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कृषि
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भारत में लंबे समय से मौजूद कृषि संकट की जड़ क्या है?
पूर्व-पूंजीवादी भूमि संबंधों और उत्पादन के संबंधों में दूरगामी सुधारों के ज़रिये कृषि की गहरी समस्या को दूर किया जा सकता है, जो उत्पादकता में कमी लाते हैं और ग्रामीण भारत में ग़रीबी, बेरोज़गारी और असमानता की मज़बूत जड़ का काम करते हैं।
शिन्ज़नी जैन
07 May 2021
Translated by महेश कुमार
भारत में लंबे समय से मौजूद कृषि संकट की जड़ क्या है?

पांच महीने से अधिक समय बीत चुका है जब देश के अलग-अलग हिस्सों आए किसानों ने दिल्ली में कृषि-क़ानूनों के खिलाफ विरोध प्रदर्शन शुरू किए थे। जब उनकी मांगों की बात आती है तो वे बेधडक - तीन कृषि-कानूनों और बिजली संशोधन विधेयक को निरस्त करने और न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) को कानूनी अधिकार बनाने की बात करते हैं। भारत में किसानों की उपज के बेहतर दाम की मांग वर्षों से चली आ रही है। वर्ष 2017 में मुंबई से शुरू हुए किसान लॉन्ग मार्च और 2018 में दिल्ली में संपन्न हुए किसान आंदोलन की एक महत्वपूर्ण मांग यही थी।

आज, भारत में किसानों का एक बड़ा हिस्सा खुद को एक ऐसे संकट में पाता है, जिसमें उन्हें अपनी उपज का न्यूनतम मूल्य भी नहीं मिल रहा है, जो खेती और मानव-श्रम की लागत को को भी कवर नहीं कर पा आढ़े हैं। उस पर, उर्वरकों, बीज, कीटनाशकों और बिजली की इनपुट लागत में भी काफी बढ़ गई है। मध्य प्रदेश के किसानों के बीच किए गए एक सर्वेक्षण में, न्यूज़क्लिक को पता चला कि कृषि में किसानों की वास्तविक लागत सरकार के अनुमान से कहीं अधिक है, जैसा कि केंद्र सरकार के कृषि लागत और मूल्य (CACP) आयोग द्वारा अनुमानित है। अपनी खेती की लागत को पूरा करने के लिए वे हर कदम पर कर्ज़ लेने पर मजबूर हैं। फसल के कम दाम किसानों को आर्थिक संकट और स्थायी कर्ज़ की तरफ धकेल रहे है। पिछले दो दशकों से कृषि किसानों के लिए मुनाफे लायक नहीं रही है।

1980 और 2000 के दशक के बीच, कृषि उपज (प्रति हेक्टेयर की उत्पादकता) में भयंकट ठहराव  दर्ज़ किया गया। कृषि क्षेत्र में वृद्धि कम और अस्थिरता रही है। योजना आयोग की ‘ग्यारहवीं योजना में कृषि रणनीति के अनुसार’, कृषि जीडीपी की वृद्धि 1984-85 और 1995-96 के दौरान 3.62 प्रतिशत से घटकर 1995-96 से 2004-05 के बीच मात्र 1.85 ओरतिशत रह गई थी। पिछले दो दशकों में 2010-11 में कृषि वृद्धि दर 8.6 प्रतिशत से घटकर 2014-15 में -0.2 प्रतिशत और 2015-16 में 0.8 प्रतिशत रह गई थी। देश की जीडीपी में कृषि क्षेत्र का योगदान 1950-51 में 54 प्रतिशत से घटकर 2015-16 में 15.4 प्रतिशत रह गया है। विरोधाभासी रूप से देख जाए तो 2020-21 में कृषि क्षेत्र 3.4 प्रतिशत की वृद्धि दर दर्ज़ करने वाला एकमात्र क्षेत्र था, जबकि अन्य सभी क्षेत्र कोविड-19 महामारी को नियंत्रण करने के लिए भारत सरकार द्वारा लंबे समय तक लगाए गए लॉकडाउन के कारण बुरी तरह से ढह गए थे।

