अभी हाल ही में मुख्य न्यायाधीश जी ने बहस ना होने पर चिंता जताई है। उन्होंने कहा है कि देश में कानून बिना बहस के बनाए जा रहे हैं। उनका कहना था कि बिना बहस के बनाए जा रहे कानूनों की वजह से जो कानून बन रहे हैं उनमें कई कमियां रह जाती हैं।
लेकिन हमारे सरकार जी, वे बिल्कुल भी बहस नहीं चाहते हैं। वह सिर्फ और सिर्फ चुपचाप, बिना बहस के, बिना संशोधन के बिल पास कराना चाहते हैं। जैसा बिल वे सदन में लाएं, वैसे का वैसा बिल पास करवाना चाहते हैं। सरकार जी नहीं चाहते हैं कि बिल पर बहस हो, उसकी कमियां सामने आएं, और उसमें कोई सुधार हो और बिल सुधार के बाद ही पास हो, कानून बने।

यह जो बहस की संस्कृति है, हमारी संस्कृति नहीं है। बड़ों से बहस करना हमारे यहां नहीं होता है। बड़ों से बहस करने को हम शुरू से ही बुरा मानते हैं। बचपन से ही हमें सिखाया जाता है की बड़ों से बहस मत करो और उनका कहा मान लो। अब सरकार जी भी इतने बड़े तो हो ही गए हैं उनसे बहस ना की जाए। चार साल बाद वे भी पिचहतर वर्ष के हो जायेंगे, मार्गदर्शक मंडल में शामिल हो जाएंगे। कम से कम चार साल तक तो उनकी बात मान ही सकते हैं। चार वर्ष बाद उनकी बात तो न कोई सुनेगा और न ही कोई मानेगा। वे तो मन की बात कहने के काबिल भी नहीं रहेंगे। तो इसलिए वे चाहते हैं कि अभी तो उनकी बात बिना बहस के मान लेनी चाहिए।
बुजुर्गों से बहस मत करो। बुजुर्गों से बहस नहीं की जाती है। हम बचपन से यही सीखते आ रहे हैं। इसलिए भी संसद में बहस हरगिज़ नहीं होनी चाहिए। आखिर संसद में आमतौर पर बुजुर्ग ही बैठे हुए हैं। गिनती के ही सांसद हैं जो बुजुर्ग नहीं है अन्यथा सभी बुजुर्ग हैं। और राज्यसभा में तो बहस होनी ही नहीं चाहिए। वहां तो सिर्फ और सिर्फ बुजुर्ग ही बैठे हैं। इसीलिए तो उसे वरिष्ठों (बुजुर्गों) का सदन (हाउस ऑफ एल्डर्स) कहा जाता है। इसलिए सरकार जी से थोड़ी बहुत जो बहस करनी है, लोक-सभा में कर लो, वहां ईट का जवाब पत्थर से दे देंगे। पर राज्य-सभा में बहस, यह सरकार जी को बिल्कुल भी पसंद नहीं है।
ऐसा नहीं है कि सरकार जी बहस के पक्ष में नहीं हैं। जितनी बहस करनी है, जहां करनी है, कर लो, लेकिन सरकार जी के मन मुताबिक विषय पर करो। हिंदू मुस्लिम पर बहस कर लो, मंदिर मस्जिद पर बहस कर लो, शमशान कब्रिस्तान पर बहस कर लो, पाकिस्तान पर बहस कर लो। संसद में कर लो या संसद के बाहर कर लो, चुनावों में कर लो या टीवी पर कर लो, सरकार जी और उनके बंदे कहीं भी तैयार हैं। पर भारत पर बहस बिल्कुल भी मत करो। पर यह बिलों पर बहस बिल्कुल भी मत करो। जनता की परेशानियों पर बहस बिल्कुल भी मत करो। यह विपक्ष भले ही चाहता हो, पर सरकार जी को यह बेकार की बहसें बिल्कुल भी पसंद नहीं है।
विपक्ष चाहता है, बेरोजगारी पर बहस करें। बेरोजगारी तो बुरी चीज है ही, उस पर बहस क्या करनी। विपक्ष चाहता है, जासूसी कांड पर बहस करें। जासूसी, और वह भी अपने ही नागरिकों की, बहुत बुरी चीज है, तो उस पर भी बहस करना फिजूल है। विपक्ष चाहता है, किसानों के मुद्दे पर बहस हो, पर सरकार जी बहस नहीं, काम चाहते हैं। इसीलिए तीनों किसान बिल चुपचाप पास कर दिये हैं। हैं न! न कोई बहस, न कोई मतदान। बस ध्वनिमत से पारित कर दिये।
ये जो लोग बात बात पर बहस की मांग करते हैं, संसद को बहस का अखाड़ा बनाना चाहते हैं, ये नहीं जानते हैं कि वे जनता का कितना पैसा बर्बाद कर रहे हैं। जनता का पैसा बर्बाद करने का काम सिर्फ और सिर्फ सरकार का है विपक्ष का नहीं। सरकार जी विपक्ष को सिखाने के लिए उन्हें मार्शलों से पिटवा सकते हैं, सदन से निष्कासित/निलंबित करवा सकते हैं या फिर दोनों काम करवा सकते हैं। ये जो दोनों सदनों के सभापति हैं न, जो ठीक होता है वही करते हैं और ठीक वही होता है जो सरकार जी ठीक समझते हैं।
सरकार जी जानते हैं और समझते हैं कि ये बहस, ये विचार विमर्श, ये चर्चायें, ये सब जी का जंजाल हैं। ये हरगिज़ नहीं होनी चाहियें, लेकिन कब तक, तब तक ही जब तक सरकार जी की सरकार है, सरकार जी की पार्टी की सरकार है। और ये सब कुछ तब अवश्य ही होना चाहिए जब सरकार जी की पार्टी विपक्ष में हो। ऐसा सरकार जी मानते हैंं, उनकी पार्टी मानती है। आप अगर चाहते हो कि आपके लिए बनने वाले कानूनों पर, संसद में बिल पारित होने से पहले बहस हो, उन पर विचार विमर्श किया जाए, आपकी समस्याओं को लेकर सदन में चर्चा हो तो आप कहां होने चाहिएं, आप स्वयं ही समझदार हैं।