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शासन जब एक सॉप ओपेरा बन जाता है
मोदी सरकार ने फिलहाल के लिए भले ही मतदाताओं का ध्यान अपनी तरफ़ आकर्षित कर लिया हो, लेकिन लोगों की उंगली हमेशा लगातार दबा रहे रिमोट कंट्रोल पर होती है।
अजय गुदावर्ती
24 Mar 2021
modi
फ़ोटो: साभार: विकिमीडिया कॉमन्स

हम प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अगुवाई वाली चल रही और अब भी मज़बूत बनी हुई सरकार का मूल्यांकन हालिया सात वर्षों से सबसे लंबे समय तक चलने वाले किसी सोप ऑपेरा के रूप में कर सकते हैं। शायद शासन का यह मॉडल तबसे शुरू हुआ, जबसे ख़बरिया चैनल 24/7 के हो गये।

सियासत पर इन ख़बरिया चैनलों के असर को पहली बार राजधानी में अन्ना हज़ारे की अगुवाई वाले उस विरोध प्रदर्शन के दौरान महसूस किया गया था, जिसने इन ख़बरिया चैनलों को उलझाए रखा था, हालांकि उस विरोध प्रदर्शन पर कवरेज में उनकी लागत बहुत कम थी। उस विरोध का राजनीतिक मनोदशा पर व्यापक असर पड़ा था, और कांग्रेस पार्टी को इस बदलाव की क़ीमत चुकानी पड़ी थी, हालांकि इससे कुछ और निकला नहीं।

उस समय यह अहसास हुआ कि एक क्षणिक, लेकिन ज़बरदस्त तमाशा लाभप्रद हो सकता है, जब वो चुनाव के परिणाम को अपने अनुसार मोड़ सकता है। शर्त इतनी है कि बस पटकथा अच्छी तरह से लिखी होनी चाहिए और फिर उस पर ठीक ढंग से अमल किया जाये। इसी तरह की धारणाओं को रेखांकित करते हुए जीन बौद्रिलार्ड ने कहा है, "हक़ीक़त को ख़ुद को पेश करने का मौका फिर नहीं मिलता"। उनके कहने का मतलब यही था कि किसी भी तरह की हक़ीक़त को सामने नहीं रखा जा रहा है सिर्फ़ प्रतीकात्मकता और अपने हिसाब से चीज़ों को ज़ोर-शोर से सामने पेश किया जा रहा है और ये ऐसी "नयी हक़ीक़त" हैं, जो अब सामाजिक हक़ीक़त का सृजन करते हैं।

सॉप ऑपेरा के तौर पर शासन का यह नया मॉडल मनुष्य के मनोविज्ञान को प्रभावित करने वाली एक कमज़ोर अल्पविकसित समझ पर आधारित है। कोई भी शख़्स मानसिक प्रक्रियाओं की इस समझ और लोग सहज स्थितियों में जिस तरह से प्रतिक्रिया देते हैं, उसकी समझ से इस कमज़ोरी को भांप सकता है। यह बोध एक सामाजिक और सांस्कृतिक "औसत" का ज्ञात कराता है, जिससे समाज के बहुसंख्यक लोग सहानुभूति रखते हैं।

जो यह समझ के साथ चलते हैं, वह यह देखते हुए कि इस बात की परिकल्पना कर सकता है कि ज़्यादातर लोग जिस तरह की सामाजिक हक़ीक़त से जुड़ते हैं, उन्हें उसमें मगन रखा जा सकता है और उन घटनाओं के साथ उन्हें उलझाये रखा जा सकता है, जो ख़ास तौर पर उनसे जुड़ी हुई हों। इस तरह की घटनायें अगर लोगों में उन्माद को नहीं बनाए रख सकतीं, तो कम से कम हर समय लोगों को जोश की स्थिति में तो रख ही सकती हैं।

दरअसल, यह उस समझ को भांपने का मौक़ा देती है, जो मौजूदा सरकार को चाहे एक गोता लगाती अर्थव्यवस्था हो या फिर बढ़ती मुद्रास्फीति हो, तमाम प्रतिकूल स्थितियों से निपटने को लेकर पर्याप्त आत्मविश्वास देती है, और यह चुनावी जंग से निपटते रहने की इच्छाशक्ति भी देती है।

इनमें से कुछ सबक तो पूरब में चाणक्य और पश्चिम में मैकियावेली के उन लेखन में मिलते हैं, जिनमें शुद्ध विवेक के आधार पर नैतिकता को शासन से अलग रखे जाने का सुझाव दिया गया है। "इसकी जो कुछ भी क़ीमत चुकानी पड़ती है" वही शासन के इस मॉडल का राह दिखाने वाली ताक़त है: इस लोकप्रिय चेतना में आप जो चाहते हैं, उसी के आधार पर चीजें तय होती हैं। आख़िरकार, इस तरह के शासन का असली चरित्र "शिकार करने वाला यथार्थवाद" होता है।

