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भारत
राजनीति
यूपी : थानेदारों की तैनाती में उड़ रहीं आरक्षण नीति की धज्जियां
उत्तर प्रदेश में जब से योगी आदित्यनाथ की सरकार आई है थानेदारों की तैनाती में पिछड़ी और दलित जातियों के साथ भेदभाव किया जा रहा है। थानों में अब तथाकथित ऊंची जाति के अफ़सरों का दबदबा है। 
सरोजिनी बिष्ट
25 Nov 2019
UP police
Image courtesy:The Quint

उत्तर प्रदेश में थानेदारों की तैनाती के तौर-तरीक़ों को लेकर हमेशा से ही सवाल खड़े होते रहे हैं। इसे देखते हुए, 7 जून 2002 को एक सरकारी आदेश जारी किया गया था। इसके तहत राज्य में सरकारी नौकरियों के लिए लागू आरक्षण नीति के मुताबिक़ ही थानेदारों की भी तैनाती होनी चाहिए। यानी, अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) से 27 प्रतिशत, अनुसूचित जाति (एससी) से 21 और अनुसूचित जनजाति (एसटी) से 2 प्रतिशत थानेदार बनाए जाने चाहिए। 

राज्य में कुल 1465 पुलिस थाने हैं। इस तरह देखें तो 732 थानों में सामान्य, 396 में ओबीसी, 308 में एससी और 29 में एसटी थानेदारों की तैनाती होनी चाहिए। लेकिन आज 17 सालों बाद भी यह सरकारी आदेश ढंग से लागू नहीं किया जा सका है। 

सरकार ख़ुद अपने आदेश का उल्लंघन कर रही है, जिसकी तस्दीक़ उत्तर प्रदेश अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति आयोग ही करता है। इस संस्था के अध्यक्ष बृजलाल बीते 17 नवंबर को सेवानिवृत्त हुए। अपने अंतिम कार्य दिवस पर उन्होंने अपनी उपलब्धि के रूप में बताया कि अब राज्य में एससी-एसटी थानेदारों की तैनाती 19.2 प्रतिशत हो गयी है। लेकिन इससे यह भी साफ़ है कि योगी सरकार में अनुसूचित जाति व जनजाति को निर्धारित 23 प्रतिशत आरक्षण नहीं दिया जा रहा है।

बृजलाल ने यह भी बताया कि जब उन्होंने 19 महीने पहले आयोग के अध्यक्ष का पदभार संभाला था, तब केवल 10 प्रतिशत एससी-एसटी थानेदार तैनात थे। उन्होंने परोक्ष रूप से इसके लिए पूर्ववर्ती अखिलेश यादव सरकार को ज़िम्मेदार ठहराया। दरअसल, उत्तर प्रदेश की कड़वी सच्चाई यही है कि यहाँ थानेदारों की तैनाती सरकारी आरक्षण नीति के बजाय मुख्यमंत्री के मन-मिजाज़ और उनकी जाति के हिसाब से होती रही है। जब से भाजपा की योगी आदित्यनाथ सरकार सत्ता में आयी है, राज्य के मुख्य शहरों के ज़्यादातर थानों में सवर्ण जाति के ही थानेदारों की नियुक्ति हो रही है।

इस साल के जून महीने में जानी-मानी सामाजिक कार्यकर्ता नूतन ठाकुर ने आरटीआई के ज़रिये भी इसी तथ्य को उजागर किया। आरटीआई से जो जानकारी मिली उससे पता चला कि राजधानी लखनऊ के 60 फ़ीसदी थानों के थानेदार क्षत्रिय या ब्राह्मण समुदाय के थे। सरकार द्वारा दी गयी सूचना के मुताबिक़, लखनऊ के कुल 43 थानों में से 14 में क्षत्रिय, 11 में ब्राह्मण, 9 में ओबीसी, 8 में एससी और एक में सामान्य वर्ग के मुस्लिम थानेदार की तैनाती थी। सबसे ज़्यादा अधिकारी मुख्यमंत्री की अपनी जाति ठाकुर बिरादरी से थे। लखनऊ में मुसलमानों की आबादी एक चौथाई से कुछ ज़्यादा है, लेकिन जून महीने में ज़िले में तैनाती केवल दो मुसलमान थानेदारों की थी। एक ओबीसी और एक सामान्य वर्ग का।

2002 के सरकारी आदेश के मुताबिक़, आरक्षण नीति का पालन ज़िला स्तर पर होना है। लेकिन ऐसा नहीं हो रहा है। लखनऊ में ओबीसी को 27 की जगह केवल 20 प्रतिशत और एससी को 21 की जगह 18 प्रतिशत थानेदार पद ही मिले। इतना ही नहीं, कुछ जातियों को विशेष रूप से निशाना बनाया जा रहा है। राज्य में यादव सबसे बड़ी ओबीसी जातियों में हैं और उन्हें अमूमन समाजवादी पार्टी का समर्थक माना जाता है। इसी का नतीजा है कि जून महीने में लखनऊ ज़िले के थानेदारों की जो सूची सरकार की ओर से उपलब्ध कराई गयी उसमें एक भी थानेदार यादव जाति का नहीं था।

इसके क़रीब एक साल पहले, मई 2018 में भी आरटीआई से लखनऊ के थानेदारों की सूची मांगी गयी थी। उस सूची के मुताबिक़, लखनऊ के 77 प्रतिशत थानों में तथाकथित ऊंची जाति के लोग क़ाबिज़ थे, जबकि मुसलमान थानेदार एक भी नहीं था। उस समय भी यादव जाति को जान-बूझकर किनारे रखने की बात सामने आयी थी। योगी सरकार के कार्यकाल के शुरुआती दिनों में, एक समय वाराणसी के 24 थानों में से 23 में, और इलाहाबाद के 44 थानों में से 42 में ऊंची जातियों के थानेदार थे। वर्तमान में भी थानेदार से लेकर राज्य के डीजीपी तक की कुर्सी पर उत्तर प्रदेश में ठाकुर जाति का दबदबा है।

योगी सरकार से पहले अखिलेश यादव सरकार में भी यही कहानी थी, बस ठाकुर-ब्राह्मण की जगह तब यादव बिरादरी का बोलबाला था। जुलाई 2015 की एक रिपोर्ट के मुताबिक़, तब यूपी के 1526 थानों में से लगभग 600 में थानेदार यादव बिरादरी के थे। राजधानी लखनऊ के 43 पुलिस थानों में से 20 में यादव थानेदार तैनात थे। कानपुर के 44 में से 17 थानों के थानेदार यादव जाति के थे। 

और पहले जब मायावती सरकार थी तो पुलिस विभाग में अहम पदों पर तैनाती में अनुसूचित जाति के लोगों को ख़ास तरजीह दिये जाने के आरोप सामने आते थे।

ऐसे में तो यही लगता है कि पता नहीं कब हमारी पुलिस व्यवस्था अपने राजनीतिक आक़ाओं की संकीर्ण सोच के दायरे से बाहर निकल पायेगी।

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