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क्यों पूंजीवाद का लोकतंत्र के साथ लगातार टकराव होता है
पूंजीवाद की राजनीतिक दिक़्क़त, अपनी उस बुनावट से पैदा होती है, जिसमें अल्पसंख्यक नियोक्ताओं और बहुसंख्यक कामगार का एक ग़ैर लोकतांत्रिक जटिल ढांचा है।
रिचर्ड डी. वोल्फ़
10 Aug 2020
पूंजीवाद का लोकतंत्र के साथ लगातार टकराव

सार्वभौमिक मताधिकार वाले समाजों में पूंजीवादी व्यवस्था की हमेशा वहां की राजनीति के साथ दिक्कत बनी रहती है। इस बात का पता होने की वजह से ज़्यादातर पूंजीपतियों ने लंबे समय तक, मताधिकार को अमीर वर्ग से आगे बढ़ाए जाने का विरोध किया। अंतत: निचले तबके के बहुसंख्यक लोगों द्वारा बनाए गए दबाव के चलते, कम से कम वैधानिक तौर पर तो सभी को सार्वभौमिक मताधिकार हासिल हुआ।

आज तक पूंजीवादी सार्वभौमिक मताधिकार को दबाने के लिए वैधानिक और अवैधानिक तरीके गढ़ते रहते हैं। जो लोग पूंजीवाद को संरक्षित करना चाहते हैं, उनमें सार्वभौमिक मताधिकार का डर गहरे तक पैठ बनाए हुए रहता है। ट्रंप और उनके साथी रिपब्लिकन 2020 के चुनाव में इसी डर को भुनाने की कोशिश कर रहे हैं।

यहां दिक्कत पूंजीवाद की बुनियादी प्रवृत्ति से उभरती है। जिन नियोक्ता पूंजीवादियों के पास उद्यमों का मालिकाना हक होता है, वह एक छोटा अल्पसंख्यक वर्ग होता है। इसके उलट, जिन कामग़ारों को नियुक्त किया जाता है, वे और उनका परिवार बहुसंख्यक होते हैं। अल्पसंख्यक नियोक्ता हर उद्यम में अर्थव्यवस्था पर प्रभुत्व रखते हैं। पूंजीवादी घरानों में बड़े शेयरधारक और उनके द्वारा चुने हुए निदेशक मंडल ही सारे अहम फैसले लेते हैं, इनमें राजस्व का वितरण भी शामिल होता है। इसलिए राजस्व का बड़ा हिस्सा शेयरधारक होने, डिविडेंड और तनख्वाह के नाम पर पूंजीवादियों की अपनी जेबों में जाता है।

इस तरह एक सामाजिक औसत की तुलना में इनकी संपत्ति ज़्यादा तेजी से बढ़ती है।  निजी खिलाड़ियों के स्वामित्व वाले उद्यमों में मालिकों और ऊपरी प्रबंधकों को भी ऐसी ही सहूलियतें हासिल होती हैं। आधुनिक समाज में असमान तरीके से वितरित आय और संपदा मुख्यत: ऐसे ही पूंजीवादी उद्यमों की वजह से बनती और बहती है। इसके बाद यह मालिक, अपनी असमान संपत्ति का इस्तेमाल को बड़े स्तर की अर्थव्यवस्था और इससे संबंधित राजनीति पर नियंत्रण बनाने के लिए करते हैं।

लेकिन सार्वभौमिक मताधिकार ने कामग़ारों को पूंजीवाद से ऊपजने वाली आर्थिक असमानता को राजनीतिक तरीके से निपटने का तरीका दिया है। कामगार ऐसे राजनेताओं का चुनाव कर सकते हैं, जिनके विधायी, कार्यकारी और न्यायिक फैसले पूंजीवाद के आर्थिक नतीज़ों को पलट सकते हैं। कर, न्यूनतम भत्ता और सरकारी खर्च जैसे उपायों के ज़रिए आय-संपदा का दोबारा बंटवारा किया जा सकता है। अगर बहुसंख्यक 'आय के दोबारा बंटवारे' से असमानता के खात्मे का विकल्प नहीं भी चुनते, तो उनके पास दूसरे रास्ते भी हैं। जैसे बहुसंख्यक किसी उद्यम के भीतरी पूंजीवादी ढांचे को लोकतांत्रिक सहकारी उद्यम में बदलने के लिए वोटिंग कर सकते हैं। इसके बाद उद्यम के कुल राजस्व का बंटवारा सभी कामग़ारोंके लोकतांत्रिक फैसलों से होगा, जिनमें सबके पास एक वोट होगा। इसके ज़रिए पूंजीवाद से जो बहुस्तरीय असमानता पैदा हुई है, वह खत्म होती है।  

