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भारत
राजनीति
EWS कोटे की ₹8 लाख की सीमा पर सुप्रीम कोर्ट को किस तरह के तर्कों का सामना करना पड़ा?
आर्थिक तौर पर कमजोर वर्ग को आरक्षण देने के लिए ₹8 लाख की सीमा केवल इस साल की परीक्षा के लिए लागू होगी। मार्च 2022 के तीसरे हफ्ते में आर्थिक तौर पर कमजोर सीमा के लिए निर्धारित क्राइटेरिया की वैधता पर फिर से सुनवाई होगी। तब अंतिम फैसला दिया जाएगा। 
अजय कुमार
07 Jan 2022
Supreme Court
Image courtesy : TheLeaflet

आर्थिक तौर पर कमजोर वर्ग को आरक्षण देने के लिए निर्धारित ₹8 लाख की सीमा की वैधता के खिलाफ दायर की गई याचिका पर लगातार दो दिनों तक सुप्रीम कोर्ट में बहस चलती रही। दो दिनों के बहस के बाद सुप्रीम कोर्ट के दो जजों - जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ और जस्टिस ए एस बोपन्ना - ने अंतरिम फैसला सुनाया है। मतलब अभी भी अंतिम फैसला नहीं आया है। सुप्रीम कोर्ट के मुताबिक अंतिम फैसला मार्च 2022 के तीसरे हफ्ते में दिया जाएगा।

इस पूरी सुनवाई के दौरान अंतिम फैसले के तौर पर सुप्रीम कोर्ट ने केवल एक फैसला लिया। जो याचिका अन्य पिछड़ा वर्ग को ऑल इंडिया नीट परीक्षा में 27% आरक्षण देने के खिलाफ दायर की गई थी, उस पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने अंतिम फैसले में कहा कि अन्य पिछड़ा वर्ग को 27% आरक्षण देना संवैधानिक है। इसके अलावा दूसरे याचिकाओं पर सुप्रीम कोर्ट ने अंतरिम फैसला दिया।

सुप्रीम कोर्ट ने अंतरिम फैसले में कहा है कि साल 2021-22 की अंडर ग्रैजुएट और पोस्ट ग्रेजुएट नीट की काउंसलिंग में अन्य पिछड़ा वर्ग के लिए 27% और आर्थिक तौर पर कमजोर वर्ग के लिए 10% आरक्षण देने की नीति अपनाई जाएगी। आर्थिक तौर पर कमजोर वर्ग को आरक्षण देने के लिए इस साल के लिए 8 लाख प्रति परिवार वार्षिक आमदनी की सीमा अपनाई जाएगी। यह अंतरिम फैसला है। यह फैसला इसलिए लिया जा रहा है ताकि प्रवेश परीक्षा में और अधिक देरी ना हो। प्रवेश परीक्षा का नोटिफिकेशन जुलाई 2019 में निकला था। इसी को लेकर दिल्ली में रेसिडेंट डॉक्टर प्रोटेस्ट कर रहे थे।

आर्थिक तौर पर कमजोर वर्ग को आरक्षण देने के लिए ₹8 लाख की सीमा केवल इस साल की परीक्षा के लिए लागू होगी। मार्च 2022 के तीसरे हफ्ते में आर्थिक तौर पर कमजोर सीमा के लिए निर्धारित क्राइटेरिया की वैधता पर फिर से सुनवाई होगी। तब अंतिम फैसला दिया जाएगा। उसी समय सरकार द्वारा आर्थिक तौर पर कमजोर वर्ग के लिए निर्धारित ₹800000 की सीमा पर गठित पांडे कमेटी की सलाहों पर भी फैसला लिया जाएगा।

