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विधानसभा चुनाव
भारत
राजनीति
यूपी चुनावः पूर्वांचल के सियासी चक्रव्यूह में फंसी भाजपा को सिर्फ "मोदी मैजिक" का भरोसा
पूर्वांचल की ऐतिहासिक धरती पर भाजपा की राह पहले की तरह आसान नहीं रह गई है। सिर्फ बनारस ही नहीं, पूर्वांचल की सभी 130 सीटों पर इस पार्टी के प्रत्याशियों को सिर्फ "मोदी मैजिक"  पर भरोसा है। अंतिम दो चरण के चुनाव में पूर्वांचल की ज्यादातर सीटों पर सपा-भाजपा के बीच सीधी लड़ाई है। समाजवादी पार्टी अबकी हर ‘हॉट’ सीट पर भाजपा और बसपा को पटखनी देती नजर आ रही है।
विजय विनीत
25 Feb 2022
Modi

उत्तर प्रदेश के पूर्वी हिस्से में पड़ने वाले 24 ज़िलों में सिमटा पूर्वांचल, हर चुनाव में अपने भौगोलिक दायरों से आगे बढ़कर नतीजों और राजनीतिक समीकरणों को प्रभावित करता रहा है। काशी से लेकर मगहर तक, मोक्ष और नर्क के पौराणिक दरवाजों के बीच बसे पूर्वांचल की सियासी अहमियत इस बात से लगाई जा सकती है कि पीएम नरेंद्र मोदी ने गुजरात छोड़कर गंगा के किनारे बसे पौराणिक शहर वाराणसी को चुना। यूपी के विधानसभा चुनाव में संत कबीर की अंतिम आरमगाह और गौतम बुद्ध को परिनिर्वाण तक पहुंचाने वाली पूर्वांचल की ऐतिहासिक धरती बनारस में भाजपा राह पहले की तरह आसान नहीं रह गई है। सिर्फ बनारस ही नहीं, पूर्वांचल की सभी 130 सीटों पर इस पार्टी के प्रत्याशियों को सिर्फ "मोदी मैजिक" पर भरोसा है। अंतिम दो चरण के चुनाव में पूर्वांचल की ज्यादातर सीटों पर सपा-भाजपा के बीच सीधी लड़ाई है। समाजवादी पार्टी अबकी हर ‘हॉट’ सीट पर भाजपा और बसपा को पटखनी देती नजर आ रही है।

बनारस में भाजपा के पराजित होने का मतलब है पीएम नरेंद्र मोदी का परास्त होना और समूचे यूपी को हार जाना। साल 2017 में मोदी ने आखिरी दौर में ऐन वक्त पर चुनावी हवा का रुख बदल दिया था। वह लगातार तीन दिन बनारस में रुके और शहरी वोटरों पर अपना जादू चलाया। इस बार चुनौतियां कड़ी हैं, इसलिए वह पांच दिनों तक बनारस के साथ-साथ समूचे पूर्वांचल को मथेंगे। भाजपा के सभी प्रत्याशी पीएम मोदी की बाट जोह रहे हैं, क्योंकि पिछले पांच सालों तक वो वोटरों के बीच गए ही नहीं। अब वो जहां जा रहे हैं, डपटे और दुत्कारे जा रहे हैं। वोटरों को रिझाने के लिए इनके पास अगर कुछ है तो सिर्फ आश्वासन और मोदी के नाम व काम का सहारा।

कितना असर दिखाएगा मोदी मैजिक?

बनारस पहले भाजपा का गढ़ था और अब पीएम नरेंद्र मोदी का। कई सीटों पर विपक्ष यहां भाजपा प्रत्याशियों को मजबूत चुनौती दे रहा है। वाराणसी शहर दक्षिणी सीट भाजपा और मोदी दोनों के लिए चुनौती बन गई है। इसी क्षेत्र में विश्वनाथ कारिडोर भी है। पीएम मोदी ने पिछले साल दिसंबर महीने में कारिडोर पर मेगा इवेंट किया था। शहर दक्षिणी सीट पर भाजपा ने नीलकंठ तिवारी को दोबारा अपना प्रत्याशी बनाया है, लेकिन इस सीट पर उनका नहीं, मोदी का असल इम्तिहान हो रहा है। इस क्षेत्र में एक तिहाई वोटर माइनारिटी के हैं, जिनका रुझान सपा की तरफ है। इनके अलावा 20 से 25 हजार यादव वोटर अखिलेश यादव के समर्थन में हैं। सपा प्रत्याशी किशन दीक्षित महामृत्युंजय मंदिर के महंत परिवार से हैं और इनकी भी ब्राह्मणों में गहरी पैठ है। दक्षिणी सीट पर ब्राह्मणों के करीब 50 हजार वोट हैं, जिनमें सपा पहली मर्तबा सेंध लगाती नजर आ रही है।

