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भारत
राजनीति
क्या कुछ ख़ास है न्यायाधिकरण सुधार विधयेक, 2021 में?
संसद के दोनों सदनों द्वारा पारित हो चुके न्यायाधिकरण सुधार विधेयक, 2021 के प्रमुख प्रावधानों की पड़ताल।
विनीत भल्ला, कुदरत मान
12 Aug 2021
Parliament

न्यायाधिकरण सुधार विधेयक, 2021 जिसे संसद की दोनों सदन द्वारा पारित किया जा चुका है, उसके प्रमुख प्रावधानों की पड़ताल करते हुए विनीत भल्ला और कुदरत मान बता रहे हैं कि कैसे यह विधेयक प्रशासन एवं न्यायाधिकरणों के सुधार के मुद्दे पर, जिसकी 2017 से शुरुआत हुई थी, केंद्र सरकार और सर्वोच्च न्यायलय के बीच संघर्ष में एक और नया कदम है।

लोकसभा और राज्यसभा ने हाल ही में न्यायाधिकरण सुधार विधेयक, 2021 को दोनों सदनों में विपक्षी दलों के सदस्यों के द्वारा कृषि कानूनों, पेगासस प्रोजेक्ट के खुलासों एवं अर्थव्यवस्था की लड़खड़ाती स्थिति को लेकर जारी हंगामे के बीच पारित कर दिया है। विधेयक के लोकसभा में बिना किसी चर्चा के ध्वनिमत से पारित किये जाने पर विपक्ष ने भी अपनी नाराजगी जताई है।

विधेयक, न्यायाधिकरण सुधार (युक्तिकरण एवं सेवा की शर्तों) अध्यादेश, 2021 (अध्यादेश) को स्थानापन्न करता है, जिसे इस वर्ष 4 अप्रैल को अधिसूचित किया गया था।

अब जब विधेयक राष्ट्रपति की मंजूरी को हासिल करने वाला है और कानून के रूप में अधिनियमित होने के लिए निर्धारित है, इसकी कुछ प्रमुख विशेषताओं को नीचे विश्लेषित किया गया है।

अपीलीय कार्यों का स्थानांतरण 

विधयेक का उद्देश्य कुछ अपीलीय न्यायाधिकरणों को विमुक्त कर उनके कामकाज को अन्य मौजूदा न्यायिक निकायों में स्थानांतरित करने का है। सिनेमाटोग्राफ अधिनियम, 1952; ट्रेड मार्क्स एक्ट, 1999; सीमा शुल्क अधिनियम, 1957; पेटेंट एक्ट, 1970; एवं माल के भोगौलिक संकेत (पंजीकरण एवं संरक्षण) अधिनियम, 1999 को इस कानून के तहत अपीलीय समितियों या न्यायाधिकरणों से उच्च न्यायलयों में स्थानांतरित कर दिया गया है।

वहीँ दूसरी तरफ, राष्ट्रीय राजमार्गों के नियंत्रण (भूमि एवं यातायात) अधिनियम, 2002 के मामले में अपीलीय कार्यों को एक न्यायाधिकरण से सिविल कोर्ट (जिसमें अपने सामान्य मूल नागरिक अधिकार क्षेत्र के प्रयोग में उच्च न्यायालय भी शामिल है) में स्थानांतरित कर दिया गया है। एअरपोर्ट अथोरिटी ऑफ़ इंडिया एक्ट, 1994 के तहत चलने वाले अपीलीय कार्यों को भी विवाद के स्वरुप के आधार पर उनके ट्रिब्यूनल से केंद्र सरकार एवं उच्च न्यायालय को स्थानांतरित कर दिया गया है।

इसी प्रकार, कॉपीराइट एक्ट, 1957 के तहत अपीलीय कार्यों को अपीलीय बोर्ड से वाणिज्यिक अदालतों या उच्च न्यायालय की वाणिज्यिक प्रभाग में निहित किया गया है।

तलाश-सह-चयन समितियां

विधेयक में तलाश-सह-चुनाव समिति के प्रावधान को शामिल किया गया है। विधयेक की धारा 3(7) के मुताबिक, न्यायधिकरणों के अध्यक्ष एवं सदस्यों की नियुक्तियां केंद्र सरकार द्वारा समितियों की सिफारिशों के आधार पर की जायेंगी।

