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हम कर्कश ध्वनि वाले समाज का हिस्सा बन चुके हैं, जिसकी आंखों पर जाला छाया हुआ है : टी एम कृष्णा
कर्नाटक शैली के गायक टी एम कृष्णा अपने साथी नागरिकों को खुले ख़त में लिखते हैं, "मेरे आसपास के विचार, शब्द और क्रियाओं की हिंसा मेरा दम घोंट रही है। यह हर पल, हर दिन और निरंतर जारी है।"
टी एम कृष्णा
19 Feb 2021
 टी एम कृष्णा

कर्नाटक शैली के गायक और मेग्सायसाय पुरस्कार विजेता टीएम कृष्णा ने अपने साथी नागरिकों को एक खुला ख़त लिखा है। इस ख़त में नागरिकों से गलत के खिलाफ़ आवाज़ उठाने की अपील की गई है।

वह लिखते हैं, "आज विचारों को नियंत्रित करने वाले यह लोग हमें अपने लोकतांत्रिक और बहुलतावादी इतिहास से नफरत करने के लिए उकसा रहे हैं, क्योंकि यह लोग हमारे देश की बहुलता, विविधता और इसकी बारीकियों में छुपी खूबसूरती को नहीं पहचानते। इसके बजाए यह लोग हमें 'एकरूपता' से प्रेम करवाना चाहते हैं, यह एकरूपता इनके हिसाब से ऐसी 'एकता' में है, जहां इनसे संबंधित चीजों के अलावा दूसरी चीजों की जगह ही ना हो।"

पूरा ख़त नीचे लिखा है।

मेरे प्रिय साथी नागरिकों

क्या आप परेशानी में हैं?

शायद नहीं हैं। अगर आप परेशान नहीं हैं तो आप आगे पढ़ना पसंद नहीं करेंगे।

लेकिन मैं यह ख़त सिर्फ़ इसलिए नहीं लिख रहा कि आप इसे पढ़ें, बल्कि मैं जो बात कहना चाहता हूं, उसे कहे बिना मैं अब रह नहीं सकता। जैसे कई बार हम किसी से मिलना चाहते हैं, क्योंकि ऐसा लगता है कि वह हमारी परवाह करता है, लगता है जैसे उसे भी वैसा ही महसूस होता है, जैसा हमें होता है।

तो मैं बुरे तरीके से परेशान हूं। मैं समझ नहीं पा रहा हूं कि हम आज जहां है, वहां क्यों हैं? एक स्याह अंधेरा मेरा दम घोंट रहा है। क्या स्याह अंधेरा दम घोंट सकता है? यह आपकी नज़रों के सामने पर्दा तो डाल ही सकता है। लेकिन क्या यह आपको सांस लेने से रोक सकता है? विश्वास मानिए यह ऐसा कर सकता है। मेरे आसपास के विचार, शब्द और क्रियाओं की हिंसा मेरा दम घोंट रही है। यह हर पल, हर दिन निरंतर जारी है। ऐसा लगता है जैसे मेरा सिर प्लास्टिक के थैले में बंद है। यह वह थैला है, जो नफ़रत का संदेश अपने भीतर समेटे हुए है।

हम अब आपस में दुआ-सलाम नहीं करते। बस नफरत को महसूस करते हैं। हर दिशा से नफ़रत आ रही है, हम इसके भंवर में फंस चुके हैं और जब हम इसमें डूब जाते हैं, तो सारी प्रतिबद्धताओं और विश्वासों का कोई मायने नहीं रह जाता।

मैंने कहा कि मुझे मेरा दम घुंटता हुआ महसूस होता है। लेकिन मैं यह भी जानता हूं कि मैं इस दम घोंटने वाली प्रक्रिया का हिस्सा भी बन गया हूं। भले ही यह सुनने में बेहद अजीब लगे। मैं वह हूं, जो दम घोंटता है और खुद का दम घुंटवाता है। मेरे आसपास की नफ़रत और गुस्सा मेरी सांसों में जगह बना चुका है। यह वही नफ़रत या वही गुस्सा नहीं है, लेकिन फिर यह गुस्सा और नफरत तो है ही। मैं बाहर से शांत नज़र आ सकता हूं, लेकिन मेरे भीतर गुस्सा भरा हुआ है और नफ़रत मुझे निगल रही है। एक स्वस्थ्य और बारीक विमर्श अब संभव नहीं हो पाता। विमर्श या असहमति की जगह ही नहीं बची है। मुझे उकसाया जाता है और मैं प्रतिक्रिया भी देता हूं। फिर मेरी प्रतिक्रिया दूसरों के लिए उकसावा बन जाती है। अब हम कर्कश ध्वनियों और आंखो पर पड़े जाले का एक समाज बन चुके हैं।

