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अमेरिकी पूँजीवाद अपने संकट काल में है
ट्रंप पूँजीवाद के ही एक उत्पाद के तौर पर हैं और इसे अमेरिकी पूंजीवाद के चुकता होने के तौर पर चिह्नित किये जाने की आवश्यकता है.
रिचर्ड डी. वोल्फ़
12 Jun 2020
ट्रंप
फोटो साभार : विकिपीडिया

पूँजीवाद में हमेशा से ही व्यापारिक चक्र विद्यमान रहे हैं। वे सभी पूंजीवादी उद्यम जो वस्तुओं और सेवाओं के उत्पादन से सम्बद्ध हैं, मालिक और कर्मचारियों के बीच के द्वंद्वात्मक रिश्तों और बाजार के प्रतिस्पर्धात्मक संबंधों के इर्दगिर्द विशिष्ट तौर पर आयोजित रखते हैं। पूंजीवाद के ये केंद्रीय रिश्ते मिलकर समय-समय पर चक्रीय अस्थिरता को जन्म देते हैं। जिस किसी भी देश में इन पिछले तीन शताब्दियों में पूँजीवाद वहां के समाज की केन्द्रीय आर्थिक व्यवस्था बनकर उभरा है, वहाँ पर इस प्रकार के व्यापारीय चक्र हर चार से सात वर्षों में घटित होते रहते हैं। पूंजीवाद के पास इन चक्रीय अवस्थाओं में टिके रहने के अपने तंत्र मौजूद रहते हैं, हालाँकि ये काफी पीड़ादायक होते हैं, खासकर जब नियोक्ता एक-एक कर कर्मचारियों को नौकरियों से निकाल बाहर करते हैं।

व्यापक पीड़ा (बेरोजगारी, दिवालिया होना, सार्वजनिक वित्त का बाधित होना, इत्यादि) इस प्रकार की पूंजीवादी चक्रीय मंदी को "संकट" का लेबल लगा देती है। सिर्फ कुछ विशेष मौकों पर ही और शायद ही कभी पूंजीवाद में चलने वाला यह चक्रीय संकट एक व्यवस्था के बतौर पूंजीवाद के संकट के रूप में सामने आता है। इसके लिए आमतौर पर कुछ अन्य गैर-आर्थिक संकटों (राजनीतिक, सांस्कृतिक और/या प्राकृतिक) को चक्रीय आर्थिक मंदी के बतौर ठीक उसी दौरान शीर्ष पर बने रहने की आवश्यकता होती है। आज अमेरिकी पूंजीवाद में इन दोनों ही प्रकार के संकट का दौर मौजूद है।

अमेरिकी आर्थिक नीति अब जिस पर अपना ध्यान केंद्रित किये हुए है, वह पहले से ही 1929 के संकट के बाद से अब तक का सबसे भयानक व्यापारिक चक्रीय मंदी साबित हो चुका है। जैसे-जैसे आंकड़े इकट्ठे हो रहे हैं, काफी संभव है कि यह वैश्विक पूंजीवाद के समूचे इतिहास में अबतक का सबसे बदतरीन संकट साबित हो। चार करोड़ बेरोजगार अमेरिकी श्रमिकों के पास आय के कोई स्रोत नहीं रह गए हैं, बचत तेजी से गायब हो रही है और पहले से ही ऋग्रस्त परिवारों के आर्थिक हालात बिगड़ते जा रहे हैं।

