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क्यों पूंजीवादी सरकारें बेरोज़गारी की कम और मुद्रास्फीति की ज़्यादा चिंता करती हैं?
सचाई यह है कि पूंजीवादी सरकारों को बेरोजगारी के मुकाबले में मुद्रास्फीति की ही ज्यादा चिंता होना, समकालीन पूंजीवाद में वित्तीय पूंजी के वर्चस्व को ही प्रतिबिंबित करता है।
प्रभात पटनायक
16 Feb 2022
Translated by राजेंद्र शर्मा
UNEMPLOYMENT

पूंजीवादी सरकारें हमेशा ही बेरोजगारी बढ़ाने के जरिए मुद्रास्फीति पर नियंत्रण कायम करने की कोशिश करती हैं। इसका, इन दोनों के बीच किसी टिकाऊ संतुलन में उनके विश्वास से यानी दोनों को आपस में जोडऩे वाले किसी स्थिर चाप पर विश्वास करने से, कुछ लेना-देना नहीं है। यहां तक कि जो लोग मुद्रास्फीति के दूसरे-दूसरे कारण मानते हैं, जैसे मुद्रा की फालतू आपूर्ति (‘मालों की कम मात्रा के पीछे जरूरत से ज्यादा धन का दौड़ रहा होना’) और मुद्रास्फीति का समाधान, मुद्रा नीति की कड़ाई में देखते हैं, व्यावहारिक मानों में बेरोजगारी बढ़ाने के जरिए ही मुद्रास्फीति पर अंकुश लगाने की कोशिश कर रहे होते हैं, क्योंकि मुद्रा की कड़ाई बेरोजगारी बढ़ाने का ही काम करती है।

इससे बहुत से सवाल उठते हैं। पहला तो यही कि ऐसा क्यों है? क्या वजह है कि सरकारें ऐसा करने के बजाए, रोजगार का ऊंचा स्तर नहीं बनाए रखती हैं और मुद्रास्फीति पर अंकुश लगाने के लिए दूसरे-दूसरे कदम नहीं अपना सकती हैं, मिसाल के तौर पर सीधे कीमतों पर नियंत्रण कायम करना और अगर मालों की तंगी की स्थिति हो तो उसके पूरक के रूप में, राशनिंग का सहारा लेना? इसका जवाब यही है कि पूंजीपति नहीं चाहते हैं कि अर्थव्यवस्था में सरकार का ज्यादा प्रत्यक्ष हस्तक्षेप हो। क्योंकि इस तरह के हस्तक्षेप से पूंजीवादी व्यवस्था की सामाजिक वैधता ही कमजोर होने लगती है। इससे तो जनता के मन में उसकी सामाजिक वैधता पर सवाल उठने लगते हैं। लोगों को लगेगा कि ऐसी व्यवस्था का फायदा ही क्या है, जिसकी गड़बडिय़ों को दुरुस्त करने के लिए, शासन के इतने प्रत्यक्ष हस्तक्षेप की जरूरत पड़ती हो?

