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उत्तराखंड: बच्चे को जन्म देने की ख़ातिर कब तक मरती रहेंगी बेटियां?
पहाड़ों में सुरक्षित प्रसव क़िस्मत की बात है और क़िस्मत हमेशा साथ नहीं देती। इस बार स्वास्थ्य सेवाएं न होने, डॉक्टर न होने, समय पर इलाज न मिलने के साथ मेडिकल प्रक्रिया से जुड़ी जानलेवा लापरवाहियों की कीमत 23 साल की स्वाति ध्यानी को चुकानी पड़ी।
वर्षा सिंह
06 Jul 2020
स्वाति ध्यानी मरी या मारी गई?

उत्तराखंड में सिर्फ लैंगिक भेदभाव के कारण ही लड़कियां लापता नहीं होती, डॉक्टर और स्वास्थ्य सेवाएं न होने की वजह से जन्म लेने के बावजूद, वे लापता हो जाया करती हैं। ‘बेटी-बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ वाले इस राज्य में निराशा इतनी गहरी है कि आम लोगों से लेकर सत्ता पक्ष, विपक्ष, सामाजिक कार्यकर्ता तक कहते हैं कि ये हालात सुधर नहीं सकते। डॉक्टर पहाड़ पर सेवाएं देना ही नहीं चाहते।

पहाड़ों में सुरक्षित प्रसव क़िस्मत की बात है और क़िस्मत हमेशा साथ नहीं देती। इस बार स्वास्थ्य सेवाएं न होने, डॉक्टर न होने, समय पर इलाज न मिलने के साथ मेडिकल प्रक्रिया से जुड़ी जानलेवा लापरवाहियों की कीमत 23 साल की स्वाति ध्यानी को चुकानी पड़ी। इससे पहले जून में देहरादून में एक महिला को सुरक्षित प्रसव नहीं मिल पाया। उससे पहले चमोली में एक लड़की ने इसी व्यवस्था के चलते जान गंवा दी। यहां ये बड़ी आम बात मानी जाती है।

स्वाति ध्यानी की तसवीर.jpeg

स्वाति ध्यानी मरी या मारी गई?

स्वाति के पति राजेंद्र प्रसाद ध्यानी इस स्थिति में नहीं हैं कि उनसे बात की जा सके। एक ही दिन में पत्नी और बच्चा दोनों खो दिया। उनके मामा सुभाष मंडोली बात करते हैं। कहते हैं कि हमने ही स्वाति और राजेंद्र को देहरादून से पौड़ी के रिखणीखाल ब्लॉक के गांव वयेला तल्ला बुला लिया था। वहां कोरोना बहुत फैल रहा था। हमें लगा कि यहां सुरक्षित रहेगी। रिखणीखाल प्राथमिक चिकित्सालय में स्वाति को दिखाया जाता था। यहां कोई स्त्री रोग विशेषज्ञ नहीं है। संविदा पर काम करने वाले दो फिजिशियन हैं। उनमें एक लेडी डॉक्टर स्वाति की देखरेख कर रही थी। 28 जून की रात स्वाति को अस्पताल में भर्ती कराया गया। वह दर्द में थी। अगले दिन दोपहर उसे लेबर रूम ले जाया गया। लेडी डॉक्टर उस समय मौजूद नहीं थी। तो पुरुष फिजिशयन ने उसकी डिलिवरी करायी।

उसने मृत बच्चे को जन्म दिया। सुभाष बताते हैं कि डॉक्टरों ने हमें अंदर नहीं जाने दिया। हमें उन्होंने यही कहा कि सब ठीक है। अचानक शाम पांच बजे डॉक्टरों ने कहा कि स्वाति को हायर सेंटर ले जाना पड़ेगा, उसकी हालत ठीक नहीं है। स्वाति का खून बहुत ज्यादा बह रहा था। सुभाष कहते हैं कि अगर डॉक्टर ने यही बात हमें समय रहते बता दी होती तो हम पहले ही उसे लेकर कोटद्वार अस्पताल के लिए निकल जाते। वह ये भी आशंका जताते हैं कि डिलिवरी के समय ही कुछ ऐसा हुआ जिससे स्वाति का खून अत्यधिक बहने लगा।

रिखणीखाल से कोटद्वार अस्पताल पहुंचने में लगभग तीन घंटे लग गए। रास्ते में दो बार 108 एंबुलेंस बदलनी पड़ी। सुभाष कहते हैं कि जब एंबुलेंस वाले ने गाड़ी रोकी और कहा कि अब दूसरी एंबुलेंस आगे ले जाएगी तो हमने उसे मनाने की बहुत कोशिश की। उसका खून बहुत अधिक बह रहा था। लेकिन वो नहीं माना क्योंकि एंबुलेंस की व्यवस्था ही यही बनायी गई है। एक एंबुलेंस 30 किलोमीटर से आगे का सफ़र नहीं करती। दूसरे एंबुलेंस के आने और शिफ्ट करने में बीस मिनट से अधिक समय लगा। इस दौरान बारिश भी हो रही थी। वह कहते हैं कि यदि एंबुलेंस नहीं बदलनी पड़ती तो भी हम स्वाति को बचा सकते थे। कोटद्वार अस्पताल पहुंचने पर डॉक्टर ने कहा कि यदि दस मिनट पहले भी ले आते तो इसकी जान बचने की उम्मीद थी। अब इसके शरीर में खून ही नहीं बचा। स्वाति की पोस्टमार्टम रिपोर्ट का इंतजार है।

