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उत्तराखंड : क्या जल नीति लागू हो पाएगी?
जिस तरह गंगा स्वच्छता को लेकर वर्षों से चल रहे महा-अभियानों का कोई असर अब तक नहीं देखने को मिला, वैसे ही काग़ज़ों में उतरी उत्तराखंड की जल नीति हक़ीक़त में भी कारगर साबित होगी या नहीं, ये एक बड़ा सवाल है।
वर्षा सिंह
28 Oct 2019
water policy

पानी को बचाने की मुहिम के तहत मिशन स्टेटमेंट के तौर पर उत्तराखंड के पास भी अब अपनी एक जल नीति है। अल्मोड़ा में हुई कैबिनेट बैठक में राज्य सरकार ने अपनी जल नीति घोषित की। उत्तराखंड, जिसे नदियों का घर भी कहा जा सकता है, जहां से कई नदियों का उदगम होता है, उस राज्य के लोग ही गर्मियों में पानी के लिए तरसते हैं। राज्य के प्राकृतिक जल स्रोत तेज़ी से सूख रहे हैं। ऐसे में जल नीति एक उम्मीद दिलाती है, बस इसे लागू करने भर की देर है। क्योंकि अक्सर नीतियां और हक़ीक़त अलग-अलग होते हैं।

जल नीति में जल संग्रहण पर ज़ोर दिया गया है। सूख चुके नालों-धारों को पुनर्जीवित करने की बात कही गई है। सबसे ज़रूरी बात यह है कि भूजल पर अब राज्य सरकार का मालिकाना हक़ हो गया है। इससे पहले भूजल का स्वामित्व किसी के पास नहीं था और कोई भी ज़मीन से मनचाहा पानी खींच सकता था। जल नीति में भूजल का मालिकाना हक़ राज्य सरकार के पास सुरक्षित कर दिया गया है।

जल नीति की अहम बातें

सभी व्यक्ति को जल उपलब्ध कराया जाए।

राज्य के प्राकृतिक जल संसाधनों को संरक्षित किया जाए।

जल संसाधन के प्रबंधन और इस्तेमाल में पंचायतीराज संस्थाओं की भागीदारी पर भी ज़ोर दिया गया है।

जल नीति में माना गया है कि नदी के न्यूनतम प्राकृतिक प्रवाह को बनाए रखा जाएगा ताकि जल के अंदर रहने वाले जीवों का संरक्षण किया जा सके।

पेय जल, स्वच्छता एवं साफ़-सफ़ाई, खाद्य सुरक्षा, खेती जैसे जल उपयोग को प्रथम ज़रूरत मानी गई है।

इसके बाद सिंचाई, जल विद्युत, पर्यावरण, कृषि आधारित उद्योग और अन्य उपयोग को क्रमश: रखा गया है।

हिमालय से निकलने वाली नदियों को प्रदूषण मुक्त रखने के लिए ज़रूरी उपाय किया जाएंगे।

जल स्रोतों की प्रदूषण मुक्ति सुनिश्चित कराने के लिए क़ानून में ज़रूरी संशोधन करने की बात कही गई है।

जल संसाधनों के संरक्षण और जल संवर्धन को लेकर नीति में कई ज़रूरी बातें कही गई हैं।

जल संरक्षण से जुड़े कार्यों को मनरेगा के तहत शामिल किया गया है।

जल से जुड़ी जिन परियोजनाओं में प्रभावित व्यक्तियों के पुनर्वास और विस्थापन की ज़रूरत पड़ती है, परियोजना के साथ-साथ इसे प्राथमिकता के आधार पर क्रियान्वित किया जाएगा।

जल स्रोतों की मैपिंग की बात कही गई है।

जलग्रहण क्षेत्र के उपचार की बात कही गई है।

जल का स्वामित्व किसी व्यक्ति के पास नहीं बल्कि राज्य को दिया गया है।

डब्ल्यूएचओ के मानकों के तहत पेयजल आपूर्ति की बात कही गई है।

राज्य में जल संकट वाले क्षेत्रों में जल बांटने का अधिकार स्थानीय निकायों को दिया जा सकता है।

कुल मिलाकर जल नीति जल के संग्रहण करने, पेयजल उपलब्ध कराने और प्रदूषण ख़त्म करने की बात कहती है।

जल नीति में हिमालय की ज़रूरतों पर ध्यान नहीं

पर्यावरणविद अनिल जोशी कहते हैं कि जल नीति में हिमालय और उसकी आवश्यकताएं ग़ायब हैं। हिमालय और राजस्थान की जल नीति एक जैसी नहीं हो सकती। यदि ये एक जैसी है तो फिर हमने पहाड़ के ईकोसिस्टम को क्या समझा है! अनिल कहते हैं कि जल नीति के तीन मतलब हैं कि आपके पास क्या है, उसका डिस्ट्रिब्यूशन सिस्टम क्या है, उसकी सस्टेनेबेलटी(लंबे समय तक के लिए) के आधार क्या हैं। वह कहते हैं कि जल नीति ये नहीं बताती कि हमारे पास जितना भी पानी उपलब्ध है, क्या हम अगले 15-20 वर्षों में उस स्तर को बनाए रख सकेंगे। उनके मुताबिक़ पानी के बारे में भविष्यगामी नज़रिया बहुत ज़रूरी है। हम सिर्फ़ चार-पांच-छह साल के लिए योजना नहीं बना सकते। ये इस जल नीति में भविष्य के जल को लेकर बहुत आशा नहीं बंधाती।