भाजपा प्रत्याशी नीलकंठ तिवारी से, गैर तो गैर पार्टी के कार्यकर्ता भी खफा है। इनके सामने बड़ी चुनौती उन नाराज व्यापारियों को मनाने की है जिनकी दुकानें विश्वनाथ कारिडोर की भेंट चढ़ गई हैं। वादे के बावजूद नीलकंठ इन्हें पुनर्वासित नहीं करा सके। कारिडोर की परिधि में आने वाले तमाम पुरातन मंदिरों और शिव की जटा मानी जाने वाली बनारस की गलियों पर बुल्डोजर चलाए जाने से तमाम पंडे-पुरोहित नाराज हैं। इस इलाके में ढेर सारे ऐसे लोग हैं जिनके दिलों में आस्था के साथ खिलवाड़ किए जाने का दर्द साल रहा है। कांग्रेस प्रत्याशी मुदिता कपूर भाजपा के वोटों में सेंध लगाती दिख रही हैं। हालांकि भाजपा को पहले की तरह मोदी पर ही भरोसा है। इन्हें लगता है कि वह पांच दिनों तक बनारस को मथेंगे और जो अमृत निकलेगा उसके दम पर भाजपा के सभी प्रत्याशी चुनाव में अमरत्व हासिल कर लेंगे।

कैंट विधानसभा क्षेत्र में सर्वाधिक ब्राह्मण और मुस्लिम मतदाता हैं, लेकिन हार-जीत का फैसला पिछड़ी जातियां करेंगी। इस सीट पर दशकों से भाजपा और एक ही परिवार का कब्जा रहा है। भाजपा प्रत्याशी सौरभ श्रीवास्तव भी यही मानकर चल रहे हैं कि मोदी आएंगे और उनकी नैया पार लग जाएगी। इनके मुकाबले कांग्रेस प्रत्याशी राजेश मिश्र चुनाव लड़ रहे हैं, जिन्हें मुस्लिम और ब्राह्मण वोटरों पर भरोसा है। सपा प्रत्याशी पूजा यादव कैंट सीट पर लड़ाई को तिकाना बनाने की कोशिश कर रही हैं। सपा उम्मीदवार का कद बड़ा न होने की वजह से उनके सामने दिक्कतें हैं। अगर लड़ाई तिकोनी हो गई तो मुकाबला भी चौकाने वाला हो सकता है।

शहर उत्तरी सीट पर सपा ने बेहद कमजोर प्रत्याशी देकर भाजपा की राह थोड़ी आसान कर दी है, लेकिन यहां भी चौंकाने वाले नतीजे आ सकते हैं। भाजपा के रविंद्र जायसवाल इस सीट पर एक दशक से विधायक हैं। वोटरों की आम धारणा है कि इन्होंने पिछले पांच साल तक जनता की सुधि नहीं ली और वोटरों को भगवान भरोसे छोड़ दिया। शहर उत्तरी इलाके को लोगों को न साफ पानी मयस्सर है और न कायदे की सड़कें। सपा ने होटल मालिक अशफाक अहमद डब्लू को टिकट दिया है। इस सीट पर जो स्थिति भाजपा के रविंद्र जायसवाल की है, वैसी ही सपा के डब्लू की है। दोनों ऐसे प्रत्याशी हैं जिन्हें जनता के सरोकारों से कोई खास मतलब नहीं रहा। आम चर्चा है कि उत्तरी सीट जीतने के लिए जोड़-तोड़ और धनबल का सहारा लिया जा रहा है।

