NewsClick

NewsClick
  • English
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • हमारे लेख
  • हमारे वीडियो
search
menu

सदस्यता लें, समर्थन करें

image/svg+xml
  • सारे लेख
  • न्यूज़क्लिक लेख
  • सारे वीडियो
  • न्यूज़क्लिक वीडियो
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • अफ्रीका
  • लैटिन अमेरिका
  • फिलिस्तीन
  • नेपाल
  • पाकिस्तान
  • श्री लंका
  • अमेरिका
  • एशिया के बाकी
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें
सब्सक्राइब करें
हमारा अनुसरण करो Facebook - Newsclick Twitter - Newsclick RSS - Newsclick
close menu
SC ST OBC
भारत
राजनीति
दलितों में वे भी शामिल हैं जो जाति के बावजूद असमानता का विरोध करते हैं : मार्टिन मैकवान
जाने-माने एक्टिविस्ट बताते हैं कि कैसे वे इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि किसी दलित को जाति से नहीं बल्कि उसके कर्म और आस्था से परिभाषित किया जाना चाहिए।
एजाज़ अशरफ़
12 May 2022
Translated by महेश कुमार
Dalit Adhikar Yatra

शिक्षाविद मार्टिन मैकवान का प्रयास दलित शब्द को फिर से परिभाषित करने और इसे जाति से अलग करने का रहा है, जिसका सबसे अच्छा उदाहरण उनके इस साक्षात्कार के शीर्षक से मिलता है। एक प्रतिष्ठित शिक्षाविद, आपने मजदूरी कर अपनी पढ़ाई को वित्तपोषित किया। अपने कॉलेज के दिनों में, वे दलितों के साथ काम करने के लिए गैर-दलित बुद्धिजीवियों के एक समूह में शामिल हो गए थे, जिसमें ईसाई, पारसी, मुस्लिम और उच्च जाति के हिंदू समुदायों के एक-एक प्रोफेसर शामिल थे।

उनके काम को प्रतिक्रियाओं का सामना करना पड़ा। 25 जनवरी 1986 को, आनंद जिले के गोलाना गांव में दरबार समुदाय के प्रतिक्रियावादी जमींदारों ने उनके चार साथियों की हत्या कर दी थी, 18 अन्य को घायल कर दिया और घरों में आग लगा दी थी। इस घटना ने मैकवान को नवसर्जन ट्रस्ट की स्थापना के लिए प्रेरित किया, जिसका उद्देश्य दलितों को कुशल बनाना और प्रणालीगत उत्पीड़न के बारे में उनकी चेतना का विस्तार करना था, जिसके कि वे प्रमुख शिकार हैं।

25 जनवरी 2002 को, गोलाना नरसंहार की बरसी पर, उन्होंने ग्रामीण गुजरात में एक मार्च का नेतृत्व किया। मार्च के उनके अनुभव ने उन्हें एक किताब लिखने के लिए प्रेरित किया जिसमें उन्होंने दलित शब्द को फिर से परिभाषित किया। इस साक्षात्कार में, मैकवान बताते हैं कि किसके पास खुद को दलित कहने का अधिकार है, और जाति व्यवस्था की चार दीवारों के भीतर रहकर जाति का सफाया करना असंभव क्यों है। पेश है कुछ अंश:

आप दलित शब्द को फिर से परिभाषित करने के हिमायती हैं। आपको क्यों लगता है कि इस शब्द पर फिर से विचार करने की जरूरत है?

1977 में, जब मैं 17 साल का था और अहमदाबाद के सेंट जेवियर्स कॉलेज में पढ़ रहा था, अपने प्रोफेसरों के साथ में एक सर्वेक्षण करने के लिए वैनेज गांव गया था, जो खंभात की खाड़ी (या खंभात) पर स्थित है। मैंने देखा कि हर घर में या तो खपरैल की छत पर या बरामदे में या फिर आंगन की चारदीवारी पर चाय के प्याले रखे हुए थे।

मैंने ऐसा नजारा कभी नहीं देखा था। मैंने लोगों से पूछा कि ये प्याले क्या हैं। उन्होंने कहा, ये  राम पात्र (राम का बर्तन) है। मैंने पूछा: क्या आप इसकी पूजा करते हैं? हाँ, उन्होंने कहा। मैंने पूछा: ऐसा क्यों है कि ये प्याले इतने गंदे और बाहर रखे हुए हैं? क्या इन प्यालों को साफ करके घर के अंदर किसी सम्मानजनक स्थान पर नहीं रखना चाहिए?