दूसरा सवाल यह है कि आखिरकार, बेरोजगारी भी तो पूंजीपतियों के हितों के खिलाफ पड़ती है। इसकी वजह यह है कि बेरोजगारी बढऩे का मतलब, कम अतिरिक्त मूल्य का उत्पादन होगा क्योंकि अतिरिक्त मूल्य के उत्पादन के लिए, कहीं कम मजदूरों को काम पर लगाया जा रहा होगा। तब क्या वजह है कि पूंजीवादी सरकारें, मुद्रास्फीति की ही ज्यादा फिक्र करती हैं और यहां तक कि उसका मुकाबला करने के लिए, बेरोजगारी बढ़ाने के कदम उठाने के लिए तैयार हो जाती हैं? इतना ही नहीं, ऐसा भी नहीं है कि मुद्रास्फीति को कम करने के हथियार के रूप में बेरोजगारी का इस्तेमाल तभी किया जाता  हो, जब मुद्रास्फीति की दर बहुत ज्यादा हो जाती हो। वास्तव में इस हथियार का इस्तेमाल तो मुद्रास्फीति की दर के कम या मामूली रहते हुए भी किया जा रहा होता है। अमरीका में, इसके बावजूद कि देश में महामारी से पहले जितने बेरोजगार थे, उससे करोड़ों ज्यादा लोग बेरोजगार बने ही हुए हैं, वहां ब्याज की दरों को सिर्फ इसलिए बढ़ाया जा रहा है क्योंकि दिसंबर में वहां मुद्रास्फीति की दर 7 फीसद हो गयी थी। इसका 1982 के बाद से किसी एक महीने में देखने को मिली मुद्रास्फीति की सबसे ऊंची दर होना तो, इसी सचाई को रेखांकित करता है कि एक के बाद एक अमरीका में आयी सरकारें, इस चालीस साल से ज्यादा में, इसके लिए कितनी उत्सुक रही थीं कि मुद्रास्फीति को नियंत्रण में बनाए रखा जाए।

टोनी ब्लेयर ने, जब वह ब्रिटेन के प्रधानमंत्री थे, यह एलान किया था कि ब्रिटेन ने ‘2.5 फीसद से नीचे’ का मुद्रास्फीति का जो लक्ष्य अपनाया था, वह भी पर्याप्त नीचा नहीं था। उनका इशारा यह था कि मुद्रास्फीति को शून्य के करीब के स्तर पर ले जाने के लिए, बेरोजगारी की दर चाहे कितनी ही क्यों न बढ़ानी पड़े, देश को इतनी कीमत चुकाने के लिए तैयार रहना चाहिए! ब्लेयर का यह रुख, लेबर पार्टी के पूर्ण रोजगार के अपने पहले के लक्ष्य से, पूरी तरह से पलटे जाने को दिखाता था।

मुद्रास्फीति की दर अपेक्षाकृत कम हो तब भी, उसमें जरा सी भी बढ़ोतरी होते ही सरकारें फौरन कार्रवाई की मुद्रा में आ जाती हैं और इस बढ़ोतरी की काट करने के लिए बेरोजगारी बढ़ाना शुरू कर देती हैं। संक्षेप में यह कि उन्हें बेरोजगारी की उतनी चिंता नहीं होती हैं, जितनी चिंता मुद्रास्फीति की होती है। सवाल यह है कि क्यों?

इसके लिए ब्लेयर ने जो वजह बतायी और अनेक दक्षिणपंथी अर्थशास्त्रियों द्वारा बनायी जाती है, यही है कि इस तरह की निचले स्तर की मुद्रास्फीति की दर, अंतत: कहीं तेज रफ्तार की आर्थिक वृद्घि लाती है और इस तरह दीर्घावधि में कहीं ऊंची तथा कहीं टिकाऊ रोजगार दर सुनिश्चित करती है। लेकिन, यह सिर्फ एक विचारधारात्मक दावे का ही मामला है। सचाई यह है कि हाथ बांधने वाली राजकोषीय तथा मौद्रिक नीति के जरिए, बेरोजगारी का ऊपर उठाया जाना, जो अपरिहार्य रूप से बिना उपयोग के ठाली पड़ी उत्पादन क्षमता का स्तर बढ़ाता है, निजी निवेश को हतोत्साहित ही करता है और इस तरह रोजगार की सामयिक स्थिति को बिगाड़ता है। वास्तव में, ब्लेयर का उक्त दावा तो यह कहने के ही समान था कि पूंजीपतियों को, उनके करोपरांत मुनाफे बढ़ाने के लिए कर रियायतें देने और दूसरी ओर राजकोषीय घाटे को सीमित रखने के लिए मजदूरों पर कर लगाने से, दीर्घावधि में रोजगार बढ़ता ही है। यह दावा सैद्घांतिक रूप से तो खोखला है ही, इसके अलावा इन दोनों में से किसी भी प्रस्थापना की सत्यता का रत्तीभर साक्ष्य नहीं है।