आज व्यापक बेरोजगारी का जो आलम नजर आ रहा है वह बाकी के बचे 12 करोड़ रोजगारशुदा लोगों के लिए भी किसी खतरे से कम नहीं जो आज अमेरिकी श्रम शक्ति का हिस्सा हैं। व्यापक पैमाने पर बेरोजगारी अपने आप में हमेशा से मालिकों को श्रमिकों के वेतन, लाभ और उनके काम की स्थितियों में मिल रही सुविधाओं में कटौती करने के लिए उकसाने का काम करती है। यदि उनमें से कोई भी कर्मचारी नौकरी छोड़ने की पेशकश करता है तो दसियों लाख बेरोजगारों में से कई उस रिक्त स्थान को भरने के लिए लालायित रहते हैं। इस स्थिति से भलीभांति परिचित ज्यादातर कर्मचारी अपने मालिक की ओर से की जा रही कटौती की पेशकश को स्वीकार कर लेते हैं। नियोक्ता इस कदम को "महामारी" से लड़ने के नाम पर जरुरी उपाय के तौर पर जायज ठहरा सकते हैं, या इसकी वजह से मुनाफे पर जो असर पड़ा है, उसके चलते इस आवश्यक कदम उठाना पड़ा।

ट्रंप और रिपब्लिकन के नेतृत्व में और डेमोक्रेटस नेताओं द्वारा सबकुछ देखकर भी खामोश बने रहने के कारण अमेरिकी नियोक्ता श्रमिकों के खिलाफ वर्ग युद्ध को तीखा करते जा रहे हैं। व्यापक पैमाने पर बेरोजगारी फैलने से यही सब लक्ष्य पूरे होते हैं। एक तरफ वॉशिंगटन ने पूंजीपतियों को अरबों-खरबों डॉलर के बेल-आउट पैकेज से नवाजा है। जबकि दूसरी ओर वॉशिंगटन की ओर से भारी पैमाने पर बेरोजगारी (वित्त पोषण द्वारा) को वैधता प्रदान करने में अपनी भूमिका निभाई है जो सीधे तौर पर समूचे मजदूर वर्ग की भूमिका को नकारता है। उदाहरण के लिए यही काम जर्मनी और फ्रांस में नहीं हो सकता था, क्योंकि उनके मजदूर आंदोलनों और समाजवादी पार्टियों के सामाजिक प्रभावों के चलते ये देश इस प्रकार की बेरोजगारी को अपने यहाँ नहीं बने रहने दे सकते हैं। इसके ठीक विपरीत अमेरिका में इतने व्यापक पैमाने पर बेरोजगारी के अनुमानित परिणाम के तौर पर सामाजिक विभाजन, नए सिरे से नस्लवाद, समाज में उठ रहे विरोध प्रदर्शन और सरकारी दमन (अक्सर हिंसक) गहराते जा रहे हैं।

एक बदहवास राष्ट्रपति जिसे आसन्न चुनावों में हार का डर सता रहा है, क्योंकि उसकी सरकार (1) एक बुरे वायरस या (2) पूंजीवाद में चलने वाली व्यावसायिक चक्रीय मंदी या (3) इन दोनों के विनाशकारी संयोजन के खिलाफ की जाने वाली आवश्यक तैयारी कर पाने या उसे रोक पाने में विफल रही है। गोरी चमड़ी के वर्चस्व, पुलिसिया बर्बरता, बड़े पैमाने पर मीडिया पर नियंत्रण, और अन्य उपायों के जरिये ट्रंप को अपने राजनीतिक आधार को एकजुट करने के प्रयासों में मदद मिली है। इसी प्रकार बलि के बकरे के रूप में देश के बाहर लक्षित हमलों में सारी कोशिश इस बात को लेकर की जा रही है कि कैसे उनकी सरकार और व्यवस्था की विफलता से लोगों के ध्यान को हटा लिया जाए। इसके लिए आप्रवासियों, चीन, डब्ल्यूएचओ, ईरान के साथ-साथ पूर्वी यूरोप के मित्र देशों तक को निशाना बनाया जा रहा है।

