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भारत
राजनीति
क्यों ख़त्म हो गई है भारत-नागा शांति प्रक्रिया?
राजनीतिक दल, जिनमें नागा राष्ट्रवादियों द्वारा समर्थित दल भी शामिल हैं, उन्होंने अपने संकीर्ण राजनीतिक हितों के लिए काम किया है और नागा लोगों के लिए कोई दूरदृष्टि नहीं रखी। इन दलों में राजनीतिक कल्पनाशीलता और नैतिकता की कमी नज़र आती है।
नंदिता हक्सर
28 Aug 2020
क्यों ख़त्म हो गई है भारत-नागा शांति प्रक्रिया?

इंडो-नागा शांति प्रक्रिया की असफलता कुछ वैसी ही कहानी कहती है, जैसी गैब्रियल गार्सिया मार्केज़ अपनी किताब ‘कॉर्निकल्स ऑफ अ डेथ फोरटोल्ड’ में बताते हैं।

उपन्यास में कहानी कोलंबिया के एक छोटे से गांव में गढ़ी गई है। यहां कहानी भारत के एक कोने में घूमती है। उपन्यास की कहानी में सभी जानते थे कि हत्या जरूर होगी, सभी लोगों ने उसमें कुछ न कुछ भूमिका अदा की। कोई भी ऐसा शख़्स नहीं था, जो अपराध में सहयोगी ना रहा हो।

विवाद की राजनीतिक अहमियत

नागा राष्ट्रीय आंदोलन, शीत युद्ध के चरम पर होने के दौरान पैदा हुआ था। पश्चिम और भारतीय सरकार की चिंता थी कि नागालैंड एक मजबूत साम्यवादी गढ़ बन सकता है। चीन को नागालैंड के अपने प्रभाव में होने की आशा थी।

पाकिस्तान, चीन, अमेरिका और ब्रिटेन, सभी की इस विचार को जिंदा रखने में भूमिका थी कि उत्तरपूर्व क्षेत्र भारत का हिस्सा नहीं है। यहां तक कि इलाके को हॉन्गकॉन्ग की तरह बनाने का विचार भी था।

डेविड आर सिमली ने अपनी किताब, "ऑन द एज ऑफ एम्पॉयर: फोर ब्रिटिश प्लान्स फॉर नॉर्थ ईस्ट इंडिया,1941-1947" में बताया है कि कैसे उत्तरपूर्व को अलग रखने ब्रिटेन ने एक गुप्त योजना बनाई थी। अपने शासन के आखिरी दिनों में उच्च स्तर पर बर्मा के जनजातीय इलाकों और उत्तरपूर्व भारत पहाड़ी इलाकों को मिलाकर एक ब्रिटिश कॉलोनी बनाने का विमर्श किया गया।

यह इलाका चीन, बर्मा, पूर्वी पाकिस्तान और भूटान जैसे चार देशों से घिरा था, भारत के साथ इसका गठजोड़ सिर्फ 22 किलोमीटर चौड़ा चिकन-नेक कॉरिडोर था, जो सिलिगुड़ी को भारत की मुख्य ज़मीन से जोड़ता है, इस तरह की भौगोलिक और रणनीतिक स्थिति होने के चलते औपनिवेशिक शासकों ने इसे "कॉउपोल्ड योजना" के तहत "क्रॉउन कॉलोनी" बनाने का विचार किया था।

लेकिन नागा राष्ट्रीय आंदोलन के नेता, जिनमें AZ फिज़ो भी शामिल थे, उन्होंने इस प्रस्ताव को खारिज कर दिया, उन्हें स्वतंत्रता के बाद भारतीयों से मोलभाव की उम्मीद थी।

लेकिन नागा ज़मीन की भू-राजनीतिक अहमियत की वजह से नागा आंदोलन में अंतरराष्ट्रीय रुझान बना रहा। चीन ने इस आंदोलन को जारी रखने में अहम भूमिका निभाई। इंडो-नागा विवाद का सुलझना इन देशों के हितों में नहीं है।

इंडो-नागा संबंध

इस बात को याद रखना अहम है कि नागा राष्ट्रवादियों में एक वर्ग ऐसा है, जिेसे भारतीयों के साथ मोलभाव करना बेहतर लगता है। यह नागा राष्ट्रवादी चाहते हैं कि भारत के तहत आने वाले नागा इलाकों के एक प्रशासन के तहत ला दिया जाए, भले ही म्यामांर में आने वाले नागा इलाकों के साथ फौरी तौर पर एका ना हो पाए।