अनिल जोशी कहते हैं कि पानी की प्राथमिकता में कौन पहले शामिल है, जल नीति में ये बात सामने नहीं आती। एक तरफ़ पानी की वजह से राज्य में पलायन हो रहा है और दूसरी ओर बड़े बांध बन रहे हैं। ये दोनों बातें एक दूसरे की उलट हैं। बड़े बांध इसलिए बनाए जाते हैं कि हमारे पास पानी है। यदि पानी है तो पलायन क्यों है। वह कहते हैं कि टिहरी बांध को चारों तरफ़ के 24 परगने में पानी नहीं होता, हम अपनी जल नीति में इसे कैसे सुनिश्चित कर रहे हैं, ये दिखाई नहीं देता।

पर्यावरणविद अनिल जोशी पानी को वस्तु समझने और वस्तु सरीखा व्यवहार करने को ग़लत ठहराते हैं। पानी को वस्तु समझ कर हम उपभोक्तावाद को बढ़ावा दे रहे हैं। यदि आप पानी जैसे अमूल्य स्रोत को वस्तु की तरह समझेंगे तो उसके इस्तेमाल पर ज़्यादा ज़ोर लगाएंगे। जबकि ज़रूरत पानी को बचाने की है। हमारी जल नीति भी पानी पर बांध बनाने से परहेज़ नहीं करती।

जल नीति लागू कौन करेगा?

जल नीति का मसौदा तैयार करने वाले लोगों की टीम में से एक एचपी उनियाल कहते हैं कि पानी को लेकर पहले भी क़ानून थे और अब इसे एक पॉलिसी के रूप में सामने ला दिया गया है। ये एक क़िस्म के निर्देश हैं और इसे लागू करने के लिए इच्छाशक्ति की ज़रूरत है। एचपी उनियाल कहते हैं कि पहले भी राज्य में शासनादेश था कि सभी सरकारी इमारतों में वर्षा जल संचय की व्यवस्था करनी होगी। लेकिन ऐसा हुआ नहीं।

वह बताते हैं कि इस नीति के आने के बाद सरकार का भूजल पर मालिकाना हक़ हो गया। पहले किसी के बाद भूजल का मालिकाना हक़ नहीं था। हर कोई अपनी मर्ज़ी से भूजल दोहन कर रहा था। अब अंडरग्राउंड वाटर राज्य की संपत्ति है।

एचपी उनियाल का सवाल है कि इस जल नीति को लागू कौन करेगा। वह वाटर रेग्यूलेटरी कमीशन की ओर इशारा करते हैं जो बनने के बावजूद कभी अस्तित्व में नहीं आ सका और पिछले तीन वर्षों से सुप्रीम कोर्ट में लंबित है। जल नियमाक आयोग गठित होने के बाद ही विवाद में आ गया था। इसके सदस्यों के चयन को लेकर राज्यपाल ने सवाल उठाए। जिसके बाद ये मामला अदालत में लंबित है। इसी वर्ष 12 सितंबर को इस मामले की अंतिम सुनवाई भी हुई और अदालत ने फ़ैसला सुरक्षित रख लिया। तो अब जो एक नीति है वो राज्य में लागू हो रही है कि नहीं, इसकी निगरानी कौन करेगा।

जल की मौजूदा स्थिति

राज्य में लगभग 917 हिमनद हैं। यहां सालाना औसतन 1,495 मिमी बारिश दर्ज होती है। लेकिन इसका मात्र 3 प्रतिशत ही इस्तेमाल हो पाता है। ज़्यादातर पानी तेज़ ढलानों पर बह जाता है। पर्वतीय राज्य की 88 प्रतिशित कृषि भूमि असिंचित है, जबकि मैदानी हिस्सों की क़रीब 12 प्रतिशत असिंचित ज़मीन है। राज्य में 2.27 बीसीएम सालाना भूजल संसाधन उपलब्ध हैं, जबकि भूजल की उपलब्धता 2.10 बीसीएम है। यानी बारिश का बहुत सारा पानी व्यर्थ हो जा रहा है।

पानी से अधिक से अधिक बिजली बनाना भी राज्य के लक्ष्य में शामिल है। राज्य की हाईड्रो पावर इलेक्ट्रिसिटी की कुल क्षमता 27039 मेगावाट आंकी गई है, जिसकी तुलना में अभी 3972 मेगावाट का दोहन किया जा रहा है। राज्य सरकार के मुताबिक़ पर्यावरणीय सरोकारों के साथ जल विद्युत के विकास पर भी ध्यान देना होगा। राज्य के बड़े हाईड्रो पावर प्रोजेक्ट्स के प्रभावों को लेकर पहले ही बड़े प्रश्नचिन्ह लगे हुए हैं।

पानी का संकट उत्तराखंड पर भी हावी है। जबकि बारिश का ज़्यादातर पानी व्यर्थ हो जाता है। पौड़ी जैसे सर्वाधिक पलायन प्रभावित ज़िले पानी के भीषण संकट से जूझ रहे हैं। पानी यहां पलायन की एक बड़ी वजह है। हिमालय के प्राकृतिक जलस्रोत, नौले-धारे सूख रहे हैं। सरोवर नगरी नैनीताल में गर्मियों में त्राहि-त्राहि हो जाती है। पानी का प्रबंधन समय की मांग है। अनिल जोशी कहते हैं बड़े बांध बनाकर उससे राजस्व हासिल करने से अधिक हमें पानी को जोड़ने के लिए काम करना होगा। साथ ही ये भी कि जिस तरह गंगा स्वच्छता को लेकर वर्षों से चल रहे महा-अभियानों का कोई असर अब तक नहीं देखने को मिला, वैसे ही काग़ज़ों में उतरी जल नीति हक़ीक़त में भी जलभरी दिखाई दे, इसकी उम्मीद और इंतज़ार बना रहेगा।

Uttrakhand
Water Policy Implement
Ganga Cleanliness
Water Storage

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