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उत्तराखंड: जलवायु परिवर्तन की मुश्किलें झेल रही हैं पहाड़ों की महिलाएं
महिलाएं खेती से जुड़ी हैं और खेती पर मौसम की मार अंत में महिलाओं का बोझ बढ़ाती है। जंगल से लकड़ी लाना और पशुओं के लिए चारा लाने के लिए महिलाएं ही जंगलों में जाती हैं। इस दौरान आग भड़कने या जंगली जानवर से संघर्ष जैसी स्थितियों का सामना उन्हें ही करना होता है।
वर्षा सिंह
30 Jan 2021
उत्तराखंड: जलवायु परिवर्तन की मुश्किलें झेल रही हैं पहाड़ों की महिलाएं
जलवायु परिवर्तन के असर ने बढ़ायी पर्वतीय महिलाओं की मुश्किलें। फोटो : वर्षा सिंह

तकरीबन 90 फीसदी जली हुई हालत में अल्मोड़ा से हल्द्वानी के सुशीला तिवारी अस्पताल में भर्ती करायी गई सरस्वती देवी ने 28 जनवरी को दम तोड़ दिया। उनकी बहू हेमा देवी अब भी अस्पताल में ज़िंदगी और मौत के बीच झूल रही है। 24 जनवरी की दोपहर अल्मोड़ा के लमगड़ा ब्लॉक के ठाणा मठेना गांव के नज़दीक के जंगल आग में धूं-धूं कर जलने लगे। सरस्वती और हेमा आग बुझाने की कोशिश करने लगी। इस दौरान दोनों ही आग की चपेट में आ गईं।

पिछले वर्ष अप्रैल के पहले हफ़्ते में बागेश्वर के कपकोट में जंगल में घास लेने गई दो महिलाओं नंदी देवी और इंदिरा देवी की मौके पर ही मौत हो गई थी। जबकि तीसरी महिला आग में बुरी तरह झुलस गई।

जंगल की बढ़ती आग, पहाड़ों पर बढ़ता पानी का संकट, जंगल में भोजन-पानी की कमी की वजह से बढ़ता मानव-वन्यजीव संघर्ष, बादल फटने और भूस्खलन की बढ़ती घटनाएं हिमालयी क्षेत्र में तेज़ी से बदलती जलवायु को दर्ज करा रही हैं।

मौसम की मार महिलाओं पर सबसे अधिक

अल्मोड़ा में पर्यावरणविद् और ग्रीन हिल्स ट्रस्ट से जुड़ी वसुधा पंत अल्मोड़ा के हवलबाग ब्लॉक के पूर्वी पोखरखाली क्षेत्र में रहती हैं। वह बताती हैं “इस बार दिवाली के समय से ही जंगल में आग की जो घटनाएं शुरू हुई हैं वो अब तक नहीं थमीं। तकरीबन हर रोज़ ही जंगल के किसी न किसी हिस्से में लगी आग दिखाई देती है। इस बार सर्दियों में बारिश न के बराबर हुई। जबकि पिछली दो सर्दियों में बहुत ज्यादा बारिश थी। उससे पहले के कुछ वर्षों की सर्दियां भी बिना बारिश के गुजरीं”।

मौसम के इस उतार-चढ़ाव पर वसुधा कहती हैं “ये कहीं न कहीं क्लाइमेट चेंज का ही असर है। पिछले दो-तीन साल के बारिश के ट्रेंड से यह डर भी लग रहा है, कहीं ये न हो कि फरवरी में बारिश शुरू हो और मानसून तक जारी रहे। पिछले साल मई तक बारिश लगातार रही। मौसम में बदलाव बिलकुल साफ़ दिख रहा है। इस बार की चरम सर्दियां तकरीबन एक हफ्ता ही महसूस हुईं। बाकी समय धूप में आधा घंटा बैठना मुश्किल था।”

पहाड़ों में घर और खेती संभालने की ज़िम्मेदारी ज्यादातर महिलाओं की ही होती है। पुरुष अक्सर सेना में या नौकरी के लिए बाहर चले जाते हैं। हर घर में पशु होते हैं। उनकी देखभाल और चारे का इंतज़ाम भी महिलाओं के ही ज़िम्मे होता है। वसुधा बताती हैं “महिलाएं खेती से जुड़ी हैं और खेती पर मौसम की मार अंत में महिलाओं का बोझ बढ़ाती है। जंगल से लकड़ी लाना और पशुओं के लिए चारा लाने के लिए महिलाएं ही जंगलों में जाती हैं। इस दौरान आग भड़कने या जंगली जानवर से संघर्ष जैसी स्थितियों का सामना उन्हें ही करना होता है। गांवों में अब भी बहुत दूर-दूर से पीने का पानी लाना पड़ता है। महिलाओं पर जलवायु परिवर्तन का सीधा असर पड़ रहा है।”

