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चुनाव 2022
भारत
राजनीति
यूपी चुनाव: क्या पश्चिमी यूपी कर सकता है भाजपा का गणित ख़राब?
पश्चिमी यूपी में 10 फरवरी, 2022 को होने वाला पहले चरण का चुनाव, शेष चरणों के लिए भी काफी महत्व रखता है क्योंकि ऐतिहासिक रूप से, पश्चिमी यूपी में अधिकांश विधानसभा सीटों पर जीत हासिल करने वाला राजनीतिक दल ही राज्य में सरकार बनाता है और लोकसभा की अधिकांश सीटों को भी भविष्य के लिए सुरक्षित कर पाता है।
एस एन साहू 
05 Feb 2022
Translated by महेश कुमार
up elections
Image Courtesy: The Indian Express

भारत के गृह मंत्री और भाजपा के शीर्ष नेताओं में से एक, अमित शाह ने हाल के दिनों में कहा था कि यूपी के 2022 के विधानसभा चुनावों में भाजपा की जीत, सुनिश्चित करेगी कि योगी प्रदेश के मुख्यमंत्री रहें ये जीत 2024 में फिर से मोदी के प्रधानमंत्री बनने का भी मार्ग प्रशस्त करेगी। शाह का बयान राज्य, भाजपा और पूरे देश के लिए यूपी चुनाव के महत्व को रेखांकित करता है।

विभिन्न राजनीतिक दलों ने यूपी में राज्यव्यापी चुनाव अभियान द्वारा राष्ट्रीय राजनीति को आयाम देने में इसके प्रभाव की थाह लेने के लिए गंभीर विश्लेषण और टिप्पणियाँ की हैं।

पश्चिमी उत्तर प्रदेश का राजनीतिक महत्व

पश्चिमी यूपी में 10 फरवरी, 2022 को होने वाला पहले चरण का चुनाव, शेष चरणों के लिए भी काफी महत्व रखता है क्योंकि ऐतिहासिक रूप से, पश्चिमी यूपी में अधिकांश विधानसभा सीटों पर जीत हासिल करने वाला राजनीतिक दल ही राज्य में सरकार बनाता है और लोकसभा की अधिकांश सीटों को भी भविष्य के लिए सुरक्षित कर पाता है।

कई कारणों से, पश्चिमी यूपी हमेशा राजनीतिक रूप से बहुत महत्वपूर्ण रहा है और वैसे भी यह क्षेत्र राज्य के अन्य क्षेत्रों की तुलना में अपेक्षाकृत समृद्ध क्षेत्र है; हरित क्रांति के प्रभाव के कारण यहां कृषि का विकास और विस्तार हुआ और धनी किसानों का उदय हुआ; यह किसान राजनीति का केंद्र है और भारत के किसान आंदोलन के कुछ शीर्ष नेता इस क्षेत्र से आते हैं; बड़ी मुस्लिम आबादी इसकी जनसांख्यिकी का विशिष्ट पहलू है; 2013-14 को छोड़कर जाट और मुस्लिम किसान एक साथ रहे हैं और उनकी एकता हमेशा इस क्षेत्र की एक परिभाषित विशेषता रही है; यूपी के अन्य हिस्सों की तुलना में यहां दलित और आदिवासी आबादी की उपस्थिति बहुत कम है।