ट्रंप/जीओपी शासन द्वारा अपनाए गए इन इन सभी पैंतरेबाजियों ने विपक्षियों को उकसाने का काम किया है। लेकिन वे बिखराव का शिकार होने के साथ ही राजनीतिक स्तर पर भी अभी असंगठित तौर पर काम कर रहे हैं। उन सभी को एकजुट करने और आपस में बेहतर तालमेल के बजाय डेमोक्रेटिक पार्टी का नेतृत्व ठीक उलट काम में लगा है। इसने बर्नी सैंडर्स के आन्दोलन को नकारने, विशेष तौर पर मध्य-वर्गीय अफ्रीकी अमेरिकी समुदाय के एक बड़े हिस्से को इससे तोड़ने का ही काम किया है। इस प्रकार चाहे भले ही अस्थाई तौर पर ही सही लेकिन एक शक्तिशाली उभरते हुए विपक्ष को अवरुद्ध करके, डेमोक्रेटिक पार्टी के नेताओं ने बेल-आउट पैकेज, बेरोजगारी, न्यूनतम संख्या में किये जा रहे कोविड-19 के परीक्षण और सरकार की अन्य सभी विफलताओं के खिलाफ व्यापक पैमाने के प्रतिरोध से बचने का ही काम किया है। वे किसी तरह सिर्फ नवंबर 2020 के चुनावों में जीत हासिल करने की सोच रहे हैं।

बिडेन के गोलमोल "सामान्य हालात की बहाली" के वादे ट्रंप/जीओपी की ओर से लगातार चलाए जा रहे संकट-ग्रस्त, भयादोहन वाली विभाजनकारी ऐजेंडे के बरक्श सुकून देने वाले एंटीडोट्स के बतौर पेश करने की कोशिशें नजर आती है। ट्रंप अपने कट्टरपंथी पूंजीवाद-समर्थक अजेंडे के साथ-साथ नागरिक अधिकारों और स्वतंत्रता के खिलाफ प्रतिक्रियावादी सांस्कृतिक और राजनीतिक युद्ध के अपने अभियान के साथ मैदान में कूद पड़े हैं। यह पुरानी जीओपी रणनीति है लेकिन फिलहाल यह उसका बेहद अतिरंजित नमूना है। डेमोक्रेट्स इसके मुकाबले के तौर पर प्रतिक्रियावादी रूख अपना रहे हैं: एक पुनर्जीवित शीत युद्ध (रूस और/या चीन के खिलाफ) और एक घरेलू सुरक्षा जो कि जीओपी की योजना से कम कटा हुआ है। सांस्कृतिक युद्ध शायद वह एकमात्र ऐसा क्षेत्र है जहां डेमोक्रेटस को लगता है कि वे दक्षिणपंथ के दबावों के आगे झुककर भी कुछ वोट नहीं गंवाने जा रहे हैं।

एक दूसरे के विकल्प के तौर पर मौजूद डेमोक्रेटिक और रिपब्लिकन सरकारों ने ही आज के गतिरोध का उपजाया है। यहाँ पर अमेरिका के घटते आर्थिक और राजनीतिक पदचिह्नों के साथ-साथ वैश्विक अलगाव को भी देखा जा सकता है। इसके तकनीक के क्षेत्र में चले आरे वर्चस्व को वैश्विक स्तर पर और विशेष तौर पर चीन की ओर से लगातार चुनौती दी जा रही है। उस चुनौती को तोड़ने के प्रयासों को अभी तक सफलता नहीं मिल सकी है, और भविष्य में भी नहीं लगता कि इसमें कोई खास सफलता मिलने जा रही है। इसके अलावा दोनों ही मुख्य दलों द्वारा जिस तरह से चीन विरोधी अभियान को संचालित किया जाना जारी है, इससे केवल वैश्विक आर्थिक विकास की रफ़्तार ही मंद पड़ सकती है, जब अनेकों परिस्थितियां उस अनिक्छुक भविष्य को निर्मित करने के लिए अभिसरण करेंगी। जिस प्रकार से रिकॉर्ड-तोड़ स्तर पर सरकारी, कॉर्पोरेट और घरेलू ऋणग्रस्तता में इजाफा हुआ है उसकी वजह से अमेरिकी अर्थव्यवस्था असाधारण तौर पर भविष्य में लगने वाले झटकों और चक्रीय मंदी के लिए बेहद दयनीय स्थिति की ओर पहुँच चुकी है।

