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मज़दूर-किसान
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महाराष्ट्र के आंतरिक पलायन में सबसे अधिक मज़दूर मराठवाड़ा क्यों लौटे?
राज्य अंतर्गत रिवर्स माइग्रेशन के दौरान मुंबई से कहीं अधिक पुणे हुआ खाली। पुणे से 38 प्रतिशत मज़दूर मराठवाड़ा, कोंकण और पश्चिम महाराष्ट्र लौटे।
शिरीष खरे
28 Jul 2020
महाराष्ट्र के आंतरिक पलायन
प्रतीकात्मक तस्वीर। साभार : न्यू इंडियन एक्सप्रेस

पुणे: गत मार्च कोरोना के प्रकोप को नियंत्रित करने के लिए महाराष्ट्र सहित देश भर में लॉकडाउन लगाया गया था। उसके बाद बड़ी संख्या में मज़दूर महाराष्ट्र से बाहर जाने लगे। लेकिन, इसी दौरान राज्य के भीतर भी बड़े शहरों से खासी तादाद में मज़दूरों का गांव की ओर पलायन हुआ।

आंकड़े बता रहे हैं कि लॉकडाउन के दौरान राज्य के भीतर बड़े शहरों से मज़दूरों का पलायन देखें तो इनमें पुणे सबसे आगे रहा है। यहां तक कि राज्य अंतर्गत होने वाले पलायन में पुणे मुंबई जैसे महानगर से बहुत आगे रहा है।

ये आंकड़े सामने आए हैं सावित्री बाई फुले विश्वविद्यालय, पुणे के सार्वजनिक नीति व लोकतांत्रिक शासन व्यवहार अध्ययन केंद्र और द यूनिक फाउंडेशन द्वारा लॉकडाउन में राज्य के इन दो बड़े शहरों से होने वाले मज़दूरों के पलायन पर किए गए एक शोध-अध्ययन से।

इसके मुताबिक लॉकडाउन के दौरान राज्य अंतर्गत पलायन में पुणे और मुंबई से सबसे अधिक मज़दूर मराठवाड़ा लौटे। इस दौरान पुणे से 38 प्रतिशत मज़दूर मराठवाड़ा, कोंकण और पश्चिम महाराष्ट्र लौटे।

वहीं, इसी दौरान मुंबई व मुंबई उपनगरों से 23 प्रतिशत मज़दूर इन ग्रामीण भागों की ओर लौटे। 

इसी तरह, लॉकडाउन ने प्रवासी छात्रों को भी पुणे शहर छोड़ने के लिए मजबूर कर दिया है। अध्ययन बताता है कि देश के विभिन्न जगहों से शिक्षा हासिल करने के लिए पुणे आए कुल छात्रों में से 46 प्रतिशत शहर छोड़ चुके हैं।

दूसरी तरफ, अध्ययन के तहत मज़दूरों से पूछे गए प्रश्नों से यह बात उजागर हुई कि अधिकतर अर्ध-कुशल और अकुशल मज़दूर कोरोना संक्रमण के डर से गांव लौटे। वहीं, कई मज़दूरों ने बताया कि मज़दूरी न मिलने की स्थिति में उन्होंने गांव लौटने के लिए मजबूर हुए।

लेकिन, अध्ययन से यह बात भी स्पष्ट हुई है कि अधिकतर मज़दूर रोजी-रोटी खोने के बावजूद पुणे लौटने को लेकर आशावादी हैं। ये काम मिलने की संभावना पर फिर पुणे लौटने के लिए तैयार हैं। 

दरअसल, मज़दूरों को उनके अपने गांव में यदि मज़दूरी मिले भी तो वह पुणे या मुंबई की तुलना में अमूमन तीन से चार गुना कम होती है। छटवीं आर्थिक जनगणना के मुताबिक राज्य में कुल रोज़गार का लगभग 70 प्रतिशत हिस्सा मुंबई, मुंबई उपनगर, ठाणे, रायगढ़, पुणे और नासिक में केंद्रित है। यही बेल्ट हैं जहां कोरोना संक्रमण का सबसे बुरा प्रभाव पड़ा।