2017 के चुनाव में पश्चिमी यूपी की 130 विधानसभा सीटों में से बीजेपी ने 104 सीटें जीती थीं और 403 में से 312 सीटें जीतकर मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ सरकार बनी थी। इससे पहले 1991 में बीजेपी को 221 सीटें मिली थीं, पहली बार उसे अपने दम पर बहुमत मिला था और कल्याण सिंह के नेतृत्व में सरकार बनाई गई थी। यह तभी संभव हो पाया जब पार्टी ने पश्चिमी यूपी में सबसे ज्यादा सीट जीती थीं। 1991 के विधानसभा चुनावों में भाजपा की बहुमत की ताकत का श्रेय किसान नेता महेंद्र टिकैत को दिया गया था, जिन्होंने कल्याण सिंह के अनुरोध पर, किसानों के वोट हासिल करने के लिए, उन्हें राम के नाम पर वोट देने की अपील जारी की थी। उस समय, बाबरी मस्जिद के स्थान पर राम मंदिर निर्माण के लिए लालकृष्ण आडवाणी और भाजपा का व्यापक अभियान एक बड़ा मुद्दा बन गया था, और इसलिए जाटों ने टिकैत की राम के नाम पर वोट देने की अपील को भाजपा के लिए वोट डालने की अपील के रूप में व्याख्यायित किया था।

इसके विपरीत, 2012 के विधानसभा चुनावों में, भाजपा ने पश्चिमी यूपी में केवल 19 सीटें जीती थीं, जबकि समाजवादी पार्टी को राज्य में बहुमत मिला था और उस क्षेत्र में सीटों का एक महत्वपूर्ण हिस्सा हासिल करके सरकार बनाई थी।

पश्चिमी उत्तर प्रदेश में आरएसएस के विचारक गोलकवलकर

2013 में हिंदू-मुस्लिम दंगों के बाद ध्रुवीकरण हुआ था। भाजपा ने 2014 के आम चुनावों में 80 संसदीय सीटों में से 71 सीटें जीतकर भारी जीत दर्ज़ की थी। उसके विजयी उम्मीदवारों की सूची में एक भी मुस्लिम उम्मीदवार नहीं था। पश्चिमी यूपी में मुस्लिम और जाट किसानों को अलग करने वाली विभाजनकारी राजनीति के परिणामस्वरूप 2017 के विधानसभा चुनावों में भाजपा को उल्लेखनीय जीत मिली थी।

यह ध्यान देने की बात है कि पश्चिमी यूपी हमेशा आरएसएस के निशाने पर रहा है। उदाहरण के लिए, एमएस गोलवलकर ने अपने बंच ऑफ थॉट्स में पश्चिमी यूपी का उल्लेख किया है और इसे "शक्तिशाली मुस्लिम पॉकेट" के रूप में वर्णित किया है।

उन्होंने लिखा था कि "...1946-47 जैसी विस्फोटक स्थिति तेजी से पैदा हो रही है और पता नहीं कब यह विस्फोट हो जाए"। आगे चुनाव के नजरिए से पश्चिमी यूपी पर विचार रखते हुए और मुसलमानों के खिलाफ अपने पूर्वाग्रहों को दर्ज़ करते हुए लिखा: “दिल्ली से लेकर रामपुर और लखनऊ तक, मुसलमान एक खतरनाक साजिश रचने, हथियार जमा करने और अपने आदमियों को जुटाने और शायद उस समय भीतर से हमला करने को तैयार हैं जब पाकिस्तान हमारे देश के साथ सशस्त्र संघर्ष करने का फैसला करता है। और जब वे हमला करेंगे तो इस बात की बहुत संभावना है कि दिल्ली की नींव तक हिल जाए, यह संभावना तब तक रहेगी जब तक कि हम इस बुराई को जड़ से खत्म करने के लिए आगे नहीं आते हैं। ऐसा नहीं है कि हमारे नेताओं को इसकी जानकारी नहीं है। गुप्त ख़ुफ़िया रिपोर्ट उन तक पहुँचती हैं। लेकिन ऐसा लगता है कि उनके पास केवल चुनाव हैं। चुनाव का मतलब वोट-कैचिंग है, जिसका अर्थ है वोटों के ठोस ब्लॉक वाले लोगों के कुछ वर्गों को खुश करना। और मुसलमान ऐसे ही एक ठोस ब्लॉक हैं। इस सारे तुष्टिकरण और उसके परिणामी विनाशकारी प्रभावों की जड़ इसी में निहित है।"

