उत्तर प्रदेश में 2007 में एक मज़बूत सियासी ताक़त बन कर उभरी बहुजन समाज पार्टी (बीएसपी), इस समय 403 सदस्यों वाली विधानसभा में केवल 7 विधायकों तक सीमित हो गई है। पार्टी को कमज़ोर होता देख, नेता भी दूसरे दलों के दरवाज़ों पर नज़र आ रहे हैं।
दलित प्रेरक कांशीराम द्वारा 1984 में स्थापित बीएसपी, 2007 में अपने शिखर पर पहुँची, जब पार्टी ने 206 सीटें जीत कर अपने बल पर उत्तर प्रदेश में सरकार बनाई थी। लेकिन 2007 से 12 तक इस महत्वपूर्ण राजनीतिक राज्य पर हुक़ूमत करने के बाद, बीएसपी लगातार कमज़ोर हो रही है। उसका संसद और विधानसभा में संख्या बल भी कम हुआ है और जनाधार भी कमज़ोर पड़ा है।
अगर केंद्र की राजनीति की बात करें तो 2009 के आम चुनावों में बीएसपी ने 21 सीटों पर विजय हासिल की थी। लेकिन 2014 में प्रदेश से बीएसपी एक सांसद तक नहीं जिता सकी थी। पिछले आम चुनाव 2019 में बीएसपी को अपनी विरोधी पार्टी समाजवादी पार्टी (सपा) से मिलकर लड़ना पड़ा, जिसका फ़ायदा भी उसको मिला। बीएसपी ने 10 सीटों पर अपना झंडा लहराया। लेकिन इसके बावजूद मायावती ने सपा से समझौता ख़त्म कर दिया। मायावती का कहना था की सपा का वोट उनकी पार्टी को ट्रांसफ़र नहीं हुआ।
यही हाल प्रदेश की विधानसभा में बीएसपी का हुआ, 2012 में बीएसपी केवल 80 सीटें जीत सकी और जो 2017 में घटकर मात्र 19 ही रह गईं। विधानसभा चुनाव 2007 में 30.43 प्रतिशत वोट पाने वाली बीएसपी के पास 2012 में 25.95 प्रतिशत वोट ही रह गया।
मायावती के नेतृत्व में पार्टी को 2017 के विधानसभा चुनावों में 19 सीटों के साथ केवल 22.24 प्रतिशत वोट मिला। इन जीते हुए 19 विधायकों में से एक विधायक सांसद बन गए। जी हां, आम चुनाव 2019 में बीएसपी के जलालपुर के विधायक रितेश पाण्डेय ने अम्बेडकरनगर से जीत हासिल की। लेकिन रितेश पाण्डेय के सांसद जाने के बाद, अक्टूबर 2019 में जलालपुर सीट पर हुए विधानसभा उप-चुनाव में बीएसपी हार गई। इस तरह से प्रदेश विधानसभा में बीएसपी विधायकों की संख्या 19 से घट कर 18 हो गई थी। अब इन 18 विधायकों में से 11 विधायकों को स्वयं पार्टी सुप्रीमो मायावती ने पार्टी से बाहर निकाल दिया।
पिछले तीन साल में पार्टी से निकले गये इन विधायकों में पार्टी के संस्थापक सदस्यों से लेकर, पार्टी के चार पूर्व प्रदेश अध्यक्ष तक शामिल हैं।
उल्लेखनीय है 2007 से पहले भी बीएसपी तीन बार 1995,1997 और 2002 समाजवादी पार्टी (सपा) और भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) के समर्थन से प्रदेश में सरकार बना चुकी थी। बीएसपी की सभी चारों सरकार में मायावती ही मुख्यमंत्री बनीं।
अब जब 2022 के शुरू में ही उत्तर प्रदेश विधानचुनाव होने हैं, बीएसपी से निकाले गये विधायक अपने लिये नया घर तलाश कर रहे हैं। अपने स्थानीय राजनीतिक समीकरण को देखते हुए किसी की नज़र सपा पर है तो कोई सत्तारूढ़ बीजेपी की तरफ़ देख रहा है।
