NewsClick

NewsClick
  • English
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • हमारे लेख
  • हमारे वीडियो
search
menu

सदस्यता लें, समर्थन करें

image/svg+xml
  • सारे लेख
  • न्यूज़क्लिक लेख
  • सारे वीडियो
  • न्यूज़क्लिक वीडियो
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • अफ्रीका
  • लैटिन अमेरिका
  • फिलिस्तीन
  • नेपाल
  • पाकिस्तान
  • श्री लंका
  • अमेरिका
  • एशिया के बाकी
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें
सब्सक्राइब करें
हमारा अनुसरण करो Facebook - Newsclick Twitter - Newsclick RSS - Newsclick
close menu
नज़रिया
भारत
नज़रिया: पितृ-पक्ष की दकियानूसी सोच
हम क्यों आज इक्कीसवीं सदी में पितृ-पक्ष जैसी परंपराओं का पालन करें? क्या यह संभव है कि पंडों को भोजन कराने या कुत्ता अथवा कौआ को कुछ खिला देने से मृतक तृप्त हो जाएँगे? कितनी हास्यास्पद सोच है यह। और अगर ऐसा है भी तो यह क्रिया-करम सिर्फ़ घर के पुरुष सदस्य ही क्यों करें?
शंभूनाथ शुक्ल
05 Oct 2021
Pitru Paksha
प्रतीकात्मक तस्वीर। साभार : नई दुनिया

हमारे मित्र भानुप्रताप तिवारी आजकल एक नई होंडा सिटी कार में घूमते हैं। सफ़ेद रंग की चमचमाती यह कार उन्हें उनकी बेटी ने भेंट की है, यह बताते हुए उनका सीना फूल जाता है। तिवारी जी के कोई पुत्र नहीं है, एक बेटी है। और वह अपना व्यापार ख़ुद सँभालती है। उसका पति उसके इस व्यापार में सहायक है। मगर तिवारी जी को मलाल है कि बेटी के घर भी बेटी पैदा हुई है, ऐसे में उनके न रहने पर उनका क्रिया-करम कौन करेगा? यह सोच कर तिवारी जी उदास हो जाते हैं। एक दिन मैंने उनसे कहा कि आजकल तो बेटियाँ भी माँ-बाप का मृतक संस्कार कर लेती हैं, पर वे मेरी बात से सहमत नहीं दिखे। मैंने उनके समक्ष दूसरा प्रस्ताव देह-दान का रखा, वह भी उनके गले नहीं उतरा। इसलिए वे अपने भाई के बेटे को गोद लेने का मन बना रहे हैं। एक खाते-पीते हिंदू समाज की यह भारी दिक़्क़त है कि वह बदलते हुए परिदृश्य को समझ नहीं पाता। इसके पीछे है सदियों से चली आ रही वह पुरुष परंपरा, जिसमें पुरुष ही श्रेष्ठ है।

आजकल पितर-पक्ष चल रहे हैं। पैतृक सत्ता के प्रतीक पितरों के तर्पण का आज आख़िरी दिन है। हालाँकि अमावस्या कल यानी छह अक्तूबर को है, किंतु जो लोग इस पितर-पक्ष के दौरान शेविंग नहीं करते, सिर के बाल नहीं कटवाते, वे लोग कल से ये सारे काम शुरू कर देंगे। पितरों के तर्पण के लिए रोज़ सुबह सूर्य की तरफ़ मुँह कर जल उलीचने का कार्य भी कल से समाप्त।

विकास के क्रम में जब कभी समाज में सत्ता स्त्री की बजाय पुरुषों के पास आई होगी, तब से यह परंपरा शुरू हो गई और हर साल क्वार मास के कृष्ण पक्ष में पितरों को जल दिया जाने लगा। पुरुष-परंपरा के अनुसार जल देने का कार्य सिर्फ़ पुरुष ही करेंगे। तथा जिस तिथि को उनके पिता, दादा या अन्य पारिवारिक पुरुषों की मृत्यु हुई होगी, उस दिन वह शास्त्रोक्त विधि से पंडों, कुत्तों और कौओं को भोजन कराएगा तथा दूसरे कर्म कांड करेगा। परिवार की मृत महिलाओं के लिए नवमी की तिथि नियत है। नियमतः पितरों को जल देने की परंपरा पुरुष ही निभाते हैं। लेकिन कोलकाता में मैंने स्त्रियों को जल देने की परंपरा निभाते देखा है।

