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भारत
राजनीति
UAPA: भारत में कानून के राज को तोड़ने का सबसे धारदार हथियार
अगर सरकार चाहें तो UAPA कानून के ज़रिये महज़ आरोप लगाकर लोगों को सालों साल जेल में रख सकती है, जानिए कैसे? 
अजय कुमार
11 Nov 2021
UAPA
Image courtesy : GoNewsIndia

हमारे देश का संविधान कहता है कि राज्य नागरिकों की सुरक्षा के लिए काम करेगा, लेकिन सुरक्षा की आड़ में वह ऐसे कदम नहीं उठाएगा, जिससे व्यक्ति के अधिकार छीन लिए जाएं। कहने का मतलब है कि राज्य और नागरिकों के बीच एक तरह का संतुलन है। और इस संतुलन में व्यक्ति के जीवन के अधिकार को नहीं छीना जा सकता है (अनुच्छेद 21, भारत का संविधान)।

इस संतुलन को बनाने की सबसे अधिक जिम्मेदारी सरकार की होती है। लेकिन मौजूदा सरकार के कई काम इस ओर इशारा करते हैं कि संविधान में लिखे शब्द महज़ शब्द है, उसका सरकार के कामकाज से कोई लेना-देना नहीं। जरा सोच कर देखिए कि उस सरकार की नज़र में संविधान का क्या सम्मान होगा जो महज ट्विटर पर तीन शब्द ' त्रिपुरा इज बर्निंग ' लिखने पर किसी व्यक्ति पर यूएपीए जैसा कठोर कानून लगा दे? क्या उस सरकार की नजर में नागरिक अधिकार और सुरक्षा का सम्मान होगा जो उन्हीं वकीलों पर यूएपीए जैसा कठोर कानून लगा दे जो दंगे से जुड़े फैक्ट फाइंडिंग टीम का हिस्सा हो?

दंगा होना ही एक सभ्य समाज पर कलंक है। लेकिन इससे भी बड़ा कलंक यह है कि दंगे की जांच के नाम पर उन्हें पकड़ कर प्रताड़ित किया जाए जो शांति की बात कर रहे हों। और इसके लिए उस कानून का इस्तेमाल किया जाए, जिस कानून को इस मकसद के साथ रखा गया हो कि इससे नागरिकों को सुरक्षा देने में अधिक मदद मिलेगी।

इस कानून का नाम है विधि विरुद्ध क्रियाकलाप निवारण संशोधन अधिनियम 2019 (UAPA : THE UNLAWFUL ACTIVITIES (PREVENTION) AMENDMENT act, 2019)। इस कानून की वजह से उमर खालिद से लेकर सुधा भारद्वाज, गौतम नवलखा, वरवरा राव और न जाने कितने सिविल राइट्स एक्टिविस्ट को अब तक गिरफ्तार कर उन्हें कारावास में रखा गया है। अब त्रिपुरा पुलिस ने पहले सुप्रीम कोर्ट के 4 वकीलों पर UAPA लगाया। इसके तीन दिन बाद त्रिपुरा पुलिस ने 102 सोशल मीडिया हैंडल के खिलाफ UAPA लगाया। पुलिस का कहना है कि ये ट्विटर हैंडल्स राज्य में हाल ही में मस्जिद पर हुए हमले और झड़प को लेकर गलत न्यूज़ और गलत सूचना फैला रहे थे। भाजपा सरकार यूएपीए जैसे कठोर कानून का जमकर इस्तेमाल कर रही है। 

भाजपा सरकार के दौरान लगाए गए यूएपीए से जुड़े मामलों का पैटर्न देखा जाए तो इसमें राष्ट्रीय सुरक्षा की बजाए समुदायों की आपसी नफरत बढ़ाने का पैटर्न दिखेगा। जहां कहीं भी यह लगता है कि यूएपीए लगाकर हिंदू-मुस्लिम दीवार तीखी की जा सकती है, वहां यूएपीए लगा दिया जाता है। जहां यह दिखता है कि सरकार की असंवैधानिक कार गुजरियों से डरने की बजाय, कुछ लोग सरकार पर उंगली उठाना बंद नहीं कर रहे हैं, तो यूएपीए जैसा कठोर कानून लगाकर उनके सहारे सब की आवाज बंद करने की कोशिश की जाती है। सरकार को हिम्मत यहां से मिलती है कि वह कुछ भी करे, लोग सड़क पर नहीं उतरेंगे। तो चलिए आप लोगों को ही बताया जाए कि यूएपीए कानून क्या है?