बदलती जलवायु के संकेत

उत्तराखंड में सर्दियों में इस बार बारिश सामान्य से बेहद कम रही है। देहरादून मौसम विज्ञान केंद्र के निदेशक बिक्रम सिंह बताते हैं कि पोस्ट मानसून सीजन में अक्टूबर से दिसंबर तक बारिश में -71 प्रतिशत की गिरावट रही। वहीं जनवरी में भी बारिश सामान्य से -17 प्रतिशत तक कम रही है। आगे के कुछ दिन भी सूखे ही रहने वाले हैं।

उत्तराखंड में इस वर्ष एक से 29 जनवरी के बीच जंगल में आग लगने की कुल 257 घटनाएं हो चुकी हैं। इनमें गढ़वाल क्षेत्र में 166 और कुमाऊँ में आग की 91 घटनाएं हुई हैं। आग की इन घटनाओं में रिजर्व फॉरेस्ट का 230.22 हेक्टेअर चपेट में आया है। जबकि गांव से लगे वन पंचायतों के 109.4 हेक्टेअर क्षेत्र तक जंगल की आग पहुंची। जिसका सीधा असर नज़दीकी लोगों पर पड़ा। इसके अलावा पौधरोपण के 15.7 हेक्टेअर क्षेत्र में भी आग लगने की घटना हुई। यानी सिर्फ जनवरी में ही 339.62 हेक्टेअर क्षेत्र के जंगल आग की भेंट चढ़ गए।

जबकि 1 अक्टूबर 2020 से 4 जनवरी 2021 के बीच राज्य के 321.87 हेक्टेअर क्षेत्र में बसे जंगलों में आग लगी।

पौड़ी की महिलाओं ने जंगली जानवरों से मांगी सुरक्षा

मानव-वन्यजीव संघर्ष और स्त्रियां

बारिश की कमी और जंगल की आग जैसी स्थितियां वन्यजीवों के लिए भी मुश्किल हालात लाती हैं। इसका मतलब जंगल में भोजन और पीने के पानी की कमी होगी। इन हालातों में मानव-वन्यजीव संघर्ष भी बढ़ता है। ये चुनौती अन्य वर्गों की तुलना में महिलाओं के लिए अधिक बड़ी होती है। क्योंकि जंगल महिलाओं के जीवन से जुड़ा है। जंगल से लकड़ी ढोकर लाती, पशु का चारा लाती या जंगल की ओर चले गए पशुओं को घर की ओर लाती महिलाएं वन्यजीवों का आसान शिकार होती हैं।

पौड़ी में 7 जनवरी को थलीसैंण ब्लॉक के चौथांव क्षेत्र के घिमंडिया खोड़ा गांव में जंगल में घास लेने गई महिला गुलदार के हमले में बुरी तरह घायल हो गई। गांव वालों ने 108 एंबुलेंस को कई बार फ़ोन लगाया। लेकिन एंबुलेंस नहीं पहुंची। महिला को किसी तरह नज़दीकी अस्पताल ले जाया गया। जहां से उसे ऋषिकेश एम्स रेफ़र किया गया।

11 जनवरी को घिमंडिया खोड़ा गांव की महिलाओं ने मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत को पत्र लिखा।

“हम पिछले डेढ़ महीने से दहशत के साये में हैं। हमारे क्षेत्र में लगातार बाघ (गुलदार को भी सामान्यत: बाघ बुलाते हैं) का आतंक बना हुआ है। अभी तक हमारे क्षेत्र में अल्मोड़ा-पौड़ी बॉर्डर पर बाघ से अनेक घटनाएं हो चुकी हैं। जिससे हमारी काफी महिलाओं को गंभीर चोटें आई हैं। दर्जन भर से ज्यादा पशुओं, पालतू कुत्तों को नुकसान हुआ है। हम लोग खेती-बाड़ी पशुपालन से जीवन यापन करते हैं परंतु बाघ के बढ़ते हमलों और दहशत से हम खेतों के नज़दीक चारापत्ती और लकड़ी के लिए जान जोखिम में डाल रहे हैं।