हाल में पार्टी के संस्थापक सदस्य लालजी वर्मा और पूर्व प्रदेश अध्यक्ष राम अचल राजभर को बीएसपी से निकल दिया गया। जिसके बाद बीएसपी बग़ावत के आसार नज़र आ रहे हैं। क्योंकि अब एक भी विधायक पार्टी से निकलता है या निकाला जाता है, तो नई पार्टी बनाई जा सकती है।
अलग दल बनाने के लिए 18 विधायकों में से कम से कम 12 विधायक होना जरूरी है और अब तक 11 विधायक निकाले जा चुके हैं।
बता दें कि “दल बदल कानून” कहता है कि जब तक मूल पार्टी के दो तिहाई विधायक नहीं टूटते तब तक नई पार्टी नहीं बनाई जा सकती है।
बीएसपी से बगावत करने वाले असलम राईनी ने दावा किया है कि वह अन्य बीएसपी विधायकों के साथ मिलकर नई पार्टी बनाएंगे जिसका नेतृत्व लालजी वर्मा कर सकते हैं। उन्होंने कहा कि “हम 11 विधायक हैं, जैसे ही एक और विधायक हमें मिलता है हम नई पार्टी बना लेंगे।”
इसी बीच बीएसपी के बागी विधायकों ने 15 मई को सपा अध्यक्ष और पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव से मुलाकात की थी। हालांकि, सिर्फ 6 बागी विधायक ही अखिलेश से मिलने गए थे।
अखिलेश यादव से मिलने वाले विधायकों में, भिनगा-श्रावस्ती से विधायक असलम राइनी, प्रतापपुर-इलाहाबाद से विधायक मुजतबा सिद्दीकी, हांडिया-प्रयागराज से विधायक हाकिम लाल बिंद, सिधौली-सीतापुर से विधायक हरगोविंद भार्गव, ढोलाना-हापुड़ से विधायक असलम अली चौधरी और मुंगरा बादशाहपुर विधायक सुषमा पटेल शामिल थे।
इसके बाद यह भी कहा जा रहा है कि कहीं ये विधायक नई पार्टी बनाने में असमर्थ रहने पर, सपा में शामिल होने की योजना बना रहे हैं।
इस बात की भी चर्चा है कि राम अचल राजभर बीजेपी और लालजी वर्मा सपा के नेताओ के संपर्क में हैं। जबकि दोनों अभी इस बात की पुष्टि करने से इंकार कर रहे हैं।
कहा जा रहा है कि बीएसपी के लिए इस वक़्त सबसे बड़ी चुनौती यह है कि वह अपने बचे 7 विधायकों को पार्टी के साथ जुड़ा रखे। वरना बीएसपी के समानांतर एक नई पार्टी खड़ी हो सकती है। जिस से आगामी चुनावों में बीएसपी को बड़ा नुक़सान हो सकता है।
उधर चन्द्रशेखर आज़ाद की आज़ाद समाज पार्टी की नज़र पहले से ही जाटव समाज पर रही है। जो मूलतया प्रदेश में कांग्रेस के कमज़ोर होने के बाद से बीएसपी का वोटर रहा है। जाटव समाज के वोट में, अगर बीएसपी की टूट से बिखराव होता है, तो बीएसपी का वजूद ख़तरे में पड़ सकता है।
हालाँकि पार्टी में जन्मे इस संकट के लिए ज़्यादातर राजनीतिक विश्लेषक पार्टी की सुप्रीमो मायावती को ही ज़िम्मेदार मानते हैं। उनका कहना है,कि मायावती केंद्र में 2014 में, नरेंद्र मोदी की सरकार बनने के बाद से विपक्ष की भूमिका में नज़र ही नहीं आईं।
मायावती ज़्यादातर मुद्दों पर ख़ामोश रहीं या सत्ता के समर्थन में दिखी या अगर कभी विरोध किया तो इस तरह जैसे वह सत्ता पक्ष को सलाह दे रही हैं। मायावती पर टिकट बेचने के आरोप भी लगते रहे हैं, और कहा जाता है वह अपनी ही पार्टी के नेताओं से नहीं मिलती हैं।
राजनीति के जानकार कहते हैं कि, मायावती और उनके परिवार के ऊपर लगे आरोपो में कई मामलों की जाँच सीबीआई पूरी कर चुकी है। यही वजह की वह केंद्र व राज्य की बीजेपी सरकार के विरुद्ध स्वर नहीं उठा पा रही हैं।