उक्त आग्रह के लिए, दूसरा कारण मजदूर वर्ग के कल्याण का बताया जा सकता है और कहा जा सकता है कि मजदूरों को, बेरोजगारी से उतनी दिक्कत नहीं होती है, जितनी दिक्कत उन्हें मुद्रास्फीति की किसी अपेक्षाकृत निचली या मामूली दर तक से होती है। लेकिन, सचाई यह है कि पूंजीवादी सरकारों को मजदूरों के कल्याण की शायद ही कोई चिंता होती है। इसके अलावा, यह भी स्पष्टï नहीं है कि मजदूरों को बेरोजगारी की उतनी चिंता नहीं होती है, जितनी मुद्रास्फीति की होती है। मजदूरों के सिर पर लटकती बेरोजगारी की तलवार, वास्तव में मजदूरों के बीच बहुत भारी असुरक्षा पैदा करती है, जिसे जितना ज्यादा माना जाए, कम ही होगा।

फिर भी कुछ उदारपंथी अर्थशास्त्रियों ने यह दलील पेश की है। मिसाल के तौर पर जाने-माने अर्थशास्त्री, जॉन हिक्स ने पूंजीवादी सरकारों द्वारा मुद्रास्फीति नियंत्रण को, बेरोजगारी घटाने के मुकाबले प्राथमिकता दिए जाने को (थैचर सरकार जिसका एक प्रमुख उदाहरण थी) आम जनता (यानी मजदूरों) को क्या ज्यादा पसंद होगा, इस रूप में समझाने की कोशिश की थी। लेकिन, इस तरह की व्याख्याएं वास्तव में बहुत ज्यादा खींच-खींचकर दी जाती सफाइयां हैं, भले ही उनकी सैद्घांतिक पूर्वधारणाएं कायल करने वाली नजर आती हों।

सचाई यह है कि पूंजीवादी सरकारों को बेरोजगारी के मुकाबले में मुद्रास्फीति की ही ज्यादा चिंता होना, समकालीन पूंजीवाद में वित्तीय पूंजी के वर्चस्व को ही प्रतिबिंबित करता है। इन दिनों पूंजीवादी अर्थव्यवस्थाओं में संपदा भारी प्रधानता में, वित्तीय परिसंपत्तियों के रूप में ही रखी जाती है और भले ही ये वित्तीय परिसंपत्तियां भी अंतत: भौतिक परिसंपत्तियों का ही प्रतिनिधित्व करती हों, वित्तीय परिसंपत्तियों की कीमतों में उतार-चढ़ाव, मालों व सेवाओं की कीमतों में मुद्रास्फीति से बहुत हद तक असंबद्घ होते हैं तथा उनकी गतियां भी विषम होती हैं। इसलिए, मालों की कीमतों में मुद्रास्फीति फौरन और सबसे पहले तो, वित्तीय परिसंपत्तियों का वास्तविक मूल्य घटा देती है। यह इसके बावजूद है कि वित्तीय परिसंपत्तियों की कीमतों में बढ़ोतरी वक्त के साथ, मालों व सेवाओं की कीमतों में मुद्रास्फीति की दर से आगे निकल जाती है। इसलिए, वित्तीय पूंजी अपरिहार्य रूप से मालों व सेवाओं की कीमतों में मुद्रास्फीति का विरोध करती है और चाहती है कि इस तरह की मुद्रास्फीति पर कठोर नियंत्रण रखा जाए। और पूंजीवादी सरकारें यही हासिल करने की कोशिश करती हैं।