देहात में मंडल-कमंडल का ज़ोर

बनारस में ग्रामीण आंचल की ज्यादातर सीटों पर मंडल-कमंडल के बीच मुकाबला है। सपा को पिछड़ों का सहारा है तो भाजपा को मंदिर और हिन्दुत्व का। सेवापुरी सीट पर सपा प्रत्याशी सुरेंद्र पटेल की क्षवि भाजपा के नीलरतन पटेल उर्फ नीलू पर भारी पड़ रही है। नीलरतन साल 2017 में अपना दल के टिकट पर यहां से चुनाव जीते थे, लेकिन अस्वस्थ होने की वजह से वह लंबे समय तक जनता के बीच नहीं जा सके। पीएम मोदी ने अपना दम-खम दिखाने के लिए सेवापुरी के जयापुर, नागेपुर और कहरहिया को गोद लिया था, लेकिन इन गावों के ज्यादातर लोग भाजपा से नाराज हैं। मोदी के गोद लिए गांवों के विकास की बातें तो बहुत की गईं, लेकिन सरकारी योजनाओं की थाती लेकर पहुंचे अफसर ग्रामीणों को मझधार में छोड़कर भाग खड़े हुए। इससे नाराज लोग इस बार भाजपा को सबक सिखाने के मूड में हैं।

बनारस की पिंडरा सीट उस इलाके में है जहां लाल बहादुर शास्त्री अंतरराष्ट्रीय एयरपोर्ट है। इस सीट पर कांग्रेस प्रत्याशी का मुकाबला भाजपा के मौजूदा विधायक डा.अवधेश सिंह के साथ है। हालांकि यहां बसपा ने पिछले चुनाव में रनर रहे अपने पुराने प्रत्याशी बाबूलाल पटेल को मैदान में उतरकर लड़ाई को तिकोना बना दिया है। डा.अवधेश अगड़ों को लामबंद करने में जुटे हैं। इन्हें भी वोटरों पर कम, मोदी पर भरोसा ज्यादा है। इनके व्यवहार और कामकाज से ज्यादातर वोटर नाराज दिख रहे हैं। बसपा और अपना दल (कमेरावादी) के बीच पटेल वोटर बंटते नजर आ रहे हैं। पिंडरा में पटेलों की आबादी सर्वाधिक है। यहां पिछड़ों का वोट किसी एक जगह पोलराइज होता नहीं दिख रहा है। ब्राह्मण और भूमिहार के बीच अजय राय की ‘राबिन हुड’ वाली छवि फिर से मजबूत होती दिख रही है। हालांकि पिंडरा ऐसी सीट रही है जहां के वोटरों को हर चुनाव में विधायक बदलना पसंद नहीं है। जिस प्रत्याशी पर वो एक बार एतवार करते हैं, उसे ही वो बार-बार चाहते हैं। इस सीट पर ऊदल आठ बार और अजय राय चार बार विधायक रह चुके हैं।

शिवपुर सीट पर भाजपा के काबीना मंत्री रहे अनिल राजभर को पूर्वांचल के कद्दावर नेता ओमप्रकाश राजभर के पुत्र अरविंद राजभर ने चौतरफा घेर लिया है। अनिल को इस बार उनके ही समाज के आधारभूत वोटरों के बीच चुनौती मिल रही है। गठबंधन प्रत्याशी अरविंद को राजभर, यादव और मुसलमानों के अलावा तमाम पिछड़ी जातियों पर ज्यादा भरोसा है। यहां सुभासपा को एंटी इनकंबेंसी का फायदा भी मिलता दिख रहा है। भाजपा को मौर्य और दलित समाज के वोटों पर ज्यादा भरोसा था, लेकिन उसमें बसपा के रवि मौर्य सेंधमारी करते नजर आ रहे हैं। यहां भी तिकोनी लड़ाई के आसार हैं, जिसके चलते भाजपा की राह कांटों भरी दिख रही है। भाजपा के साथ ब्राह्मण-राजपूत और अन्य अपर कास्ट के वोटों का सहारा है।