इन नागा राष्ट्रवादियो में एक अंगामी टी सखेरिए, और एक तंगखुल रंसंग सुईसा शामिल हैं, दोनों फिजो की नागा नेशनल काउंसिल का हिस्सा थे। सुईसा कांग्रेस की टिकट पर 1957 में बाहरी मणिपुर लोकसभा क्षेत्र से चुनाव भी लड़े। सुईसा ने ही यह सुझाव दिया था कि जिस तरह से रजवाड़ों का भारत में विलय हुआ है, उन्हीं शर्तों के साथ नागा लोगों को भी भारत का हिस्सा बन जाना चाहिए। उनका मतलब था कि नागाओं को अपने इलाके में पूरी स्वायत्ता होगी, बस रक्षा, विदेश मामले और संचार केंद्र सरकार के हाथ में होंगे।

भारतीय नेतृत्व ने नागाओं को गंभीरता से नहीं लिया। उनकी मांगों के जवाब में सरकार ने उन्हें आदिम जनजातियां सोचकर खारिज कर दिया और वहां सुरक्षाबल भेज दिए। इसके बाद नागा लोगों के भयावह उत्पीड़न का दौर शुरू हुआ, जिसमें वे भारतीय राज्य से दूर होते गए।

शांति प्रक्रिया का फ्रेमवर्क

लेकिन नागा भूमि की भूराजनीतिक अहमियत से भारतीय लोगों को नागा विद्रोहियों के साथ बातचीत के लिए तैयार होना पड़ा।

भारत और नागाओं को बातचीत की टेबल पर लाने के लिए तीन लोगों को श्रेय दिया जा सकता है। पहले इंसान दीपक देवान थे, जो दिल्ली स्थित एक साप्ताहिक नॉर्थ-ईस्ट सन के संपादक थे। वह Th मुईवा के साथ इंटरव्यू करना चाहते थे, जो उस वक़्त फरार थे। आखिरकार ग्रिंदर मुईवा की मदद से उन्हें Th मुईवा का इंटरव्यू मिल गया। ग्रिंदर, Th मुईवा के भतीजे थे। इंटरव्यू को प्रकाशित किया गया। इसके बाद देवान ग्रिंदर को राजेश पायलट के पास लेकर गए और शांति प्रक्रिया की दिशा में कदम बढ़ाए गए।

जुलाई, 1995 में तत्कालीन प्रधानमंत्री पी वी नरसिम्हा राव ने पेरिस में नेशनल सोशलिस्ट काउंसिल ऑफ नागालैंड (NSCN) के दो नेताओं- इसाक चिशी स्वू और Th मुईवा से मुलाकात की। इसके बाद आने वाले प्रधानमंत्री भी नागा नेताओं से मिलते रहे।

आखिरकार 1997 में NSCN नेता और भारतीय सरकार ने आमने-सामने बैठकर शांति की संभावना पर विमर्श के लिए सहमति जताई। भारतीय संसद को इस बात की सूचना दी गई और प्रक्रिया चालू हो गई।

यह शांति प्रक्रिया तीन बुनियादी शर्तों पर शुरू हुई:

1) शांतिवार्ता बिना शर्तों के होगी। इसका मतलब हुआ कि भारतीय संविधान के तहत व्यवस्था बनाए जाने की बातचीत नहीं होगी।

2) यह वार्ता उच्च स्तर पर होगी, दूसरे शब्दों में कहें तो वार्ताकार सीधे तौर पर प्रधानमंत्री और नागा पक्ष में Th मुईवा से जुड़े होंगे। मुईवा की नागा की भूमिगत सरकार में प्रधानमंत्री की भूमिका थी।

3) पूरी बातचीत भारत के बाहर होगी।

4) संघर्ष विराम बनाए रखने के लिए एक विस्तृत तंत्र होगा, इसमें नागा सेना को शर्तों के साथ अपने कुछ हथियार रखने और कैंप लगाने की छूट दी गई, इन कैंपों की पहचान तय की जानी थी।

इसका मतलब हुआ कि जब तक नागा सेना के अधिकारी दिखाई नहीं पड़ते हैं, उन्हें हथियार रखने की अनुमति होगी; लेकिन उन्हें यह हथियार तय किए गए कैंपों में ही रखने की मंजूरी होगी।