वे हँसे और मुझे इस प्रथा के बारे में समझाया। जब दलित अपने तथाकथित उच्च जाति के मालिकों के घर मजदूरी लेने या उधार लेने के लिए जाते है, तो उनसे पूछा जाता था कि क्या वे चाय पीना चाहते हैं। फिर उन्हें कप को फर्श पर रखना होता था। ऊपर से उसमें चाय डाली जाती थी। दलितों को चाय पीने के बाद चाय की प्याली वहीं रखनी पड़ती थी, जहां से वे उन्हे उठाते थे।

यह अस्पृश्यता का उदाहरण है 

रुको, जब हम गाँव के दलित मुहल्ले में दोपहर का भोजन करने के लिए एकत्रित हुए, तो मैंने देखा कि यहाँ भी सभी घरों में प्याले रखे हुए हैं। मैं पूरी तरह से भ्रमित था। मैंने उनसे पूछा कि ये प्याले दलितों के घरों में क्यों हैं, फिर उन्होंने मुझे समझाया कि ये प्याले गैर-दलितों द्वारा दलितों के लिए रखे गए थे।

उन्होंने कहा कि वे दलित थे लेकिन वे उच्च थे। अगर, कहें, कोई हाथ से मैला ढोने वाला उनके पास जाता है, तो उसे भी राम पात्र में चाय दी जाएगी।

इस अनुभव ने आपको जागरूक बनाया?

वैनेज गांव का दौरा करने के लगभग 25 साल बाद, एक दिन मैं सुबह के 2 बजे उठा। अचानक मुझे समझ आया कि जाति व्यवस्था क्यों जारी है या हमेशा के लिए क्यों रहेगी, क्योंकि हर कोई इसे प्यार करता है।

दूसरे शब्दों में कहें तो, भले ही आप जाति के मामले में दूसरों के अधीन हों, आपके पास ऐसे लोग भी हैं जो आपके अधीनस्थ हैं।

बिल्कुल, आप उन्हीं सिद्धांतों और प्रथाओं में विश्वास करते हैं। यही कारण है कि जाति व्यवस्था कायम है। मुझे होश आने के तीन-चार दिन बाद नवसर्जन ट्रस्ट के करीब 100 साथियों की बैठक हुई। मैंने पूछा कि क्या उनमें से कोई इतने सालों तक काम करने के बाद, गुजरात के नक्शे पर एक ऐसे गाँव के बारे में बता सकता है जहाँ अब छुआछूत नहीं है। ऐसा करने के लिए कोई नहीं उठा।

इस बैठक में हमने गुजरात के गांवों में मार्च करने का फैसला किया। हमने एक नारा गढ़ा: 'राम पात्र छोडो, भीम पात्र अपनाओ।'

नारा प्रतीकों से भरा हुआ लगता है?

हां, राम पात्र या बर्तन भेदभावपूर्ण है और असमानता का प्रतीक है। भीम, जैसा कि आपने अनुमान लगाया होगा, भीमराव अम्बेडकर को संदर्भित करता है, जिन्होंने संविधान में समानता के विचार को शामिल किया था। इसी नारे के साथ हमने 25 जनवरी से 1 मई 2003 के बीच 473 गांवों में मार्च किया।

मार्च पर क्या प्रतिक्रिया मिली?

जबरदस्त प्रतिकृया मिली। जैसे ही हम किसी गाँव में पहुंचते, लोग घरों से बाहर निकल आते और ढोल बजाकर हमारा स्वागत करते थे। इसके बाद में, हम लोगों की सभा को संबोधित करते थे। उन्होंने पाँच प्रतिज्ञाएँ लीं, जिनमें से पहली थी: 'जब तक मैं जीवित हूँ, मैं राम पात्र से चाय नहीं पीऊँगा और न ही राम पात्र में किसी को चाय पिलाऊँगा।'

क्या मार्च के खिलाफ कोई विरोध नहीं हुआ था?