बनारस की इकलौती सुरक्षित सीट अजगरा पर भी दिलचस्प मुकाबला होने जा रहा है। पिछली मर्तबा यह सीट सुभासपा के पास थी। भाजपा ने नौकरशाह रहे टी राम को टिकट दिया है तो बसपा ने अपनी पार्टी के कद्दावर नेता रघुनाथ चौधरी को मैदान में उतार दिया है। इनके बीच सपा-सुभासपा के प्रत्याशी सुनील सोनकर मजबूत दावेदारी पेश कर रहे हैं। यहां भी तिकोनी लड़ाई है। सपा गठबंधन प्रत्याशी ने अगर राजभर, दलित, यादव, पटेल, मौर्य-कुशवाहा वोटरों को अपने पाले में खींच लिया तो यह सीट भाजपा नहीं ले पाएगी।

हर जगह भाजपा को चुनौती

पूर्वांचल की ज्यादातर सीटों पर भाजपा को चुनौती मिल रही है। ज्यादातर सीटों पर मुकाबला सपा और भाजपा के बीच है। चंदौली ऐसा जनपद है जहां समाजवादी पार्टी के आधारभूत वोटर हैं और सालों से इसी दल के पक्ष में मतदान करते आ रहे हैं। साल 2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा के डा.महेंद्र नाथ पांडेय को चुनाव जीतने के लिए साम-दाम-दंड-भेद का सहारा लेना पड़ा था। इसी चुनाव में दलितों को मतदान से रोकने के लिए वोटिंग से एक रात पहले पैसे देकर उनकी उंगलियों पर अमिट स्याही लगवाई गई थी। यह घटना देश भर में चर्चा का विषय बन गई थी।

चंदौली के पत्रकार पवन कुमार मौर्य कहते है, "चकिया और सकलडीहा सीटों पर लड़ाई इकतरफा है और वह भाजपा के पक्ष में नहीं दिख रही है। सैयदराजा में बहुहली विधायक सुशील सिंह और सपा के मनोज सिंह डब्लू के बीच कड़ा मुकाबला है। चंदौली में सकलडीहा, मुगलसराय और चकिया में भाजपा व सपा के बीच सीधी लड़ाई दिख रही है। हालांकि मुगलसराय में कांग्रेस के छब्बू पटेल ने लड़ाई तिकोना बना दिया है। आखिर समय तक स्थिति क्या होगी, यह कह पाना कठिन है?

गाजीपुर में अपना प्रदर्शन दोहराने के लिए भाजपा को एंडी चोटी का जोर लगाना पड़ रहा है। बावजूद इसके आसार अच्छे नजर नहीं आ रहे हैं। गाजीपुर की सभी सीटों पर मुस्लिम, यादव और मौर्य-कुशवाहा वोटरों की तादाद निर्णायक है। जिले की जहूराबाद सीट पर सुभासपा के मुखिया ओमप्रकाश राजभर चुनाव लड़ रहे हैं, जिसका असर आसपास की सीटों पर देखने को मिल रहा है। जहूराबाद में ओमप्रकाश राजभर और भाजपा के कालीचरण राजभर के बीच बसपा की बसपा की सादात फातिमा ने मुकाबले को तिकोना बना दिया है। हालांकि ओमप्रकाश सभी प्रत्याशियों पर भारी दिख रहे हैं।

गाजीपुर सदर सीट पर भाजपा की संगीता बलवंत, बसपा के राजकुमार गौतम और सपा के जयकिशन साहू के बीच तिकोना मुकाबला है। जमानिया सीट पर सपा के कद्दावर नेता ओमप्रकाश सिंह और भाजपा सुनीता सिंह और बसपा के परवेज खान के बीच लड़ाई है। मोहम्मदाबाद की विधायक अलका राय (भाजपा) इस बार कड़े मुकाबले में फंस गई है। यहां सपा के मन्नू अंसारी ने मुकाबले को दिलचस्प बना दिया है। बसपा से माघवेंद्र राय और कांग्रेस के अरविंद किशोर राय के मैदान में उतरने से भाजपा की राह कठिन है। जंगीपुर में सपा के वीरेंद्र यादव, भाजपा के रामनरेश कुशवाहा और बसपा के डा.मुकेश सिंह से आगे दिख रहे हैं। सैदपुर (सु) सीट पर भाजपा ने निवर्तमान विधायक सुभाष पासी को उम्मीदवार बनाया है। सपा ने अंकित भारती और बसपा ने डा.विनोद को मैदान में उतारा है। यहां भी सपा अपने आगे है। जखनिया में सपा के वेदी राम भाजपा के रामराज वनवासी और बसपा के विजय कुमार के बीच लड़ाई फंसी हुई है। गाजीपुर के स्थानीय पत्रकार शिवकुमार कुशवाहा कहते हैं, "गाजीपुर की सभी सीटों पर तिकोनी लड़ाई है। सपा को छोड़कर सभी दलों के वोटों का बंटवारा हो रहा है, जिसके चलते वह सभी दलों पर भारी दिख रही है।" 