40 वर्ष से कम उम्र की अमेरिकी पीढ़ी निरंतर ऋणग्रस्तता के बोझ तले जूझ रही है। जिस प्रकार की नौकरियां और उनसे होने वाली आय से वे जूझ रहे हैं, वे पहले से ही उनके "अमेरिकन ड्रीम" के उनके अरमानों से बाहर की चीज हो चुकी हैं,  बचपन में जिसका उनसे वादा किया गया था। और न ही अब वे भविष्य को लेकर कुछ खास आशान्वित रह गए हैं क्योंकि वर्तमान में जारी महामारी से उपजी दुर्घटना ने उनके जीवन में तकलीफों को पहले से कहीं काफी अधिक बढ़ा डाला है। विरोध प्रदर्शनों में जो उफान देखने को मिला है, जिसे सरकारी दमन ने कहीं और अधिक उकसाने का काम किया है, से किसी को हैरानी नहीं होनी चाहिये।

बार-बार के सर्वेक्षणों में किये गए मतदान में आधे युवा जहाँ आज "पूंजीवाद पर समाजवाद को प्राथमिकता दे रहे हैं" यह खस्ताहाल होती पूंजीवादी वास्तविकता के प्रति उनके बढ़ते विद्वेष को दर्शाता है। 1940 के दशक के उत्तरार्ध से शीत युद्ध के दौरान अमेरिकी स्कूली सिस्टम को आकर प्रदान किया गया था, जहाँ पर समाजवाद के मूल सिद्धांतों और प्रयोगों को गंभीरता से पाठ्यक्रम में नहीं सिखाया जाता था। समाजवादियों के बीच में होने वाली बहस कि समाजवाद कैसे बदल रहा था या उसे बदलना चाहिए के बारे में ज्यादातर कोई जानकारी नहीं थी। आज पूंजीवाद की आलोचना और समाजवाद के विभिन्न स्वरूपों के बारे में युवाओं के बीच बढ़ती रुचियों ने शीत युद्ध के समय की बनी बनाई अवधारणाओं को खारिज करने के साथ-साथ पूँजीवाद की विफलता को भी उनके मन में अंकित किया है, जिसने उन्हें विफल कर दिया है।

कोरोनावायरस महामारी और पूंजीवादी अवसाद के इस संयुक्त चरणबद्ध झटकों के बाद अब किसी भी प्रकार के "सामान्य हालात में वापसी" की गुंजाईश नहीं बनती है। कई लोग ऐसी कोई वापसी भी नहीं चाहते हैं क्योंकि उनका मानना है कि इसी सामान्य हालात ने महामारी और आर्थिक दुर्घटना को जन्मा है। उनका यह भी विश्वास है कि उस पुराने सामान्य दौर के प्रबंधकों, जिसमें निजी और सरकारी दोनों पदों पर आसीन कॉर्पोरेट सीईओज का विरोध और उन्हें कड़े सार्वजनिक जाँच के दायरे में लाये जाने की जरूरत है कि क्योंकि उनके सामान्य दिनों की कवायद ने क्या गुल खिलाये हैं और एक बार यदि फिर से नेतृत्व दिया गया तो वे इसे कहाँ आगे ले जाना पसंद करेंगे।

वे प्रबंधक उन समस्याओं को हल नहीं कर रहे हैं जिनको पैदा करने में उन्होंने मदद की थी: वायरस को लेकर बेहद अपर्याप्त संख्या में किये जा रहे परीक्षण, सबसे बड़े बैंकों और निगमों के लिए अब तक के सबसे बड़ी बेलआउट स्कीम, व्यापक स्तर दौलत और आर्थिक असमानताओं को गहरा करते जाने का काम।

फिर उन प्रबंधकों को सत्ता में क्यों बने रहने दिया जाए? जब स्थितियाँ "सामान्य" थीं तब उनके रोल को देखते हुए आज हमें उनसे अलग परिणामों की उम्मीद नहीं करनी चाहिए।