नागा सेना के वरिष्ठ अधिकारियों के साथ एक वरिष्ठ भारतीय सेना का अधिकार संघर्ष विराम पर नज़र रखता था। पूरी शांतिवार्ता के दौरान नागाओं ने अपनी समानांतर सरकार चलाना जारी रखा, वहीं नागा सेना ने नए सैनिकों की भर्ती भी बरकरार रखी।

लेकिन कोई भी आसानी से समझ सकता है कि यह ढांचा अपने-आप में अनोखा था और बातचीत के लिए समान स्तर बनाता था।

मणिपुर का मामला

NSCN की मांग थी कि संघर्ष विराम को नागालैंड राज्य के भीतर ही सीमित नहीं करना चाहिए। क्योंकि उनके कार्यक्रम पूरे उत्तर-पूर्व में जारी थे। वह लोग बिना सीमा के संघर्ष विराम चाहते थे। यह मांग शांति प्रक्रिया में पहली बाधा थी। मणिपुर सरकार ने इस बात पर आपत्ति जताई, उनका कहना था कि इस मांग के ज़रिए अप्रत्यक्ष तौर से यह दावा किया जा रहा है कि मणिपुर के पहाड़ी इलाके नागाओं की गृहभूमि है।

मैती लोगों के नज़रिए से देखें, तो पूर्ववर्ती मणिपुर राज्य में हमेशा पहाड़ी इलाके शामिल रहे हैं। ऐसी कई परंपराएं मौजूद हैं, जो पहाड़ी इलाकों को घाटियों से जोड़ती हैं।

मणिपुर राज्य के नागा, भारत की स्वतंत्रता के बाद से ही मणिपुर घाटी से अलग होने की मांग करते रहे हैं। घाटी में वैष्णव हिंदुओं और कुछ मैती मुस्लिमों का प्रभुत्व है। वहीं पहाड़ी इलाकों में जनजातियों के लोग सामान्य तौर पर क्रिश्चियन हैं। इसी धर्मपरिवर्तन ने मणिपुर राज्य में उथल-पुथल मचाई है।

कुछ नागा बुद्धिजीवियों ने पहाड़ी और घाटी के क्षेत्रों को एकजुट करने के विचार का समर्थन किया। दूसरे लोगों ने याद दिलाया कि पहाड़ी इलाकों में रहने वालों से बराबरी का व्यवहार नहीं किया गया और यह इलाके पिछड़े रह गए, जहां बुनियादी चीजों की भी कमी है।

नागा और उनके समर्थकों का कहना है कि भारत ने सन् 2000 में तीन राज्य बनाए, बिहार को तोड़कर झारखंड, मध्यप्रदेश से छत्तीसगढ़ और उत्तरप्रदेश से उत्तराखंड। बाद में आंध्रप्रदेश के हिस्सों को काटकर तेलंगाना बनाया गया। तो नागा इलाकों को एक राज्य के भीतर क्यों नहीं लाया जा रहा है? केंद्र के पास ऐसा करने की शक्ति है।

यह सही बात है कि संविधान में ऐसा कुछ नहीं है जो भारत सरकार को सभी नागा इलाकों को एकसाथ करने से रोकता हो। लेकिन मणिपुर को तोड़ने से हथियारबंद समूहों के बीच खूनी संघर्ष होगा, राज्य में 20 से ज़्यादा समूह हैं, जो अलग-अलग समुदायों का प्रतिनिधित्व करते हैं, इनके अतंरराष्ट्रीय संबंध भी हैं।

नागालैंड का मामला

नागालैंड राज्य विधानसभा ने नागा लोगों की बसाहट वाले इलाकों को नागालैंड राज्य में मिलाने के लिए 6 प्रस्ताव पास किए हैं। पहला प्रस्ताव 12 दिसंबर, 1964 को पास किया गया था, वहीं 18 सितंबर, 2018 को आखिरी प्रस्ताव पारित किया गया।

मणिपुर के नागाओं ने भी ऐसे ही प्रस्ताव पास किए हैं। जैसे मणिपुर राज्य दरबार ने 1946 में संविधान बनाने वाली समिति में पांच पहाड़ी नेताओं को बुलाया था। इनमें सुईसा भी एक थे। हालांकि इन लोगों ने समिति के पहले सत्र में हिस्सा नहीं लिया। 13 अगस्त, 1947 को उन्होंने सभी पहाड़ी नेताओं की बैठक की और यह प्रस्ताव पारित किया गया कि पहाड़ी इलाकों को पांच साल बाद मणिपुर से अलग होने का अधिकार होना चाहिए।