UAPA यह एक तरह का ऐसा कानून जिसके बहुत सारे प्रावधान राज्य को इतनी शक्ति देते हैं कि वह व्यक्ति के अधिकार मनमाने तरीके से कुचल दे।

यह बिल पास करवाते हुए गृह मंत्री अमित शाह ने कहा था कि आतंकवाद के लिए कठोर कानून होना चाहिए। यह बिल कांग्रेस के जमाने में आया था और उसी दौर में ही इसमें संशोधन किये गए और संशोधन कर 'आतंकवाद' जैसे शब्द शामिल किए गए।

अमित शाह के इसी वक्तव्य में ही इस बिल की सबसे बड़ी खामी छिपी हुई थी कि किसी भी व्यक्ति को देश हित के खिलाफ या देश विरोधी बताकर इस कानून का शिकार बनाया जा सकता है।

साल 1962 में चीन के साथ लड़ाई के बाद तमिलनाडु की तरफ से तमिल अस्मिता के नाम पर भारत से अलग होने की मांग उठने लगी। तो एक ऐसे कानून के बारे में सोचा जाने लगा, जिससे तमिल अलगाववाद को रोका जा सके।

साल 1967 में भारत सरकार द्वारा अनलॉफुल एक्टिविटीज ऑफ प्रिवेंशन एक्ट लाने के पीछे तीन मकसद थे। पहला उन संगठनों पर प्रतिबंध लगा दिया जाए जो गैरकानूनी काम करते हैं, दूसरा इन गैरकानूनी संगठनों से जुड़े सदस्यों को सजा दी जाए और तीसरा जो लोग इन्हें फंडिंग करते हैं, उन्हें भी सजा दी जा सके। साल 1967 में बना यह कानून साल 2019 में संशोधित होने से पहले तकरीबन 6 बार संशोधित हो चुका था।

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दरअसल हुआ यह था कि इस बीच आतंकवाद की रोकथाम के लिए पोटा (POTA) और टाडा (TADA) जैसे कानून आये थे। ये कानून अपनी प्रकृति में बहुत अधिक बेरहम थे। इसलिए बाद में इन कानूनों को ख़ारिज कर दिया। और यहां से जुड़े आतंकवादी कृत्य की व्यख्याओं को UAPA के अनलॉफुल शब्द में शामिल कर दिया गया।

इस कानून का दायरा हर संशोधन के बाद इतना बढ़ता चला गया कि अब इस कानून में अनलॉफुल एक्टिविटीज के साथ टेररिस्ट एक्ट भी शामिल होते हैं।

यानी केंद्र सरकार यूएपीए अधिनियम के तहत टेररिस्ट एक्ट और गैर कानूनी काम से जुड़े संगठन, सदस्यों और उन्हें फंडिंग करने वालों को दंड देने का अधिकार रखती है।

अब आप पूछेंगे कि आखिरकार गैरकानूनी काम unlawful activities और टेरिस्ट एक्ट में क्या अंतर होता है?