बेशक ये विरोध प्रदर्शन अफ्रीकी अमेरिकी समुदायों के इर्दगिर्द ही भड़के थे। सामाजिक और रोजगार के मामलों में भेदभाव और पुलिस उत्पीड़न के उनके लंबे इतिहास से परे जाकर हमें इस बात को भी याद रखना आवश्यक है कि 2008-2009 की महान मंदी के दौर में भी यही वह समुदाय था जिसे इसके दुष्प्रभावों को सबसे अधिक झेलना पड़ा था। उस दौरान इनके बीच में बेरोजगारी की दर अपने चरम पर पहुँच चुकी थी, कहीं बड़े अनुपात में उन्हें अपने घरों से हाथ धोना पड़ा था, इत्यादि। कोरोनावायरस के कारण होने वाली मौतें भी श्वेत समुदायों की तुलना में उनके समुदाय में कहीं ज्यादा हुई हैं। तुलनात्मक तौर पर कम-भुगतान करने वाले सेवा क्षेत्र की नौकरियों पर इनकी निर्भरता की वजह से, एक बार फिर से उन्हें इस 2020 के अमेरिकी पूंजीवाद के क्षतिग्रस्त होने का सबसे अधिक खामियाजा भुगतना पड़ रहा है। ऐसे में तब एक राष्ट्रपति जब खुलेआम श्वेत वर्चस्व और श्वेत वर्चस्ववादियों को प्रश्रय देता है, जबकि वहीं खुद नस्लवादी टिप्पणी करता है और दोहराता है, तो ये सब चीजें विरोध प्रदर्शनों को भड़काने के लिए आग में घी का काम करती हैं। भले ही ऐसा करना ट्रंप/जीओपी के चुनावी अभियानों के लिए फायदेमंद हो, लेकिन सामाजिक तौर पर विरोध प्रदर्शनों ने और पुलिस की दमनात्मक प्रतिक्रियाओं ने पहले से ही वायरल महामारी और आर्थिक दुर्घटना के विनाशकारी संयोजन में तीखे सामाजिक संघर्षों को जोड़ने में मदद की है।

ट्रंप अपने आप में एक उत्पाद हैं और अमेरिकी पूंजीवाद के चुकता होते जाने के प्रतीक के तौर पर हैं। 1930 के दशक के महामंदी के आघात के बाद से जीओपी और डेमोक्रेट्स के बीच के लंबे, आरामदायक सरकारी वैकल्पिक उपायों ने अपने मकसद को हासिल कर लिया था। इसने एफडीआर के शीर्ष से मध्य और नीचे तक धन के पुनर्वितरण के काम को उलटकर रख दिया था। इसने उस समस्या को उलट कर धन और आय के पुनर्वितरण की व्यवस्था को “दुरुस्त” करने का काम कर डाला था। उस “दुरुस्त” किये जाने को विचारधारात्मक आवरण पहनाने के लिए घरेलू समाजवाद को द्विदलीय की ओर से उसका दानवीकरण किया गया और साथ ही यूएसएसआर के साथ शीत युद्ध की द्विदलीय खोज भी की गई। जीओपी बनाम डेमोक्रेटिक पार्टी के बीच का प्रमुख विवाद इस बात को लेकर चलता रहा है कि निजी पूंजीवाद के लिए सरकारी समर्थन का क्या तौर-तरीका होना चाहिये और किस हद तक इसे किये जाने की आवश्यकता है (जैसा कि कीन्स बनाम फ्रीडमैन, आदि में)। इस मामूली नुक्ताचीनी को राजनेताओं, पत्रकारों और शिक्षाविदों के बीच में बहस करने के लिए इसे "प्रमुख मुद्दे" की हैसियत से नवाजा गया क्योंकि इसके माध्यम से उन्होंने पूंजीवाद बनाम समाजवाद की बहसों को दफन कर दिया था।

