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भारत
राजनीति
तिरछी नज़र : ‘मुंबई’ में ‘बालाकोट’!
‘बालाकोट’ की तर्ज पर प्रधानमंत्री जी ने रात भर जाग कर ऑपरेशन ‘मुंबई’ का संचालन किया, लेकिन...
डॉ. द्रोण कुमार शर्मा
01 Dec 2019
Maharastra politics
फाइल फोटो। साभार : infinityi

महाराष्ट्र में चुनाव हुए और बहुत धूम धाम से हुए। सावरकर का नाम लेकर हुए। सावरकर को भारत रत्न दिलाने के लिए हुए। विरोधियों को बदनाम करते हुए हुए। खूब पैसा खर्च करके हुए, और बहुत खूब हुए।

जब चुनाव हुए तो परिणाम आना ही था और आया भी। विरोधियों को धूल भी चटाई गई। पर कहीं न कहीं कोई बात रह गई। या तो चुनाव से पहले का वायदा पूरा नहीं हुआ या फिर चुनाव से पहले कोई वायदा हुआ ही नहीं था। सच क्या है, यह तो जय श्रीराम ही जानते हैं। हम वोटर क्या जानें।
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हम वोटर तो सिर्फ वोट देने के लिए ही बने हैं। जब हम वोट डालते हैं तो कोई एक विधायक बनता है। फिर जब विधायक बनते हैं तो सरकार भी बनती है। हम सब यह सोच सोच कर खुश होते हैं कि हम विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र में रहते हैं और अपने वोट से सरकार बनाते हैं। पर हम बस वोट देते हैं और गलतफहमी पाले रहते हैं कि सरकार हम बना रहे हैं। पर सरकार तो असलियत में विधायक बना रहे होते हैं।

हमें बताया जाता है कि हमारा वोट बहुत ही कीमती है, बहुमूल्य है। इसे सोच कर इस्तेमाल करना चाहिए। पर इस वोट का वास्तविक मूल्य हमें तब पता चलता है जब हमारे वोट से चुने गये विधायक की कीमत लगती है। सुना जाता है कि इस बार महाराष्ट्र में एक एक विधायक की कीमत अस्सी करोड़ रुपये से सौ करोड़ रुपये तक लगी। यानी यदि एक विधायक जिसे पचास हजार वोट मिले हों, और अगर वह सौ करोड़ रुपये में बिकता है तो एक वोट की कीमत हुई बीस हजार रुपये। हमारे द्वारा चुने गए विधायक का बिकना एक तरह से हमारे वोट का ही सम्मान है।

हमारे वोट की कीमत अधिक बढ़े, इसके लिए जरूरी है कि विधायक अधिक से अधिक कीमत में बिकें। जितनी अधिक कीमत में कोई विधायक बिकेगा, उसको मिलने वाले वोट की कीमत भी उतनी ही अधिक होगी। आज भी जो वोटर हारने वाले प्रत्याशी को वोट देते हैं, वह यह कहते हुए देखा जाता है कि उनका वोट तो बेकार गया। वह ऐसा इसलिए कहता हैं क्योंकि उसे पता है कि हारे हुए प्रत्याशी की कोई कीमत नहीं होती है, उनकी कोई बोली नहीं लगाता है।

हमारी कोशिश होनी चाहिए कि हमारे द्वारा चुने गए विधायक को उसकी कीमत अधिक से अधिक मिले। इसलिए हमें ऐसा विधायक चुनना चाहिए जो भरे बाजार में भी बिकने के लिए तैयार हो। हमारे द्वारा चुने गए विधायक को अपनी कीमत लगवाने, बढ़वाने और, और अधिक बढ़वाने की कला आती हो। हमें दल भी ऐसा चुनना चाहिए जो विधायकों की अधिक से अधिक कीमत दे सके। वह दल ऐसा हो जिसके पास पहले से ही बहुत पैसा हो और जिसे अभी और भी बहुत सा डोनेशन मिल रहा हो। पहले कांग्रेस ऐसा दल होती थी, अब भाजपा है। तो आजकल हमारे वोट की कीमत बढ़ाने का सारा दारोमदार भाजपा पर है। हमारे विधायक की वह जितनी कीमत लगायेगी, हमारे वोट की कीमत उतनी ही बढ़ेगी।