प्रधानमंत्री मोदी की अगुवाई वाली इस सरकार की अब तक की पूरी अवधि को एक ऐसे सॉप ऑपेरा के तौर पर देखा जा सकता है, जहां किरदार बदलते हैं, हालात बदलते हैं, लेकिन केंद्रीय चरित्र हमेशा एक ही रहता है। इसलिए, "ऐन ख़ास समय पर" नोटबंदी की घोषणा की गयी थी, ताकि हमें उस निहित नैतिक पतन से जागृत किया जा सके, जिसका शिकार समाज हो रहा था। और फिर इसकी कमियों और ख़ूबियों पर चर्चा के बीच इस घटना ने हमें महीनों तक उलझाये रखा। इसने "आम आदमी" को तकनीकी आर्थिक मुद्दों को लेकर फ़ैसले करने का अधिकार दे दिया, और "राष्ट्र की सेवा" में उसकी सक्रिय भागीदारी का आह्वान किया।

जब-जब चुनाव का समय आता है, तब-तब शासन का इस सॉप ओपेरा में ट्विस्ट ठीक उसी तरह और भी ज़्यादा आ जाता है, जैसे कि टीवी का लम्बा चलने वाला सीरियस हर एक एपिसोड के आख़िर में सस्पेंस बनाये रखता है, जिससे कि हमें उस सीरियल को देखते रहने के लिए मजबूर होना पड़ता है। 2019 में हुए आम चुनाव के दौरान इसी तरह का ट्विस्ट वह बालाकोट में हुआ हमला था, जिसने हमारा ध्यान बाक़ी चीज़ों से हटा दिया था। दिल्ली विधानसभा चुनाव के दौरान इसी तरह का ट्विस्ट अल्पसंख्यकों के ख़िलाफ़ "गोली मारो ..." का नारा था।

इसी तरह, जब बिहार चुनाव के दौरान भी सुशांत सिंह राजपूत प्रकरण तीन महीने तक बिना ब्रेक के चलता रहा। सुशांत सिंह राजपूत प्रकरण तो ग़ैर-मामूली क़िस्म का एक ऐसा नाटकीय प्रकरण था, जिसमें विश्वासघात, रहस्य, अपराध जैसे उन तमाम जान-पहचाने तत्वों से सराबोर तत्व थे, जिसकी छुपी हुई कड़ी बिहार चुनावों से जुड़ती थी। जैसे ही चुनाव ख़त्म हुआ, वैसे ही यह मुद्दा भी ग़ायब हो गया।

अब मुंबई के चोटी के उद्योगपति मुकेश अंबानी के घर के पास बम रखे जाने वाले कांड की बारी है। कथानक उलझता जा रहा है और महाराष्ट्र सरकार, राष्ट्रीय जांच एजेंसी और ख़ुद उस उद्योगपति के बीच एक त्रिकोणीय मुक़ाबला चल रहा है, हालांकि वह उद्योगपति इस पूरे एक्शन से मजबूरन नदारद है। बम रखे जाने वाले इस कांड के थीम से उठ रहे भाप से कुछ हासिल करने की कोशिश की जा रही है। यह देखने की ज़रूरत है कि इस कांड पर लोगों की तरफ़ से कितनी प्रतिक्रियायें आती है।

इससे भी कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता कि लोगों को लगता है कि यह बम कांड एक ऐसा "इवेंट" है, जिसे लोगों का ध्यान भटकाने के लिए गढ़ा गया है। लोगों को भले ही लगता हो कि उन्हें फुसलाया जा रहा है, लेकिन वास्तविक चुनौती आख़िरकार लोगों को बनी बानायी धारणा में उलझाये रखना है। यह कुछ-कुछ नशे की लत की तरह है। यह पूरा प्रकरण अभी तक सहज, भावनात्मक और जैसा सोचा गया था, वैसे ही चल रहा है। दरअसल, लीपापोती वाला इनका यह पुराना तौर-तरीक़ा रहा है।

सॉप ऑपेरा के तौर पर शासन इस चल रही व्यवस्था से परे जाकर रफ़्तार पकड़ सकता है, लेकिन सवाल है कि क्या यह तौर-तरीक़ा राजनीति के एक सामान्य मॉडल के तौर पर सामने आया है ? राजनीतिक क्षितिज पर एक महत्वपूर्ण खिलाड़ी के रूप में प्रशांत किशोर का उभरना हमें कुछ ऐसा संकेत देता है, जो बहुत अहम है औऱ यह कि कहानियां गढ़ने से कहीं ज़्यादा इसके गढ़े जाने की ज़रूरत है।

