NewsClick

NewsClick
  • English
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • हमारे लेख
  • हमारे वीडियो
search
menu

सदस्यता लें, समर्थन करें

image/svg+xml
  • सारे लेख
  • न्यूज़क्लिक लेख
  • सारे वीडियो
  • न्यूज़क्लिक वीडियो
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • अफ्रीका
  • लैटिन अमेरिका
  • फिलिस्तीन
  • नेपाल
  • पाकिस्तान
  • श्री लंका
  • अमेरिका
  • एशिया के बाकी
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें
सब्सक्राइब करें
हमारा अनुसरण करो Facebook - Newsclick Twitter - Newsclick RSS - Newsclick
close menu
कृषि
भारत
राजनीति
भारत की खेतीबाड़ी में अब तक क्यों उपेक्षित है 'आधी आबादी' का संकट?
किसान आंदोलन में महिलाओं की भागीदारी और उनकी उपस्थिति पर उठाए गए सवालों के बीच देश भर में यह बहस शुरू हुई है कि खेतीबाड़ी के कामों से जुड़ी महिलाओं को आज तक वह दर्जा, पहचान और सम्मान क्यों हासिल नहीं हो सका जिसकी वह हक़दार हैं।
शिरीष खरे
25 Jan 2021
देश में विशेषकर उत्तर भारत के कई राज्यों में किसान परिवार की ज़्यादातर महिलाएं कृषि कार्यों से सीधे जुड़े होने के बावजूद किसान आंदोलनों से दूर रही हैं। फाइल फोटो: शिरीष खरे
देश में विशेषकर उत्तर भारत के कई राज्यों में किसान परिवार की ज़्यादातर महिलाएं कृषि कार्यों से सीधे जुड़े होने के बावजूद किसान आंदोलनों से दूर रही हैं। फाइल फोटो: शिरीष खरे

केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार के तीन नए कृषि कानूनों के विरोध में किसान दिल्ली को घेरकर विरोध कर रहे हैं। विकट ठंड और कई तरह की कठिन परिस्थितियों के बीच लंबे समय तक बड़ी संख्या में महिलाओं की भागीदारी ने इस पूरे आंदोलन में उनकी भूमिका तय की है।

इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि कृषि कानूनों के लागू होने की स्थिति में सबसे ज़्यादा असर उन महिलाओं पर पड़ेगा जो खेतीबाड़ी से जुड़े काम करने के साथ-साथ अपनी घर-गृहस्थी भी संभालती हैं।

सवाल है कि जो महिलाएं अपने खेतों में बीज रोपने से लेकर फसल कटाई तक के कामों में शामिल होती हैं वह किसान आंदोलन से कैसे दूर रहें। लेकिन, पिछले दिनों यह सवाल पूछा गया कि किसान आंदोलन में महिलाएं दिल्ली के आसपास क्यों हैं।

इससे देश भर में यह बहस शुरू हुई कि खेतीबाड़ी के कामों से जुड़ी महिलाओं को आज तक वह दर्जा, पहचान और सम्मान क्यों हासिल नहीं हो सका जिसकी वह हक़दार हैं।

बुनियादी समस्या

असल में भारत में महिलाओं के संकट को समझने से पहले हमें भारत की खेती की बुनियादी समस्या में जाना होगा।

यह बात सच है कि पंजाब और हरियाणा के किसान इस बात को लेकर सबसे ज़्यादा आशंकित हैं कि सरकार कहीं किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) देना बंद तो नहीं कर देगी। लेकिन, देश भर के किसानों की स्थिति देखी जाए तो पूरी खेती कुल 9.4 करोड़ हैक्टेयर में बंटी हुई है। जबकि, इस पर 10.1 करोड़ किसान धारक (होल्डर) हैं। इस तरह, भारत में खेतों का औसत आकार एक हैक्टेयर से भी कम है। जिनके पास ज़मीन है उनमें लगभग 85 प्रतिशत के पास एक हैक्टेयर से कम ज़मीन है। ज़ाहिर है कि ज़्यादातर किसान परिवार ज़मीन के मामूली टुकड़े पर अपना गुज़ारा कर रहे हैं।

इसके अलावा भी एक बड़ी आबादी उन खेत मज़दूर परिवारों की है जिनके पास खेती का पट्टा नहीं है। एक अनुमान के अनुसार भारत में लगभग 40 प्रतिशत यानी 4 करोड़ खेत मज़दूर परिवार हैं।

सवाल है कि खेत के इतने छोटे टुकड़े होने की स्थिति में ज़्यादातर छोटे किसान और खेत मज़दूर परिवारों को उनकी मेहनत की उपज का क्या उचित दाम मिलना संभव है?