बनारस मंडल में जौनपुर की सभी सीटों पर सपा स्विप कर जाए तो कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए। यहां भी मंडल-कमंडल का जोर है। जौनपुर की ज्यादातर सीटों पर यादव, मुस्लिम और मौर्य-कुशवाहा समाज के वोटर ज्यादा हैं और यही भाजपा प्रत्याशियों की चिंता के सबब बने हुए हैं। जौनपुर में कांग्रेस के नदीम जावेद के आने से लड़ाई तिकोनी हो गई है। भाजपा के गिरीश चंद्र यादव और सपा के अरशद खान मुकाबले में हैं। मुस्लिम वोटों में बिखराव हुआ तो यहां सपा को नुकसान उठाना पड़ सकता है। जौनपुर की मलहनी सीट पर लड़ाई तिकोनी है। यहां एक लाख यादव वोटर हैं जिसके चलते यह सपा की मजबूत सीट मानी जा रही है। यहां सपा के लकी यादव का मुकाबला जदयू के बाहुबली प्रत्याशी धनंजय सिंह से है। भाजपा के केपी सिंह चुनाव मैदान में हैं। चुनाव विष्लेषक कपिलदेव मौर्य कहते हैं, "धनंजय सिंह ने इस  बार नई चुनावी ट्रिक निकाली है। दलित वोटरों को अपने पक्ष में करने के लिए बसपा का टिकट उन्होंने अपने ही एक समर्थक शैलेंद्र यादव को दिला दिया है, जिससे मुकाबला रोचक हो गया है। जौनपुर की जफराबाद सीट पर सपा के जगदीश नारायण राय एकतरफा स्विप कर रहे हैं। इन की छवि सभी प्रत्याशियों पर भारी है।"

कपिलदेव कहते हैं, "केराकत (सुरक्षित) में बसपा डा.लाल बहादुर सिद्धार्थ, सपा के तूफनी सरोज और भाजपा के दिनेश चौधरी के बीच तितरफा मुकाबला है। मड़ियाहूं में भाजपा-अपना दल (एस) के संयुक्त प्रत्याशी आरके पटेल का मुकाबला सपा की सुषमा पटेल और बसपा के अरविंद दुबे से हैं। सपा की सुषमा सभी पर भारी नजर आ रही हैं। बदलापुर सीट पर सपा के ओम प्रकाश दुबे ‘बाबा’ और भाजपा के रमेश मिश्र के बीच बीच सीधी टक्कर है। यहां भी सपा मजबूत स्थिति में है। ब्राह्मण बहुल मुगरा बादशाहपुर में भाजपा के अजय दुबे उर्फ अज्जू और सपा के डा.पंकज पटेल के बीच सीधा मुकाबला है। शाहगंज में निषाद पार्टी के रमेश सिंह और सपा के ललई यादव के बीच दिलचस्प मुकाबला हो रहा है। यहां निषादों की तादाद ज्यादा है। मछलीशहर (सु) सीट पर भाजपा के मेहीलाल और सपा की डा.रागिनी सोनकर के बीच कड़ी टक्कर है, लेकिन डा.रागिनी की स्थिति ज्यादा मजबूत दिख रही है। पिछली बार जौनपुर में भाजपा की पांच और सपा के पास तीन सीटे थी। अबकी यहां ज्यादातर सीटों पर सपा भारी है।"