कृषि में ठहराव और उसके अलाभकारी होने के बावजूद, कृषि में भारत की जनसंख्या का बड़ा हिस्सा काम करता है। 2020-21 के आर्थिक सर्वेक्षण के अनुसार, देश में कुल कार्यबल का लगभग 54.6 प्रतिशत अभी भी कृषि और उससे संबंधित क्षेत्र से जुड़ी गतिविधियों में लगा हुआ है, जो वर्ष 2019-20 में भारत के सकल मूल्य वर्धन (GVA) का लगभग 17.8 प्रतिशत हिस्सा था। जीडीपी में औद्योगिक और सेवा क्षेत्र का योगदान बढ़ने के बावजूद, ये क्षेत्र कृषि में लगे अतिरिक्त श्रम को अपने में अवशोषित करने में विफल रहे हैं। यह स्थिति इन दो क्षेत्रों के भीतर ‘रोजगारविहीन विकास’ की घटना की तरफ इशारा करती है, जो कृषि में लगे बहुमत मजदूरों की वास्तविक प्रति व्यक्ति आय की वृद्धि में तब्दील नहीं हुआ।

इन वर्षों में, देश के भीतर छोटे और सीमांत किसानों की कम होती ज़मीनों ने भी कृषि की लाभकारिता को कम करने में योगदान दिया है। 1971 में कृषि पर हुई जनगणना के बाद से, भारत में भूमि के मालिकान की संख्या दोगुनी से अधिक हो गई है - 1970-71 में यह 71 मिलियन थी जो 2015-16 में बढ़कर 145 मिलियन हो गई थी। 1971 से 2011 के बीच सीमांत किसानों के पास ज़मीन (एक हेक्टेयर से कम) की संख्या 36 मिलियन से बढ़कर 93 मिलियन हो गई थी। लैंडहोल्डिंग यानि खेती की ज़मीनों के टुकड़ों की संख्या बढ़ने के साथ, औसत लैंडहोल्डिंग का आकार आधे से अधिक हो गया था, यानि 1970-72 और 2015-16 के बीच यह 2.28 हेक्टेयर से 1.08 हेक्टेयर तक हो गई थी। इसी समय में भूमिहीन खेतिहर मजदूरों की संख्या 2001 की 106.8 मिलियन से बढ़कर 2011 में 144.3 मिलियन हो गई थी, और कृषको  की संख्या में 2001 में 127.3 मिलियन से घटकर 2011 में 118.8 मिलियन हो गई थी। पहली बार, वैकल्पिक रोजगार के उपलब्ध न होने की वजह से खेतिहर मजदूरों की संख्या किसानों से अधिक हो गई थी। 

कृषि की लाभप्रदता में गिरावट, बढ़ती इनपुट लागत, वैकल्पिक अवसरों की कमी, उत्पादकता में गिरावट और वृद्धि दर में गिरावट, हालांकि, किसी भी कृषि संकट के बड़े लक्षण हैं जो चर्चा के समकालीन और मुख्यधारा के मुद्दों की तुलना में बहुत पुराने और गंभीर है। भारत में कृषि जगत का संकट पिछली सभी सरकारों द्वारा समझौतापरस्त और लापरवाह नीतियों का परिणाम है।

भारत में वर्तमान कृषि-संकट की नींव में आजादी के तुरंत बाद भारत में किए गए पूंजीवादी विकास की गलत प्रकृति रही है और जिसके परिणामस्वरूप जम्मू-कश्मीर, केरल, पश्चिम बंगाल और त्रिपुरा जैसे राज्यों को छोड़कर अधिकांश राज्यों में भूमि सुधार नहीं किए गए हैं। ज़्यादातर राज्यों में भूमि सुधार केवल कागज़ी रहे जो कभी हक़ीक़त नहीं बन पाए।  