बिना डॉक्टरों वाला राज्य रहेगा उत्तराखंड

रिखणीखाल से भाजपा विधायक दिलीप सिंह रावत लाचारी जताते हैं कि स्वास्थ्य सेवाएं यहां कमज़ोर हैं क्योंकि डॉक्टर पहाड़ों पर अपनी सेवाएं देने को तैयार ही नहीं हैं। वह बताते हैं कि कॉन्ट्रैक्ट पर लाए गए तीन डॉक्टर यहां  पैसे जमा कर चले गए कि हम यहां काम नहीं कर सकते। जिन डॉक्टरों ने बॉन्ड भरकर कम फीस पर पढ़ाई कि वे पढ़ाई पूरी होने के बाद पर्वतीय क्षेत्रों में अपनी सेवाएं देंगे, पढ़ाई पूरी होने पर वे भी बॉन्ड तोड़कर यहां से चले जाते हैं। डॉक्टर कहते हैं कि हम यहां काम करेंगे तो हमें अनुभव नहीं हासिल होगा। यहां कम लोग आते हैं। इस तरह हम अपनी पढ़ाई भूल जाएंगे। दिलीप सिंह कहते हैं कि 108 एंबुलेंस संचालन करने वाली स्वात कंपनी से भी बात की गई है कि जब मरीज गंभीर हालत में थी तो एंबुलेंस बदलने में समय क्यों गंवाया। सरकारी अस्पतालों को पीपीपी मोड पर देने की कोशिश में भी बहुत कामयाबी नहीं मिली।

पहाड़ों में हो वैकल्पिक स्वास्थ्य व्यवस्था

राज्य के पूर्व स्वास्थ्य मंत्री और कांग्रेस नेता सुरेंद्र सिंह नेगी कहते हैं हमें ये स्वीकार कर लेना चाहिए कि अगले दस साल तक पर्वतीय क्षेत्रों में डॉक्टरों का मिलना बहुत मुश्किल है। वह भी दिलीप सिंह रावत की बात को ही आगे बढ़ाते हैं कि पहाड़ी अस्पतालों में नौकरी ज्वाइन करने के बाद तक डॉक्टर गायब हो जाते हैं। वह बताते हैं कि अपने समय में उन्होंने डेढ़ गुना वेतन, इंसेन्टिव, रहने की सुविधाएं भी दीं ताकि डॉक्टर यहां रुके लेकिन ये सब कारगर नहीं हुआ।

सुरेंद्र सिंह नेगी कहते हैं कि चिकित्सीय सुविधाओं से युक्त मोबाइल वैन पहाड़ों में एक विकल्प हो सकता है। अपने कार्यकाल में उन्होंने इसे आजमाया भी था। जिसमें करीब 45 किस्म के स्वास्थ्य परीक्षण हो जाते थे। फार्मासिस्ट, फिजिशियन, स्त्रीरोग विशेषज्ञ तैनात होते थे। अलग-अलग दिनों में मोबाइल अलग-अलग जगहों पर जाकर लोगों की स्वास्थ्य जांच करती। इसके साथ ही छोटे ऑपेरशन के सर्जिकल कैंप लगाकर भी इस मुश्किल से कुछ हद तक निबटा जा सकता है। क्योंकि सरकारी अस्पतालों में सर्जन की भी बहुत कमी है।

पूर्व स्वास्थ्य मंत्री कहते हैं कि वर्ष 2016 में वर्ल्ड बैंक से उत्तराखंड के सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र (सीएचसी), प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र (पीएचसी) और जिला अस्पतालों को बेहतर बनाने के लिए करीब 950 करोड़ रुपये का बजट स्वीकृत कराया था। लेकिन राज्य में कांग्रेस की सरकार होने की वजह से केंद्र ने उसे तब अनुमति नहीं दी। 2017 में जब त्रिवेंद्र सरकार आई तो उस बजट को पास किया गया। लेकिन उसे खर्च कहां किया गया। क्योंकि अब भी सीएचसी-पीएचसी और जिला अस्पताल में जरूरी सुविधाएं उपलब्ध नहीं हैं।