इस तरह, मुद्रास्फीति पर नियंत्रण कायम करने के लिए बेरोजगारी को बढ़ाना, स्पष्टï रूप से तथा बड़ी नंगई से यही दिखाता है कि किस तरह पूंजीवादी सरकारों की नीति, प्रभुत्वशाली वर्ग के स्वार्थों की चाकरी बजाती है। और इसमें भी हैरानी कोई बात नहीं है कि लंदन को योरप की वित्तीय राजधानी बनाए रखने की ब्रिटेन की महत्वाकांक्षा के चलते, थैचर से लेकर ब्लेयर तक, ब्रिटेन में एक के बाद एक आयी सरकारें, मुद्रास्फीति की दर नीचे से नीचे रखने को लेकर, बहुत ही मुखर बनी रही थीं।

फिर भी एक सवाल पूछा जा सकता है। बेरोजगारी बढ़ती है, तो संबंधित अर्थव्यवस्था में पैदा होने वाला अतिरिक्त मूल्य उसी हिसाब से घट जाएगा। और चूंकि पूंजी के सभी घटक, किसी अर्थव्यवस्था में पैदा होने वाले अतिरिक्त मूल्य में से ही आमदनियां हासिल करते हैं (आसानी के लिए हम विदेश से होने वाली कमाई को यहां  छोड़े दे रहे हैं), अर्थव्यवस्था में अतिरिक्त मूल्य कम पैदा होने से तो वित्तीय पूंजी के हिस्से में आने वाली आय भी घट जाएगी। तब क्या वित्तीय पूंजी को भी बेरोजगारी की उतनी ही परवाह नहीं होनी चाहिए, जितनी परवाह उसे मुद्रास्फीति की होती है!

इस सवाल का जवाब इस तथ्य में छुपा हुआ है कि वित्तीय पूंजी के वर्चस्व के दौर में, पूंजीवादी अर्थव्यवस्थाओं में, वास्तविक  आर्थिक क्षेत्र तथा वित्तीय क्षेत्र के बीच विलगाव को, अभूतपूर्व हद तक बढ़ा दिया गया है। यह तथ्य कि जहां अमरीका में आवासन के बुलबुले के बैठने के बाद से ही, वास्तविक अर्थव्यवस्थाएं आम बेरोजगारी तथा आर्थिक गतिरोध के बोझ के नीचे दबी रही हैं, जबकि दुनिया भर में शेयर बाजार उछाल पर बने रहे हैं, उक्त विलगाव को ही दिखाता है। इस विलगाव को इस तथ्य से सहारा मिलता है कि वित्तीय पूंजी के हिस्से में इस तरह तगड़ी कमाई आना, अर्थव्यवस्था में पैदा होने वाले अतिरिक्त मूल्य तक ही सीमित नहीं है।

शेयर बाजार एक ऐसा ठिया है जहां उद्यम नहीं, सट्टïेबाजारी फलती-फूलती है। और शेयर बाजार के पीछे संचालक प्रेरणा, किसी उद्यम से पैदा होना वाले अतिरिक्त मूल्य में उतनी नहीं छुपी होती है, जितनी उन संभावित पूंजी लाभों में छुपी होती है जो किसी वित्तीय परिसंपत्ति को, कल बढ़े हुए दाम पर बेचने के जरिए, आज खरीदने से कमाए जा सकते हैं। लेकिन, तब यह पूछा जा सकता है कि आज किसी वित्तीय परिसंपत्ति को खरीदकर, कल कहीं ज्यादा दाम पर बेचने से होने वाली यह कमाई, आखिरकार आती कहां से है? अगर यह कमाई, किसी उत्पादित अतिरिक्त मूल्य पर आधारित ही नहीं है, तब तो यह कमाई झूठी ही होनी चाहिए और उसका मतलब यह हुआ कि अगर किसी के हाथ यह कमाई लग रही है, तो दूसरे किसी का उतना ही घाटा हो रहा होगा। अगर इस तरह की बिक्रियों की किसी शृंखला से बहुत सारे लोगों को फायदा भी हो रहा हो तब भी, अंतत: तो किसी न किसी को भारी नुकसान हो ही रहा होगा, जो इन सारे लोगों की कमाई को प्रति-संतुलित कर रहा होगा।