लेकिन नागालैंड सरकार ने एस जमीर के नेतृत्व में नागालैंड और मणिपुर के नागाओं को दो पक्षों में बांटने में अहम भूमिका निभाई। एक वक़्त कांग्रेस ने नागा रहवासी इलाकों के एकीकरण के लिए प्रस्ताव पारित किया, लेकिन जमीर के नेतृत्व में कांग्रेस ने बांटों और शासन करो की नीति अपनाई।

गुप्तचर संस्थाओं की भूमिका

भारतीय औऱ पश्चिमी गुप्तचर संस्थाओं ने नागा समाज में बापटिस्ट चर्च में छेड़खानी की बड़ी भूमिका निभाई है, जिससे वहां समाजवादी नज़रिए की संभावना को कम किया गया। अतीत में चर्च ने ही कम्यूनिस्ट विरोधी सबसे तेज कार्यक्रम चलाए और NSCN पर नागा समाज में समाजवाद लाने की कोशिशों पर हमले किए।

गुप्तचर संस्थाओं ने इंडो-नागा विवाद और शांति प्रक्रिया दोनों में ही बड़ी भूमिका निभाई है। इन गुप्तचर संस्थाओं ने "बांटो और शासन करो" का खेल भयावह नतीज़ों के साथ खेला है। आज नागा राष्ट्रीय आंदोलन कई संगठनों में बंटा है। वहीं NSCN में भी कम से कम पांच अलग-अलग समूह बन चुके हैं।

यह बंटवारे जनजातीयता के विकास और मणिपुर-नागालैंड के नागाओं में विभाजन से गहरे हुए हैं।

नागालैंड राज्य के गठन को नागा राष्ट्रवादी, नागाओं में फूट डालने के हथियार के तौर पर देखते हैं। आज नागालैंड में रहने वाले मणिपुर के नागाओं को बुनियादी अधिकार भी प्राप्त नहीं हैं, क्योंकि उन्हें नागालैंड में जनजाती के तौर पर नहीं पहचाना जाता।

सन् 2000 में Th मुईवा और ग्रिंदर मुईवा की गिरफ़्तारी के लिए गुप्तचर संस्थाएं भी जिम्मेदार थीं। Th मुईवा को बैंकॉक में तब गिरफ्तार किया गया, जब वे शांतिवार्ता के लिए पाकिस्तान से लौट रहे थे। ग्रिंदर को बैंकॉक में अपने चाचा से मुलाकात करने के बाद लौटते हुए कोलकाता में गिरफ़्तार किया गया था।

ग्रिंदर को मिजोरम से एक प्लेन को हाईजैक करने की साजिश में फंसा दिया गया। आरोप लगाया गया कि इस प्लेन का इस्तेमाल ग्रिंदर अपने चाचा को छुड़ाने में करने वाले हैं। खुले तौर पर यह जबरदस्ती बनाया गया मामला था, जिसे बाद में वापस ले लिया गया।  

गुप्तचर संस्थाओं ने कई नागाओं की भर्ती की, जिन्होंने शांति प्रक्रियाओं को बेपटरी करने में अहम भूमिका निभाई। अब NSCN नेतृत्व के एक हिस्से में यह डर बैठ गया है कि अगर कोई वायदा कर लिया गया, तो उसे मान्यता नहीं मिल पाएगी।

शांति समझौते पर मोलभाव

NSCN के जो नेता शांतिवार्ता कर रहे हैं, उन्हें इस तरह बातचीत में होने वाले मोलभाव का कोई अनुभव नहीं है। उनके सबसे शुरुआती सलाहकार माइकल वान वाल्ट वान प्राग नाम के वकील थे, जिन्होंने NSCN को अनरिप्रेजेंटेड नेशंस और पीपल्स ऑर्गेनाइज़ेशन का हिस्सा बनने में मदद की। दलाई लामा की चीन के साथ बातचीत में भी माइकल उनके सलाहकार हैं। उनका ख्रेद्धा नाम का एक NGO भी है।

माइकल वान वाल्ट एक वार्ताकार हैं, जिन्होंने शांति प्रक्रिया में अहम भूमिका निभाई है। उन्होंने अफ्रीका, एशिया, दक्षिण प्रशांत महासागरीय क्षेत्रों और काकेशियन इलाकों में इस तरह की बातचीत में अलग-अलग पक्षों के साथ सलाहकारी भूमिका निभाई है।