अब समझने वाली बात यह है कि यह पूरा मामला क्या था? आखिरकार कहां पर पेंच फंस रहा है कि इस पूरे मामले पर सुप्रीम कोर्ट अंतिम फैसला नहीं सुना पाई। आर्थिक तौर पर कमजोर वर्ग को आरक्षण देने के लिए निर्धारित 8 लाख की सीमा के खिलाफ किस तरह के तर्क दिए गए कि सुप्रीम कोर्ट अपना अंतिम फैसला नहीं सुना पाई।  चलिए इसे सिलसिलेवार तरीके से समझते हैं।

भारत में सवर्णों की संख्या मुश्किल से 25% भी नहीं होगी। लेकिन भारत के हर ऊंचे सरकारी पद को उठा कर देखिए तो सवर्ण बिरादरी से आने लोगों की संख्या 90% से ज्यादा है। प्रशासनिक अधिकारी प्रोफेसर और जजों के मामले में यह संख्या तो 95% को पार कर जाती है। लेकिन फिर भी सवर्ण बिरादरी को लगता है कि सामाजिक न्याय के नाम पर परीक्षा और नौकरियों में दी जाने वाली आरक्षण की व्यवस्था से उनके साथ नाइंसाफी होता है।

40 से 50 फ़ीसदी सीटें आरक्षित वर्ग के लिए आरक्षित की जाती हैं तो जवान जातियों के अभ्यर्थियों की प्रतिस्पर्धा के लिए केवल 50 से 60% सीटें ही बचती हैं। इस तरह की प्रतिस्पर्धा को स्वर्ण जातियां अपने लिए नाइंसाफी भरा प्रतिस्पर्धा कहती हैं। लेकिन कभी भी पलट कर यह नहीं देखती कि मुश्किल से 25 प्रतिशत की हिस्सेदारी रखने वाली सवर्ण जातियों को प्रतिस्पर्धा करने के लिए 50 से 60% सीट मिल रही है। यह कहीं से भी नाइंसाफी भरा प्रतिस्पर्धा का माहौल नहीं है। आरक्षण को लेकर उनके भीतर केवल और केवल गलत धारणा भरी गई है। इस गलत धारणा का फायदा उठा कर भाजपा ने खुद को ऊंची जातियों का प्रतिनिधित्व करने वाली पार्टी के तौर पर स्थापित किया है।

इसका चुनावी फायदा उठाने के लिए साल 2019 के लोकसभा चुनाव से पहले मोदी सरकार ने आनन-फानन में संविधान का 103वा संशोधन कर दिया। चुनाव से चंद महीने पहले आरक्षण देने के लिए अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और अन्य पिछड़ा वर्ग के अलावा आर्थिक तौर पर कमजोर वर्ग की एक और श्रेणी बना दी। जिसके तहत कानून यह बना कि जिन परिवारों की वार्षिक आमदनी ₹8 लाख से कम है, जो अनुसूचित जाति जनजाति और अन्य पिछड़ा वर्ग की श्रेणी में नहीं आते हैं, उन्हें आर्थिक तौर पर कमजोर वर्ग की श्रेणी में रखा जाएगा। उन्हें शिक्षण संस्थानों में प्रवेश और सरकारी नौकरियों में पहले से चलती आ रही आरक्षण व्यवस्था के अंतर्गत 10% का आरक्षण दिया जाएगा।

इसी नियम के आधार पर पिछले साल जुलाई महीने में केंद्र सरकार ने नोटिफिकेशन जारी किया कि पोस्ट ग्रेजुएट मेडिकल सीटों की भर्ती के लिए नीट की तहत ली जाने वाली परीक्षा में भी पहले से चले आ रहे अनुसूचित जाति जनजाति और अन्य पिछड़ा वर्ग के आरक्षण के साथ 10 प्रतिशत आर्थिक तौर पर कमजोर वर्ग के लिए निर्धारित आरक्षण को भी लागू किया जाए। नोटिफिकेशन जारी होते ही सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की गई। उसके बाद सुप्रीम कोर्ट ने सवालों की झड़ी लगा दी।