पूंजीवाद के सामने सबसे बड़ी चुनौती यही रही है कि कैसे कामग़ारों को इस तरह के राजनीतिक बहुमत बनाने से रोका जाए। पूंजीवाद में एक निश्चित अंतराल पर कुछ संकट आते हैं, इस दौरान इनकी राजनीतिक दिक्कतें ज़्यादा बढ़ जाती हैं। इन संकटों में युद्ध, महामारी, एकाधिकारवादी और प्रतिस्पर्धी उद्योगों के बीच विवाद और वक़्त-वक़्त पर होने वाली बाज़ारू गिरावटें हैं। पूंजीवाद के लिए यह सबसे अहम हो जाता है कि कैसे कामग़ारों के राजनीतिक बहुमत को बनने से रोककर, खुद को खत्म होने से बचाया जाए और किसी दूसरी आर्थिक व्यवस्था की तरफ मुड़ने से रोका जाए।

पूंजीवाद की राजनीतिक दिक्कतें खत्म करने के लिए, अल्पसंख्यक पूंजीवादियों को दूसरे सामाजिक समूहों के साथ गठबंधन बनाना जरूरी होता है। यह संगठन इतने मजबूत होने चाहिए कि वे कामग़ारों की उभरती ताकत, जो पूंजीवादियों के हितों और उनके ढांचे को नुकसान पहुंचा सकती है, उसे रोकने, खत्म करने में यह संगठन सक्षम हों। पूंजीवादी अल्पसंख्यक जितने छोटे और कमजोर होंगे, वे सेना से उतना ही ज़्यादा गठबंधन बनाएंगे और उस पर उतने ही निर्भर होंगे। दुनिया के कई हिस्सों में पूंजीवाद की रक्षा सैन्य तानाशाहियों ने की है, जो पूंजीवादियों के खिलाफ़ बदलाव के लिए खड़े होने वाले आंदोलनों को कुचलते रहे हैं। यहां तक कि जब पूंजीवादी तुलनात्मक तौर पर एक बड़े और स्थापित अल्पसंख्यक समूह होते हैं, तब भी अगर उनके सामाजिक प्रभुत्व को चुनौती दी जाती है, जो अधिकतर निचले स्तर पर पूंजीवाद विरोधी आंदोलन से उभरती है, तब सैन्य तानाशाही के सााथ गठबंधन ही उनका आखिरी विकल्प होता है। जब पूंजीवाद और राज्य ढांचे के ऐसे गठबंधन बनते हैं, तभी फासिज़्म आता है।

जब पूंजीवाद के अतिवाद का दौर नहीं होता, जब उन्हें फौरी तौर पर सामाजिक विस्फोट से खतरा नहीं होता, उसकी बुनियादी राजनीतिक दिक्कतें बरकरार होती हैं। पूंजीवाद को अपने आर्थिक ढांचे से उपजे उत्पादों और प्रभावों को कामग़ारों द्वारा खत्म करने से हर हाल में रोकना होता है। खासकर अपने ढांचे द्वारा बनाए गए आय वितरण, संपदा, ताकत और संस्कृति को बचाना होता है। इसे पाने के लिए पूंजीवादी, कामग़ारोंके एक हिस्से के साथ मित्रता बनाने की कोशिश करते हैं, ताकि वे अपने साथी कामग़ारोंसे कट सकें। आमतौर पर पूंजीवाद ऐसे गठबंधन बनाने के लिए राजनीतिक पार्टियों के साथ काम करता है या उनका इस्तेमाल करता है।