इसे इस तरह भी समझ सकते हैं कि आज चार से छह सदस्यों के एक किसान परिवार को हर महीने न्यूनतम 20 से 30 हज़ार रुपए तो चाहिए ही। यानी उसे साल में ढाई से तीन लाख रुपए चाहिए ही। इसमें आपातकालीन स्थितियों में होने वाला खर्च शामिल नहीं है।

सवाल है कि एक हैक्टेयर से कम ज़मीन का किसान परिवार सिर्फ़ खेती से इतनी आमदनी हासिल कर सकेगा? इसलिए, किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य के साथ-साथ खेती में एक ऐसी व्यवस्था बनाने की ज़रूरत है जिसमें एक किसान परिवार को अपनी आजीविका में उतनी आमदनी तो हो कि वह बुनियादी आवश्यकताओं को पूरा कर सके।

क्योंकि, यदि किसान आत्महत्याओं की गहराई में भी जाएं तो यह निचोड़ निकलता है- जितने लोग खेती में हैं उतने लोगों की आजीविका देने की हालत में खेती नहीं है। इसलिए खेती घाटे का सौदा है। इसके पीछे एक बड़ी वजह यह है कि किसानों के पास आवश्यक आमदनी के अनुपात में खेती की ज़मीन नहीं है। जब ज़मीन ही नहीं है तो खेती पर निर्भर लोगों को आजीविका कैसे मिलेगी।

महिलाओं का संकट

दूसरी बात, जब तक हम भूमि श्रमिक संबंधों में बड़ा परिवर्तन नहीं लाते तब तक कृषि-क्षेत्र में छाए संकट और खेतीबाड़ी से जुड़ी महिलाओं की समस्याओं से उभरना मुश्किल है। इन छोटी-छोटी जोतों को ध्यान में रखते हुए ठीकठाक आमदनी की खेती से जुड़ी संभावनाओं को सबसे अंत में टटोलने और पूरे मुद्दे को एक सूत्र में पिरोने से पहले अब आते हैं महिला किसानों की समस्याओं पर।

भारत में महिला किसानों की समस्याओं को रेखांकित करने के लिए इसे तीन अलग-अलग भागों में और फिर उन्हें एक साथ देखने की ज़रूरत है।

एक अनुमान के अनुसार भारत में करीब दस करोड़ महिलाएं खेती से जुड़ी हैं। इनमें करीब चार करोड़ खेत मज़दूर परिवारों से हैं। पहला भाग इन खेतीहर मज़दूर परिवार की महिलाओं से जुड़ा है, जिन पर अलग से सोचने की ज़रूरत है।

आमतौर पर हर प्रांत में पुरुषों के मुकाबले इन महिला खेत मज़दूरों को कम मज़दूरी दी जाती है। इसलिए, समान काम के लिए समान मज़दूरी से काफ़ी कम मज़दूरी मिलना इनकी सबसे बड़ी समस्या है। इस वर्ग की महिलाएं वर्ष 2005 से मनरेगा के तहत सबसे बड़ी संख्या में जुड़ी हैं।

मनरेगा वंचित समुदाय के परिवारों के लिए जीने की बड़ी राहत योजना तो है, किंतु इसके साथ ही यह बात भी किसी से छिपी नहीं है कि इसमें भी मज़दूरी कम है। साथ ही, कानून के बावजूद कई ज़गह साल के सौ दिनों का रोज़गार नहीं मिल पाता है। फिर अक्सर समय पर भी भुगतान नहीं होता है। इस तरह, महिला खेत मज़दूरों को किसी तरह जो मज़दूरी मिलती है उससे दो वक्त की रोटी और अपने परिजनों का पेट पालना बहुत मुश्किल होता है।