भाजपा इस कसौटी पर खरी उतरती है। महाराष्ट्र में भाजपा ने विधायकों की दिल खोल कर कीमत लगाई। देश पर शासन करने के लिए हमें ऐसी ही दिलदार पार्टी चाहिए। ऐसी दिलदार, दमदार, बेहिचक और बेझिझक पार्टी, जो विधायकों को अधिक से अधिक कीमत देकर खरीद सके। पर विधायक खरीदने से पहले भी बहुत सारी कवायद करनी पड़ती हैं, और पार्टी को उस क्षेत्र में भी मजबूत होना चाहिये। "मुम्बई" में तो जो हुआ, उससे ऐसा लगा जैसे महाराष्ट्र में भी सर्जिकल स्ट्राइक करनी पड़ी हो। "मुम्बई" में "बालाकोट" करना पड़ा।

‘बालाकोट’ की तर्ज पर प्रधानमंत्री जी ने रात भर जाग कर ऑपरेशन ‘मुंबई’ का संचालन किया। राष्ट्रपति महोदय भी जागते रहे। अमित शाह जागते रहे और राजपाल कोश्यारी भी जागते रहे। भावी मुख्यमंत्री देवेन्द्र फडणवीस जागते रहे, तो अजित पवार भी जागते रहे। और भी बहुत सारे लोगों ने रात्रि जागरण किया। सरकार के इतने सारे लोगों ने मिलकर, रात भर जाग कर "बालाकोट" की तर्ज पर आपरेशन "मुम्बई" किया पर वह भी फुस्स ही निकला।

असफल रह कर भी 'बालाकोट' मोदी जी के लिए तो सफल ही रहा था। "बालाकोट' के बाद मोदी जी वोटरों को विश्वास दिला सके कि जो कुछ किया, ठीक किया और अपनी सरकार बना सके, पूर्ण बहुमत से बना सके। पर "मुम्बई" के बाद तो यह भी नहीं हुआ। न वोटरों का विश्वास मिला और न सरकार बनी। आपरेशन "मुम्बई" टांय टांय फुस्स निकला। और हासिल हुआ निल बटे सन्नाटा।

हासिल भले ही कुछ हो या न हो, पर भाजपा यह सब किसी स्वार्थ वश नहीं करती है। यह तो वह उन राज्यों के निवासियों के भले के लिए ही करती है। जिन राज्यों में भोले भाले वोटर्स विपक्षी दलों की बातों के बहकावे में आकर उन पार्टियों की सरकार बनवा देते हैं,  उन राज्यों का विकास ढंग से नहीं हो पाता है। अब जहां विपक्षी दलों की सरकार हो और केंद्र उनको उनका पैसा न दे तो नुकसान तो राज्य की जनता का ही होगा न। हाल ही में खबर आई है कि केंद्र सरकार ने पांच राज्यों का जीएसटी का शेयर रोक रखा है और वे पांचों राज्य में विपक्षी दलों की सरकार है। सरकारों का क्या जाता है, चाहे सरकार केंद्र की हो या राज्य की। जाता तो जनता का है। सफर तो जनता ही करती है।

राज्यों में भाजपा की सरकार बने इसलिए राज्यपाल भी भाजपा को बहुमत सिद्ध करने के लिए मुंहमांगा वक्त दे देते हैं। इससे भाजपा घोड़े खरीद (हार्स ट्रेडिंग) कर अपना बहुमत साबित कर सकती है। वैसे घोड़े खरीदने से बहुमत कैसे सिद्ध होता है यह समझ से परे है। अलबत्ता गधे खरीदने से बहुमत अवश्य सिद्ध किया जा सकता है। पर शायद हार्स ट्रेडिंग इस लिए कहते हैं क्योंकि एस ट्रेडिंग से एक गलत अर्थ भी जाता है, पर होती तो असलियत में एस ट्रेडिंग ही है।

अब समय आ गया है कि इस एस ट्रेडिंग को संविधान सम्मत बना दिया जाये। इससे राज्यों में केंद्र समर्थित, विकासोन्मुख सरकार बन सकेगी और साथ ही विधायक ऊंची कीमत में बिक सकेंगे जिससे हमारे वोट का मूल्य भी बढ़ेगा।

(लेखक पेशे से चिकित्सक हैं।)

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