लेकिन एक गांव में जहां मुझ पर हमला हुआ, वहां कोई हिंसा नहीं हुई थी। मार्च में भारी भीड़ उमड़ी और राजनेता भी इसमें शामिल होने लगे थे। पहली बार, जिन गांवों से होकर हमने मार्च किया, वहां सभी उपजातियों के दलितों ने उन प्यालों से चाय पी, जो राम पात्र नहीं थे। यह एक तरह की क्रांति थी। कुछ गाँवों में, कुछ ब्राह्मण, हमारी बात सुनकर आगे बढ़े और हमसे पूछा कि क्या वे भी हमारे साथ चाय पी सकते हैं। कुछ मुसलमानों और आदिवासियों ने भी ऐसा ही किया।

क्या वे बड़ी संख्या में मार्च में शामिल हुए?

नहीं, उनकी संख्या कम थी। यह भी सच है कि ऊंची जातियां बेहद परेशान थीं। मार्च के बाद परेशानी हुई। जब दलितों को खेतों में राम पात्र में चाय पिलाने की कोशिश हुई तो उन्होंने मना कर दिया था। उनके मना करने पर ऊँची जातियाँ क्षुब्द और यहाँ तक कि नाराज़ भी थीं।

ध्यान रहे, ऐसे दलित भी थे जिन्होंने मैला ढोने वालों के प्याले से पीने या राम पात्र छोड़ने से इनकार कर दिया था। हमने उनसे कहा, 'आप दलित नहीं हैं। आप अनुसूचित जाति हैं।'

क्या आप दलित होने और सिर्फ अनुसूचित जाति होने के बीच के अंतर को बता सकते हैं?

आज दलितों के रूप में वर्गीकृत किए गए लोगों के लिए अलग-अलग शब्दों का इस्तेमाल किया जाता है। वे पहले उन लोगों के रूप में जाने जाते थे जो अछूत, अदृश्य और अगम्य थे। अंग्रेजों ने उन्हें काली जाति कहा। गांधी ने उन्हें हरिजन कहा। अम्बेडकर ने उनके लिए डिप्रेस्ड क्लास शब्द गढ़ा। यह बहुत बाद में दलित शब्द आया, जिसका अर्थ है टूटे हुए लोग था। 

यह 1970 के दशक में मुख्यतः दलित पैंथर आंदोलन के कारण हुआ था।

हां। लेकिन अगर आप किसी गांव में जाएं और पूछें, 'दलित कहां रहते हैं?', तो वे हैरान रह जाएंगे। जाति एक सामाजिक रचना है। कोई भी उच्च या निम्न जाति में पैदा नहीं होता है। इसलिए, प्रश्न उठता है: लोग जाति व्यवस्था से खुद को कैसे मुक्त करते हैं? दलित तब तक अपनी पहचान पर गर्व नहीं कर सकते, जब तक कि वे उस जाति में बंधे हुए हैं जिसे नीची दृष्टि से देखा जाता है।

मैं मार्टिन लूथर किंग के वाक्यांश ब्लैक इज ब्यूटीफुल से बहुत प्रभावित था। अब, काला, जाति के विपरीत, वास्तविक है—आप इसे महसूस कर सकते हैं, आप इसे देख सकते हैं, आप इसे छू सकते हैं। जो सच है उस पर आप गर्व कर सकते हैं। इस अहसास ने मुझे एक किताब लिखने के लिए प्रेरित किया, जिसका अंग्रेजी में शीर्षक है: 'माई स्टोरी'। 2003 में लिखी गई इस किताब में मैंने दलित को फिर से परिभाषित करने की कोशिश की थी। मैंने कहा, 'दलित वे हैं जो गुणवत्ता में विश्वास करते हैं, मानते हैं और उसका अभ्यास करते हैं। वे वे हैं जो जाति भेद की परवाह किए बिना अपने विचारों, भाषा और कार्य में समानता का दावा करते हैं।'

दूसरे शब्दों में, कोई भी व्यक्ति चाहे किसी भी जाति का क्यों न हो, वह तब तक दलित है जब तक वह समानता में विश्वास करता है।