NSCN के पास सुझाव देने के लिए एंथनी रीगन नाम का एक और विदेशी वकील है। रीगन एक संवैधानिक वकील हैं, जिनकी "विवाद निपटारे के क्रम में संवैधानिक विकास" में विशेषज्ञता है। उन्होंने पापुआ न्यू गिनी में 15 साल और उगांडा में तीन साल तक काम किया है।

इन वकीलों की मदद से NSCN दुनिया के कई हिस्सों, जैसे पापुआ न्यू गिनी और दक्षिण अफ्रीका में तक पहुंच चुका है। पर भारतीय संविधान की जानकारी के बिना वे लोग कोई ऐसा दस्तावेज़ पेश नहीं कर सकते, जिसके आधार पर मोलभाव किया जा सके। उनके विधिक सलाहकार भारतीय संविधान के काम करने के तरीके को नहीं जानते, इसलिए कुछ सुझाव जो उन विधिक सलाहकारों ने दिए, वह पहले से ही भारतीय संविधान में मौजूद थे।

NSCN की केवल एक मांग है: नागा रहवासी इलाकों को एक प्रशासन के भीतर एकीकरण, कम से कम भारतीय इलाकों में तो ऐसा किया जाए। इसी तरह की मांग म्यांमार के नागाओं में भी है। उनमें से एक पक्ष लोकतांत्रिक आंदोलन का हिस्सा बनना चाहता है, वहीं दूसरा समूह- खापलांग- स्वतंत्रता के लिए संघर्ष जारी रखना चाहता है।

सामने आया "नॉन प्लान"

1997 से 2010 के बीच शांति प्रक्रिया आगे नहीं बढ़ पाई। केवल मणिपुर में संघर्ष विराम को बढ़ाए जाने, मणिपुर में मान्यता प्राप्त कैंपों की उपस्थिति या अनुपस्थिति और दोनों पक्षों में संघर्ष विराम के उल्लंघन के एकमात्र एजेंडे पर ही बातचीत हो सकी।

2010 में कई सालों से इंटरलोक्यूटर पद पर बने पद्मनाभइया को हटाकर आर एस पांडे को इंटरलोक्यूटर बनाया गया। पांडे नागालैंड में मुख्य सचिव रह चुके थे। उन्होंने ही "नॉन प्लान" को आगे बढ़ाया, जिसमें कुछ ठोस प्रस्ताव थे।

नॉन प्लान में एकीकृत नागा संस्था को बनाए जाने की संभावना बताई गई, जिसमें अलग-अलग राज्यों के नागाओं को बिना राज्य की सीमा बदले इकट्ठा किया जाना था। 

इसका स्पष्ट तौर पर क्या मतलब होगा, यह साफ नहीं था। तो 2011 में NSCN ने दुनिया के अलग-अलग हिस्सों से वकीलों के एक समूह को बुलाया और इस बात पर दो दिन तक विमर्श किया गया कि नॉन प्लान में दिए गए प्रस्ताव को कैसे ठोस बनाया जा सकता है। इन वकीलों में प्रोफेसर यश घई भी शामिल थे, जो कीनिया में नए संविधान को बनाए जाने में भी अहम भूमिका निभा चुके थे। मैं भी उस वक़्त बैठकों में शामिल थी।

NSCN में इसके वरिष्ठ नेताओं का एक छोटा समूह भी बनाया, जिसे भारतीय संविधान का अध्ययन कर एक दस्तावेज़ बनाने की कोशिश करने का काम दिया गया, ताकि उसे आधार पर ठोस बातचीत की जा सके।

हालांकि लंबी बातचीत के बाद जिस प्रस्ताव को NSCN में जमा किया गया, उसे कभी सार्वजनिक नहीं किया गया।

ढांचागत समझौता 

1976 बैच के एक पुलिस अधिकारी रविंद्र नारायण रवि को 2012 में इंटेलीजेंस ब्यूरो का स्पेशल डॉयरेक्टर नियुक्त किया गया। वह 2014 से ज्वाइंट इंटेलीजेंस कमेटी के चेयरमैन थे। उन्हें 5 अक्टूबर, 2018 को डेप्यूटी नेशनल सिक्योरिटी एडवाइज़र बनाया गया। फिर जुलाई, 2019 में नागालैंड के राज्यपाल पद पर उनकी नियुक्ति की गई।