लिहाजा, कोरोना संक्रमण के बढ़ते ख़तरे और लॉकडाउन में रोज़गार के साधन लगभग बंद होने के कारण इन बड़े शहरों से बड़ी संख्या में मज़दूरों को पलायन करना पड़ा। नतीजा यह हुआ कि शहरीकरण के कारण एक बड़ी आबादी जो गांव से लगातार काम की तलाश में इन शहरों की ओर आती रही वह देखते ही देखते अचानक बेकार हो गई।

आम दिनों में रोजगार के लिए गांव और कस्बों से शहरों की ओर पलायन देखा गया है। लेकिन, गत 5 से 20 जून के बीच किए गए अध्ययन से पता चलता है कि पुणे में कोरोना विस्फोट के चलते सबसे तेज रिवर्स माइग्रेशन हुआ था। इस दौरान पुणे और मुंबई क्षेत्र से राज्य के दूसरे इलाकों में जाने वाले मज़दूरों की संख्या लाखों में थी।

इस सर्वेक्षण के मुताबिक 38 प्रतिशत मज़दूर पुणे और 23 प्रतिशत मज़दूर मुंबई शहर व मुंबई उपनगरों से लौटे हैं। इसमें सबसे अधिक मराठवाड़ा से थे। बता दें कि राज्य का मराठवाड़ा अंचल पुणे शहर से सटा है और यहां औरंगाबाद, उस्मानाबाद, लातूर, नांदेड़, जालना, बीड़, परभणी और हिंगोली जिलों से बड़ी संख्या में मज़दूर पुणे की ओर पलायन करते हैं। मराठवाड़ा के बाद गांव लौटने वाले मज़दूरों में एक बड़ी संख्या कोंकण और पश्चिमी महाराष्ट्र की थी।

राज्य अंतर्गत होने वाले पलायन में कई महत्वपूर्ण निष्कर्ष भी सामने आए। जैसे कि इस दौरान सबसे अधिक मज़दूरों ने अपनी पत्नी और बच्चों के साथ पलायन किया। 63 प्रतिशत मज़दूर अपने परिवार के साथ रह रहे थे। जबकि,  27 प्रतिशत मज़दूर अपने परिवार से दूर शहरों में अकेले रह रहे थे। इसी तरह, 53 प्रतिशत पति-पत्नी दोनों ही शहरों में रहकर मज़दूरी करते थे। वहीं, 50 प्रतिशत मज़दूर तीन साल से अधिक समय से शहरों में रह रहे थे। एक महत्त्वपूर्ण बात यह भी सामने आई कि 77 प्रतिशत मज़दूरों के पास शहरों में अपने मकान नहीं हैं।

इस अध्ययन से जुड़ी प्रधान अन्वेषक डॉक्टर राजेश्वरी देशपांडे बताती हैं कि उलट पलायन से जुड़ा यह पूरा शोध-कार्य कोरोना विस्फोट की पृष्ठभूमि में किया गया था। हालांकि, राज्य या देश की आर्थिक प्रणाली में रोज़गार के अवसर शहरों को केंद्र में रखते हुए तैयार किए जाते हैं। इसलिए, शहरों की अर्थव्यवस्थाओं से मज़दूरों का निरंतर तेजी से पलायन होना अपरिहार्य लगता है।

वहीं, द यूनिक फाउंडेशन के कार्यकारी निदेशक डॉक्टर विवेक घोटाले बताते हैं कि कृषि क्षेत्र में संकट और ग्रामीण अंचल में रोज़गार के अवसरों की कमी के कारण अधिकतर राज्य के पिछड़े जिलों से पलायन हो रहा है। यही वजह है कि पुणे क्षेत्र और मुंबई शहर व मुंबई उपनगरों से किए गए सर्वेक्षण में अधिकतर पलायन करने वाले मज़दूर मराठवाड़ा से रहे। यह संख्या लगभग 50 प्रतिशत से भी अधिक है। 

इससे स्पष्ट होता है कि मराठवाड़ा से सबसे अधिक मज़दूर पुणे और मुंबई जैसे राज्य के बड़े शहरों में सबसे अधिक पलायन करते हैं। इसी तरह, जब कोरोना विस्फोट हुआ तो सबसे ज्यादा उलटा पलायन भी इसी दिशा में हुआ। 