आलोचक कहेंगे कि दलित की आपकी परिभाषा समुदाय को गैर-कट्टरपंथी बनाती है क्योंकि यह सभी जातियों को शामिल करती है- और दलित पहचान जाति से अलग हो जाती है।

हमें उस प्रश्न का उत्तर देना होगा जो अम्बेडकर 'जाति के विनाश' में उठाते हैं: क्या हम जाति चाहते हैं? या हम जाति को मिटाना चाहते हैं? खैर, अगर हम जाति को मिटाना नहीं चाहते हैं, तो हमें केवल सहयोग करना होगा और राम पात्र से पीना होगा।

मूल रूप से, लोगों को केवल अपनी प्रणालीगत अधीनता को स्वीकार करना होता है और अपने से नीचे के लोगों को अपने अधीन करने से अलग होना होगा। 

बिल्कुल, आप जाति व्यवस्था में रहकर जाति को नहीं मार सकते। भले ही भारत की सभी अनुसूचित जातियां एक मंच पर इकट्ठा हों जाएँ और अपनी जाति पर बहुत गर्व होने का दावा करें, फिर भी वे जाति व्यवस्था को खत्म करने में सक्षम नहीं होंगे- और अंतर्निहित असमानता जो इसे कायम रखती है उसे भी नष्ट नहीं कर पाएंगे।

तो आप उन लोगों में से नहीं हैं जो मानते हैं कि दलितों द्वारा सत्ता पर कब्जा करना ही जाति को भंग करने की कुंजी है?

अगर मैं सत्ता पर काबिज होने में भी सक्षम हो जाऊं, तो भी मेरे सामने यह सवाल होगा: क्या मैं राम पात्र में मैला ढोने वालों को चाय परोसना बंद करने के लिए तैयार हूं? संविधान कहता है कि सभी समान हैं। यह उन सभी का पाखंड है जो जय भीम कहते हैं, लेकिन फिर भी जाति व्यवस्था में विश्वास करते हैं।

क्या वे ऊंची जातियां जो समानता में विश्वास करती हैं और लड़ती हैं, क्या वे खुद को दलित कह सकती हैं? क्या आपकी परिभाषा में ऐसी ऊंची जातियां शामिल हैं?

हाँ बिल्कुल। पंचगनी में 2005 के एक सम्मेलन में, एक वक्ता ने हंगामा खड़ा कर दिया था। न्यायाधीशों, मानवाधिकार कार्यकर्ताओं और पत्रकारों सहित दर्शकों के सामने, उन्होंने कहा कि सभी उपस्थित लोगों को दो समूहों में विभाजित किया जा सकता है: दलित और गैर-दलित। वे एक दूसरे के दुश्मन हैं; वे कभी एक साथ नहीं आ सकते हैं।

मैं उनके बाद बोला। मैंने अपनी परिभाषा स्पष्ट की- कि समानता के लिए लड़ने वाले सभी दलित हैं। मैंने उन लोगों से पूछा, जो मेरी परिभाषा के अनुसार खुद को दलित मानते हैं वे हाथ उठाएं। सब हाथ उठ गए। जाति व्यवस्था के चारों कोनों के भीतर जाति की समस्या का कोई समाधान नहीं हो सकता है।

लेकिन लोग समानता में विश्वास कर सकते हैं, लेकिन अपने निजी जीवन में इसे बनाए रखने में, सचेत या अनजाने में असफल भी हो सकते हैं। हम इस विरोधाभास को कैसे हल करेंगे?

आपके इस प्रश्न के जवाब में, मैं आपको एक ऐसे व्यक्ति के बारे में बताऊंगा जिसने मुझे अपनी पत्नी से इस प्रकार मिलवाया, 'यह मेरी पत्नी है और वह एक गैर-दलित है।' वह अनुसूचित जाति का था। मैंने उनसे कहा, '25 साल साथ खाने, साथ सोने और बच्चों की परवरिश करने के बाद, आप दलित हैं और आपकी पत्नी गैर-दलित है। मुझे समझ नहीं आया।'

सोचने की बात है कि, अम्बेडकर ने लिखा था कि जाति को खत्म करने के लिए अंतर्जातीय विवाह एक हथियार हो सकता है!

