिर्फ एक व्यक्ति यानी प्रधानमंत्री के स्तर पर हो रहे हैं। चूंकि विपक्ष को देशद्रोही करार दिया चुका है, लिहाजा उससे सलाह-मशविरा करने का तो सवाल ही नहीं उठता।

आपातकाल को जनता के मौलिक अधिकारों, मीडिया की आजादी के अपहरण, विपक्षी दलों के क्रूरतापूर्वक दमन के साथ ही संसद, न्यायपालिका, कार्यपालिका समेत तमाम संवैधानिक संस्थाओं के मानमर्दन के लिए ही नहीं, बल्कि घनघोर व्यक्ति-पूजा और चापलूसी के लिए भी याद किया जाता है। सवाल है कि क्या आपातकाल को दोहराने का खतरा अभी भी बना हुआ है?

जून 2015 में आपातकाल के चार दशक पूरे होने के मौके पर उस पूरे कालखंड को शिद्दत से याद करते हुए भाजपा के वरिष्ठ नेता और देश के पूर्व उप प्रधानमंत्री लालकृष्ण आडवाणी ने देश मे फिर आपातकाल जैसे हालात पैदा होने का अंदेशा जताया था। उन्होंने एक अंग्रेजी अखबार को दिए साक्षात्कार में देश को आगाह किया था कि लोकतंत्र को कुचलने में सक्षम ताकतें आज पहले से भी ज्यादा ताकतवर है, इसलिए पूरे विश्वास के साथ नहीं कहा जा सकता कि आपातकाल जैसी घटना फिर नहीं दोहराई जा सकती। आडवाणी का यह बयान यद्यपि पांच वर्ष पुराना है लेकिन इसकी प्रासंगिकता तब से कहीं ज्यादा अब महसूस हो रही है।

पहले नागरिकता संशोधन कानून और एनआरसी जैसे सरकार के असंवैधानिक और विभाजनकारी फैसले और अब किसानों और खेती को चंद कॉरपोरेट घरानों का बंधक बना देने वाले नए कानून....साथ ही चौपट हो चुकी अर्थव्यवस्था के बीच मुनाफा कमा रही तमाम सरकारी कंपनियों और सेवाओं को धड़ल्ले से चंद कॉरपोरेट घरानों को सौंपने का सिलसिला तथा सरकार और संगठन के स्तर पर सांप्रदायिक और जातीय नफरत फैलाने का व्यापक अभियान। इस सबके विरोध में उठ रही असहमति की हर आवाज का निर्ममतापूर्वक दमन और इस सब पर न्यायपालिका की चुप्पी या सरकार का समर्थन। कुल मिलाकर पूरा परिदृश्य साफ बता रहा है कि देश एक बडे और गंभीर संकट की ओर बढ़ रहा है।

भरोसा रखने वाली बात यही है कि विपक्ष के निस्तेज होने के बावजूद सरकार के मंसूबों का प्रतिकार करने के लिए जनता के बीच सुगबुगाहट तेज हो रही है। किसान आंदोलन को इसी रूप में देखा जा सकता है। किसान खुद को और अपनी खेती को बचाने के लिए निर्णायक संघर्ष का इरादा जता चुके हैं और उन्हें अन्य नागरिक समूहों का भी समर्थन मिल रहा है।

(लेखक वरिष्ठ स्वतंत्र पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

farmers protest
civil society
Solidarity to Farmers Protest
Farm Laws
Delhi
BJP

Related Stories

मुंडका अग्निकांड: 'दोषी मालिक, अधिकारियों को सजा दो'

मुंडका अग्निकांड: ट्रेड यूनियनों का दिल्ली में प्रदर्शन, CM केजरीवाल से की मुआवज़ा बढ़ाने की मांग

मूसेवाला की हत्या को लेकर ग्रामीणों ने किया प्रदर्शन, कांग्रेस ने इसे ‘राजनीतिक हत्या’ बताया

बिहार : नीतीश सरकार के ‘बुलडोज़र राज’ के खिलाफ गरीबों ने खोला मोर्चा!   