भारतीयों के एक ताकतवर हिस्से का विश्वास है, और वे यह यकीन दूसरों को दिलाने की भी कोशिश करते रहे हैं कि स्वतंत्रता के बाद से हाल तक सत्ता के केंद्र में रहने वाले लोग धर्मनिरपेक्षता के नाम पर हिंदू विश्वासों और लोकतंत्र के नाम पर बहुसंख्यकों की भावनाओं को ठेस पहुंचा रहे थे। अब तक सभी विचारों के राजनेता रहे हैं, लेकिन क्या हम इस तरीके की भद्दी व्याख्या को स्वीकार कर लेंगे, जिसका उद्देश्य संविधान से चलने वाले हमारे गणराज्य का महज़ माखौल उड़ाना है? जो लोग इस झूठ को बिना दिमाग लगाए फैला रहे हैं, उन्हें इसी लोकतंत्र और स्वतंत्र अभिव्यक्ति की संस्कृति से लाभ मिला है। क्या अतीत के सभी क्रियाकलापों को मान्यता दे देनी चाहिए? बिल्कुल नहीं। बल्कि सबसे खराब दौर तो आपातकाल का था। लेकिन अपने देश को विविधता की ज़मीन मानकर प्यार करने वालों के सभी कार्यों को जिस तरह से विवादास्पद बना दिया जाता है, वो सत्य का उपहास है।

गांधी और नेहरू से चाहे जितनी असहमति रखिए, उनकी प्रशंसा मत करिए, लेकिन उन्हें देशद्रोही बता देना तिरस्कार है। बाबासाहेब आंबेडकर ने बिल्कुल सही तरीके से गांधी जी से पुरजोर संघर्ष किया, लेकिन उन्होंने हमेशा सभ्यता से व्यवहार किया और जटिल विमर्श की जरूरत को पहचाना। आज विचारों को नियंत्रित करने वाले यह लोग हमें हमारे लोकतंत्र और हमारे बहुलतावादी अतीत से नफ़रत करना सिखा रहे हैं, क्योंकि इन्हें देश की विविधता, इसकी बारीकियों में बसी खूबसूरती से प्यार नहीं है। इसके बजाए यह लोग हमें एकरूपता से प्रेम करवाना चाहते हैं, यह एकरूपता इनके हिसाब से ऐसी 'एकता' में है, जहां इनसे संबंधित चीजों के अलावा दूसरी किसी चीज की जगह नहीं है।"

किस हद तक यह लोग इस एजेंडे को आगे बढ़ा रहे हैं? शब्दों को उनकी पृष्ठभूमि से हटाकर उठा लिया जाता है, नफरत फैलाने के मकसद से वीडियो में कांट-छांट की जाती है और छेड़खानी कर बनाई गई तस्वीरों को किसी वायरस की तरह पूरे सोशल मीडिया पर फैला दिया जाता है। इस बीच जज ऐसी उद्घोषणाएं कररते हैं, जो उनके पद के योग्य नहीं हैं। इस शोरगुल में कुशल उद्यमी लोग कठोर पूंजीपति ही बने रहते हैं और पैसा छापना जारी रखते हैं, क्योंकि प्यार के संदेश को आगे बढ़ाने के लिए निवेश करना होगा, जबकि नफ़रत के संदेश को फैलाने में कोई पैसा नहीं लगता।