सुप्रीम कोर्ट ने EWS कोटे पर पूछा कि आखिरकार आर्थिक तौर पर कमजोर वर्ग के लिए 8 लाख की सीमा कैसे तैयार की गई? 8 लाख की सीमा ओबीसी में क्रीमी लेयर के लिए निर्धारित की जाती है। जिसके पीछे की मंशा यह होती है कि जब ओबीसी का कोई व्यक्ति आर्थिक तौर पर ₹8 लाख रुपए वार्षिक आमदनी की सीमा पार कर जाता है तब वह समाज के पिछड़ेपन से दूर हो जाता है। तो इसी सीमा को समाज में आर्थिक तौर पर कमजोर वर्ग का निर्धारण करने के लिए कैसे लागू किया जा सकता है? सुप्रीम कोर्ट ने आदेश दिया कि जब तक यह पूरा मामला साफ नहीं हो जाता तब तक नीट के तहत काउंसलिंग नहीं होगी।

सरकार की तरफ से 8 लाख की सीमा पर विचार करने के लिए 3 सदस्यों की कमेटी बैठाई गई। इन तीन सदस्यों में शामिल थे: इंडियन काउंसिल ऑफ सोशल रिसर्च के सदस्य वीके मल्होत्रा, पूर्व वित्त सचिव अजय भूषण पांडे और सरकार के मुख्य आर्थिक सलाहकार संजीव सानयाल।

इस कमेटी ने पिछले हफ्ते सरकार को अपनी रिपोर्ट सौंपी। 70 पेज की रिपोर्ट का निष्कर्ष यह है कि आर्थिक तौर पर कमजोर वर्ग का निर्धारण करने के लिए आठ लाख की सीमा उचित है। साथ में इस कमेटी का यह भी निर्देश है कि जिसके पास 8 लाख वार्षिक आमदनी के साथ 5 एकड़ की जमीन है, उसे आर्थिक तौर पर कमजोर वर्ग से बाहर रखा जाए।

5 और 6 जनवरी यानी कल और आज की सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट में याचिकाकर्ताओं की तरफ से पेश हुए वकील अरविंद दातार ने पूरे दमखम के साथ सबसे जरूरी सवाल पूछा कि सरकार ने आठ लाख की सीमा का निर्धारण कैसे किया? कौन सा तरीका अपनाया जिससे सरकार को यह पता चला कि भारत में जिनकी आमदनी ₹8 लाख से कम है और उन्हें आर्थिक तौर पर कमजोर वर्ग के अंतर्गत रख कर आरक्षण दिया जाना चाहिए।

अरविंद दातार ने कहा कि जो लोग नेट की परीक्षा की तैयारी करते हैं उनमें से अधिकतर अपनी कोचिंग की पढ़ाई के लिए 8 लाख से ज्यादा रुपए खर्च कर देते हैं। मंडल आयोग की सिफारिश यह थी कि पिछड़ेपन की पहचान के लिए की जाने वाली जांच उचित और औचित्य पूर्ण होनी चाहिए।

अरविंद दातार ने दलील दी कि सरकार कहती है कि सभी तरह के डिडक्शन को मिला देने के बाद 8 लाख तक के वार्षिक आमदनी वाले व्यक्ति को किसी तरह का टैक्स नहीं देना पड़ता है। यह जीरो टैक्स की सीमा है। इस आधार पर ईडब्ल्यूएस का निर्धारण किया गया है। लेकिन सरकार से यह सवाल है कि अगर किसी व्यक्ति के पास इन्वेस्टमेंट करने के लिए पैसा है तो उसे आर्थिक तौर पर कमजोर कैसे कहा जा सकता है? अगर कोई व्यक्ति ₹5 लाख कमाता है, उसे बैंक में रखता है और बैंक से भी वह ब्याज लेता है तो उसे आर्थिक तौर पर कमजोर कैसे कहा जा सकता है? अगर कोई व्यक्ति शेयर बाजार में इन्वेस्टमेंट करता है, बॉन्ड बाजार में निवेश करता है, प्रोविडेंट फंड में निवेश कमेंट करता है- इनके जरिए कमाई करता है तो उसे आर्थिक तौर पर कमजोर वर्ग में कैसे रखा जा सकता है? भारत जैसे मुल्क में आठ लाख से कम की कमाई करने वाले ऐसे ढेर सारे काम करते हैं, जिससे उन्हें गरीब नहीं कहा जा सकता।