पूंजीवाद ने इस प्रकार शीर्ष पर बैठे 1 प्रतिशत के पक्ष में संपत्ति और आय के पुनर्वितरण को बेतरह पहुँचाने का काम किया है, वहीं दूसरी ओर विशाल आबादी को अधिकाधिक कामकाज में और अतिरिक्त ऋणग्रस्तता के बोझ तले दबाने, और इसलिए "अच्छी नौकरियों" (विदेशों में स्थानापन्न करने के माध्यम से या ऑटोमेशन के जरिये) को समाप्त करने का काम किया है। नतीजे के तौर पर व्यवस्था ने खुद ही पहले से कहीं अधिक असंतोष, आलोचना, और विरोध को आकर्षित करने का काम किया है। पहले पहल इसने सामाजिक विभाजन के गहरा होते जाने के तौर पर व्यवस्था के विघटन को इंगित किया है। अब खुलेआम सड़कों पर चल रहे प्रतिरोध ने अमेरिकी व्यवस्था के पूर्ण-संकट के करीब ला खड़ा कर दिया है।

ट्रंप ने पूंजीवाद के पुराने प्रबंधकों को राजनीतिक तौर पर नाराज छोटे व्यवसाइयों और मध्यम आय वाले श्रमिकों के माध्यम से धमकाते हुए अपने वश में कर लिया है। ट्रंप ने इन बाद वालों से वादा किया है कि जो धन के उर्ध्वगामी पुनर्वितरण की नई व्यवस्था से पहले जो उनके पास था, जिससे उन्हें चोट पहुँची थी, उस पुरानी अवस्था में लौटाने का वादा किया है। वहीं पुराने प्रबंधकों को ट्रंप की ओर से आश्वस्त किया गया है कि केवल वह और उनका आधार ही उनके सामाजिक हैसियत को, जो कि उर्ध्वगामी पुनर्वितरित समकालीन पूंजीवाद को सुरक्षित बनाए रख सकता है। वे ही इन पुराने प्रबंधकों को बर्नी के "प्रगतिवाद" और "समाजवाद" से बचा सकते हैं। वहीँ डेमोक्रेटिक पार्टी का पुराना "मध्यमार्गी" नेतृत्व कमजोर, आंशिक विरोध की पेशकश करता है, इस उम्मीद में कि ट्रंप हद से बाहर चले जाएँ और गोप अपने ही बोझ से ध्वस्त हो जाए।

महामारी के इस दौर में जिस तरह से व्यापक तौर पर मौजूदा बेरोजगारी को "प्रबंधित" करने का काम चल रहा है, ये इस बात के संकेत हैं कि आने वाले महीनों और वर्षों में मज़दूरी और अन्य लाभ पर भारी कुठाराघात होने वाला है। सम्पत्ति को एक बार फिर से अधिकाधिक उर्ध्वगामी पुनर्वितरण को सुनिश्चित किया जाना तय है। सामाजिक विभाजन गहरे होते जायेंगे और नतीजे के तौर पर सामाजिक विरोध प्रदर्शन भी उत्तरोत्तर तेज होते जायेंगे। पूंजीवाद में मौजूद यह संकट अपनेआप में पूंजीवाद का संकट भी है।

स लेख को इकोनॉमी फॉर ऑल की ओर से तैयार किया गया था, जो कि इंडिपेंडेंट मीडिया इंस्टीट्यूट की एक परियोजना है।

रिचर्ड डी. वोल्फ, मैसाचुसेट्स विश्वविद्यालय, में अर्थशास्त्र के एमेरिटस प्रोफेसर हैं, और न्यूयॉर्क में न्यू स्कूल यूनिवर्सिटी के अंतर्राष्ट्रीय मामलों में स्नातक कार्यक्रम में प्रोफेसर हैं। वोल्फ के साप्ताहिक शो, "इकोनॉमिक अपडेट" को 100 से अधिक रेडियो स्टेशनों द्वारा प्रसारित किया जाता है और फ्री स्पीच टीवी के माध्यम से 5.5 करोड़ टीवी रिसीवरों तक जाता है। डेमोक्रेसी एट वर्क में उनकी दो हालिया किताबें अंडरस्टैंडिंग मार्क्सिज्म और अंडरस्टैंडिंग सोशलिज्म प्रकाशित हुई हैं, और दोनों democracyatwork.info पर उपलब्ध हैं।

साभार: इंडिपेंडेंट मीडिया इंस्टीट्यूट

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