यही देखते हुए मेरा दम घुटता है। लेकिन क्या मैं ही इसके लिए जिम्मेदार नहीं हूं? क्या खुद के लिए एक तरह का प्यार और दूसरे के लिए नफरत किसी तरह मेरे भीतर पहुंच गई है? या यह हमेशा से ही हमारे भीतर मौजूद थी? कई बार मैं सोचता हूं कि क्या हम वाकई ऐसे विचाररहित और भावनारहित तो नहीं थे, यह हमारे भीतर का घिनौनापन है। अब यह घिनौनापन सबके सामने प्रदर्शित हो रहा है। लेकिन यह सच नहीं हो सकता; हममें कुछ तो सभ्यता बाकी होगी। क्यों आप और हम इसे दोबारा मौका देना नहीं चाहते? क्या हम किसी चीज को खोने से इतना डरते हैं? क्या हमें विश्वास हो चला है कि यह संकीर्णता और कट्टरता हमें बचा सकती है?

हमसे रोज गलत व्यक्ति या किसी दूसरे से खुद को बचाने के लिए कहा जाता है। ईसाई, मुस्लिम, यूरोपीय, अमेरिकी, पाकिस्तानी और बांग्लादेशियों को उनकी जगह दिखाई जानी है, उन पर प्रतिबंध लगाना है या उन्हें यहां से हटाना है। साम्यवादी, मध्यवादी, समाजवादी, नास्तिक और धर्मनिरपेक्ष इन सभी लोगों से घृणा करना है। दलित और वंचित तबके के दूसरे लोग, जो बहुसंख्यकवाद का विरोध करते हैं, वो देशद्रोही हैं। सभी पत्रकार झूठे हैं। कोई भी सार्वजनिक व्यक्ति जो सरकार पर सवाल उठाता है, वो देश से नफरत करने वाला है और अगर वो भारतीय नहीं है, तो निश्चित ही वह भारत को अस्थिर करने के लिए कोई घृणित योजना बना रहा होगा। जो लोग कड़ी कार्रवाईयों की मांग करते हैं, वे हारे हुए लोग हैं, जो महिलाएं स्वतंत्र हैं, वो सुंस्कृत नहीं हैं और जो युवा सड़कों पर प्रदर्शन करने निकल रहे हैं, वे बर्बाद हो चुके हैं।

सच बताइए यहां किसको छोड़ दिया गया है? सिर्फ़ वही एक वर्ग जो हिंदू विश्वासों के एक खास तरीके को ही मानता है और जो सिर्फ़ वही भाषा बोलेगा, जो एक खास समूह वाले कट्टरपंथियों को पसंद आएगी। क्या हम वाकई ऐसा समाज और ऐसा देश बनाना चाहते हैं? मैं नहीं जानता कि जो लोग इनका समर्थन कर रहे हैं, वह समझ भी रहे हैं कि वह लोग क्या कर रहे हैं। ऐसा भारत, भारत ही नहीं रहेगा।

'राजद्रोह', 'धार्मिक भावनाओं को ठेस' और 'देश के हितों के खिलाफ़ काम', इन तरह के शब्द-वाक्यों की ब्रॉन्डिंग कर दी गई है। जब सवाल उठाने वालों और वंचित तबके के लोगों के लिए बेहद मेहनत से काम करने वाले सामाजिक कार्यकर्ताओं को आतंकी कहा जाता है और उन्हें गिरफ़्तार किया जाता है, तो हम उनपर हंसते हैं और मीम बनाते हैं! युवा सामाजिक कार्यकर्ता दिशा रवि को दिल्ली ले जाकर गिरफ़्तार किया गया और मीडिया के सामने उसकी परेड करवाई गई। कई लोगों ने इस व्यवहार का समर्थन किया है। यहां तक कि कई युवाओं के माता-पिता भी बेफिक्र बने रहकर ज़हर उगलते रहे।

मैं कई दोषों वाला इंसान हूं और शायद कई दूसरी गलत चीजों के खिलाफ़ मैंने आवाज़ नहीं उठाई होगी, उनसे मुझे फर्क नहीं पड़ा होगा, मैं असफल हूं। वह ग़लतियाँ मत कीजिये, जो मैंने कीं और लगातार कर रहा हूँ।

टीएम कृष्णा

इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें।

We Have Become a Society of Aural Dissonance and Visual Clutter: TM Krishna

Communalism
Sedition
Arrest of Activists
Democracy in India
Democracy under threat
Idea Of India

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