भारत की एकता अखंडता और संप्रभुता पर जब शब्दों, चित्र और दूसरे अमूर्त तरीकों द्वारा हमला किया जाता है, तो उसे गैर कानूनी काम में रखा जाता है। लेकिन भारत की एकता अखंडता और संप्रभुता पर जब हथियार, बम, गोली, बारूद जैसे मूर्त तरीकों द्वारा हमला किया जाता है, तो इसे आतंकवादी कृत्य टेररिस्ट एक्ट में रखा जाता है। परिस्थितियों के मुताबिक दोनों में सजा के तौर पर कई सालों तक जेल में रहने से लेकर उम्र कैद और सजाए मौत तक हो सकती है।

अनलॉफुल और आतंकवाद जैसे शब्दों की अवधारणाओं की व्याख्या बहुत अधिक अस्पष्ट है। इसके अंदर राज्य अपने विरोध और असहमति से जुड़े हर तरह के कामों और संगठनों को शामिल कर सकता है। पिछले साल भीमा कोरेगांव घटना से जुड़े मसले पर भी पांच मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के कामों को भी गैरकानूनी बताकर इसी कानून के अंतर्गत गिरफ्तार कर लिया।

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इससे पहले भी कई मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को राज्य और सिस्टम से अलग जाकर सोचने के लिए इस कानून के अंतर्गत प्रताड़ित किया गया। विकास के मॉडल के नाम पर न्यूक्लियर प्लांट और बड़े बांधों का विरोध करने वाले कई संगठनों को इस कानून के आधार पर बैन किया गया है। कहने का मतलब यह है कि ‘प्रचंड’ बहुमत में सराबोर सरकार 'अनलॉफुल' की व्याख्या के अंदर जो मर्जी वह शामिल कर सकती है। इसलिए इस कानून की अब तक कठोर आलोचना होती आ रही है। 

इस कानून की सबसे बड़ी भयंकर खामी को एक आंकड़े से समझते हैं। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो 2016 के आंकड़ों के मुताबिक यूएपीए से जुड़े तकरीबन 67 फ़ीसदी मामलों में आरोपियों को दोषमुक्त कर दिया गया। यानी बहुत दिनों तक जेल की सलाखों के अंदर रखने के बाद उन्हें छोड़ दिया गया। अब बताइए किसी को अपराध के लिए गिरफ्तार किया जाए और उसे अपराध मुक्त करने से पहले सालों साल जेल में रखा जाए तो कानून उसके साथ कैसा बर्ताव कर रहा है? क्या यह कहा जाएगा कि उसके साथ न्याय हुआ? यह तो घनघोर नाइंसाफी वाली बात हुई।

साल 2020 के नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़े कहते हैं कि यूएपीए कानून के तहत दर्ज मामलों की 95% मामलों पर अब तक ट्रायल नहीं हुआ है। 85% मामले ऐसे हैं जिनकी छानबीन करनी बाकी है। अब बताइए क्या यह आंकड़े या नहीं कह रहे कि यूएपीए का इस्तेमाल उस मकसद के लिए नहीं दिया जा रहा जिस मकसद के लिए से बनाया गया था? बल्कि इसका इस्तेमाल डरा धमका कर लोगों की आवाज पर ताला लगाने के लिए किया जा रहा है। इस बात का प्रमाण यह है कि यूएपीए के सबसे अधिक मामले जम्मू कश्मीर से जुड़े हैं।

यूएपीए की सबसे खतरनाक बाद यही है कि बिना जुर्म बताएं और जुर्म साबित किए किसी को 90 दिनों तक जुडिशल कस्टडी में रखा जा सकता है। अगर 90 दिनों तक भी इन्वेस्टिगेशन पूरा नहीं होता है तो इसे 180 दिनों तक बढ़ाया जा सकता है। जबकि दूसरे मामलों में 90 दिन तक अगर इन्वेस्टिगेशन पूरा नहीं हुआ या कोई सबूत नहीं मिला तो आरोपी को छोड़ दिया जाता है।

ऐसे में हो सकता है कि कल को आप किसी प्रोटेस्ट में भाग लेने जाएं, परसों पुलिस आपके दरवाजे पर आ जाए, यूएपीए कानून के तहत आप को गिरफ्तार कर ले, सालों साल आप जेल में सड़ते रहे और अंत में जाकर यह कहकर आपको छोड़ दिया जाए कि आप के खिलाफ किसी भी आरोप को साबित नहीं कर पाया गया। यहां पर आप पूछेंगे कि 180 दिन के बाद बेल तो मिल जाएगी लेकिन यह भी नहीं होता है। सुधा भारद्वाज, रोना विल्सन, सुरेंद्र गादलिंग को साल 2018 में गिरफ्तार किया गया था लेकिन अभी तक रिहा नहीं किया गया।