समाज में स्त्रियों या बेटियों की हीन स्थिति की जनक ऐसी परंपराएँ ही हैं। चूँकि बेटियों को पराया धन समझा जाता रहा है, इसलिए न तो उसे परिवार की विरासत में हिस्सा, न पिता की मृत्यु के बाद उसे मृतक संस्कार निभाने की छूट। हालाँकि अब क़ानूनन उसे विरासत में हिस्सा मिलने लगा है लेकिन सिर्फ़ एक प्रतिशत बेटियाँ ही पिता की संपत्ति पर दावा करती हैं। कोई लड़की दावा करे भी तो फ़ौरन परिवार के पुरुष सदस्य ताना देने लगते हैं कि तेरी शादी में दहेज भी तो दिया था। जबकि दहेज कभी भी उस बेटी का भविष्य सुरक्षित करने के लिए नहीं दिया जाता। वह तो समाज में अपना झूठा मान-सम्मान बनाए रखने के लिए दिया जाता है। यह भी देखने में आया है, कि माँ-बाप की देख-भाल लड़कियाँ अधिक करती हैं। लड़के तो यह सब दायित्त्व समझ कर बेमन से करते हैं। इसके बाद भी पितर-पक्ष में पुरुषों की प्रधानता यह बताती है कि निजी स्तर पर भले लड़कियों ने खूब सफलता प्राप्त कर ली हो, हक़ीक़त में उनकी स्थिति अभी भी दोयम-त्रेयम दर्जे की है।

व्यक्तिगत स्वतंत्रता एक नज़ीर तो बनती है, लेकिन वह समाज में आमूल-चूल बदलाव नहीं कर पाती। एक लड़की यदि परिस्थितियों से संघर्ष कर आगे बढ़ गई तो पूरा समाज बढ़ जाएगा, यह सोचना अतिशयोक्ति है। जब तक समाज के लिए ऐसी लड़कियों ने कोई आंदोलन नहीं चलाया तब तक वह निजी सफलता ही रहेगी। सावित्री बाई फुले या पंडिता रमा बाई ने ख़ुद आगे बढ़ कर स्त्री शिक्षा का आंदोलन न शुरू किया होता तो क्या होता! इसलिए सिस्टम या समाज की सड़ी-गली मान्यताओं के विरुद्ध आंदोलन भी खड़ा करना होगा। हम क्यों आज इक्कीसवीं सदी में पितर-पक्ष जैसी परंपराओं का पालन करें? क्या यह संभव है कि पंडों को भोजन कराने या कुत्ता अथवा कौआ को कुछ खिला देने से मृतक तृप्त हो जाएँगे? कितनी हास्यास्पद सोच है यह। और अगर ऐसा है भी तो यह क्रिया-करम सिर्फ़ घर के पुरुष सदस्य ही क्यों करें? महिलाओं को सिर्फ़ रसोई बनाने तक सीमित रहना चाहिए? कभी इसे पलट कर देखा जाए। यानी परिवार के पुरुष सदस्य रसोई सँभालें और महिलाएँ सूर्य को जल दें तथा अन्य कर्मकांड करें।

मज़े की बात कि भारत के पूर्वी प्रांतों में दूसरी तरह की परंपरा भी है। बंगाल, नॉर्थ ईस्ट या ओडीसा में जहां-जहां हिंदू आबादी है, महिलाओं को यह छूट है। शायद इसलिए वहाँ स्त्रियों की स्थिति उत्तर भारत से भिन्न है। इसमें दो बातें हैं। एक तो पूर्व और उत्तर पूर्व में स्त्रियों को दबाना इतना आसान नहीं रहा क्योंकि वहाँ हिंदुओं के पुरुष-सूक्त इतनी सहजता से नहीं स्वीकार किए गए। वहाँ बौद्ध धर्म और उसकी परंपराएँ सुदृढ़ रही हैं। इसीलिए मेघालय में आज भी विरासत बेटी सँभालती है। इसके अलावा बंगाल के रेनेसां का असर भी पड़ा और सामाजिक सुधारों ने वहाँ स्त्रियों को काफ़ी हद तक बराबरी का दर्जा दिलाया। इसीलिए वहाँ हिंदू परंपराओं में भी स्त्री बराबरी का दर्जा रखती है। हुगली के घाटों पर सैकड़ों महिलाएँ पितर-पक्ष में जलार्पण करती दिख जाती हैं। इसलिए समाज सुधार की प्रक्रिया निरंतर चलती रहनी चाहिए।