दूसरी तरफ, रिवर्स माइग्रेशन के बाद यदि बड़े शहरों में काम की थोड़ी भी संभावना दिखती हैं तो इसी पट्टी से मज़दूरों की खासी तादाद वापस पुणे और मुंबई की ओर जा सकती है। ऐसा इस अध्ययन में भी स्पष्ट हुआ है। दरअसल, स्थानीय स्तर पर यदि रोजीरोटी के ठीक-ठाक साधन उपलब्ध होते तो एक खासी संख्या में मराठवाड़ा के मज़दूर सपरिवार महानगरों की तरफ नारकीय जीवन जीने के लिए कूच ही क्यों करते। जाहिर है कि महाराष्ट्र जैसे राज्य के भीतर भी बड़े पैमाने पर होने वाला मज़दूरों का पलायन विभिन्न क्षेत्रों के आसमान विकास से जुड़ा हुआ है।

हां, काम मिलने की स्थिति में यह हो सकता है कि वे अपने परिजनों के साथ लौटने की बजाय शुरुआत में थोड़े समय के लिए अकेले ही मुंबई और पुणे लौटें। वहीं, यह भी हो सकता है कि स्थानीय स्तर पर अकुशल मज़दूर यदि काम मिलने की स्थिति में कम मज़दूरी पर भी समझौता कर सकें तो मज़दूरों का एक छोटा हिस्सा इस बार बड़े शहरों की ओर न भी लौटे। लेकिन, व्यापक परिदृश्य में कोई बड़े बदलाव की स्थितियां तब तक बनती नहीं दिखेंगीं जब तक कि नीतिगत स्तर पर आजीविका के अवसरों का विकेंद्रीकरण न हो।

वस्तुस्थिति यह है कि भारत में भूख, बेकारी, कुपोषण और बीमारियों से जूझ रही एक बड़ी आबादी के पास शहर ही आखिरी ठिकाना है। इसकी पुष्टि वर्ष 2011 की जनगणना से भी होती है। इसके मुताबिक देश में 45 करोड़ से अधिक लोग रोजगार के लिए शहरों की ओर पलायन कर चुके हैं। देखा जाए तो साल-दर-साल यह प्रवृति बढ़ती जा रही है। इसमें सबसे ज्यादा पलायन राज्य के भीतर और बाहर अभाव-ग्रस्त जिलों से हुआ है।

इनमें बड़ी संख्या असंगठित क्षेत्र के दिहाड़ी मज़दूरों की है। हालांकि, शहरों में यह खराब परिस्थितियों में ही जीवन जीते हैं लेकिन गांवों में भी इन्हें कोई विशेष सामाजिक सुरक्षा हासिल नहीं है। वहीं, कोरोना काल में रोजगार की स्थितियां पहले से कहीं अधिक बिगड़ गई हैं। इसकी बुरी मार असंगठित क्षेत्र के मज़दूरों पर पड़ी है। इससे तो गरीबी और अधिक विकराल ही होती जा रही है। सवाल है कि ऐसे हालात में केंद्र या राज्य स्तरों पर कोई ठोस योजना है जो मज़दूरों को कोई विकल्प दे सके।

दूसरी तरफ, श्रम-शक्ति की भागीदारिता और बेरोजगारी की दर एक नए संकट की ओर इशारा कर रही है। राष्ट्रीय प्रतिदर्श सर्वेक्षण कार्यालय के मुताबिक भारत में श्रम-शक्ति भागीदारिता घटकर लगभग आधी रह गई। बता दें कि वर्ष 2019 में श्रम-शक्ति भागीदारिता की दर घटकर 49.3 रह गई है। इसका अर्थ यह है कि आज देश में 15 वर्ष से अधिक उम्र की आधी आबादी श्रम क्षेत्र में अपना योगदान नहीं दे पा रही है। वहीं, सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी के मुताबिक सिर्फ गए अप्रैल में बेरोज़गारी की दर 14.8 प्रतिशत बढ़ गई.

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं।)

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