ऐसा प्रतीत होता है कि जाति तब तक नहीं जा सकती जब तक हम जाति से अचेत नहीं हो जाते। उदाहरण के लिए, जब भी दो लोग मिलते हैं, तो वे एक-दूसरे के उपनाम से यह पता लगाने की कोशिश करते हैं कि वे किस जाति के हैं।

हाँ बिल्कुल। मैं एक बार गुजरात-पाकिस्तान सीमा पर रहने वाले आदिवासी शरणार्थियों माजी राणाओं के साथ काम कर रहा था। उन्होंने मुझसे पूछा, 'तुम्हारी माँ का दूध क्या है?' ऐसा माना जाता है कि जाति तुम्हारी माँ के दूध से आती है। मेरा जवाब था, 'मैंने अपनी माँ का दूध पिया, आपने किसका पिया?' वे भ्रमित थे। मैंने उन्हें समझाया कि जाति की कल्पना इंसानों ने की है; यह माँ के दूध से नहीं बहती है।

आप हिंदुत्व के विचारकों पर क्या प्रतिक्रिया देंगे, जो कहते हैं कि उनकी विचारधारा हिंदुओं को एकजुट करती है और जातिगत मतभेदों को दूर करती है?

यह दावा करना पर्याप्त नहीं है कि यह कहता है; इसका अभ्यास करना और भी महत्वपूर्ण है। क्या वे दलितों को मंदिर में प्रवेश करने देते हैं? 2010 में, नवसर्जन ट्रस्ट ने गुजरात में अस्पृश्यता पर एक सर्वेक्षण किया था। हमने जिन 1,589 गांवों का अध्ययन किया, उनमें से 90.8 प्रतिशत ने दलितों को मंदिरों में प्रवेश नहीं करने दिया गया था। गुजरात के 54 प्रतिशत सरकारी स्कूलों में दलित भोजन दूसरों से अलग करते हैं। एक दशक बाद, ऐसा बताने के लिए कुछ भी नहीं है कि गुजरात में स्थिति नाटकीय रूप से बदल गई है।

या उस दो साल के दलित लड़के विनय के बारे में सोचिए, जिसके माता-पिता पर 25,000 रुपये का जुर्माना लगाया गया था क्योंकि वह एक मंदिर में भटक गया था। यह भाजपा शासित कर्नाटक राज्य में हुआ। और अब, वहां की भाजपा सरकार ने विनय समरस्य योजना की घोषणा की है, जो अस्पृश्यता को दूर करने के बारे में जागरूकता बढ़ाने वाली है। अगर हिंदुत्व जातिगत मतभेदों को दूर कर सकता,  तो ऐसी घटनाएं नहीं होतीं। आपने दलितों को घोड़ी पर सवार होने या मूंछ रखने के लिए नहीं मारा होता।

मुझे नहीं लगता कि दलित वोटों पर निर्भर राजनीतिक दल आपकी परिभाषा का समर्थन करेंगे?

जाहिर है, वे ऐसा नहीं करेंगे, क्योंकि जाति को ज़िंदा रखने से उन्हें लाभ मिलता है।

बहुजन समाज पार्टी के बारे में क्या?

बसपा केवल अनुसूचित जाति के वोटों को पाने की कोशिश करती है। बसपा कोई सुधारवादी आंदोलन नहीं है। यह बसपा की राजनीति की सबसे बड़ी कमी है।

(एजाज़ अशरफ़ स्वतंत्र पत्रकार हैं। व्यक्त विचार निजी हैं।)

इस लेख को मूल अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए नीचे दिये गए लिंक पर क्लिक करें।

Dalit Includes All who Oppose Inequality, Regardless of Caste: Activist Martin Macwan

BR Ambedkar
Vinay Samarasya Yojna
Hindutva
BAHUJAN SAMAJ PARTY
untouchability
equality
Inter-caste marriage

Related Stories

विचारों की लड़ाई: पीतल से बना अंबेडकर सिक्का बनाम लोहे से बना स्टैच्यू ऑफ़ यूनिटी

रुड़की से ग्राउंड रिपोर्ट : डाडा जलालपुर में अभी भी तनाव, कई मुस्लिम परिवारों ने किया पलायन

बुराड़ी हिंदू महापंचायत: धार्मिक उन्माद के पक्ष में और मुसलमानों के ख़िलाफ़, पत्रकारों पर भी हुआ हमला

बसपा की करारी हार पर क्या सोचता है दलित समाज?