समिति में शामिल होने वालों में (i) भारत के मुख्य न्यायाधीश, या उनके द्वारा नामित सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश, को अध्यक्ष के रूप में (मतदान के अधिकार के साथ), (ii) केंद्र सरकार की ओर से नामित दो सचिव, (iii) मौजूदा या निवर्तमान अध्यक्ष या सर्वोच्च न्यायालय से सेवानिवृत्त एक पूर्व न्यायाधीश, या किसी उच्च न्यायालय के एक सेवानिवृत्त मुख्य न्यायाधीश, एवं (iv) केंद्रीय मंत्रालय के सचिव जिनके तहत न्यायाधिकरण का गठन किया जाना है। हालाँकि बाद वाले के पास मताधिकार का अधिकार नहीं होगा।

केंद्र सरकार को समितियों की सिफारिशों पर अधिकतम तीन महीनों के भीतर कार्रवाई करनी चाहिए।

राज्य प्रशासनिक न्यायाधिकरणों के लिए अलग से खोज-सह-चयन समितियां होंगी। इन समितियों में (i) उस राज्य के उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश को अध्यक्ष के रूप में (मतदान के अधिकार के साथ), (ii) राज्य सरकार के मुख्य सचिव एवं राज्य लोक सेवा आयोग के अध्यक्ष, (iii) पदासीन या निवर्तमान अध्यक्ष या उच्च न्यायालय के एक सेवानिवृत्त न्यायाधीश एवं (iv) राज्य के सामान्य प्रशासनिक विभाग के सचिव या मुख्य सचिव शामिल होंगे। उत्तरार्ध को, एक बार फिर से मताधिकार का कोई अधिकार नहीं होगा।

कार्यकाल

विधेयक की धारा 5 में चार साल के कार्यकाल के प्रवधान को रखा गया है, या जब कार्यालयधारक की उम्र 70 वर्ष (अध्यक्ष के मामले में) और 67 साल (किसी अन्य सदस्य के मामले में), जो भी पहले हो, रखी गई है। इसके अतिरिक्त, अध्यक्ष या किसी सदस्य के लिए पद संभालने की न्यूनतम आयु 50 वर्ष निर्धारित की गई है।

वित्त अधिनियम, 2017 में संशोधन 

वित्त अधिनियम, 2017 का उद्देश्य विभिन्न क्षेत्रों के आधार पर न्यायाधिकरणों को विलय करने का था। इसने केंद्र सरकार को खोज-सह-चयन समितियों की संरचना के लिए, न्यायाधिकरणों के सदस्यों की योग्यता एवं उनकी सेवा के नियमों और शर्तों को तय करने की शक्तियाँ भी दे रखी थीं। 

मौजूदा विधेयक इन प्रावधानों को वित्त अधिनियम से हटा देता है। जैसा कि ऊपर उल्लेख किया गया है, विधेयक अब चयन समितियों की संरचना एवं न्यायाधिकरण के सदस्यों के लिए कार्यकाल को निर्धारित करता है। यह केंद्र सरकार को न्यायाधिकरण के सदस्यों को “योग्यता, नियुक्ति, तनख्वाह एवं अन्य भत्ते, इस्तीफे, पद से हटाने एवं सेवा की अन्य शर्तों के लिए नियमों को बनाने” का अधिकार भी देता है।

उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम, 2019 में संशोधन 

विधेयक, उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम की धारा 55 में उप-धारा 1ए को जोड़ता है, जिसके मुताबिक इसके लागू हो जाने के बाद राष्ट्रीय उपभोक्ता विवाद निवारण आयोग के अध्यक्ष एवं अन्य सदस्यों के सभी सेवा नियम एवं शर्तें, नवगठित न्यायाधिकरण सुधार अधिनियम, 2021 के द्वारा शासित होंगी। 

विधेयक से जुड़े कुछ महत्वपूर्ण मुद्दे 

न्यायाधिकरण असल में अर्ध-न्यायिक निकाय हैं जो विशिष्ट क्षेत्र में अपना कामकाज करते हैं, जिनका कार्य मौजूदा न्यायिक प्रणाली पर पड़ने वाले बोझ को कम करने का है। विधेयक के उद्देश्यों एवं कारणों के विवरण के मुताबिक, विधेयक के जरिये न्यायाधिकरणों को सुव्यवस्थित करने का प्रयास किया जा रहा है, जिससे कि राजकोष पर पड़ने वाले भारी भरकम खर्च को बचाया जा सके और त्वरित न्याय की व्यवस्था की जा सके। 