महान मार्क्सिस्ट थियोरिस्ट एंटोनियो ग्रामसी के शब्दों में कहें- पूंजीवाद, सहायक राजनीतिक पार्टियों का इस्तेमाल कर कामग़ार वर्ग के एक हिस्से और पूंजीवादी अर्थव्यवस्था से बाहर के लोगों के साथ मिलकर एक 'राजनीतिक ब्लॉक' बनाते हैं। यह ब्लॉक उतना मजबूत जरूर होना चाहिए कि यह कामग़ार वर्ग के पूंजीवाद विरोधी लक्ष्यों को नेस्तनाबूत कर सके। पूंजीवादियों के लिए आदर्श तौर पर उनके ब्लॉक का समाज पर शासन होना चाहिए, वह प्रभुत्वशाली होना चाहिए। इसके लिए मीडिया पर नियंत्रण होना चाहिए, चुनाव जीते जाने चाहिए, संसद में बहुमत बनाया जाना चाहिए और स्कूलों और उसके परे ऐसी विचारधारा का फैलाव करना चाहिए, जो पूंजीवाद को सही ठहराती हो। इस तरह से पूंजीवादी प्रभुत्व, पूंजीवाद विरोधी भावनाओं को बांट सकेगा और एक ऐसे सामाजिक आंदोलन का निर्माण नहीं हो पाएगा, जो पूंजीवाद के वर्चस्व को चुनौती दे पाए।

ट्रंप की व्यवस्था, पूंजीवादी वर्चस्व की मौजूदा परिस्थितियों को बेहतर तरीके से बताती है। सबसे पहले, उनकी सरकार सेना पर जमकर खर्च करती है। दूसरी बात, उन्होंने 2017 में अमीरों और औद्योगिक घरानों को कर में कटौती का बड़ा तोहफा दिया, जबकि इन लोगों को संपदा के अपने हाथों में एकत्रीकरण की सहूलियत कई दशकों से मिल ही रही थी। तीसरी बात, वह पूंजीवादी उद्यमों और बाज़ारों को  विनियमित करना जारी रखते हैं। अपने पूंजीवादी मालिकों की सरकार के प्रति उदारता को बनाए रखने के लिए ट्रंप कामग़ार वर्ग के एक हिस्से के साथ गठबंधन करते हैं। ट्रंप ने जब रिपब्लिकन पार्टी की कमान संभाली, तो अतीत में पार्टी कामग़ारों के साथ यह गठबंधन कमजोर कर चुकी थी। इससे बड़े राजनीतिक नुकसान हो सकते थे। इन संबंधों को दोबारा बनाया जाना या मजबूत किया जाना जरूरी था। नहीं तो पूंजीवादियों के लिए वर्चस्वशाली ब्लॉक का गठन करने और उसे बनाए रखने में रिपब्लिकन पार्टी का कोई उपयोग नहीं रह जाता। इसके बाद पूंजीवादियों को डेमोक्रेटिक पार्टी से ही गठबंधन का विकल्प रह जाता।