नेशनल हेल्थ मिशन 2005 में लॉन्च किया गया था। जिसका मकसद सभी लोगों तक स्वास्थ्य सेवाओं को पहुंचाना था। वर्ष 2018 में स्वास्थ्य सेवाओं को लेकर कैग की ऑडिट रिपोर्ट आई थी। जिसमें कहा गया था कि इसके तहत दिये जा रहे बजट का राज्य इस्तेमाल ही नहीं कर पा रहे हैं। राज्यों को एनएएच के तहत दिए गए बजट के बैलेंस में 29 प्रतिशत का इजाफा हुआ क्योंकि वो रकम इस्तेमाल ही नहीं की जा सकी। जिसकी वजह से देश में स्वास्थ्य सुविधाओं का कमजोर बुनियादी ढांचा और डॉक्टरों की कमी जैसी समस्याएं बनी हुई हैं। इसी रिपोर्ट में कहा गया कि 77%-87% सीएचसी में विशेषज्ञ ही नही मौजूद हैं।

राज्य सरकार के प्रवक्ता मदन कौशिक वर्ल्ड बैंक द्वारा मिली रकम के बारे में (जिसका जिक्र पूर्व स्वास्थ्य मंत्री सुरेंद्र सिंह नेगी कर रहे हैं) ठीक-ठीक नहीं बता पाए। उनके मुताबिक इसके बारे में उन्हें पूछताछ करनी होगी। लेकिन वे ये आश्वस्त करने की कोशिश करते हैं कि हमने सभी सीएचसी, पीएचसी और जिला अस्पतालों को बेहतर बनाने के लिए कार्य किया है। उनके हिसाब से राज्य में स्वास्थ्य सेवाएं बेहतर हुई हैं।

108 एंबुलेंस के लिए तीस किलोमीटर का दायरा तय करने पर वह कहते हैं कि ये नियम इसलिए बनाया गया था कि जिस क्षेत्र में वो एंबुलेंस तैनात हैं वहां किसी अन्य मरीज को जरूरत पड़े तो एंबुलेंस तत्काल पहुंच सके। लेकिन इस तरह के गंभीर मामलों में एंबुलेंस को आगे ले जा जा सकता था।

वहीं पौड़ी से मंत्री डॉ. धनसिंह रावत कहते हैं कि हम लंबी दूरी की 108 एंबुलेंस चलाने की तैयारी कर रहे हैं ताकि इस तरह की आपात स्थिति में मरीज को सीधे दूसरे अस्पताल पहुंचाया जा सके। वह इस घटना की जांच की बात करते हैं और पहाड़ की इस स्थिति पर अफसोस जताते हैं। ये भी बताते हैं कि पिछले वर्ष 213 बच्चों ने 108 एंबुलेंस में जन्म लिया।

लेकिन पिछले वर्ष जो बच्चे स्वास्थ्य सुविधाएं नहीं होने की वजह से जन्म नहीं ले पाए, जो माएं इलाज न मिलने की वजह से मारी गईं उनका क्या?

क्या स्वास्थ्य महकमा का अलग मंत्री होना चाहिए

मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत ने स्वास्थ्य विभाग अपने पास रखा है। क्या स्वास्थ्य विभाग का कोई स्वतंत्र मंत्री होता तो स्वास्थ्य से जुड़े मुद्दों पर बेहतर कार्य हो पाता? भाजपा विधायक दिलीप सिंह रावत कहते हैं कि इससे क्या फर्क पड़ता है कि मंत्री कौन है। जब पहाड़ पर डॉक्टर जाने को तैयार ही नहीं हैं तो मंत्री क्या कर सकता है। पूर्व स्वास्थ्य मंत्री सुरेंद्र सिंह नेगी भी मानते हैं कि इससे बहुत फर्क नहीं पड़ता। अगर आपके पास विज़न होता तो स्वास्थ्य महकमा बेहतर कार्य कर सकता था।

यहां बच्चे का सुरक्षित जन्म लेना सिर्फ़ क़िस्मत पर निर्भर करता है

रिखणीखाल के सामाजिक कार्यकर्ता और स्वाति को बचपन से जानने वाले देवेश आदमी कहते हैं कि पहाड़ों में स्वास्थ्य सुधार बहुत मुश्किल है। फिर भी कोशिश तो की जा सकती है। वह बताते हैं कि पर्वतीय क्षेत्रों के गांवों में 70 प्रतिशत तक प्रसव अब भी दाइयों के ज़िम्मे है। दाइयां न होतीं तो बच्चा पैदा करना और भी अधिक मुश्किल होता। वह बताते हैं कि स्वाति की मौत पर उसकी सास की प्रतिक्रिया थी कि उस पर भूत चढ़ गया था, उसे मरना ही था। वह कहते हैं यहां बच्चे का सुरक्षित जन्म लेना सिर्फ क़िस्मत पर निर्भर करता है। स्वाति को याद करते हुए बताते हैं कि उसे अपनी परंपराओं से प्यार था। उसने अपनी शादी पर कहा था कि मालू के पत्तलों में सबको खाना खिलाया जाएगा। पहाड़ की परंपराओं से प्यार करने वाली स्वाति को पहाड़ की समस्याओं ने लापता कर दिया।

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