हालांकि, कुछ न्यायाधिकरणों एवं अपीलीय निकायों के विघटन कर देने से और उनके कामकाज को उच्च न्यायालयों में स्थानांतरित करने की आलोचना इस आधार पर की जा सकती है कि भारतीय अदालतें पहले से ही अपने मौजूदा लंबित मामलों के बोझ तले दबी हुई हैं। उदाहरण के लिए, जून 2021 तक भारत के कई उच्च न्यायलयों में 30 वर्षों से भी अधिक समय से 91,885 मामले लंबित पड़े हैं। 

इसके अतिरिक्त, न्यायाधिकरणों के रूप में अलग से अपीलीय निकायों ने संबंधित क्षेत्र में विशिष्ट ज्ञान को सुनिश्चित किया है। अक्टूबर 2017 में जारी भारत के विधि आयोग की 272वीं रिपोर्ट “भारत में न्यायाधिकरणों के वैधानिक ढांचों का आकलन” शीर्षक के मुताबिक, कतिपय तकनीकी मामलों में, पारंपरिक अदालतों को फैसला लेने के लिए विशेषज्ञ ज्ञान की आवश्यकता पड़ती है। इसके अतिरिक्त, सर्वोच्च न्यायलय ने भी अपने कई फैसलों में (जैसे कि एस.पी. संपत कुमार आदि बनाम भारत सरकार एवं अन्य, 1986 और एल. चन्द्र कुमार बनाम भारत सरकार एवं अन्य, 1997) में उच्च न्यायालयों के वैकल्पिक संस्थान के तौर पर अलग से न्यायाधिकरणों की जरूरत एवं उपयोगिता पर प्रकाश डाला है, ताकि उच्च न्यायालयों के बोझ को कम किया जा सके। 

एक वैकल्पिक दृष्टिकोण यह है कि इन्हीं फैसलों में, सर्वोच्च न्यायालय ने न्यायाधिकरणों से शीर्ष अदालत में प्रत्यक्ष अपीलों की प्रथा की निंदा भी की थी। इस लिहाज से विधेयक को एक स्वागत योग्य बदलाव के तौर पर देखा जा सकता है। 

न्यायाधिकरणों पर केंद्र सरकार और सर्वोच्च न्यायालय के बीच चल रही खींचतान में एक नई कड़ी

केंद्र सरकार ने 2017 के बाद से ही विधायी कार्यक्रमों की एक श्रृंखला के जरिये न्यायाधिकरणों को युक्तिसंगत बनाने की कोशिशों में जुटी है, जिसे वह निरुद्देश्य प्रयोजन के तौर पर देखती है। मार्च 2017 में, यह वित्त अधिनियम, 2017 को लेकर आई, जिसने देश में मौजूद 26 न्यायाधिकरणों की संख्या को घटाकर 19 कर दिया और सरकार को इस बात का अधिकार दिया कि वह न्यायाधिकरण के सदस्यों की सेवा की योग्यता, नियुक्ति, नियमों एवं शर्तों के संबंध में नियम बना सके। जून 2017 में, केंद्र सरकार ने न्यायाधिकरण, अपीलीय न्यायाधिकरण एवं अन्य प्राधिकरणों (सदस्यों की योग्यता, अनुभव एवं अन्य शर्तों एवं सेवा की शर्तों) नियम, 2017 को अधिसूचित किया था। 

इन नियमों को सुप्रीमकोर्ट की पांच न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने रोजर मैथ्यू एवं अन्य बनाम साउथ इंडियन बैंक लिमिटेड एवं अन्य (2019) मामले में ख़ारिज कर दिया था। सर्वोच्च न्यायालय की ओर से यह तर्क पेश किया गया था कि इसके नियम न्यायाधिकरण के सदस्यों के कार्यकाल की संरचना एवं सुरक्षा के मामले में आवश्यक न्यायिक स्वतंत्रता को पूरा नहीं करते हैं। इसके साथ ही साथ खोज-सह-चयन समितियों की संरचना के मामले में, जैसा कि एक अन्य पांच-न्यायाधीशों की संविधान पीठ द्वारा मद्रास बार एसोसिएशन बनाम भारत सरकार (2010) के अपने पूर्व के फैसले में निर्दिष्ट किया गया था।

फरवरी 2020 में, केंद्र सरकार ने नियमों के एक नए सेट को अधिसूचित किया था: जो कि न्यायाधिकरण, अपीलीय न्यायाधिकरण एवं अन्य प्राधिकरणों के (सदस्यों की योग्यता, अनुभव एवं अन्य सेवा शर्तों) नियम, 2020 था। इन्हें एक बार फिर से मद्रास बार एसोसिएशन बनाम भारत सरकार (2020) के मामले में सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष चुनौती दी गई।