अमेरिकी इतिहास में पूंजीवादी, दोनों पार्टियों के वर्चस्वशाली सहयोगियों के बीच खुद को आजमाते रहे हैं। जैसे, जब रिपब्लिकन पार्टी ने कामग़ार वर्ग के साथ अपने रिश्तों को तोड़ा, तो पार्टी में ट्रंप जैसे नेता के लिए रास्ता खुल गया। डेमोक्रेटिक पार्टी भी अपने पारंपरिक समर्थक वर्ग- कामग़ार वर्ग- के साथ कुछ ऐसे ही पेश आती रही है। कामग़ार वर्ग से अलगाव, फिर राजनीतिक पकड़ कमजोर होने से ही, पार्टी में बार्नी सैंडर्स, एलेक्जेंड्रिया ओकेसियो कॉर्तेज और प्रगितिशील लोगों के उभार की जगह बनी। अमेरिकी पूंजीवादियों के साथ वर्चस्वशाली सहयोगी बने रहने के लिए ट्रंप को क्रिश्चियन अतिवादियों, श्वेत सर्वोच्चतावादियों, प्रवासी विरोधी ताकतों, कट्टरपंथियों और बंदूक प्रेमियों को पुरानी रिपब्लिकन पार्टी से ज़्यादा छूट देनी पड़ी। ऐतिहासिक वजहों से क्लिंटन, ओबामा और पुरानी डेमोक्रेटिक पार्टी की सत्ता बची रह गई, जबकि उन्होंने अपने समर्थक कामग़ार वर्ग को बहुत कम सुविधाएं दी। इस वर्ग में कामग़ार, यूनियन, अफ्रीकन अमेरिकन, लैटिंक्स, महिलाएं, छात्र और बेरोज़गार आते हैं। ओबामा, क्लिंटन जैसे लोगों ने पार्टी पर अधिकार बनाए रखा और सैंडर्स समेत प्रगतिशील चुनौतियों पर नियंत्रण रखा। आखिरकार यह लोग 2016 में पार्टी का नॉमिनेशन लेने में कामयाब रहे, लेकिन चुनाव हार गए।

पूंजीवादी, रिपब्लिकन लोगों को अपना वर्चस्वशाली साझेदार बनाना पसंद करते हैं। क्योंकि रिपब्लिकन ज़्यादा भरोसेमंद होते हैं और डेमोक्रेटिक पार्टी की तुलना में रिपब्लिकन पूंजीवादियों की ज़्यादा मांग पूरी करते हैं। लेकिन जब रिपब्लिकन ब्लॉक वाला संगठन कमजोर पड़ता है या फिर वर्चस्वशाली साझेदार के तौर पर अपर्याप्त तरीके से काम करता है, तो अमेरिकी पूंजीवादी, डेमोक्रेटिक पार्टी की तरफ मुड़ जाते हैं। अगर उन्हें बदले में ज़्यादा वर्चस्वशाली और राजनीतिक तौर पर ताकतवर साझेदार मिलता है, तो वे अपने पक्ष में कम झुकी नीतियों को स्वीकार कर लेते हैं, कम से कम कुछ समय के लिए तो निश्चित तौर पर ऐसा करते हैं। अगर कामग़ार वर्ग के एक हिस्से के साथ ट्रंप की साझेदारी कमजोर होती, तो यह लोग बिडेन-क्लिंटन-ओबामा जैसे डेमोक्रेट्स के साथ चले जाते। अगर जरूरत पड़ती, तो यह लोग प्रगतिशील लोगों के साथ भी चले जाते, बिलकुल वैसे ही, जैसे इन्होंने 1930 के दशक में फ्रैंकलिन डेलानो रुज़वेल्ट के साथ आकर किया था।

ट्रंप लगातार एक तिहाई अमेरिकी कामग़ारों के साथ अपना सगंठन मजबूत करते रहते हैं। भले ही दूसरे लोगों पर कितने ही अत्याचार किए गए हों, पर यही लोग ट्रंप की सत्ता को समर्थन देना जारी रखते हैं। इतने लोगों का समर्थन हासिल कर ट्रंप यह निश्चित कर देते हैं कि ज़्यादातर पूंजीवादी रिपब्लिकन पार्टी के साथ रहें। आखिर ज़्यादातर पूंजीवादी, रिपब्लिकन पार्टी को ही तवज्जो देते हैं। क्योंकि उनकी सत्ता मजबूती से सैन्य और औद्योगिक मुनाफ़ाखोरी का समर्थन करती है। केवल ट्रंप और रिपब्लिकन पार्टी की महामारी और पूंजीवाद द्वारा पैदा किए गए आर्थिक संकट से निपटने की अक्षमता ही मतदाताओं को डेमोक्रेटिक पार्टी का चुनाव करने को प्रेरित कर सकती है। इसलिए ट्रंप और रिपब्लिकन पार्टी उन असफलताओं को नकारना जारी रखते हैं और जनता का ध्यान हटाते हैं। डेमोक्रेटिक पार्टी, पूंजीवादियों को यह समझाने का लक्ष्य रखती है कि बिडेन की सत्ता महामारी और आर्थिक गिरावट से बेहतर तरीके से निपट सकती है और पूंजीवाद को समर्थन देने के लिए ज़्यादा बड़ा जनाधार दे सकती है।