जाट और मुस्लिम किसानों की सदियों पुरानी एकता ने आरएसएस नेता के उस भयानक विश्लेषण को झुठला दिया और 2013 में हुए सांप्रदायिक दंगों ने उन्हें अलग कर दिया था। बाद के वर्षों में भाजपा ने भारी चुनावी जीत दर्ज की।

किसानों के आंदोलन ने दिया ध्रुवीकरण को करारा झटका

मोदी सरकार के तीन कृषि कानूनों के खिलाफ एक साल तक चले ऐतिहासिक किसान आंदोलन के बाद, किसान नेता राकेश टिकैत और अन्य ने स्वीकार किया था कि उन्होंने विभाजनकारी राजनीति के आगे घुटने टेक दिए थे लेकिन अब नफ़रत और हिंसा को हराने का संकल्प कर लिया है। टिकैत ने आगे कहा कि, "वे बांटने की बात करते हैं", "हम एकजुट होने की बात करते हैं। भाजपा की राजनीति की पहचान नफ़रत है।" पश्चिमी यूपी के मुजफ्फरनगर में आयोजित किसान महापंचायत में राकेश टिकैत ने जब अल्लाह-हो-अकबर का नारा लगाया तो बाकी सभी ने हर-हर महादेव का नारा लगाया। मंच पर मौजूद मेधा पाटकर ने कहा, "हिंदू-मुस्लिम-सिख-ईसाही, हम सब हैं बहन-भाई।" धर्म से परे इस तरह की एकजुटता ने हिंदुत्व के ध्रुवीकरण के प्रति खतरा पैदा कर दिया है। राकेश टिकैत ने 2013 में हुए बंटवारे के लिए मुस्लिम किसानों से माफी मांगी।

किसान आंदोलन ने पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जाट और मुस्लिम किसानों की एकता ने 2013 की सांप्रदायिक हिंसा के कारण हुए विभाजन को लगभग समाप्त कर दिया है। यह जाटों और मुस्लिम किसानों की स्थायी बिरादरी में एक विचलन था, जो एक साथ रहते थे और अपने सामूहिक जीवन में बहुत कुछ साझा करते थे और धार्मिक बहुलवाद का जश्न मनाते थे, जो कि सर्वोच्च न्यायालय द्वारा संविधान की मूल संरचना के रूप में धर्मनिरपेक्षता के मूल में बना हुआ है। जाट और मुस्लिम किसानों की इस तरह की एकता के पुनरुत्थान ने पश्चिमी यूपी में भाजपा की चुनावी संभावनाओं पर पानी फेर दिया है, जहां उसे 2017 के विधानसभा चुनावों में जाट वोट मिले थे। अब कोई जाट या मुस्लिम वोट नहीं हैं, बल्कि इन दोनों समुदायों के किसानों का वोट है। उन्होंने ध्रुवीकरण के कारण पैदा हुई खाई को पाट दिया है। वे भाजपा पर परामर्श किए बिना कृषि कानूनों को अधिनियमित करने और उन्हें बिना चर्चा के संसद में पारित करने के लिए सबक सिखाने के लिए दृढ़मत हैं। 

किसान बनाम भाजपा

इसलिए अब भाजपा को न केवल जाटों, मुसलमानों और अन्य पिछड़े वर्गों के किसानों के क्रोध का सामना करना पड़ रहा है, जिनमें से अधिकांश अपनी आजीविका कृषि के माध्यम से कमाते हैं। मुस्लिम और जाट किसानों की एकता को तोड़ने और भाजपा के लिए जाट वोटों को हासिल करने के लिए, अमित शाह ने रालोद के जाट नेता जयंत चौधरी से अपील की कि वह समाजवादी पार्टी में शामिल होकर भटक गए हैं और इसलिए उन्हे भाजपा का साथ देना चाहिए।