जमींदार वर्गों को बेतहाशा मुआवजे देने के लिए किए भूमि सुधार किए गए, और साथ ही साथ उन्हें भूमि के विशाल हिस्से को बनाए रखने की अनुमति भी दे दी गई। यहां तक कि अधिकांश राज्यों में हदबंदी से अधिक भूमि थी लेकिन राज्यों ने उसे अधिग्रहित नहीं किया। हदबंदी के बाहर अतीतिक्त भूमि जिसका सरकार ने अधिग्रहण नहीं किया वह अतिरिक्त ही रह गई। हक़ीक़त में देखा जाए तो अमीर जमींदार वर्ग ने अपनी भूमि पर पकड़ भी बनाए रखी और विकासात्मक नीतियों के लिए सरकार से भत्ते भी लिए। भूमिहीन किसानों, छोटे और सीमांत किसानों या पट्टेदारों के हितों की रक्षा नहीं की गई। लाखों भूमि के पट्टेदार ने इस नीति के तहत खुद को बेदखल पाया।

आंशिक कृषि सुधार, जिन्हे ग्रामीण भूमि कुलीन तबकों के साथ सांठगांठ के तहत लाया गया था, उनका मतलब पिछली भूमि संरचना के भीतर व्याप्त असमानता और शोषण को स्वतंत्र भारत में भी जारी रखना था। यही कारण है कि गहरी असमानता और जाति आधारित भूमि संबंधों को मजबूत होने दिया गया। पूंजीवाद से पहले के भूमि संबंधों की नींव पर कृषि के पूंजीवादी विकास की नई संरचना का निर्माण किया गया। केंद्र और अधिकांश राज्यों की सरकारों ने कृषि विकास के लिए निवेश में बड़े जमींदारों और अन्य संपन्न तबकों पर भरोसा किया था।

आजादी के बाद के वर्षों में, हुकुमत के नेतृत्व वाले पूंजीवाद के जरिए कृषि उत्पादन में कुछ सुधार लाए गए। इस दौरान, सरकार ने सिंचाई, बिजली, विज्ञान और प्रौद्योगिकी, परिवहन, संचार, भंडारण और कर्ज़ सुविधाओं आदि के विस्तार में निवेश किया। इनसे उत्पादकता और उत्पादन बढ़ाने में मदद मिली। सरकार ने किसानों के हितों की रक्षा के लिए कृषि लागतों और सार्वजनिक खरीद प्रणाली को सुनिश्चित करने के लिए सब्सिडी दी। सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पहली बार 1939 में शुरू की गई थी) का विस्तार भी किया गया था ताकि सस्ती कीमतों पर खाद्यान्न की आपूर्ति सुनिश्चित की जा सके।

कृषि में राष्ट्र-आधारित विकास का लाभ बड़े जमींदारों और अमीर किसानों को मिला। लेकिन विकास के ये प्रयास ग्रामीण गरीबी और बेरोजगारी की हक़ीक़त को नहीं बदल पाए। जिसके परिणामस्वरूप एक तरफ जहां कृषि विकास और उत्पादकता बढ़ रही थी वहीं वर्ग और जाति की असमानता भी बढ़ रही थी। व्यापक असमानताओं का बढ़ना भी हरित क्रांति की एक विशेषता थी, जिसके तहत भूमि, संसाधनों और कृषि कर्ज़ की पहुंच केवल समृद्ध और अमीर किसानों तक ही थी। असमान विकास के इस चक्र से बड़े पैमाने पर गरीबी, बेरोजगारी और ग्रामीण किसानों की क्रय शक्ति में गिरावट आई। इसके बदले, उत्पादों-माल की बड़े पैमाने पर खपत के लिए आंतरिक बाजार विकास में कमी रही जिसने औद्योगीकरण की गति को कम कर दिया।

90 के दशक की शुरुआत में भारत के सामने भुगतान संतुलन (BOP) का संकट आया। भारत सरकार ने नवउदारवादी आर्थिक सुधारों और ढांचागत समायोजन कार्यक्रमों को लागू कर, व्यापार और वित्त को उदार बना कर और सार्वजनिक उद्यमों का निजीकरण करके इस संकट का जवाब दिया। सरकार के इस निर्णय का घरेलू और विदेशी पूंजी दोनों ने समर्थन किया। अब तक हुकूमत के विकास से लाभान्वित होने वाले भारतीय पूंजीपति वर्ग ने इसे भी अपने विस्तार के नए अवसर के रूप में देखा।