पिछले वर्ष 27 नवंबर को दिए गए अपने फैसले में, शीर्षस्थ अदालत ने 2020 के नियमों में कुछ महत्वपूर्ण संशोधनों को सुझाया था, जैसे कि ट्रिब्यूनल के सदस्यों के कार्यालय में कार्यकाल की अवधि को बढ़ाकर पांच साल तक करने, सदस्यों की दोबारा से नियुक्ति की अनुमति देने (अधिकतम आयु सीमा के अधीन), और दस वर्ष के अनुभव वाले वकीलों को न्यायाधिकरणों के भीतर न्यायिक सदस्यों के रूप में नियुक्त करने की अनुमति देता है। 

अदालत ने न्यायाधिकरणों के कामकाज की समीक्षा करने के लिए एक स्वतंत्र निकाय के तौर पर एक राष्ट्रीय न्यायाधिकरण आयोग की स्थापना करने की भी सिफारिश की। 

शीर्ष अदालत के फैसले को पलटने के लिए, केंद्र सरकार ने इस साल फरवरी में न्यायाधिकरण सुधार (युक्तिसंगतता एवं सेवा की शर्तें) विधेयक, 2021 को लोकसभा में पेश किया था। चूँकि संसद के बजट सत्र के दौरान इस विधेयक को पारित नहीं किया जा सका, इसलिए केंद्र सरकार ने अप्रैल में अध्यादेश लाकर इसे जारी कर दिया।

30 जून को, केंद्र सरकार ने 2020 के नियमों में संशोधन करने के लिए न्यायाधिकरण, अपीलीय न्यायाधिकरण एवं अन्य प्राधिकरणों (सदस्यों की योग्यता, अनुभव एवं अन्य सेवा शर्तें) (संशोधन) नियम, 2021 को अधिसूचित किया। संशोधित नियमों में, शीर्ष अदालत के पूर्व में जिक्र किये गए निर्णयों में की गई कुछ सिफारिशों का पालन करते हुए, अधिवक्ताओं को न्यायाधिकरणों में न्यायिक सदस्यों के तौर पर नियुक्ति के लिए पात्र होने के लिए दस वर्षों के प्रासंगिक अनुभव को आधार बनाया गया है और न्यायाधिकरण के सदस्यों के लिए मकान किराया भत्ता पर विवरणों को निर्धारित किया गया है। 

अध्यादेश एवं नियमों को एक बार फिर से सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष चुनौती दी गई। शीर्ष अदालत ने मद्रास बार एसोसिएशन बनाम भारत सरकार एवं अन्य (2021) के अपने फैसले में, अध्यादेश की धारा 12 में चार साल के कार्यकाल से संबंधित प्रावधानों और न्यायाधिकरण के सदस्यों के लिए 50 साल की न्यूनतम आयु की आवश्यकता को ख़ारिज कर दिया।

हालाँकि, मौजूदा विधेयक ने भी न्यूनतम आयु सीमा को 50 वर्ष के लिए और कार्यालय धारकों के लिए चार साल के कार्यकाल को तय किया है। इसके अलावा, इसमें किसी भी प्रस्तावित राष्ट्रीय न्यायाधिकरण आयोग का कोई उल्लेख नहीं किया गया है, जिसकी स्थापना की सिफारिश मद्रास बार एसोसिएशन (2020) में की गई थी।

केंद्र सरकार द्वारा विधयेक के जरिये पिछले तीन वर्षों में तीसरी बार सर्वोच्च न्यायालय को ख़ारिज करने के साथ, इस बात की पूरी संभावना है कि एक बार अधिनियमित हो जाने के बाद, इसे शीर्ष अदालत के समक्ष चुनौती दी जाने वाली है। न्यायाधिकरणों के प्रशासन के संबंध में इस विवादस्पद मामले में अंतिम फैसला किसके पक्ष में जाता है, यह देखा जाना अभी शेष है।

(विनीत भल्ला दिल्ली स्थित वकील एवं द लीफलेट के उप-संपादक हैं। कुदरत मान डॉ. बी.आर. अंबेडकर राष्ट्रीय कानून विश्वविद्यालय, राई में बी.ए. एलएलबी (आनर्स) की तृतीय वर्ष की छात्रा हैं और द लीफलेट में इंटर्न हैं। व्यक्त किये गये विचार व्यक्तिगत हैं।)

साभार: द लीफलेट 

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