किसी भी समाज की मज़बूती को समझने के लिए उस समाज की स्त्रियों की स्थिति को समझना चाहिए। मैंने निजी तौर पर पर पश्चिमी उत्तर प्रदेश और हरियाणा के ग्रामीण इलाक़ों में जाकर वहाँ की महिलाओं की हालत को समझने का प्रयास किया। दिलचस्प है, कि पुरुष प्रधानता पर दृढ़ जाट समुदाय में मुझे स्त्रियों की स्थिति बेहतर लगी। जबकि यह वह समाज है जो अपनी बेटियों को खाप के लाल डोरे से बांधे रखता है और आरोप है कि अगर इन्हें पता चल जाए कि पैदा होने वाला जातक कन्या है तो उसकी भ्रूण हत्या कर देते हैं। इसके बावजूद इस समाज में स्त्रियों को आज़ादी दूसरे समुदायों की तुलना में ज़्यादा है। इस समाज को लैंगिक आज़ादी है। घूँघट या घरों में सिर्फ़ रसोई में क़ैद जाट समाज की स्त्रियाँ नहीं रहतीं। साथ ही पराये लोगों, ख़ासकर मर्दों से बतियाने में इन्हें कोई झिझक नहीं होती। इसके विपरीत यहाँ के अन्य किसान समुदायों की महिलाओं और मुस्लिम स्त्रियों को यह छूट नहीं है। इसकी मुख्य वजह है जाट समाज के भीतर चला आर्य समाज का सुधारवादी आंदोलन। जाट लड़कियाँ पढ़ी-लिखी हैं और इनके बीच सामाजिक ऊँच-नीच का भेद-भाव कम है।

इससे यह निष्कर्ष तो आसानी से निकलता है कि जिन समाजों के भीतर समय-समय पर सुधार आंदोलन चले, वे अपेक्षाकृत उन्नत हुए। उस समाज की स्त्रियाँ भी बेहतर स्थिति में हैं। इसलिए पितर पक्ष के दक़ियानूसी सोच से बाहर आने से ही हम एक कुछ बेहतर समाज की उम्मीद कर सकते हैं।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

Pishach Mochan
blind faith
superstition
Pitru Paksha
Rituals
पितृ पक्ष

Related Stories

राम के नाम एक खुली चिट्ठी

…अंधविश्वास का अंधेरा


बाकी खबरें

  • मुकुल सरल
    ज्ञानवापी प्रकरण: एक भारतीय नागरिक के सवाल
    17 May 2022
    भारतीय नागरिक के तौर पर मेरे कुछ सवाल हैं जो मैं अपने ही देश के अन्य नागरिकों के साथ साझा करना चाहता हूं। इन सवालों को हमें अपने हुक्मरानों से भी पूछना चाहिए।
  • ट्राईकोंटिनेंटल : सामाजिक शोध संस्थान
    कोविड-19 महामारी स्वास्थ्य देखभाल के क्षेत्र में दुनिया का नज़रिया नहीं बदल पाई
    17 May 2022
    कोविड-19 महामारी लोगों को एक साथ ला सकती थी। यह महामारी विश्व स्वास्थ्य संगठन (डबल्यूएचओ) जैसे वैश्विक संस्थानों को मज़बूत कर सकती थी और सार्वजनिक कार्रवाई (पब्लिक ऐक्शन) में नया विश्वास जगा सकती थी…
  • डॉ. राजू पाण्डेय
    धनकुबेरों के हाथों में अख़बार और टीवी चैनल, वैकल्पिक मीडिया का गला घोंटती सरकार! 
    17 May 2022
    “सत्ता से सहमत होने के लिए बहुत से लोग हैं यदि पत्रकार भी ऐसा करने लगें तो जनता की समस्याओं और पीड़ा को स्वर कौन देगा?“
  • ukraine
    सी. सरतचंद
    यूक्रेन में संघर्ष के चलते यूरोप में राजनीतिक अर्थव्यवस्था पर प्रभाव 
    16 May 2022
    यूरोपीय संघ के भीतर रुसी तेल के आयात पर प्रतिबंध लगाने के हालिया प्रयास का कई सदस्य देशों के द्वारा कड़ा विरोध किया गया, जिसमें हंगरी प्रमुख था। इसी प्रकार, ग्रीस में स्थित शिपिंग कंपनियों ने यूरोपीय…
  • khoj khabar
    न्यूज़क्लिक टीम
    नफ़रती Tool-Kit : ज्ञानवापी विवाद से लेकर कर्नाटक में बजरंगी हथियार ट्रेनिंग तक
    16 May 2022
    खोज ख़बर में वरिष्ठ पत्रकार भाषा सिंह ने बताया कि किस तरह से नफ़रती Tool-Kit काम कर रही है। उन्होंने ज्ञानवापी विवाद से लेकर कर्नाटक में बजरंगी शौर्य ट्रेनिंग में हथियारों से लैस उन्माद पर सवाल उठाए…
  • Load More
सब्सक्राइब करें
हमसे जुडे
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें

CC BY-NC-ND This work is licensed under a Creative Commons Attribution-NonCommercial-NoDerivatives 4.0 International License