खेतीबाड़ी से जुड़ी महिलाओं का दूसरा वर्ग उन किसान परिवारों से संबंधित है जिनमें ज़मीन के पट्टे पुरुषों के पास हैं। इस वर्ग की करीब 75 प्रतिशत महिलाएं खेती के कामों से तो जुड़ी हैं, किंतु आमतौर पर उन्हें उनके कामों का श्रेय नहीं दिया जाता है। न उनके हाथों में सीधी मज़दूरी पहुंचती है और कई बार वे खेती से जुड़ी निर्णय-प्रक्रिया से बाहर रहती हैं। वे खेती और परिवार से जुड़ी अपनी जिम्मेदारी एक साथ निभाती हैं। लेकिन, इन सबके बावजूद उनके योगदान का मूल्यांकन कहीं नहीं होता।

तीसरा वर्ग एक बहुत छोटा हिस्सा है। इनमें वे महिलाएं आती हैं जिन्हें अपनी ज़मीन पर अधिकार मिला होता है। इसमें भी दो श्रेणियां हैं- पहली श्रेणी में किसान आत्महत्या करने वाले किसानों की विधवाएं हैं। ये ऐसी महिला किसान हैं जिन्हें पति की आत्महत्या के बाद वैध तरीके से ज़मीन मिलनी चाहिए थी। हालांकि, कई ज़गहों पर उन्हें वैध तरीके से ज़मीन मिली भी, पर कई कारणों से उस ज़मीन पर नियंत्रण किसी और का है। बहुत लंबी लड़ाइयों के बावजूद उन्हें उनकी ज़मीन का अधिकार नहीं मिल सका है।

दूसरी श्रेणी में वे महिलाएं हैं जिन्हें पति की आत्महत्या के बाद वैध तरीके से ज़मीन हासिल हुई है और उस ज़मीन पर उनका नियंत्रण भी है। इसमें उन महिला किसानों को भी शामिल किया जा सकता है जिनके पिता, पति या पुत्र पलायन के कारण घर छोड़ चुके हैं और इस कारण वे खेती से जुड़े निर्णय खुद ले सकती हैं। इस तरह, तीसरे वर्ग की महिलाओं की अलग-अलग समस्याएं हैं। जैसे कि इनमें से कई महिलाओं को किसान के रूप में नहीं देखा जाता है। इसलिए, कई बार प्रशासनिक स्तर पर ऋण या किसी योजना का लाभ लेने में इन्हें खासी परेशानी का सामना करना पड़ता है।

कुल मिलाकर, यह कहा जा सकता है कि खेती के गहराते संकट में सबसे ज़्यादा बुरा असर खेतीबाड़ी से जुड़ी महिलाओं पर पड़ रहा है। इन तीनों वर्गों की महिलाओं की स्थिति बाकी पुरुष किसानों से कमज़ोर है। इसलिए, कृषि क्षेत्र में सुधार की बात करें तो इस क्षेत्र में जो तबका सबसे कमज़ोर है वह मौज़ूदा स्थिति को बदलने के लिए सबसे आगे आ सकता है।

संभावनाएं

अंत में छोटी-छोटी जोतों को ध्यान में रखते हुए ठीक-ठाक आमदनी से जुड़ी संभावनाओं पर लौटते हैं।

ज़ाहिर है कि खेती एक घाटे का सौदा है इसलिए संकट से उबरना आसान नहीं है। लेकिन, जैसा कि पहले कहा जा चुका है कि जब तक भूमि श्रमिक संबंधों को नहीं बदला जाएगा तब तक खेती के संकट से उबरना मुश्किल होगा। इसलिए, यह छोटी-छोटी जोतों को साथ में लाकर सामूहिक खेती (कलेक्टिव फार्मिंग) पर भी सोचने का समय है।

यह विचार कहने में थोड़ा चुनौतीपूर्ण ज़रूर लगता है, मगर इस विचार के बिना भारत जैसे देश में इतने बड़े संकट से बाहर निकलना संभव नहीं लगता। उम्मीद इसलिए भी की जा सकती है कि खेती के संकट में छोटा किसान सबसे ज़्यादा मार झेल रहा है, जबकि सामूहिक खेती में उसके हितों को ही सबसे ऊंचा रखा गया है।

इसमें यह समझने की ज़रूरत है कि जिनके पास थोड़ी-थोड़ी ज़मीन हैं उनके समूह बनाकर बड़ा लाभ लिया जा सकता है। फिर यह विचार बड़ा उदार भी है जिसमें खेतीबाड़ी से जुड़ी महिलाओं के दृष्टिकोण और हित दोनों निहित हैं।

(शिरीष खरे स्वतंत्र पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

Agriculture Crises
Agriculture workers
women farmers
Farm bills 2020
farmers protest
Problems of Indian agricultural
MSP
farmers crises
Narendra modi
Modi government

Related Stories

किसानों और सत्ता-प्रतिष्ठान के बीच जंग जारी है

अगर फ़्लाइट, कैब और ट्रेन का किराया डायनामिक हो सकता है, तो फिर खेती की एमएसपी डायनामिक क्यों नहीं हो सकती?