पहाड़ में दोतरफा चलेगा जादू

विंध्य की पहाड़ियों के अंचल में बसे सोनभद्र और मिर्जापुर में भाजपा को कड़ी चुनौतियां मिल रही हैं। सोनभद्र जिले की राबर्ट्सगंज सीट पर चुनाव लड़ रहे भाजपा के मौजूदा विधायक भूपेश चौबे का एक वीडियो वायरल हो रहा है जिसमें वो कान पकड़कर उठक-बैठक लगाते नजर आ रहे हैं। इस वीडियो के चलते वह देश भर में हंसी के पात्र बन गए हैं। सोनभद्र के वरिष्ठ पत्रकार "शशि चौबे कहते हैं, राबर्ट्सगंज सीट पर सपा प्रत्याशी अविनाश कुशवाहा इस बार भाजपा के भूपेश चौबे पर भारी नजर आ रहे हैं। हालांकि बसपा के अविनाश शुक्ला ने यहां लड़ाई को तिकोना बना दिया है। दो ब्राह्मणों के लड़ने से भाजपा की मुश्किलें बढ़ गई हैं। दुद्धी सीट सात बार के विधायक रहे विजय सिंह का मुकाबला भाजपा ने आरएसएस कार्यकर्ता रामदुलारे गोंड से हो रहा है। मौजूदा विधायक हरिराम चेरो इस बार बसपा के टिकट पर मैदान में हैं। हरिराम पिछली मर्तबा अद (एस) के टिकट पर चुनाव जीते थे। कांग्रेस ने बसंती पनिका को टिकट दिया है। तिकोनी लड़ाई में फिलहाल सपा सभी पर भारी नजर आ रही हैं।"

श्री चौबे यह भी बताते हैं, "घोरावल सीट पर मुकाबला चौकोर है। भाजपा के अनिल मौर्य सभी पर भारी हैं। सपा से अनिल दूबे और बसपा से मोहन कुशवाहा के बीच कांग्रेस ने यहां एक राजघराने की बहू विंदेश्वरी सिंह को मैदान में उतार दिया है, जिसके चलते मुकाबला रोचक हो गया है। ओबरा सीट पर बीजेपी के संजय गोंड की स्थिति मजबूत है। इनका सीधा मुकाबला सपा के सुनील गोंड से माना जा रहा है। बसपा के सुभाष खरवार लड़ाई को तिकोना बनाने की कोशिश कर रहे हैं। सोनभद्र की दो सीटों पर सपा और दो अन्य पर भाजपा टक्कर दे रही है।"

मिर्जापुर की ज्यादातर सीटों पर सपा मुकाबले से बाहर है। सपा गठबंधन में शामिल अपना दल (कमेरावादी) ने जिले की जिन सीटों पर अपने प्रत्याशियों को मैदान में उतारा है वो प्रतिद्वंद्वियों के आगे बौने नजर आ रहे हैं। यहां सपा के प्रत्याशी भी कमजोर हैं। सिर्फ मिर्जापुर सदर में सपा मजबूत लड़ाई में हैं। यहां कैलाश चौरसिया का मुकाबला भाजपा के रत्नाकर मिश्र के बीच है। चुनार सीट पर सपा समर्थित अपना दल (कमेरावादी) ने डा.आरएस पटेल को मैदान में उतारकर भाजपा विधायक अनुराग सिंह को एक तरह से वाकओवर दे दिया है। डा.आरएस पटेल बाहरी हैं और चुनार इलाके से इनका कोई सरोकार नहीं रहा है। यहां भाजपा का सीधा मुकाबला कांग्रेस की सीमा देवी से है। मड़िहान सीट पर भाजपा के रमाशंकर पटेल की सीधी टक्कर बसपा प्रत्याशी नरेंद्र कुशवाहा से है। इस सीट पर सपा के रविंद्र बहादुर सिंह और अपना दल (कमेरावादी) के अवधेश सिंह पप्पू के बीच दोस्ताना मुकाबला हो रहा है। कुर्मी मतों का बंटवारा होने की वजह से बसपा ताकतवर हो गई है। इस सीट पर मौर्य-कुशवाहा वोटर ही प्रत्याशियों की हार-जीत का फैसला करते हैं।