जयंत ने तीखा जवाब देते हुए कहा कि वे पच्चीस पैसे के सिक्के की तरह नहीं है, जिसे कभी भी उछाला जा सकता है। उन्होंने यह भी पलटवार किया कि गृह मंत्री को पहले उन 750 किसानों के परिवारों को आमंत्रित करना चाहिए जो कृषि कानूनों के खिलाफ किसानों के साल भर के आंदोलन के दौरान मारे गए थे।

जाट वोट पाने के लिए जयंत चौधरी को अपील करने के अलावा, अमित शाह ने पश्चिमी यूपी के कैराना को चुनाव की शुरुआत करने के लिए चुना और कहा- यह वह इलाका है जहां से हिंदुओं को मुसलमानों से उत्पन्न खतरे के कारण इलाका छोडना पड़ा था। इस तरह की कहानी को पहले ही खारिज किया जा चुका है। उन्होंने लोगों से यह भी अपील की कि वे 2013 के सांप्रदायिक दंगों को न भूलें। गृहमंत्री के ऐसे अभियान ने केवल उन मुद्दों को उठाया जो पहले जाटों और मुसलमानों को विभाजित किया करते थ, और यह दिखाया कि भाजपा अपने तथाकथित विकास एजेंडे को सामने नहीं लाना चाहती है, क्योंकि पूरे देश में यही इसके व्यापक जन-विज्ञापन अभियान का हिस्सा है। हिंदुत्व के एजेंडे पर ज़ोर देकर इसने यह साबित कर दिया है कि इसके पास अपने राजनीतिक विरोधियों जैसे कि समाजवादी पार्टी और कांग्रेस के अभियान का मुकाबला करने के लिए कोई अन्य मुद्दा नहीं है, जो सभी समुदायों के समान मुद्दों को उठा रहे हैं।

जाट-मुस्लिम एकता में निहित चरण सिंह की विरासत

अब जाटों और मुस्लिम किसानों दोनों में यह अहसास बढ़ रहा है कि 2013 के सांप्रदायिक दंगों के कारण उन्हें भारी नुकसान हुआ, जिसे उन्होंने एक बड़ी गलती माना है। उन्होंने दृढ़ता से इस बात को माना कि दंगों ने उनके सामूहिक अस्तित्व के साझा मूल्यों पर बनी उनकी एकता को झकझोर दिया था, जिस एकता से उन्हें हमेशा लाभ मिले और उनके सामान्य हित एक हुए थे। इसलिए, लोगों को विभाजित करने की राजनीति और धर्म के आधार पर वोट जीतने के किसी भी राजनीतिक दल के किसी भी सांप्रदायिक कीचड़ में नहीं फंसने नहीं जा रहे हैं क्योंकि जो इस धर्म का हिस्सा नहीं वे उसे दायरे से बाहर कर देते हैं।

जाट समुदाय के एक किसान ने बताया कि चरण सिंह, केवल जाटों के वोटों से भारत के प्रधान मंत्री नहीं बन सकते थे। उन्होंने कहा कि जाटों, मुसलमानों और पश्चिमी यूपी की अन्य जातियों के लोगों ने उन्हें वोट दिया था और उनके सामूहिक समर्थन के आधार पर ही वे राष्ट्रीय कद के एक प्रमुख नेता के रूप में उभर सके। 

जाट और मुस्लिम दोनों किसानों द्वारा राजनीतिक विकास की इस तरह की संवेदनशील समझ उस सांप्रदायिक राजनीति को एक प्रभावी टक्कर दे रही है, जो कि धर्मनिरपेक्ष मूल्यों और धार्मिक बहुलवाद की पुष्टि करने वाले किसानों के एक साल के लंबे आंदोलन के बाद अपनी साख खो चुकी है, और जो समझ 2014 और 2019 के आम चुनाव और 2017 के विधानसभा चुनाव के नतीजे तय करने वाली ध्रुवीकृत राजनीति के खिलाफ है। 