बाघ के हमलों पर हमें इलाज भी नहीं मिल पा रहा है। हमारे क्षेत्र का हॉस्पिटल नाम मात्र का है। कहने को तो एक एंबुलेंस भी लगाई है। लेकिन जरूरत पड़ने पर वह भी नहीं मिल पा रही है। ऐसे हालातों में हमारी मुश्किलें बढ़ गई हैं। ”  

18 महिलाओं ने इस पत्र पर हस्ताक्षर किए हैं।

पहाड़ की महिलाओं का संकट

उत्तरकाशी में पर्यावरण प्रेमी और रक्षा सूत्र आंदोलन के संस्थापक सुरेश भाई कहते हैं विज्ञान और तकनीक के दौर में ये जरूर है कि महिलाओं से हिंसा और घरेलू प्रताड़ना जैसे मामलों को रोकने के लिए कड़े कानून बने हैं। लेकिन दक्षिण एशिया में जो महिलाएं पर्वतीय क्षेत्रों में रहती हैं, उनके सिर और पीठ का बोझ कम करने की कोई तकनीक अब तक ईजाद नहीं हुई है। जलवायु परिवर्तन के दौर में ये एक बहुत बड़ा संकट है।

वह जून 2020 में प्रकाशित एक रिपोर्ट के हवाले से बताते हैं कि आज भी दक्षिण एशिया के भारत, चीन, नेपाल  जैसे देशों में पर्वतीय क्षेत्रों में औसतन साठ प्रतिशत महिलाएं चारा-लकड़ी घर पर लाने के बाद करीब आधा किलोमीटर पानी भरने के लिए जाती है। सुरेश भाई उम्मीद जताते हैं कि जल जीवन मिशन जैसी सरकारी योजना अगर सफल हो जाए तो महिलाओं को पानी ढोने के काम से मुक्ति मिल जाएगी।

लेकिन आधुनिक विज्ञान के सामने ये चुनौती है कि पर्वतीय महिलाओं के सिर और पीठ के बोझ को कम करने के लिए कोई तकनीक नहीं है। सुरेश भाई बताते हैं कि रोज़ाना 6-7 किलोमीटर घास-लकड़ी ढोने के साथ-साथ पहाड़ के सीढ़ीदार खेतों से पके हुए अनाज भी वे सर या पीठ पर ढोकर लाती हैं। उनके मुताबिक घोड़े या रोपवे जैसी तकनीक से महिलाओं की कुछ मदद की जा सकती है। घास, लकड़ी या कृषि उपज घोड़े के ज़रिये घरों तक लाए जाएं। लेकिन घोड़े के कार्य के लिए पुरुष की मदद चाहिए होगी। रोपवे टूरिस्ट के लिए तो बनें हैं लेकिन स्थानीय लोगों के लिए नहीं। वह कहते हैं कि विज्ञान के ज़माने में ये महिलाओं के साथ हो रही हिंसा है।

स्त्री और पर्यावरण को पब्लिक पॉलिसी में शामिल करना होगा

यूनाइटेड नेशन इनवायरमेंट प्रोग्राम की रिपोर्ट “women at the frontline of Climate Change; Gender Riskes and Hopes” भी पर्यावरणीय संकट से जूझ रही पर्वतीय महिलाओं की मुश्किलों पर बात करती है। सामाजिक रुढ़ियां और पर्यावरणीय मुश्किलें पहाड़ की स्त्री का संकट बढ़ा रही हैं। जलवायु परिवर्तन और उससे जुड़ी मुश्किलों के आधार पर केंद्र और राज्य सरकार को अपनी नीतियों में बदलाव लाने होंगे। पहाड़ की महिलाओं का बोझ कम करने पर काम करना होगा। साथ ही प्रकृति के अनुकूल विकास के पैटर्न पर आगे बढ़ना इस समय की जरूरत है। अल्मोड़ा, पौड़ी या देहरादून से दिल्ली ज्यादा दूर नहीं है। मौसम वहां भी अपना असर दिखा रहा है।

(देहरादून स्थित वर्षा सिंह स्वतंत्र पत्रकार हैं।)

Uttrakhand
climate change
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Human-wildlife conflict

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