8 लाख रुपए कि सीमा को मनमाना और अनुचित बताते हुए इसी तरह के ढेर सारे मजबूत तर्क अरविंद दातार की तरफ से पेश किए गए। अरविंद दातार ने कहा कि गरीबी रेखा से नीचे का निर्धारण करते वक्त सरकार शहरी लोगों के लिए ₹559 प्रति महीने प्रति व्यक्ति कमाई और गांव के लोगों के लिए ₹359 प्रति व्यक्ति प्रति महीना कमाई की रेखा खींचती है। यानी भारत में सबसे अधिक आर्थिक तौर पर कमजोर वर्ग यही है। इसी वर्ग को सबसे पहले ऊपर उठाने की जरूरत है।

सरकार अगर ₹8 लाख की सीमा आर्थिक तौर पर कमजोर वर्ग के लिए बना रही है तो इसका मतलब है कि वह टॉप डाउन अप्रोच लेकर के चल रही है। इसमें उन्हीं परिवारों शामिल हो पाएंगे जो परिवार ढेर सारे लोगों के मुकाबले अच्छी हैसियत में है। सरकार को बॉटम डाउन अप्रोच लेना चाहिए। ऐसी सीमा बनानी चाहिए ताकि सबसे गरीब वर्ग के परिवार से आने वाले बच्चे अधिक से अधिक शामिल हो।

सरकार द्वारा गठित कमेटी ने इस बात में कोई स्पष्ट अंतर नहीं बताया है कि क्यों ओबीसी के क्रीमी लेयर की सीमा और आर्थिक तौर पर कमजोर वर्ग की एक ही तरह की सीमा यानी आठ लाख की सीमा होनी चाहिए। मंडल कमीशन के मुताबिक भारत में जातिगत आधार पर दिए जाने वाले आरक्षण का आधार सामाजिक पिछड़ापन है। इस सामाजिक पिछड़ेपन में एक कारण के तौर पर आर्थिक पिछड़ापन भी शामिल है। इसलिए ओबीसी वर्ग में यह निर्धारित किया गया है कि जब आमदनी ₹8 लाख वार्षिक से अधिक होगी तो वह आर्थिक तौर पर इतना मजबूत होगा कि सामाजिक पिछड़ेपन को पार कर जाएगा।

आर्थिक तौर पर कमजोर वर्ग की सीमा तय करने के लिए ओबीसी में क्रीमी लेयर निर्धारित करने वाली सीमा ही लागू नहीं की जा सकती है। आर्थिक तौर पर कमजोर वर्ग बनाने का आधार पूरी तरह से आर्थिक है। इसलिए यहां पर आर्थिक पैमाना उचित और औचित्य पूर्ण होना बहुत जरूरी है। 8 लाख वार्षिक आमदनी की सीमा किसी भी तरह से उचित और औचित्य पूर्ण आर्थिक पैमाना नहीं है।

याचिकाकर्ता वकील की तरफ से पेश किए गए इन सारे मजबूत तर्कों का इशारा इस तरफ है कि सुप्रीम कोर्ट सरकार और सरकार की कमेटी द्वारा आर्थिक तौर पर कमजोर वर्ग का आरक्षण देने के लिए प्रति परिवार 8 लाख वार्षिक आमदनी की सीमा पर केवल सरकार की सलाह पर आंख मूंदकर मुहर नहीं लगा सकते। शायद इसीलिए सुप्रीम कोर्ट ने यह सोचा हो कि इस पूरे मामले पर वक्त लेकर गंभीरता से विचार विमर्श करने की जरूरत है।

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NEET counseling
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SC on Economically Weaker Section
Economically Weaker Section
Validity of 8 lakh income for EWS quota

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