गौरतलब है कि जाटों ने पिछले तीन या चार वर्षों के दौरान मुसलमानों को, जो दंगों के बाद गांवों से भाग गए थे, वापस गांवों में आमंत्रित किया है। पंचायत चुनावों के दौरान, जाटों ने मुसलमानों को प्रधान के रूप में चुना, और उनकी एकजुटता बहुसंख्यकवाद पर आधारित भाजपा की राजनीति का समर्थन नहीं करती है, जो महेंद्र सिंह टिकैत और चरण सिंह के राजनीतिक अनुनय के बिल्कुल विपरीत है, जो जाटों, मुसलमानों और अन्य जातियां की एकता बनी रही है।

मुगलों से लड़ने पर अमित शाह का बेतुका दावा

अमित शाह का यह बेतुका दावा कि जाट और भाजपा का मुगलों के खिलाफ लड़ने का साझा इतिहास रहा है और इसलिए, उन्हें चुनावी राजनीति में एक साथ आना चाहिए, राजनीतिक विश्लेषकों और टिप्पणीकारों ने इसका उपहास उड़ाया है। वे अमित शाह के इस दावे पर उंगली उठाते हुए कहते हैं कि लगभग चार दशक पहले बनी भाजपा, 16वीं और 17वीं शताब्दी के दौरान भारत पर शासन करने वाले मुगलों के खिलाफ लड़ रही थी। उनका कहना है कि जहां मराठा और राजपूत शासकों ने मुगलों के खिलाफ लड़ाई लड़ी, वहीं जाटों के बीच कोई शत्रुतापूर्ण संबंध नहीं था।

अमित शाह जाट और मुस्लिम समुदायों और अन्य जातियों के किसानों के मुद्दे को उठाने के बजाय केवल जाटों के वोट को हासिल करने के लिए झूठे ऐतिहासिक बयानों की बात कर रहे हैं।

यह ध्यान देने की बात है कि ध्रुवीकरण की कोई भी बात उन लोगों को प्रभावित नहीं कर रही है जो धर्म से हटकर अपने मूल मुद्दों को उठाते हैं। वे युवाओं के सामने बड़े पैमाने पर बेरोजगारी के स्तर, कीमतों में वृद्धि, हिंदुओं और मुसलमानों की फसलों को नष्ट करने वाले आवारा मवेशियों और सबसे ऊपर, आजीविका के अवसरों की कमी का मुद्दा उठाते हैं। वे कोविड ​​की विनाशकारी दूसरी लहर के कारण हजारों लोगों की मौत और योगी सरकार द्वारा ऑक्सीजन, दवा न उपलब्ध कराने और अस्पताल सुविधाओं की कमी से निपटने में असमर्थता की बात करते हैं। भाजपा के प्रति आक्रोश काफी तीव्र और व्यापक है। इसका प्रदर्शन पश्चिमी यूपी के कई निर्वाचन क्षेत्रों और राज्य के अन्य हिस्सों की सड़कों पर किया जाता है जहां लोगों ने गुस्से में भाजपा नेताओं को अपने क्षेत्रों से भगाने और उनके खिलाफ नारेबाजी की है। चुनाव के समय, किसी विशेष राजनीतिक दल के नेताओं के खिलाफ लोगों द्वारा इस तरह का धक्का-मुक्की यूपी के चुनावी इतिहास में पहले कभी नहीं देखा गया था।

बीजेपी ने लाभार्थी शब्द का इस्तेमाल उन लोगों के लिए किया है, जिन्हें मुफ्त राशन मिलता है और किसानों को जिन्हे प्रति वर्ष 6000 रुपये का प्रत्यक्ष नकद भुगतान मिलता है। डीजल, पेट्रोल और रसोई गैस सिलेंडर की बढ़ती कीमतों के कारण यह लाभ हवा में गायब हो जाता है। यूपी में, शेष भारत की तरह, डीजल की उच्च लागत ने किसानों के ऊपर प्रतिकूल प्रभाव डाला है। यह विशेष रूप से पश्चिमी यूपी में है, जो किसानों का गढ़ है जो अपनी कृषि गतिविधियों को बनाए रखने के लिए डीजल का उपयोग करते हैं।