एक तरफ प्रगतिशील लोगों को सत्ता मिल सकती है, क्योंकि वे पूंजीवादियों के लिए सबसे वर्चस्वशाली सहयोगी दिखाई पड़ते हैं। सामाजिक आलोचनाओं को तीखा कर, प्रगतिशील खेमा पूंजीवादी नियोक्ताओं को कामग़ारों के साथ ज़्यादा वर्चस्वशाली गठबंधन का विकल्प दे सकते हैं। जबकि पारंपरिक डेमोक्रेटिक ढांचा ऐसा करने की हिम्मत नहीं रखता। रिपब्लिकन पार्टी के पारंपरिक ढांचे को बदलने के क्रम में ट्रंप ने यही किया। दूसरी तरफ, प्रगतिशील लोगों को अपनी वृद्धि से दोनों पार्टियों से इतर, एक तीसरी पार्टी बनाने की प्रेरणा मिलेगी। प्रगतिशील लोग अमेरिका में जनता के सामने एक तीसरी पार्टी का विकल्प रख सकते हैं, जो पूंजीवाद विरोधी और समाजवाद समर्थक पार्टी होगी। जबकि दोनों पारंपरिक पार्टियां, पूंजीवाद समर्थक पार्टियां हैं।

पूंजीवाद की राजनीतिक दिक्कत, अपनी उस बुनावट से पैदा होती है, जिसमें अल्पसंख्यक नियोक्ताओं और बहुसंख्यक कामग़ारों का एक गैर-लोकतांत्रिक जटिल ढांचा बना हुआ है। इस ढांचे के विरोधाभासों का सार्वभौमिक मताधिकार से टकराव होता है। कामग़ारों के कुछ हिस्सों में वर्चस्वशाली ब्लॉक के आसपास होने वाली राजनीति के चलते पूंजीवाद अब तक जिंदा रहने में कामयाब रहा है। लेकिन अंत में यह विरोधाभास, राजनीतिक पैंतरेबाजी की क्षमताओं से बड़े हो जाएंगे। तब इन पर नियंत्रण करना और उन्हें रोकना नामुमकिन होगा। एक महामारी और बड़ा आर्थिक पतन, प्रगितिशील लोगों को अमेरिकी राजनीति में बदलाव का मौका देता है, जिससे बहुत वक़्त से लंबित सामाजिक बदलाव हकीकत बन सकते हैं।

रिचर्ड डी वोल्फ, यूनिवर्सिटी ऑफ मैसेचुसेट्स में मानद प्रोफेसर हैं। वे न्यूयॉर्क की न्यू स्कूल यूनिवर्सिटी में अंतरराष्ट्रीय मामलों पर चलाए जाने वाले ग्रेजुएट प्रोग्राम में अतिथि प्रोफेसर भी हैं। वोल्फ का साप्ताहिक कार्यक्रम "इकनॉमिक अपडेट" 100 से ज़्यादा रेडियो स्टेशन में प्रसारित होता है और 55 मिलियन टीवी रिसीवर पर फ्री स्पीच टीवी के ज़रिए पहुंचता है। उनकी "डेमोक्रेसी एट वर्क" के साथ दो हालिया किताबें अंडरस्टेंडिंग मार्क्सिज़्म और अंडरस्टेंडिंग सोशलिज़्म हैं। दोनों democracyatwork।info पर उपलब्ध हैं।

इस लेख को "इंडिपेंडेंट मीडिया इंस्टीट्यूट" के प्रोजेक्ट "इकनॉमी फ़ॉर ऑल" ने प्रकाशित किया था।

इस लेख को मूल अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें।

Why Capitalism Is in Constant Conflict With Democracy

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