सुप्रीम कोर्ट ने साल 1970 में एक फैसला देते हुआ कहा था कि 'जेल इज एक्सेप्शन बेल इज नॉर्म' यानी जहां तक सम्भव हो किसी को जेल जाने से बचा लेना चाहिए उसे बेल यानी जमानत पर छोड़ देना चाहिए। किसी को बिना ट्रायल के तभी जेल में रखा जाना चाहिए जब वह न्याय को प्रभावित करने वाली स्थिति में हो। जैसे कि देश से भाग जाने में कामयाब हो, सबूतों के साथ छेड़छाड़ कर सकता हो या किसी भी तरह की ऐसी स्थिति में हो जिससे न्याय प्रभावित होता हो। क्योंकि इस देश के क्रिमिनल जस्टिस सिस्टम का गोल्डन रूल है कि जब तक किसी पर आरोप साबित नहीं हो जाता तब तक वह निर्दोष है।

दिल्ली विश्वविद्यालय में कानून के विषय पर रिसर्च कर रहे रितेश धर कहते हैं कि UAPA के सेक्शन 43 D (5) के तहत पुलिस की केस डायरी या चार्जशीट से कोर्ट को ऐसा लगता है कि प्रथमदृष्टया अभियुक्त पर गंभीर मामला बनता है तो वह बिना ट्रायल के भी व्यक्ति को 180 दिनों तक जेल में रहने के आदेश दे सकती है। जबकि आम मामलों में 90 दिनों के भीतर दोनों पक्षों की सुनवाई न होने के बाद मामला नहीं बनता है तो अभियुक्त को बरी कर दिया जाता है। लेकिन यहां इसे कोर्ट के आदेश पर पूरी जिंदगी तक बढ़ाया भी जा सकता है।

यह उपबंध ही प्राकृतिक न्याय के खिलाफ है, जहां बिना सुनवाई के व्यक्ति को जेल में रखा जाता है। चार्जशीट स्टेट का पक्ष है। बिना व्यक्ति का पक्ष सुने केवल चार्जशीट और केस डायरी पर जेल में डाल देना गलत है। इसका सबसे बड़ा नुकसान यह है कि सरकारें जिसे भी अपनी राजनीति के लिए खतरा मानती है उसे गिरफ्तार कर लेती है। या जिस तरह से भी खुद का फायदा देखती है, वैसे फायदा उठाने का जुगाड़ कर लेती है।

इसके साथ इस कानून के अंतर्गत अभियुक्त की ही यह जिम्मेदारी होती है कि वह यह साबित करे कि वह अपराधी नहीं है। यानी आतंकवादी का आरोप राज्य लगाएगा लेकिन आतंकवाद के आरोप से मुक्ति के लिए सबूत व्यक्ति को देना होगा। जबकि भारत के अपराध संहिता में कुछ अपवादों को छोड़कर प्रॉसिक्यूशन की यह जिम्मेदारी होती है कि वह सिद्ध करे कि अभियुक्त दोषी है। इसका मतलब है कि सरकार के पास इस कानून के माध्यम से ऐसी शक्ति मिली हुई है कि वह किसी भी तरह की असहमति को गैरकानूनी बताकर उसपर आरोप लगा सके और व्यक्ति जीवन भर उसे हटाने की कोशिश करते रहा।

साल 2019 में जब इस कानून को फिर से संशोधित कर के पास किया गया तो दो प्रावधानों पर सबसे अधिक विवाद छिड़ा था। पहला ये है कि अब UAPA के अंदर एक व्यक्ति को भी केवल शक के आधार पर आतंकवादी बताकर गिरफ्तार किया जा सकता है। भले ही वह किसी आतंकवादी संगठन से जुड़ा हुआ हो या नहीं।