ये कहानियां इस बात पर आधारित होती हैं कि कोई पार्टी या नेता आम लोगों की भावनाओं से कैसे जुड़ सकते हैं। ज़रूरी नहीं कि इन भावनाओं को बुनियादी या सहज रूप में समझा जाये। वे उन भावनाएं को शामिल करते हैं, जो निर्मित होते हैं, या जिनकी एक दिशा होती है।

बड़ी मात्रा में निर्वाचन क्षेत्र-वार आंकड़ों के संग्रह के आधार पर समझा जा सकता है कि लोगों का आख़िर "मूड" क्या है। इससे राजनीति इस बात का पता लगा सकती है कि लोगों (जो एक ख़ास तरह के मूड में हैं) को आख़िर किस तरह की खुराक दी जाए, ताकि उनकी तरफ़ से मनमाफ़िक प्रतिक्रिया आये। नेता और जनता दोनों को पता है कि उनकी गतिशीलता में दिखावे का एक तत्व भी शामिल है, लेकिन, इसे अब भी एक प्रामाणिक प्रक्रिया होने की तरह समझा जाता है। हर कोई वास्तविक और अवास्तविक के बीच खड़ा होता है।

भारतीय राजनीति और शासन व्यवस्था में इन बीच वाली जगहों को सामान्य बनाने की कोशिश की जा रही है। हमारा देश उस सॉप ऑपेरा की तरह है, जिसमें हम किरदारों की प्रदर्शित भावनाओं से प्रभावित होते हैं, ठीक उसी तरह राजनीति में इस समय हो रहा है। हम जानते हैं कि ये कलाकार हैं ये अपनी कला का प्रदर्शन कर रहे हैं, ये उनकी वास्तविक भावनाएं नहीं हैं, फिर भी हम भावनात्मक रूप से उन तमाम क्रियाकलापों से जुड़ जाते हैं जिन्हें कोई किरदार अंजाम दे रहा होता है। मसलन, हम नहीं जानते कि पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की चोट एक सुनियोजित हमला, ड्रामा या कोई दुर्घटना है। लेकिन, बीतते समय के साथ हम इस घटना की सच्चाई में कम दिलचस्पी लेते जाते हैं और हमारी ज़्यादा दिलचस्पी इस बात में हो जाती है कि चुनाव के दौरान यह ज़ख़्मी नेता चुनाव अभियान में भाग लेते हुए "कैसी" लगती है

यह शायद एक ताज़ा स्थिति है, हमें अपने हालिया अतीत की ऐसी कोई घटना याद नहीं है। यह निष्कर्ष इस बात पर निर्भर करेगा कि लोग बनर्जी की कमज़ोरी और हमले के प्रति सहानुभूति रखते हैं या उसे नज़रअंदाज़ कर देते हैं। जब वे ममता बनर्जी की कमज़ोरी की तरफ़ देखते हैं, तो क्या ऐसे में उन्हें अपनी कमज़ोरी की याद दिलायी जा सकती है? यही वजह है कि दिखावे और इसके आसपास बुनी जाती कहानियां,  दोनों ही अहम हो जाते हैं।

बीतते समय के साथ किसी भी सॉप ऑपेरा की लोकप्रियता फीकी पड़ने लगती है। एक दिन ऐसा आता है, जब इसमें ताज़गी नहीं रह जाती है, बल्कि आगे क्या होने वाला है इसका अनुमान सहज ही लग जाता है। इस बात से बचने की ज़रूरत है कि प्रधानमंत्री अपने व्यक्तित्व को यथासंभव लगातार बदलते रहे हैं। वह ख़ुद को किसी शख़्सियत, न कि एक शारीरिक इकाई के रूप में दिखाना पसंद करते हैं। लेकिन, हर तरफ़ पटकथा लेखकों के लिए यही चुनौती है कि दर्शकों की दिलचस्पी बनाए रखने के लिए रोज़-रोज़ कुछ नया दिखाने को लेकर चल रही सॉप ऑपेरा की कहानी में नए-नए मोड़ कैसे लाया जाएं। हमें इंतज़ार करना होगा और देखना होगा कि यह सॉप ऑपेरा आख़िर कितने एपिसोड तक चलता है या फिर शासन के तौर पर यह ऑपेरा यहां सदा के लिए तो नहीं चलने वाला है।

 

लेखक दिल्ली स्थित जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में राजनीतिक अध्ययन केंद्र में एसोसिएट प्रोफ़ेसर हैं। इनके विचार निजी हैं।

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

https://www.newsclick.in/When-Governance-Becomes-a-Soap-Opera

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