रविंद्र नारायण रवि को ही 3 अगस्त, 2015 को हुए ढांचागत समझौते का श्रेय दिया जाता है। समझौते के शब्दों की स्पष्टता पर विवाद है। NSCN जिस "मूल समझौते" की बात करता है, उसे नीचे पेश किया गया है:

भारत सरकार और NSCN के बीच ढांचागत समझौता

1) राजनीतिक विवाद 6 दशक पुराना है। भारत सरकार और नागा लोगों के प्रतिनिधियों के बीच समय-समय पर बातचीत के ज़रिए इसका हल निकालने की कोशिश की गई है। इस दिशा में भारत सरकार और NSCN के बीच 1997 से एक नई राजनीतिक बातचीत की शुरुआत हुई।

2) भारत सरकार और NSCN की बातचीत से आपसी समझ बेहतर हुई। भारत सरकार ने जहां अपनी समझ की अभिव्यक्ति के लिए नागाओं के अनोखे इतिहास और स्थिति को मान्यता दी है, वहीं NSCN ने भी भारतीय व्यवस्था की जटिलताओं को समझा और सराहा है।

3) इस तरह की समझ और तत्कालीन वास्तविकताओं के साथ-साथ बेहतर भविष्य की आकांक्षाओं के साथ, दोनों पक्षों ने एक समझौते पर पहुंचने के लिए सहमति दी है, जिससे हिंसात्मक टकराव हमेशा के लिए बंद हो जाएगा और नागा लोगों की बुद्धिमत्ता से समग्र विकास की ओर कदम बढ़ेंगे। 

4) दोनो पक्षों ने एक दूसरे की स्थिति को समझा है और उस सर्वव्यापी सिद्धांत को माना है कि लोकतंत्र में संप्रभुता लोगों में निहित होती है। भारत सरकार और NSCN 3 अगस्त, 2015 को संप्रभु शक्ति को साझा करने की लोगों की मंशा के चलते, एक समझौते पर पर पहुंचे हैं, जो एक सम्मानजनक समाधान है। दोनों ने माना है कि इस समाधान के ज़रिए दो संस्थानों के बीच आपस में एक नया शांतिपूर्ण सहअस्तित्व का रिश्ता बनने का रास्ता बनेगा।

5) दोनों पक्षों ने इस बात पर सहमति जताई है कि समझौते के तहत विस्तृत कार्यक्रम बनाया जाएगा, जो जल्द ही लागू किया जाएगा।

हस्ताक्षरकर्ता: ईसाक स्वू, चेयरमैन NSCN, Th मुईवा, जनरल सेक्रेटरी, NSCN, RN रवि, भारत सरकार के प्रतिनिधि।

इस समझौते पर हस्ताक्षर करने के कुछ दिन बाद ईसाक स्वू का निधन हो गया।

 

विकास और खुशहाली के लिए भविष्य की दृष्टि

यहां समस्या की जड़ है- फिजो के राष्ट्र की अवधारणा, जिसमें कोई वर्ग नहीं, वह नस्ल और परंपरा पर आधारित थी। लेकिन 21 वीं सदी के बदले हुए समय में उसका बहुत कम मतलब रह जाता है। नागा समाज आज किसी दूसरे समाज की ही तरह कई वर्गों में बंटा हुआ है। बड़े स्तर पर बेरोज़गार नागा युवाओं का देश-विदेश में हो रहा प्रवास इस बढ़ते वर्गभेद को बताता है, इस प्रवास ने कई नागाओं को प्रवासी कामग़ारों में बदल दिया है, जबकि कुछ लोग संपन्न मध्यवर्गीय जीवन बिता रहे हैं। 

नागा परंपराएं बहुत गहराई तक पितृसत्तात्मक हैं, महिलाओं को सार्वजनिक संस्थानों में प्रतिनिधित्व से रोका गया है, इसके लिए तर्क दिया जाता है कि ऐसा करना परंपराओं के खिलाफ है।

NSCN के राष्ट्र की अवधारणा धर्म पर आधारित है, उनका नारा है- नागालैंड ईसाईयों के लिए। इस तरह उनका राष्ट्र एक तानाशाही बनकर रह जाएगा। उनमें बाहरी लोगों के लिए बहुत कम सहनशक्ति है, वहीं कैथोलिक जैसे अल्पसंख्यकों को भी दिक्कतों का सामना करना पड़ा है, उन्हें अपने मृत लोगों के शव तक दफनाने की अनुमति नहीं है।