जबकि पहले यह प्रावधान था कि गैरकानूनी काम करने वाले संगठन को प्रतिबंधित किया जा सकता था और प्रतिबंधित संगठन से जुड़े लोगों को इस कानून के अंतर्गत गिरफ्तार किया जा सकता है। पहले का प्रावधान भी अस्पष्ट था। और इस बार संशोधित होकर बने कानून ने तो राज्य को बहुत अधिक शक्ति दे दी है। अब तो जिसे चाहे उसे गैरकानूनी कामों से सम्बंधित बताकर गिरफ्तार करने का प्रावधान बन चुका है, भले ही वह किसी आतंकवादी संगठन से जुड़ा हुआ हो या नहीं। साथ में पहले वाली दिक्क्त अब भी मौजूद है कि व्यक्ति को यह साबित करना पड़ेगा कि वह गैरकानूनी संगठनों से जुड़ा नहीं है या वह गैरक़ानूनी काम नहीं करता है।

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रितेश धर कहते है कि हम यह कैसे निर्धारित करेंगे कि कोई संगठन गैरक़ानूनी है या कोई गैरक़ानूनी काम करता है? पहले ही हम देख चुके हैं कि आदिवासियों, दलितों, मुस्लिमों, वंचितों और पिछड़े इलाकों में काम करने वाले संगठन को UAPA के अंतर्गत बैन किया जा चुका है। 

अब यह सोचने वाली बात है कि कैसे किसी व्यक्ति को किसी बैन संगठन से जुड़ा हुआ बताया जाता है? अगर यह साबित कर दिया गया कि अमुक व्यक्ति प्रतिबंधित संगठन से जुड़ा है तो उसे गिरफ्तार कर लिया जाता है। इसके लिए कई बार तो किसी विचारधारा से जुड़ी किताब रखने पर गिरफ्तार किया गया है। अब अगर मैं रिसर्चर हूँ और मुझे अमुक विचारधारा या संगठन के बारें में रिसर्च करना है तो मैं उससे जुड़ी किताबें या पन्ने तो रखूँगा ही तो मुझे आतंकवादी कैसे कहा जा सकता है जैसे विनायक सेन के केस में हुआ। यह इस कानून की कमी है कि इसमें गैरक़ानूनी संगठनों से जुड़ा हुआ किसी को भी बताया जा सकता है।

साल 2011 में जस्टिस मार्कण्डेय काटजू ने अपुर सिंह बनाम स्टेट ऑफ़ असम में एक महत्वपूर्ण फैसला दिया कि कोई व्यक्ति अगर किसी प्रतिबंधित संगठन में सक्रिय तौर से जुड़ा होगा या अप्रत्यक्ष रूप से सक्रिय भागीदारी निभाता होगा तभी उसे UAPA के अंतर्गत गिरफ्तार किया जाएगा। शायद इसी से बचने के लिए बिना किसी संगठन से जुड़े भी किसी व्यक्ति को गैरकानूनी कामों से जुड़े होने का प्रावधान जोड़ा गया है। इसलिए अब यह स्थिति हो गयी कि राह चलते हुए व्यक्ति को अगर राज्य चाहे तो इसके अंतर्गत गिरफ्तार कर सकता है।

वकील मनीषा कहती हैं कि यह पहला ऐसा कानून है जिसमें कार्यपलिका को यह अधिकार दिया गया है कि वह किसी व्यक्ति को गैरकानूनी कामों में संलिप्त बता दे, आतंकवादी बता दे। किसी भी ऐसे व्यक्ति को जिसके खिलाफ पहले कोई मुकदमा नहीं है,जिसके खिलाफ पहले कोई अपराध नहीं दर्ज हुआ हो। न्यायपालिका की जगह पर कार्यपालिका का यह फैसला लेना कि कोई आतंकवादी है या नहीं, यह प्राकृतिक न्याय के सिद्धांत के खिलाफ है।