जन-संगठनों और नागरिक समाज का उभरता प्रतिरोध लोकतन्त्र के लिये शुभ है

आशा कार्यकर्ताओं को मिला 'ग्लोबल हेल्थ लीडर्स अवार्ड’  लेकिन उचित वेतन कब मिलेगा?

दिल्ली : फ़िलिस्तीनी पत्रकार शिरीन की हत्या के ख़िलाफ़ ऑल इंडिया पीस एंड सॉलिडेरिटी ऑर्गेनाइज़ेशन का प्रदर्शन

दिल्ली : पांच महीने से वेतन व पेंशन न मिलने से आर्थिक तंगी से जूझ रहे शिक्षकों ने किया प्रदर्शन

राम सेना और बजरंग दल को आतंकी संगठन घोषित करने की किसान संगठनों की मांग

आईपीओ लॉन्च के विरोध में एलआईसी कर्मचारियों ने की हड़ताल


बाकी खबरें

  • न्यूज़क्लिक रिपोर्ट
    दिल्ली उच्च न्यायालय ने क़ुतुब मीनार परिसर के पास मस्जिद में नमाज़ रोकने के ख़िलाफ़ याचिका को तत्काल सूचीबद्ध करने से इनकार किया
    06 Jun 2022
    वक्फ की ओर से प्रस्तुत अधिवक्ता ने कोर्ट को बताया कि यह एक जीवंत मस्जिद है, जो कि एक राजपत्रित वक्फ संपत्ति भी है, जहां लोग नियमित रूप से नमाज अदा कर रहे थे। हालांकि, अचानक 15 मई को भारतीय पुरातत्व…
  • भाषा
    उत्तरकाशी हादसा: मध्य प्रदेश के 26 श्रद्धालुओं की मौत,  वायुसेना के विमान से पहुंचाए जाएंगे मृतकों के शव
    06 Jun 2022
    घटनास्थल का निरीक्षण करने के बाद शिवराज ने कहा कि मृतकों के शव जल्दी उनके घर पहुंचाने के लिए उन्होंने रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह से वायुसेना का विमान उपलब्ध कराने का अनुरोध किया था, जो स्वीकार कर लिया…
  • न्यूज़क्लिक रिपोर्ट
    आजमगढ़ उप-चुनाव: भाजपा के निरहुआ के सामने होंगे धर्मेंद्र यादव
    06 Jun 2022
    23 जून को उपचुनाव होने हैं, ऐसे में तमाम नामों की अटकलों के बाद समाजवादी पार्टी ने धर्मेंद्र यादव पर फाइनल मुहर लगा दी है। वहीं धर्मेंद्र के सामने भोजपुरी सुपरस्टार भाजपा के टिकट पर मैदान में हैं।
  • भाषा
    ब्रिटेन के प्रधानमंत्री जॉनसन ‘पार्टीगेट’ मामले को लेकर अविश्वास प्रस्ताव का करेंगे सामना
    06 Jun 2022
    समिति द्वारा प्राप्त अविश्वास संबंधी पत्रों के प्रभारी सर ग्राहम ब्रैडी ने बताया कि ‘टोरी’ संसदीय दल के 54 सांसद (15 प्रतिशत) इसकी मांग कर रहे हैं और सोमवार शाम ‘हाउस ऑफ कॉमन्स’ में इसे रखा जाएगा।
  • न्यूज़क्लिक रिपोर्ट
    कोरोना अपडेट: देश में कोरोना ने फिर पकड़ी रफ़्तार, 24 घंटों में 4,518 दर्ज़ किए गए 
    06 Jun 2022
    देश में कोरोना के मामलों में आज क़रीब 6 फ़ीसदी की बढ़ोतरी हुई है और क़रीब ढाई महीने बाद एक्टिव मामलों की संख्या बढ़कर 25 हज़ार से ज़्यादा 25,782 हो गयी है।
  • Load More
सब्सक्राइब करें
हमसे जुडे
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें

CC BY-NC-ND This work is licensed under a Creative Commons Attribution-NonCommercial-NoDerivatives 4.0 International License