नागा बुद्धिजीवी कई मुद्दों पर NSCN की आलोचना करते हैं, लेकिन उन्होंने खुद भी ज़्यादा समावेशी नागा समाज के लिए कोई वैकल्पिक दृष्टि नहीं दी है। उन्होंने अब तक औपनिवेशकि विद्वानों की कोई आलोचना पेश नहीं की है, इन विद्वानों के काम को उन्होंने अपने समाज के अध्ययन में बिना आलोचना के शामिल कर लिया है।

धर्म के प्रति उनका कट्टरपंथी रवैया उन्हें अमेरिका और पश्चिम के साथ मित्र बनाता है। इसलिए NSCN में सोशलिस्ट शब्द का कोई मतलब नहीं रह जाता है।

मानवाधिकार आंदोलनों ने भी किसी भी तरह के राजनीतिक विमर्श को अवैधानिक बनाने का काम किया है और नागा राष्ट्रीय सवाल को सिर्फ मानवाधिकारों तक सीमित कर दिया है। मानवाधिकार और दूसरे नागरिक समूह विदेशी पूंजी पर ज़्यादा निर्भर हो चुके हैं, वो कभी इस निवेश की राजनीति या विदेशी एजेंसियों के एजेंडे पर सवाल नहीं उठाते।

राजनीतिक दल जिसमें नागा राष्ट्रवादियों द्वारा समर्थित पार्टियां भी हैं, उन्होंने अपने संकीर्ण राजनीतिक हितों के लिए काम किया है। इन पार्टियों ने नागा लोगों के लिए किसी भी तरह के दृष्टिकोण को आगे नहीं बढाया है। इन दलों के आम लोगों से व्यवहार में राजनीतिक कल्पनाशीलता और नैतिकता की बहुत कमी है।

इसलिए नागा राष्ट्रवादी आंदोलन महज़ पहचान आधारित आंदोलन बनकर रह गया है, जिसके पास नागा लोगों के विकास कार्यक्रम से जुड़ा भविष्य का कोई दृष्टिकोण नहीं है। इन आम लोगों ने प्रताड़ना रहित और स्वाभिमानी समाज में रहने की आश में काफ़ी बलिदान दिया है।

जहां तक भारतीय लोगों की बात है तो उन्होंने इंडो-नागा शांति प्रक्रिया में ही बहुत कम दिलचस्पी ली है और ना ही इसमें पारदर्शिता की कमी पर कोई सवाल उठाए हैं। मीडिया ने असली मुद्दा बताया ही नहीं है और अकसर इंटेलीजेंस एजेंसियों द्वारा दिए गए हैंडआउट्स पर अपनी स्टोरीज़ की हैं। मीडिया को यह गलतफहमी है कि यह एजेंसियां वहां भारतीय हितों का प्रतिनिधित्व करती हैं। आखिर में इंडो-नागा बातचीत की असफलता का बुरा असर जितना नागा लोगों पर पड़ेगा, उतना ही शेष भारतीय हितों पर भी पड़ेगा।

नागा लोगों का एक बड़ा हिस्सा बिना पानी-बिजली की नियमित आपूर्ति के रहता है, कई के पास अपने बच्चों की शिक्षा के लिए पैसा नहीं है, ज़्यादातर नागाओं के पास स्वास्थ्य सुविधाओं और रहवास तक पहुंच नहीं है, महामारी के बाद कई लोग सिर्फ़ अपने और अपने बच्चों के स्याह भविष्य की तरफ ताक रहे हैं।  दरअसल इंडो-नागा शांतिवार्ता में इन्हीं लोगों का भविष्य मूल में होना था, लेकिन ऐसा कभी नहीं हुआ।

लेखिका मानवाधिकार वकील, शिक्षिका और कैंपेनर हैं। यह उनके निजी विचार हैं।

इस लेख को मूल अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें।

Why the Indo-Naga Peace Process Is Dead

NSCN
Indo Naga Peace Talks
Naga Framework Agreement
International Factors in Naga Peace Talks
Muivah
Nagaland Independence Struggle
R N Ravi
Naga Ceasefire
Runsung Suisa
Greater Nagalim
Michael van Walt van Praag

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CC BY-NC-ND This work is licensed under a Creative Commons Attribution-NonCommercial-NoDerivatives 4.0 International License