बेशक, ऐसा ही होता है। लेकिन, कम से कम तीन तरीकों से, शेयर बाजार के बैठने की मार में आने वालों के इन घाटों का सामाजीकरण कर दिया जाता है यानी उनकी चोट सिर्फ शेयर बाजार में हिस्सा लेने वालों के दायरे तक ही सीमित नहीं रहती है। और ऐसी स्थिति में, शेयर बाजार की गतिविधियों में शामिल सभी लोग भी फायदे में रह सकते हैं। ऐसा होने का पहला कारण तो इसी तथ्य में छुपा हुआ है कि शेयर बाजार में किसी वित्तीय परिसंपत्ति की खरीद के लिए पैसा, खरीददार द्वारा अपनी जेब से दिया जा रहा हो, यह कोई जरूरी नहीं है बल्कि वह ऋण लेकर भी यह खरीद कर सकता है। ऐसी स्थिति में होता यह है कि शेयर बाजार के बैठने कीचोट आखिरकार लोगों की उस विशाल संख्या पर पड़ती है, जिसने प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से उक्त शेयर खरीददार को ऋण दिया होता है और इस क्रम में ऋणदाताओं की यह विशाल संख्या ही ठगी जाती है। दूसरे, जिन वित्तीय संस्थाओं के जरिए इस तरह के ऋण जुटाए गए होते हैं, उन्हें बचाने के लिए सरकार सामने आ जाती है और करदाताओं के पैसे का इस्तेमाल कर, इन वित्तीय संस्थाओं को बचाया जाता है। इस स्थिति में, शेयर बाजार के बैठने से वित्तीय परिसंपत्ति धारकों को जो नुकसान होता है, उसका बोझ आम करदाताओं के ही कंधों पर डाल दिया जाता है। तीसरे, इस तरह की सरकारी मदद कर राजस्व में से नहीं दी जाती है बल्कि सरकार की परिसंपत्तियों की ही बिक्री के रूप में दी जाती है। इस सूरत में नयी परिसंपत्तियों जोड़े जाने के जरिए, शेयर बाजार को सहारा लगाया जा रहा होता है।

ये सब के सब उसी चीज के उदाहरण हैं, जिसे माक्र्स ने पूंजी का आदिम संचय या प्रिमिटिव एकूमुलेशन का नाम दिया था। पहले वाले दो उदाहरणों में तो, शेयर बाजार के खिलाडिय़ों की भारी कमाई का स्रोत वित्तीय कुलीन वर्ग की तिजोरियां भरने के लिए, आम लोगों की विशाल संख्या का निचोड़ा जाना ही होता है और यह तो आदिम संचय का साफ-साफ नजर आने वाला मामला ही है। और तीसरे मामले में, वित्तीय पूंजी के खेल में नयी परिसंपत्तियों का डाला जाना तथा उनका माल में तब्दील किया जाना ही, निजी हाथों में संपदा पकड़ाने का काम करता है।

दूसरे शब्दों में, अर्थव्यवस्था में पैदा होने वाले अतिरिक्त मूल्य के अलावा वित्तीय कुलीन वर्ग की कमाई का एक अतिरिक्त स्रोत भी होता है और यह स्रोत है पूंजी का आदिम संचय। इसीलिए, इस कुलीन वर्ग की नजर में बेरोजगारी का महत्व, मुद्रास्फीति से कमतर होता है। और इसकी अभिव्यक्ति बाकायदगी से उस सरकारी नीति में होती है, जो मुद्रास्फीति की चिंता को, बेरोजगारी की चिंता के ऊपर रखती है।

इस लेख को मूल अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए नीचे दिये गए लिंक पर क्लिक करें।

Why Inflation Bothers Capitalist Govts More than Unemployment

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