छानबे (सु) में अपना दल (एस) के राहुल प्रकाश कोल को सपा की कीर्ति कोल से कड़ी टक्कर मिल मिल रही है। हालांकि यहां कांग्रेस के भगवती कोल भी मजबूती से लड़ रहे हैं। मझवां में बसपा पुष्पलता बिंद और निषाद पार्टी डा.विनोद बिंद के बीच सीधा मुकाबला है। सपा ने यहां रोहित शुक्ला लल्लू को मैदान में उतारा है। मिर्जापुर के पत्रकार वीरेंद्र दुबे कहते हैं, "समाजवादी पार्टी ने मिर्जापुर की ज्यादातर सीटों पर ऐसे प्रत्याशियों को मैदान में उतार दिया है जो भाजपा को सीधी टक्कर देने की स्थिति में नहीं हैं। सिर्फ मिर्जापुर सदर और छानबे सीट पर सपा की लाज बच सकती है। मिर्जापुर जिले में सपा और उसके साथ गठबंधन में शामिल अपना दल (कमेरावादी) ने मिलकर कई ऐसे अलोकप्रिय उम्मीदवारों को मैदान में उतार दिया है जिसके चलते ज्यादातर सीटों पर वो मैदान से बाहर हैं।"

भदोही जिले की ज्ञानपुर विधानसभा सीट दो दशक से भाजपा के लिए चुनौती बनी हुई है। आखिरी बार यहां 1996 में भाजपा के गोरखनाथ पांडेय जीते थे। इसके बाद 2002 से लेकर 2017 तक हुए चार विधानसभा चुनाव में बाहुबली विजय मिश्र चुनाव जीतते आ रहे हैं। जेल में बंद विजय मिश्र इस बार निर्दल प्रत्याशी के रूप में मैदान में हैं। इस सीट को जीतने के लिए कांग्रेस पिछले 37 सालों से अपनी जमीन तलाश रही है। भदोही के पत्रकार मिस्वा खान कहते हैं, "जिले की औराई (सु) सीट पर भाजपा ने अपने पुराने प्रत्याशी दीनानाथ भास्कर और भदोही सीट पर रवींद्र त्रिपाठी को मैदान में उतारा है। दोनों सीटों पर इस बार भाजपा को सपा से कड़ी टक्कर मिल रह है। भदोही सीट पर सपा के कद्दावर नेता जाहिद बेग मैदान में हैं। जाहिद बेग के पिता यूसुफ बेग मजदूर यूनियन के नेता थे और वह मिर्जापुर-भदोही के सांसद भी रहे। अबकी इनकी स्थिति मजबूत दिख रही है।"

वो सीटें जहां कभी नहीं खिला कमल

पूर्वांचल में 19 सीटें ऐसी हैं जहां आजतक भाजपा अपना कमल नहीं खिला सकी। साल के 2017 के मोदी लहर में भी इन सीटों पर भाजपा को हार का मुंह देखना पड़ा। सीएम योगी आदित्यनाथ के गढ़ गोरखपुर की चिल्लूपार सीट पर आज तक भाजपा का खाता नहीं खुल पाया है। देवरिया जिले की भाटपार रानी सीट ने भी भाजपा के कमल को खिलने का अवसर नहीं दिया। आजमगढ़ जिले की सदर सीट पर सपा के दुर्गा प्रसाद यादव आठ बार विधायक रहे। इस बार भी वह सपा के टिकट पर चुनाव लड़ रहे हैं। भाजपा आज तक इस सीट पर जीत नहीं दर्ज कर पाई है। आजमगढ़ जिले की निजामाबाद, सगड़ी, अतरौलिया, मुबारकपुर, लालगंज और दीदारगंज विधानसभा सीट पर भाजपा लगातार हारती आ रही है। आजमगढ़ की मेंहनगर विधानसभा सीट में भाजपा को 1991 में पहली और आखिरी बार जीत नसीब हुई थी। पूर्वांचल में आजमगढ़ ऐसा जनपद है जिसे समाजवादी पार्टी के मजबूत किले के रूप में जाना जाता रहा है।

अपने बागी तेवर के लिए मशहूर रहे बलिया जिले की बांसडीह सीट भी भाजपा के लिए अबूझ पहेली की तरह है। मऊ सदर सीट भाजपा के लिए हमेशा चुनौती भरा रहा है। साल 1996 से 2017 तक यहां पांच मर्तबा बाहुबली मुख्तार अंसारी विधायक चुने गए। इस बार मुख्तार ने यह सीट अपने पुत्र अब्बास अंसारी के लिए छोड़ी है। मुख्तार अंसारी के परिवार को लगातार सताए जाने से अल्पसंख्यक समुदाय के लोग काफी नाराज हैं। पुलिस के पक्षपातपूर्ण कार्रवाई से अब्बास को सिंपैथी मिलती दिख रही है। गाजीपुर जिले की जंगीपुर सीट भी भाजपा के लिए अछूत रही है। जखनिया सीट पर कमल कभी नहीं खिला।