इस कानून में विवाद का दूसरा बिंदु केंद्र सरकार के अधीन काम करने वाली संस्था नेशनल इन्वेस्टीगेशन एजेंसी (एनआईए) को दिए गए अधिकारों से जुड़ा है। लॉ एंड आर्डर मसला राज्य सरकार के अधीन आता है। लेकिन केंद्र सरकार द्वारा ये अधिकार लेने का मतलब है कि राज्य सरकार के कार्यक्षेत्र का अतिक्रमण। देश को केन्द्रीकरण की तरफ ले जाना। और संघवाद के सिद्धांत से दूर जाना।

इसका फायदा केंद्र सरकारें राज्यों को काबू करने में भी उठा सकती हैं। पहले राज्य के डायरेक्टर जनरल ऑफ पुलिस (डीजीपी) को यह अधिकार था कि वह किसी संगठन को प्रतिबंधित कर उसकी सम्पति जब्त करे या व्यक्ति की गिरफ्तारी का फैसला ले, लेकिन अब यह अधिकार नेशनल इन्वेस्टीगेशन एजेंसी के तहत काम करने वाले डायरेक्टर जनरल रैंक अधिकारी को दे दिया गया है। यानी सीधे केंद्र की दखलअंदाज़ी।

ऐसे मामलों पर पहले इन्वेस्टीगेशन करने का अधिकार अस्सिटेंट कमिश्नर रैंक से ऊपर के अधिकारी को मिला था। लेकिन अब यह अधिकार नेशनल इन्वेस्टीगेशन एजेंसी के अंदर काम करने वाले इंस्पेक्टर रैंक अधिकारी को मिल गया है। यानी आतंकवाद जैसे विषय पर कठोर कानून की तो बात कही गयी लेकिन छानबीन करने का अधिकार उस पद को सौंपा गया, जिसकी शक्तियाँ कम हैं और जो अपने आकाओं की बात मानकर काम करने के लिए अभिशप्त है।  

क़ानूनी मसलों पर लिखने वाले पत्रकार विवान कहते हैं कि राज्य के ऐसे ही अतिक्रमण से बचने के लिए संविधान में मौलिक अधिकारों का उपबंध किया गया है। संविधान के अनुच्छेद 21 में इसकी बहुत साफ़ व्याख्या है कि किसी भी व्यक्ति के जीवन जीने के अधिकार को नहीं छीना जा सकता है। न ही व्यक्ति को उसकी व्यक्तिगत स्वतंत्रता से वंचित किया जा सकता है। लेकिन अगर ऐसी स्थिति आती है कि व्यक्ति किसी अपराध से जुड़ा है तो व्यक्ति के जीवन में हस्तक्षेप कानून द्वारा स्थापित यथोचित प्रक्रिया अपनाकर (procedure established by law) ही किया जा सकता है। मेनका गाँधी मामले में तो इस उपबंध की और स्पष्ट व्यख्या कर दी गयी कि किसी व्यक्ति को अपराधी घोषित करने के लिए न्यायपूर्ण, निष्पक्ष और तार्किक प्रक्रिया अपनायी जायेगी।    

लेकिन यूएपीए कानून में ऐसी सभी जरूरतों की धज्जियां उड़ाई जाती हैं और नागरिकों को राज्य के रहमों करम पर छोड़ दिया जाता है। यूएपीए कानून से जुड़े सभी विवादास्पद बिंदुओं को जानने के बाद यह सोचिए कि अगर किसी व्यक्ति को त्रिपुरा इज बर्निंग जैसे महज 3 शब्दों के लिए यूएपीए कानून के तहत गिरफ्तार किया जा रहा है तो सरकार को क्या कहा जाना चाहिए?

UAPA Act
Explain of UAPA act
provisions of UAPA act
Tripura violence and UAPA act
ड्रैकोनियन प्रोविजन ऑफ यूपीएस
Draconian provision of UAPA act
UAPA and Terrorism
UAPA and Peace
UAPA and citizen right
Bil under UAPA
jail under UAPA
UAPA and 43
43(5) d of UAPA

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