युद्ध, खाद्यान्न और औपनिवेशीकरण

ब्लैक राइस की खेती से तबाह चंदौली के किसानों के ज़ख़्म पर बार-बार क्यों नमक छिड़क रहे मोदी?

किसान-आंदोलन के पुनर्जीवन की तैयारियां तेज़

ग्राउंड रिपोर्टः डीज़ल-पेट्रोल की महंगी डोज से मुश्किल में पूर्वांचल के किसानों की ज़िंदगी

MSP पर लड़ने के सिवा किसानों के पास रास्ता ही क्या है?

किसान आंदोलन: मुस्तैदी से करनी होगी अपनी 'जीत' की रक्षा

सावधान: यूं ही नहीं जारी की है अनिल घनवट ने 'कृषि सुधार' के लिए 'सुप्रीम कमेटी' की रिपोर्ट 

ग़ौरतलब: किसानों को आंदोलन और परिवर्तनकामी राजनीति दोनों को ही साधना होगा


बाकी खबरें

  • संदीपन तालुकदार
    वैज्ञानिकों ने कहा- धरती के 44% हिस्से को बायोडायवर्सिटी और इकोसिस्टम के की सुरक्षा के लिए संरक्षण की आवश्यकता है
    04 Jun 2022
    यह अध्ययन अत्यंत महत्वपूर्ण है क्योंकि दुनिया भर की सरकारें जैव विविधता संरक्षण के लिए अपने  लक्ष्य निर्धारित करना शुरू कर चुकी हैं, जो विशेषज्ञों को लगता है कि अगले दशक के लिए एजेंडा बनाएगा।
  • सोनिया यादव
    हैदराबाद : मर्सिडीज़ गैंगरेप को क्या राजनीतिक कारणों से दबाया जा रहा है?
    04 Jun 2022
    17 साल की नाबालिग़ से कथित गैंगरेप का मामला हाई-प्रोफ़ाइल होने की वजह से प्रदेश में एक राजनीतिक विवाद का कारण बन गया है।
  • न्यूज़क्लिक रिपोर्ट
    छत्तीसगढ़ : दो सूत्रीय मांगों को लेकर बड़ी संख्या में मनरेगा कर्मियों ने इस्तीफ़ा दिया
    04 Jun 2022
    राज्य में बड़ी संख्या में मनरेगा कर्मियों ने इस्तीफ़ा दे दिया है। दो दिन पहले इन कर्मियों के महासंघ की ओर से मांग न मानने पर सामूहिक इस्तीफ़े का ऐलान किया गया था।
  • bulldozer politics
    न्यूज़क्लिक टीम
    वे डरते हैं...तमाम गोला-बारूद पुलिस-फ़ौज और बुलडोज़र के बावजूद!
    04 Jun 2022
    बुलडोज़र क्या है? सत्ता का यंत्र… ताक़त का नशा, जो कुचल देता है ग़रीबों के आशियाने... और यह कोई यह ऐरा-गैरा बुलडोज़र नहीं यह हिंदुत्व फ़ासीवादी बुलडोज़र है, इस्लामोफ़ोबिया के मंत्र से यह चलता है……
  • आज का कार्टून
    कार्टून क्लिक: उनकी ‘शाखा’, उनके ‘पौधे’
    04 Jun 2022
    यूं तो आरएसएस पौधे नहीं ‘शाखा’ लगाता है, लेकिन उसके छात्र संगठन अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (एबीवीपी) ने एक करोड़ पौधे लगाने का ऐलान किया है।
  • Load More
सब्सक्राइब करें
हमसे जुडे
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें

CC BY-NC-ND This work is licensed under a Creative Commons Attribution-NonCommercial-NoDerivatives 4.0 International License