विधायकों में इस बात का असंतोष है कि न वे उनसे मिलती हैं और न ही उनकी बातों पर पार्टी ग़ौर करती है। विधायकों का कहना है कि, पार्टी सुप्रीमो मायावती केवल, राज्यसभा संसद सतीश चन्द्र मिश्रा की बातों को गंभीरता से लेती हैं।
विधायकों का आरोप है की सतीश चन्द्र मिश्रा के कहने पर ही उनको पार्टी से बिना किसी सुनवाई के निकला दिया गया। बता दें कि सतीश चन्द्र मिश्रा 2004 से, बीएसपी के राष्ट्रीय महासचिव हैं। कहा जाता है कि वकील होने और क़ानून की समझ रखने की वजह से वह, मायावती के क़ानूनी मामलों की पैरवी भी करते हैं।
बीएसपी पर यह भी आरोप लगते रहे हैं कि प्रदेश में दलित व मुस्लिम समाज के साथ बीजेपी कार्यकाल में लगातार हुई उत्पीड़न की घटनाओं के बावजूद पार्टी सड़क पर नहीं उतरी है। जिसकी वजह से दोनो समाजों में पार्टी के विरुद्ध नाराज़गी है।
मुस्लिम समाज को बीएसपी के क़रीब लाने वाले नसीमुद्दीन सिद्दीक़ी पहले ही कांग्रेस में शामिल हो चुके हैं। पार्टी में क़द्दावर नेता रहे चुके स्वामी प्रसाद मौर्या और बीएसपी के ब्राह्मण चेहरा कहे जाने वाले ब्रिजेश पाठक का बीजेपी में शामिल हुए काफ़ी वक़्त हो चुका है और अब दोनों प्रदेश की योगी सरकार में मंत्री हैं।
मौजूदा बीएसपी के हालात पर टिप्पणी करते हुए राजनीतिक विश्लेषक कहते हैं कि निस्संदेह बीएसपी कमज़ोर हुई है। वरिष्ठ पत्रकार अतुल चंद्रा के अनुसार पिछले कुछ समय से बीएसपी से सिर्फ़ नेताओं के निकाले जाने की ख़बरें मिल रहीं थी। वह कहते हैं कि मायावती 2022 के चुनावों के लिए क्या रणनीति बनाती हैं, इस अभी कुछ नहीं कहा जा सकता है। लेकिन इस वक़्त प्रदेश में सबसे कमज़ोर स्थिति में बीएसपी लग रही है। हालाँकि अतुल चंद्रा आगे कहते है कि बीएसपी को अभी भी पूरी तरह ख़त्म नहीं माना जा सकता है।
कुछ वरिष्ठ पत्रकार मानते हैं कि पिछले काफी समय से मायावती सिर्फ़ ट्विटर और प्रेस नोट से राजनीति कर रही है उनका ज़मीनी आधार ख़त्म हो चुका है। राजनीतिक विश्लेषक शरत प्रधान का कहना मायावती जिस तरह की आक्रामक राजनीति करती थीं, वह ख़त्म हो चुकी है। ऐसा लगता है उन्होंने मान लिया है कि, उनकी राजनीतिक पारी समाप्त हो चुकी हैं।
बीएसपी की अगले चुनाव के लिए क्या रणनीति होगी इस पर अभी कुछ निकलकर सामने नहीं आया है। लेकिन यह भी नहीं कहा जा सकता है कि बीएसपी ख़त्म हो गई है। क्योंकि अभी हाल में हुए पंचायत चुनाव में वह तीसरे नंबर की पार्टी थी। यह भी नहीं कहा जा सकता है कि मायावती भविष्य में बीजेपी से समझौता करेगी या नहीं। क्योंकि वह पहले कई बार बीजेपी के सहयोग से सरकार बना चुकी हैं।
पिछले कुछ साल में बीएसपी ने सपा और कांग्रेस पर सत्तारूढ़ भाजपा से ज़्यादा हमले किये हैं। लेकिन यह भी याद रखना होगा कि जाटव समाज का एक बड़ा हिस्सा आज भी मायावती पर भरोसा करता है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)