जौनपुर जिले की शाहगंज, मल्हनी और मछलीशहर सीटों पर मोदी लहर में भी भाजपा, सपा का तिलस्म को नहीं तोड़ पाई। सोनभद्र जिले की दुद्धी विधानसभा यूपी की आखिरी विधानसभा सीट कहलाती है। यहां भी भाजपा कभी चुनाव नहीं जीत पाई। हालांकि साल 2017 के चुनाव में भाजपा के सहयोगी दल अपना दल (एस) ने यहां अपना खाता खोल दिया था।

चुनाव लड़ रही गोदी मीडिया

पूर्वांचल में चार दशक से सक्रिय वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक प्रदीप कुमार कहते हैं, " हमें लगता है कि पूर्वांचल में भाजपा का चुनाव कार्यकर्ता नहीं, गोदी मीडिया लड़ रही है। खबरों में सत्तारूढ़ दल की खुलेआम तरफदारी करने की वजह से दैनिक जागरण सरीखे अखबार से जनता का भरोसा टूटता जा रहा है। कुछ ऐसी ही स्थित उन खबरिया चैनलों की है जो भाजपा प्रत्याशियों की घोषणा से पहले ही पूर्वांचल की सभी सीटें मोदी-योगी की झोली में डालते आ रहे हैं। पूर्वांचल का हाल यह है कि साल 2017 की तुलना में इस बार भाजपा कमज़ोर है। पूर्वांचल में कहीं भी न "मोदी मैजिक" का असर है और न ही 'लहर' जैसा कोई माहौल। ऐसा नहीं लगता की भाजपा 2017 के नतीजे दोहरा पाएगी। सपा गठबंधन के प्रत्याशी बनारस के अलावा समूचे पूर्वांचल में भाजपा को कायदे से टक्कर दे रहे हैं। इस चुनाव में विकास के साथ एंटी-इनकंबैंसी भी एक मज़बूत फ़ैक्टर है। पूर्वांचल पुराने समय से ही ग़रीब और पिछड़ा इलाक़ा रहा है। यहां कभी जनता की आशाएं ही पूरी नहीं हुईं तो प्रत्याशाओं के बारे में क्या कहूं? लेकिन अगर पिछले चुनाव से तुलना करें तो भाजपा के पक्ष में होने वाले वोटिंग प्रतिशत में कमी आएगी। यह कमी नतीजों पर कितना असर डालेगी, यह तो दस मार्च ही साफ़ हो पाएगा।

पूर्वांचल में वोटिंग पैटर्न के मामले में शहरी और ग्रामीण मतदाताओं की अलग-अलग पसंद पर ज़ोर देते हुए प्रदीप 'अर्बन-रूरल डिवाइड फ़ैक्टर' के हावी होने का तर्क देते हैं। वह कहते हैं, "पूर्वांचल के शहरी मतदाताओं पर आज भी भाजपा का प्रभाव ज़्यादा है, लेकिन जैसे-जैसे आप ग्रामीण अंचल में आगे बढ़ते हैं, वैसे-वैसे मतदाताओं का रुख़ सपा गठबंधन के प्रत्याशियों की ओर मुड़ने लगता है। वैसे भी अंतिम चरण में होने वाले मतदान पर पिछले चरणों के माहौल का काफ़ी असर पड़ता है। आख़िरी दिन तक मतदाता का मन भी बदलता है। इसलिए निश्चित तौर पर सिर्फ़ इतना कहा जा सकता है कि पूर्वांचल की ज्यादातर सीटों पर भाजपा कड़े मुकाबले में फंसी हुई है। पूर्वांचल में पीएम नरेंद्र मोदी की जितनी भी रैलियां हुई हैं, उनमें माकूल भीड़ नहीं जुट पाई। हमें लगता है कि अगर पश्चिम उत्तर प्रदेश में भाजपा हारेगी तो पूर्वांचल का नतीजा भी वैसा ही आएगा।"

(लेखक विजय विनीत बनारस के वरिष्ठ पत्रकार हैं)

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