जाति के सवाल पर भगत सिंह के विचार

मध्य प्रदेश : धमकियों के बावजूद बारात में घोड़ी पर आए दलित दूल्हे

हरियाणा: आज़ादी के 75 साल बाद भी दलितों को नलों से पानी भरने की अनुमति नहीं

महर्षि वाल्मीकि जयंती के बहाने स्वच्छकार समाज को धर्मांध बनाए रखने की साज़िश!

यूपी: ‘प्रेम-प्रसंग’ के चलते यूपी के बस्ती में किशोर-उम्र के दलित जोड़े का मुंडन कर दिया गया, 15 गिरफ्तार 

कैसे ख़त्म हो दलितों पर अत्याचार का अंतहीन सिलसिला


बाकी खबरें

  • न्यूज़क्लिक रिपोर्ट
    दिल्ली उच्च न्यायालय ने क़ुतुब मीनार परिसर के पास मस्जिद में नमाज़ रोकने के ख़िलाफ़ याचिका को तत्काल सूचीबद्ध करने से इनकार किया
    06 Jun 2022
    वक्फ की ओर से प्रस्तुत अधिवक्ता ने कोर्ट को बताया कि यह एक जीवंत मस्जिद है, जो कि एक राजपत्रित वक्फ संपत्ति भी है, जहां लोग नियमित रूप से नमाज अदा कर रहे थे। हालांकि, अचानक 15 मई को भारतीय पुरातत्व…
  • भाषा
    उत्तरकाशी हादसा: मध्य प्रदेश के 26 श्रद्धालुओं की मौत,  वायुसेना के विमान से पहुंचाए जाएंगे मृतकों के शव
    06 Jun 2022
    घटनास्थल का निरीक्षण करने के बाद शिवराज ने कहा कि मृतकों के शव जल्दी उनके घर पहुंचाने के लिए उन्होंने रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह से वायुसेना का विमान उपलब्ध कराने का अनुरोध किया था, जो स्वीकार कर लिया…
  • न्यूज़क्लिक रिपोर्ट
    आजमगढ़ उप-चुनाव: भाजपा के निरहुआ के सामने होंगे धर्मेंद्र यादव
    06 Jun 2022
    23 जून को उपचुनाव होने हैं, ऐसे में तमाम नामों की अटकलों के बाद समाजवादी पार्टी ने धर्मेंद्र यादव पर फाइनल मुहर लगा दी है। वहीं धर्मेंद्र के सामने भोजपुरी सुपरस्टार भाजपा के टिकट पर मैदान में हैं।
  • भाषा
    ब्रिटेन के प्रधानमंत्री जॉनसन ‘पार्टीगेट’ मामले को लेकर अविश्वास प्रस्ताव का करेंगे सामना
    06 Jun 2022
    समिति द्वारा प्राप्त अविश्वास संबंधी पत्रों के प्रभारी सर ग्राहम ब्रैडी ने बताया कि ‘टोरी’ संसदीय दल के 54 सांसद (15 प्रतिशत) इसकी मांग कर रहे हैं और सोमवार शाम ‘हाउस ऑफ कॉमन्स’ में इसे रखा जाएगा।
  • न्यूज़क्लिक रिपोर्ट
    कोरोना अपडेट: देश में कोरोना ने फिर पकड़ी रफ़्तार, 24 घंटों में 4,518 दर्ज़ किए गए 
    06 Jun 2022
    देश में कोरोना के मामलों में आज क़रीब 6 फ़ीसदी की बढ़ोतरी हुई है और क़रीब ढाई महीने बाद एक्टिव मामलों की संख्या बढ़कर 25 हज़ार से ज़्यादा 25,782 हो गयी है।
  • Load More
सब्सक्राइब करें
हमसे जुडे
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें

CC BY-NC-ND This work is licensed under a Creative Commons Attribution-NonCommercial-NoDerivatives 4.0 International License