यह सर्वविदित है कि पश्चिमी यूपी किसान राजनीति का केंद्र है, और इसने राज्य और राष्ट्रीय स्तर पर राजनीतिक शासन के चुनावी भाग्य का तय करने वाले बड़े पैमाने पर किसान आंदोलनों को देखा है। ऐसा कहा जाता है कि महेंद्र टिकैत के नेतृत्व में चले किसान आंदोलन ने राजीव गांधी सरकार के राजनीतिक भाग्य को तय किया था जिसमें लगभग दस लाख किसानों की भागीदारी थी। 2013 में विभाजनकारी राजनीति के ज़रिए जाट और मुस्लिम किसानों को विभाजित करने के बाद ही, भाजपा की राजनीतिक किस्मत ऊपर उठी और इसने केंद्र और राज्य में सरकार बनाई। मोदी शासन द्वारा लागू किए गए कृषि कानूनों के खिलाफ साल भर के किसान आंदोलन में पश्चिमी यूपी के जाट और मुस्लिम किसानों की भारी भागीदारी देखी गई, और इसने भाजपा की चुनावी संभावनाओं पर प्रतिकूल प्रभाव डाला। इसलिए, प्रधानमंत्री मोदी को कृषि कानूनों को रद्द करने पर मजबूर होना पड़ा। यह किसानों की बड़ी जीत थी। हालांकि, मोदी सरकार ने उनकी अन्य मांगों जैसे फसलों के लिए एमएसपी की गारंटी देने वाली कानूनी व्यवस्था, बिजली कानून को निरस्त करने और आंदोलनकारी किसानों के खिलाफ लगाए गए मामलों को वापस लेने जैसी अन्य मांगों पर कुछ नहीं किया है।

वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण द्वारा 2 फरवरी को पेश किए गए केंद्रीय बजट में किसानों द्वारा उठाए गए मुद्दों और उनके समाधान के लिए भारत सरकार द्वारा उठाए गए उपायों का कोई जिक्र नहीं है। इसे देखते हुए, किसानों को लगता है कि उन्हें मोदी शासन ने धोखा दिया है और इसलिए 31 जनवरी, 2022 को विश्वघात दिवस मनाना गया। वे इसे आगे बढ़ाने का इरादा रखते हैं और लोगों से भाजपा को वोट न देने की अपील कर रहे हैं। इस तरह के घटनाक्रम का यूपी में आगामी चुनावों में भाजपा के लिए गंभीर परिणाम होंगे। 

योगी शासन के खिलाफ लोगों के भारी गुस्से को पश्चिमी यूपी में जाट और मुस्लिम किसानों की एकता और कई प्रमुख ओबीसी नेताओं द्वारा सामाजिक न्याय के एजेंडे को पुनर्जीवित करने के साथ जोड़ कर देखा जा रहा है, जो भाजपा छोड़कर अखिलेश यादव के नेतृत्व वाली समाजवादी पार्टी में शामिल हो गए हैं।

ऐसे सभी राजनीतिक महत्वपूर्ण घटनाक्रमों के कारण भाजपा के प्रति चुनावी परिणाम उसके खिलाफ जा सकते हैं। आखिरकार, 10 मार्च को घोषित होने वाले अंतिम परिणामों से पता चलेगा कि किस पार्टी को जनता का जनादेश मिला है। परिणाम जो भी हो, यह स्पष्ट है कि पश्चिमी यूपी में अधिकांश सीटें जीतने वाली पार्टी ही यूपी में सरकार बनाएगी और राष्ट्रीय राजनीति की दिशा तय करेगी।

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

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