कृषि क्षेत्र के भीतर इन सुधारों ने राजकोषीय नीतियों में बदलाव से कृषि में सार्वजनिक निवेश में कमी आई और नतीजतन ग्रामीण बुनियादी ढाँचा, सिंचाई, कृषि सब्सिडी और कृषि अनुसंधान में भी कमी आई। ग्रामीण और कृषि क्षेत्र पर खर्च में गिरावट ने ग्रामीण क्षेत्रों में रोजगार सृजन पर प्रतिकूल प्रभाव डाला, जिससे ग्रामीण बाजारों में गिरावट आई। उर्वरक, ईंधन और बिजली में सब्सिडी की कटौती से कृषि लागत में वृद्धि हुई है। दुर्भाग्य से, अंतर्राष्ट्रीय व्यापार के खुलने से कपास और तिलहन जैसी गैर-खाद्य फसलों की अंतर्राष्ट्रीय कीमतों में गिरावट आई है।

इसी दौर में सरकार द्वारा किसानों को कृषि सब्सिडी के रूप में दी जाने वाली सुरक्षा और एमएसपी प्रणाली कमजोर पड़ गई। बैंक द्वारा फसल पर ऋण देना कम हो गया और ग्रामीण बैंक शाखाओं की संख्या भी कम हो गई। विशेष रूप से छोटे और सीमांत किसानों को सरकारी बैंक से कर्ज़ न मिल पाने से उन्हे निजी साहूकारों की ओर धकेल दिया गया, जिससे वे अनिश्चितकाल के लिए साहूकारों के कर्जदार हो गए। कुल मिलाकर, कृषि से दूर ‘व्यापार की शर्तों’ में बदलाव लाया गया था, और कृषि क्षेत्र और ग्रामीण किसान की जानबूझकर की गई उपेक्षा एक बड़े संकट में तब्दील हो गई।

पिछले तीन दशकों में, कृषि-संकट को हल करने के लिए भूमि और कृषि बाजारों को उदार बनाने के नवउदारवादी मॉडल अप्रभावी साबित हुए हैं। जबकि नवउदारवाद के घरेलू और अंतर्राष्ट्रीय समर्थकों ने उन सभी नई नीतियों जिनके तहत भूमि सुधार को उलटना, भूमि पट्टेदारी को उदार बनाने, कॉर्पोरेट भूमि के अधिग्रहण में ढील देने, कृषि में निजी निवेश को वापस करने,  निजीकरण पर जोर देने की वकालत की है, इसके साथ ही कृषि उत्पादों के भंडारण और व्यापार की सार्वजनिक अवसंरचना और सार्वजनिक वितरण प्रणाली को समाप्त करने की भी वकालत की है। 

90 के दशक के सुधारों के बाद कृषि क्षेत्र में लाए गए उदारीकरण से किसान भारी संकट में फंस गए है। तीन कृषि-कानूनों का विरोध करते हुए किसान हुकूमत की नीतियों में बदलाव की मांग कर रहे हैं। हालांकि, देश की कृषि व्यवस्था में व्याप्त इस गहरी सड़ांध को दूरगामी सुधारों के ज़रिए ही दूर किया जा सकता है, जिसकी शुरुवात पूर्व-पूंजीवादी भूमि संबंधों और उत्पादन के संबंधों में बड़े सुधार से हो सकती है जो उत्पादकता की ज़ंजीर बने हुए है और ग्रामीण भारत की जड़ में मौजूद गरीबी, बेरोजगारी और असमानता के वाहक है।

(लेखिका न्यूज़क्लिक से जुड़ी हैं और रिसर्च एसोसिएट हैं। व्यक्त विचार व्यक्तिगत हैं। उन्हें उनके ट्विटर हैंडल @ShinzaniJain पर संपर्क किया जा सकता है।)

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

What Lies at the Foundation of the Prolonged Agrarian Crisis in India?

Farm Laws
Farmers Protests
Agriculture
agricultural reform
Redistribution of Land
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